कहानी: वो अजीब मुलाक़ातें
दो वर्ष पहले इस महानगर में हम दोनों एक-दूसरे से अजनबी थे. मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि इतना आसान होगा किसी विपरीत लिंग से इस तरह मिलना. दिल्ली में बीकानेर हाउस पर वोल्वो बस से उतरते वक़्त अगर बैगेज की अदला-बदली नहीं होती तो आयशा से मिलने की कैसे सोच सकता था. मेरे बैगेज पर 9 लिखा था उसके बैगेज पर 6 लिखा था. कन्डक्टर ने चॉक से लिखकर बैग इस तरह उल्टा रखा था कि कोई भी जल्दी में कोई-सा एक लेकर जा सकता था. ये तो ठीक रहा कि एक दिन की भाग-दौड़ के बाद हम दोनों को अपने-अपने बैगेज मिल गए, मगर इस एक्सचेंज ने हम दोनों को मिला दिया. दोनों में बहुत रोमांच भर गया था.
व्हाट्सऐप पर हाय, हैलो, हाऊ–डू-यू-डू, मिलेंगे कभी स्टारबक्स या मैक्डी में जैसे मैसेजेस और फ़ोटो एक्सचेंज आदि से जान-पहचान गहराने लगी. ये मित्रता फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम तक आते-आते जवान हो गई. एकांत में अंगड़ाइयां लेने लगी, मिलने की सोचने मात्र से शर्माना शुरू कर दिया, कंपकंपी-सी आने लगी. फ़ायदा यह रहा कि हम दोनों एक ही शहर के थे और आपसी मेल-मिलाप हो सकता था. एक बार अचानक रवींद्र भवन में हम दोनों का आमना-सामना हो गया.
‘‘हाय, आयशा, इज़ दिस यू वॉचिंग पेंटिंग्स?’’ मेरे प्रश्न पर उसने पलटकर देखा और पहचाना,‘‘जी, प्रत्यूष जी,’’ जवाब देकर वह पल्टी, जहां उसकी चार सहेलियां साथ में थीं. उसे उचित नहीं लगा कि वो उन सब से मेरा परिचय कराए फिर भी उसने कहा,‘‘हम सब वर्किंग वुमन हैं. यूनिवर्सिटी के पास अपार्टमेंट्स में रहते हैं. पेंटिंग कैसी लगी आपको? मेरी परिचित गर्ल्स-आर्टिस्ट्स ने ये एग्ज़िबिट की हैं. पुट सम कंमेंट्स ऑन विज़िटर्स डायरी.’’
‘‘आप जैसी आर्ट लवर्स हों तो शिष्याएं तो बढ़िया होंगी ही, क्या दो राय होगी?’’ मैं उसके नज़दीक आया और उसके चेहरे की ओर ध्यान से देखा जो काफ़ी परिपक्व लग रहा था. क्षण भर के लिए मेरी नज़र उसके लिबास पर गई तो अजीब-सा लगा. उम्र के साथ उसका पहनावा आज के इस दौर में साधारण और पुराने ट्रेंड का लगा.
वही बड़े पाऊंचे की सलवार, लंबा कुर्ता, और उस पर सतरंगी चुन्नी. जॉगर्स शूज़. कंधे पर लटकता हरे रंग का लेडीज़ पर्स. ओवल-शेप चेहरे पर बड़ी-बड़ी आंखें, डिज़ाइनर आइ ब्रो, और कंधे और पीठ पर लहराते खुले, कुछ-कुछ सफ़ेद बालों की लटें. मैं सोच ही रहा था कि आयशा की सहेलियों ने भी मुझ पर सरसरी नज़र दौड़ाई. औसत कद के आदमी को सूट और टाई में देखकर वो शायद सोच रही होंगी कि मैं किसी कॉर्पोरेट में या सरकार विभाग में अधिकारी हो सकता हूं. एग्ज़िबिशन के सभी पोर्ट्रेट पर नज़र डालने के बाद अनजान बने हुए हम लौट रहे थे, उसकी सहेलियों की निगाह से बचते हुए मैंने आयशा के कान के पास जाकर प्रस्ताव रखा,‘‘कभी मिलिए, साथ काफ़ी पिएंगे?’’
‘‘क्यों, क्या होगा उससे?’’ प्रतिप्रश्न था जिसका मेरे पास एक सरल जवाब था,‘‘आप मुझसे मिलना चाहती हैं अगर तो, अच्छा समय साथ गुज़ारने के लिए, और क्या?’’ उसे पसंद आया प्रस्ताव.
अगले वीकएंड हम कॉफ़ी पर मिले, उसके कुछ दिनों बाद लंच पर. उस दौरान हमने ऐसे ग्रामीण इलाक़ों में सुबह 8 से रात 8 बजे के लॉन्ग ड्राइव डेट पर जाने का फ़ैसला किया, जहां रबी की फसल लहलहा रही हो. गेहूं की फसल के बीच में पीली सरसों खिली हो. सड़कों पर सन्नाटा-सा पसरा रहता हो. उसने सुझाया था कि किसी भी रोड-साइड रेस्तरां या ड्राइव-इन होटल में चलेंगे. गुजराती ढोकला-बाटी खाने.
डेट के दिन वह उबर कर रवींद्र भवन इसलिए आई ताकि उसकी फ्रेंड्स को यह लगे कि वो अपनी इलेक्ट्रॉनिक कम्पनी ही जा रही है, किसी सीनियर के साथ. सीढ़ियों से उतरते वक़्त मेरी नज़र उस पर टिकी थी. आज उसने गहरे नीले-गुलाबी रंग का पंजाबी पटियाला सूट पहना हुआ था, उस पर सतरंगी दुपट्टा. बालों को बांधकर पोनीटेल बना हुई थी. भारी-सा पुराना हैंड बैग कलाई में फंसा था.
कार में बैठते ही उसने नमस्ते बोला. मेरे हाय, हैलो पर उसका ध्यान नहीं गया. ना ही उसने मुझ से आंखें चार कीं. कार शहर से निकलकर हाइवे पर आते ही उसने बोलना शुरू किया. मैं उसकी तरफ़ देखकर उसे सुनूं या ड्राइव करूं. फिर भी सिर हिलाता रहा और उसने अपना बोलना जारी रखा.
‘‘मैं किसी को अपने निजी जीवन के बारे में व्यर्थ सोचने का मौक़ा देना नहीं चाहती. पहले बता दूं आपको भी. ये आपकी मेरी कोई ‘डेट’ जैसा कुछ नहीं है, जैसा कि आज के समय के यंग लव-बर्ड्स करते हैं. हां, ये ज़रूर है कि मुझे आउटिंग, वो भी कार में, हाइवे पर, खेतों के बीच जाना बहुत पसंद है. आप पर विश्वास जगा तो सोचा चलती हूं. मैं प्लूटोनिक रिलेशन्स में रुचि रखती हूं, और आप? सुनिए कोई 15 किलोमीटर पर दाएं हाथ पर मेरी कम्पनी है... मैं वहीं एचआर हूं... साथ में यूनिवर्सिटी में गेस्ट फ़ैकल्टी हूं. मुझे कुछ काम याद आ गया, वहां रोक सकोगे तो मुझे अच्छा लगेगा. लौटते में फ़ेमस चाचा ढाबे पर लंच करेंगे. बाद में मिडवे पर ईवनिंग टी लेंगे. आई होप, यू लाइक दिस शेड्यूल?’’ बोलते-बोलते भी वह खेतों और फसल को निहार रही थी.
मैं क्या कहता उसे जो मेरे साथ ‘कथित डेट’ पर थी और उसे ज़रा-सा भी अप्रिय कहना या उसकी बात न मानना पूरे दिनभर का मूड ख़राब करना होता. उसकी बड़ी-सी कम्पनी की पार्किंग में मैं कार में बैठा उसके लौटने की प्रतीक्षा ही कर सकता था. गार्ड्स ने कई बार आकर देखा कि ये सूट-बूट वाला शॉफ़र कैसा है, जो मैडम आयशा को लाया है. यूं उसने मेरे लिए कॉफ़ी और स्नैक्स भिजवाए थे, अंदर से, एक सफ़ेद कमीज पर टाई जड़े युवक के हाथ, जिसने ये और कहा,‘‘उन्हें आने में हाफ़-एन-आवर लगेगा, आप चाहें तो रेसेप्शन में बैठकर टीवी पर क्रिकेट मैच देख सकते हैं.’’ मैंने उसे स्माइल दी,‘‘नो इशू.’’ मुझे खटास नहीं लानी थी, परंतु वह थी जो बार-बार हर्ट कर रही थी.
वह बाहर आई तो उसके साथ एक सज्जन भी थे, सोचा बाहर तक छोड़ने आए होंगे, परंतु वो तो कबाब में हड्डी निकले, जब आयशा ने मेरा परिचय देते हुए कहा,‘‘आप सचिवालय में मेडिकल सेक्रेटरी हैं... आईएएस कैडर में हैं... गुड फ्रेंड इनडीड... और ये मेरे सीनियर ऑफ़िस कलीग सुकेत... इन्हें बाइपास के एन्ड पर ड्रॉप करना है... आपको बुरा तो नहीं लग रहा... प्रत्यूष. ये आगे की सीट पर बैठ लेंगे... पिछली सीट पर बैठकर मैं आपको रियर मिरर से देखती रहूंगी... इज़ दिस ओके?’’
शाम ढले, जब सुकेत को बाइपास पर ड्रॉप किया तो आयशा ने कार से उतरकर उससे बात की और ऐसा लगा जैसे दोनों ने अंधेरे में एक-दूसरे को हग किया और मैंने उसे जब यूनिवर्सिटी कैम्पस के नज़दीक अपार्टमेंट से दूर ड्रॉप किया तो उसने कार का दरवाज़ा बंद करने से पहले हाथ का पंजा लहराया,‘‘आप बहुत अच्छे हैं... गुड नाइट... बाय-बाय!’’
इस तरह की डेट के बाद मैंने अपने मोबाइल पर उसकी कॉल डिसअलाउ कर दी. दोस्ती की संभावना तलाशना एक मरीचिका में आंसू की बूंद ढूंढ़ना साबित हो रही थी. मुझे लगा उमर के इस दौर में जब बाल सफ़ेद ज़्यादा हो गए हैं और मूंछ को भी अपनी गिरफ़्त में ले रहे हों तो महिला दोस्ती की उम्मीद रेगिस्तान में बालू को हाथ में दबाकर रखने से भी मुश्क़िल है. मन-ही-मन तय कर लिया कि मैं अब उसे दोबारा कॉल नहीं करूंगा.
हफ़्तों बाद ऑफ़िस के पीए ने मेरे चेम्बर में आकर चौंका दिया,‘‘सर एक आयशा नाम की विज़िटर आपसे मिलने के लिए लंच से बाहर बैठी है... क्या काम है, वो नहीं बता रही... उसे अंदर भेज दूं क्या?’’ फ़ाइलों को कुछ देर टटोलने का बहाना कर मैंने उसे पांच बजे बाद अंदर बुलवा लिया,‘‘हाय, आयशा, क्या हुआ... कॉल कर लेतीं... एसएमएस-व्हाट्सऐप कर देतीं!’’
‘‘लगता है आप उस दिन की आउटिंग से नाराज़ हैं तभी मेरी कोई कॉल आपसे कनेक्ट नहीं हो रही है... इसलिए सीधे आ गई. बैठने को नहीं कहेंगे? मैं क्या करती सुकेत के पास घर लौटने का कोई विकल्प नहीं था. आपके पास एक काम से आई हूं. मेरी मम्मी मेडिकल विभाग में हैं, ट्रांस्फ़र की वजह से उनकी पेमेंट-एरियर-पीएफ़ फ़ाइल कहीं अटकी हुई है. ये रहा उसका कवर नोट... आप मदद कर देंगे ना?’’ कहते ही उसने टेबल की साइड में आकर वो लेटर मुझे दिया, और हैंड शेक के लिए अपना हाथ बढ़ा दिया,‘‘फिर कब आऊं इस काम के लिए?’’
मैं निरुत्तर बैठा उसका दिया लेटर पीएस को मार्क कर दिया,‘‘दिखवाते हैं.... बता दूंगा बाद में आप को... क्या लेंगी लेमन-टी या ब्लैक कॉफ़ी?’’
जब तक कॉफ़ी पीते रहे, तब तक वो अपनी दास्तां सुनाती रही कि उसके मम्मी-डैडी का सेपरेशन हो गया था, जब उसने यूनिवर्सिटी में ग्रैजुएशन के लिए ऐडमिशन लिया था. मम्मी कभी उसके इस भाई के साथ, तो कभी दूसरे के साथ रहती है. रिटायरमेंट अगले साल है. बार-बार वह मम्मी के मैटर पर मुझसे याचना करती रही. जब मैं सिर्फ़ सुनता ही रहा तो निमंत्रण देती हुई पूछने लगी,‘‘हम अब फिर कब मिलेंगे... अपने घर बुलाती हूं आपको... होली पर... मेरी फ्रेंड्स घर जाएंगी... तब आप आ सकेंगे क्या?’’ मैंने चुप्पी रखी तो वो समझ गई और कहा,‘‘आप चिंता मत करिए इस बार सुकेत नहीं आएंगे!’’
आयशा के जाने के बाद मुझे लगा कि वो जाते-जाते वो लालच दे गई ताकि मैं उसकी कॉल को मोबाइल पर अलाउ कर दूं. और उसकी मम्मी की फ़ाइल जल्दी क्लियर करवा दूं. इसी बीच मेरी मां मेरे पास रहने आ गई. वही शादी का प्रस्ताव लेकर कि मुझे अब और इंतज़ार नहीं करना चाहिए और दूसरी शादी को ‘हां’ कर देना चाहिए. उनके अनुसार बिपाशा को गए पांच साल हो रहे थे. बिपाशा की कार दुर्घटना में मृत्यु हुई थी और मैं और मां जैसे तैसे दो माह हॉस्पिटल में ट्रीटमेंट के बाद बच गए थे.
होली की सरकारी छुट्टियों से एक दिन पहले ऑफ़िस के लैंड लाइन पर आयशा की आवाज़ गूंज गई,‘‘हाय, प्रत्यूषजी.... मैं तीन दिन अकेली हूं... आप बिज़ी लगते हो... अपना सेल देखिए मैंने अपना ऐड्रेस व्हाट्सऐप किया है... समय निकालकर आइए... लंच साथ करेंगे या डिनर... प्लीज़ मेक इट पॉसिबल?’’
मां के जाने के बाद मैं तय समय और निर्देशानुसार बिना बेल दबाए उसके फ़्लैट में नॉक करके प्रविष्ट हुआ तो उसने ज़ोरदार स्वागत किया और हाथ मिलाने के बाद मेरे कंधे से अपना कंधा ऐसे मिलाया, जैसे वह हग कर ही लेगी. सामान्य-सी दिखने वाली आयशा आज बहुत मॉर्डन लग रही थी. उसने तड़कते रंग की घुटने तक की सिल्क की स्कर्ट पहनी थी उस पर बिना बाजू और लो बैक-कट की कुर्ती पहने हुए थी, जिसमें से उभार अपना आकार लिए हुए थे. डाइनिंग टेबल के पास बार-नुमा तीन लंबी चेयर्स और दीवार में जड़ा एक काले रंग का ग्रेनाइट का स्लैब था. उसके ऊपर शेल्फ़ में कॉफ़ी, बीयर, लिकर और फ्रूट-फूड के ग्लासवेयर सजे थे. मैं कुछ और निहारता उसने पीछे से आकर मेरे कंधे पर हाथ रख मुझे कहा,‘‘हेल्प योर सेल्फ़... आप बीयर-व्हिस्की-वाइन जो भी लेना चाहें ज़रूर लीजिए. मैं पैक बना दूं? आज मेरे पड़ोस में रहनेवाली दो वर्किंग गर्ल्स और मिसेज मेहंदिरत्ता सभी दिल्ली गई हैं. वो क्या है हम चारों एक दूसरे के फ़्लैट्स में जाकर रह लेते हैं ताकि बोरियत न हो. हम ख़ूब एन्जॉय करते हैं, हमें किसी की कमी महसूस नहीं होती, अब आप मिले हैं तो सोचना पड़ेगा.’’
‘‘क्या सोचना पड़ेगा? मेरा मतलब... आज सिर्फ़ लंच लेंगे. उसके बाद बैठकर नेटफ़्लिक्स पर मूवी देखेंगे... मुझे जल्दी जाना होगा, एक मीटिंग है सीएमएचओज़ के साथ.’’
‘‘मैं ऐसे नहीं जाने देनेवाली आपको... चलिए रोटियां गर्म हैं... पहले खाना खाया जाए,’’ कहती हुई वो मेरे बगल में ही बैठ गई और उसने भरपेट भोजन कराया. बोली आइस क्रीम और स्वीट्स बाद में लेंगे... चलिए मूवी देखते हैं. कॉउच पर वो मेरे पास आकर बैठी मगर फ़ासला रखा. मैं टीवी स्क्रीन पर मूवी छांटता रहा और वह अपनी बात बताने लगी,‘‘मम्मी-पापा के बारे में बताया ही था कि उनकी नहीं बनती थी. दोनों अपने-अपने जॉब, एसेट्स और स्टेटस के कारण लड़ते थे. इसीलिए उनके लीगल सेपरेशन के बाद मैं कभी मम्मी के साथ, तो कभी भाइयों-बहनों से मिलने और उनके साथ रहने भी जाती हूं. मैंने और मॉम ने बहुत कठिनाइयों में सबका भरण पोषण किया. परिवार की ख़ुशी के लिए मैं लगी रही, मुझे छोड़कर सब अब अपनी गृहस्थी बनाने में लगे रहे. मुझे कई अवसर पर तिरस्कृत होना पड़ा. अपमानित होने के डर से और स्वाभिमान ऊंचा रखने के लिए मैं राजधानी में अपनी वर्किंग फ्रेंड्स के साथ आराम से रहती हूं. पंद्रह साल की सर्विस में मैंने जो जमा किया और पैतृक शहर में जो एक बड़ा मकान है उस पर भाइयों की नज़र लगी रहती है.’’ भावुक होते-होते सोफ़े पर पसर कर उसने सिर मेरी थाइस पर रख दिया. मैं संभला तो वह तपाक से बोली,‘‘सॉरी, आपको ठीक नहीं लग रहा तो मैं उठ जाती हूं... बी कंफ़र्टेबल विद मी...’’ वह उठी नहीं बल्कि मैं जब उठने को हुआ तो उसने कटाक्ष किया,‘‘आप भी मेरा साथ नहीं देंगे... सभी पुरुष एक जैसे होते हैं... उन्हें लगता है कि मैं और मेरी फ्रेंड्स बेड भी शेयर कर लेते हैं...’’
मैं टीवी ऑन करने उठ रहा था,‘‘ओह नो,’’ कहकर मैं फिर धंस गया मुलायम काउच में तो वो और सरककर मेरी गोद में आ गई. उसके मुलायम शरीर के अवयव एक उन्माद देने लगे थे. अपनी खुली ज़ुल्फ़ों को बांधकर, मेरी आंखों में आंख डालकर बोल बैठी,‘‘आपको बुरा लग रहा हो तो चलो कार्ड्स खेलते हैं. आप बताइए, आपने शादी क्यों नहीं की अब तक?’’ मुझे अजीब लगा, फिर भी बता दिया,‘‘शादी के एक माह में वो कार ऐक्सिडेंट में बिपाशा हमारे परिवार को छोड़ गई पांच साल पहले... उस घटना में मैं और मां बाल-बाल बच गए.’’
‘‘आईएम रीयली सॉरी... ये तो बहुत दुखभरी बात है... प्लीज़ एक्सक्यूज़ मी...’’ कहकर उसने मेरी पीठ और कंधे को अपने मुलायम हाथ से सहलाना शुरू किया और बाद में मेरे माथे और चेहरे को संभाला,‘‘बहुत याद आती है बिपाशाजी की... मैं महसूस करती हूं विरह की पीड़ा...’’ और वो मेरे वहां से खड़े होने पर, स्वयं खड़े होकर मेरे सामने आकर मुझे बांहों में भर लिया,‘‘प्रत्युष... बी ईज़ी.’’
एक पराई स्त्री का एहसास होते ही मैं उससे दूर हो काउच के दूसरे सिरे पर बैठ गया. अपनी भावुकता को नियंत्रित कर मैंने उसे डिज़र्ट और आइस क्रीम की याद दिलाई. बाद में उसे बाय करने के लिए उठा तो उसने अपने दोनों हाथ फैला दिए... ‘‘लेट्स चीयर्स ऐंड हग ओवर अवर स्वीट मीटिंग.’’ चलते वक़्त उसने ये ज़रूर याद दिलाया,‘‘मेरी मॉम की फ़ाइल कहां पहुंची... मूवमेंट तो है ना?’’
होली की छुट्टी के दूसरे दिन भी उसका मैसेज था,‘‘डिनर पर इंतज़ार रहेगा, सरजी.’’ तीसरे दिन भी मैसेज था,‘‘आउटिंग पर चलोगे? बाद में मेरी मॉम आ रही हैं, उनसे मिलोगे? ऑफ़िस आ जाऊं उन्हें लेकर?’’ नज़दीकियां तो बढ़ रही थीं, मगर शायद फ़ाइल के दबाव में या किसी अपरिचत कारण से. होली निकली तो गर्मी ने दस्तक दी. आयशा फिर घिर गई अपनी वर्किंग वुमन्स के साथ. इस बीच उसने मेरा पूरा रिज़्यूमे पढ़ लिया और एक अप्रैल को उसके मैसेज ने चौंका दिया,‘‘आज मैं फ्री हूं... मुझे पिकअप करते जाना... जब ऑफ़िस से फ्री हो जाओ... किसी भी समय...’’
बचने का विकल्प ढूंढ़ता उससे पहले एक मैसज कर दिया कि वह मेरे ऑफ़िस के पास वाले शिक्षा निदेशालय में मेरा इंतज़ार कर लेगी. बहुत अधिकारपूर्वक वह कार की बराबर वाली सीट पर बैठी और आदेश दिया,‘‘संत बेकरी चलो... तुम्हारे लिए बर्थडे केक लेना है... फिर तुम्हारे घर चलेंगे... रात में मूवी देखेंगे.’’ मैंने उसे जब बताया कि मेरी मां और बहन के बच्चे देर शाम आ रहे हैं तो वह सकपका गई, बोली,‘‘तो केक टेरेस रेस्तरां लेकर चलते हैं, वहां जल्दी-जल्दी सेलिब्रेट कर तुम्हें फ्री कर दूंगी.’’ वही हुआ जो आयशा चाह रही थी मगर उसने एक बात बहुत अप्रत्याशित ढंग से कह डाली,‘‘अपनी मां से मेरी बात कर सकते हो! आओ इधर मेरे क़रीब तुम्हें विश्वास दिला दूं.’’
और उसने बिना मेरे जवाब का इंतज़ार किए मुझे अपनी बांहों में बांध लिया और गाल पर एक किस कर दिया ये कह कर कि ये ‘बर्थ डे गिफ़्ट’ है. टेरेस रेस्तरां का स्टाफ़ इधर-उधर था. मां को मैंने कुछ भी बताना उचित नहीं समझा क्योंकि क्षणिक भावावेश या उन्माद में लिए गए निर्णय बहुत सफल नहीं होते. मेरी और उसकी फिर व्यस्तता हो गई.
कई दिन निकल गए. आयशा के अपनी मॉम की फ़ाइल या उनका अन्य ज़िले में ट्रांस्फ़र न हो जाए के संबंध के मैसेज आते रहे. फ़ाइल सचिवालय में फ़ाइनेंस और मेडिकल विभाग में थी. मैं उसे बता चुका था कि एक सीनियर कर्मचारी को पीछे लगा रखा है, जल्द हो जाएगी, पोस्टिंग न हो जाए उस पर पूरा ध्यान है. वैसे ट्रांस्फ़र का फ़ुल-पावर मंत्रीजी के पास है. उसके बार-बार आग्रह पर कि वो मेरा सरकारी बंगला देखना चाहती है, तो एक शाम वो स्वयं उबर टैक्सी कर आ गई.
“अपनी मां से मेरे बारे में बात की थी क्या?’’ एक पंक्ति का प्रश्न था, मगर बहुत गंभीर था. चाय का कप उठाया तो वो पास की चेयर पर बैठी, मेरे कंधे पर हाथ टिकाकर बोली,‘‘डर गए क्या? आपकी मां ज़ोर दे रही थीं और आप बोल देते. चलिए मैं अच्छी नहीं लगी आप को... शायद मेरी सूरत मोहक नहीं... उम्र ज़्यादा है.’’
‘‘ऐसा नहीं है जैसा आयशा आप सोच रही हैं. मैं बाद में उनसे इस विषय पर बात करता हूं.’’
‘‘चलो एक काम करते हैं, जब तक मैं आपको, आपके परिवार को अच्छी नहीं लगती, तब तक अपन एक-दूसरे से मिलते रहेंगे, साथ भी रह सकते है... लिव इन रिलेशन्स में... कोई ज़िम्मेदारी नहीं... अपनी-अपनी नौकरी, अपना-अपना घर... कभी मैं इधर तो कभी तुम उधर. चलेगा ना?’’ उसने बहुत संजीदगी से कहा.
स्त्री-पुरुष के संबंध के घोड़े जिस रफ़्तार को पकड़ते हैं उसको कोई चाबुक नहीं रोक सकती. शुरू में ऐसा ही था मगर सीमा में था. मैं उससे कहना चाह रहा था,‘तुम जब चाहती हो मुझ से प्यार जताती हो, मगर फिर मुझे रोक देती हो. ‘स्टॉप हियर, डोंट टच फ़र्दर’, ‘बता दूंगी जल्दी क्या है?’ हर बार यही जवाब होता जो तुम मुस्करा कर देती हो.’ मेरे सरकारी बंगले पर वो नियमित मिलने आ सकती थी, परंतु सरकारी नौकर और सुरक्षा व्यवस्था को मैं ये सब कैसे समझाता. दूसरी तरफ़ जब उसे कॉल करो तो नो रेस्पॉन्स. व्हाट्सऐप पर मैसेज करो तो वो दिनभर नहीं देखती और अगले रोज़ रिप्लाई करती,‘कोई नई बात? क्या हुआ? चलो इस वीकएंड मिलेंगे... कॉफ़ी पिएंगे, स्टारबक्स में.’
कभी मिलने की इच्छा व्यक्त करो वो भी मैसेज पर तो दो दिन बाद जवाब आता,‘बिज़ी हूं... वर्किंग फ्रेंड्स के साथ हूं... बेड रूम में या शॉवर के नीचे... कैसे बात करूं?’ वो कभी अपनी कंपनी के फ़ोन पर कनेक्ट भी हो जाए तो रटा रटाया जवाब,‘इन मीटिंग विद बॉस सुकेत... शाम को कॉल करती हूं.’ वो शाम नहीं आती. मुझसे बड़ी ग़लती ये हो गई कि मैंने अपनी मां से आयशा का ज़िक्र किया तो वो बहुत ख़ुश हुईं ये कहकर,‘‘तुम्हारा घर बस जाए, तुम्हारी अपनी पसंद से और क्या चाहिए मुझे?’’ अब क्या जवाब दूं मां को? जब मैंने आयशा को इस बारे में संकेत दिया तो उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, बल्कि ये पूछा कि आज शाम मिल सकते हो क्या? उसकी मॉम आई हुई हैं. मैंने शाम से पहले एक हैंगआउट पर उन्हें बुला लिया शाम की चाय पर.
आयशा, उसकी जैसी शक्ल, सिर पर सफ़ेद बालों में गुंथी और लहरिया साड़ी पहने उसकी मॉम आईं... वो भी सुकेत की कार में. चाय के प्याले में तूफ़ान आया मगर शांत रहा, जब उसकी मॉम ने कहा,“सेक्रेटरी साहब, आपकी मैं बहुत आभारी हूं मेरा केस क्लीयर कराने में... आयशा आपकी बहुत तारीफ़ करती है... आप जैसा सभ्य और ईमानदार अफ़सर नहीं मिलेगा.’’ प्रशंसा के बादल छंटे तो सुकेत ने कार की चाबी दर्शा दी हम सबको,‘‘मैं चलूं, आयशा या आप दोनों को ड्रॉप करना है?’’ इशारे में दुबारा शीघ्र मिलने का कहकर आयशा और उसकी मां भी निकल गए.
मैसेज, कॉल और मुलाक़ात की रफ़्तार फ़ोर जी नेटवर्क से गिरकर लैंड लाइन-फ़ोन पर आ टिकी थी. फ़ोन भी ग़फ़लत में उठ जाता था, वर्ना जानबूझकर कौन बात करे ये आयशा की सोच थी. गर्मी और लू अपने चरम पर थी. चुनावी साल आते ही सरकार के ट्रांस्फ़र से बैन हठाने की घोषणा करते ही आयशा का व्हाट्सऐप शुरू हुआ,‘‘कैसे हैं आप... मैं बहुत बिज़ी रही... आपने भी कॉल नहीं किया!’’ जब कोई जवाब नहीं गया और मैसेज को ‘अनरीड’ कर दिया तो लैंड लाइन पर उसकी कॉल पीए ने फ़ॉरवर्ड कर दी कि यह सोचकर कि साहब और मैडम में गहरी दोस्ती है.
‘‘मेरी वर्किंग वुमन फ्रेंड्स नहीं हैं... दिल्ली गई हैं... वीकएंड पर... घर आना है आपको... मैं बहुत अकेली महसूस कर रही हूं... डोंट मिस चांस, डियर.’’ उसने जवाब सुने बिना फ़ोन रख दिया. मैंने पीए को हिदायत दी कि कोई कॉल अब कनेक्ट न हो. रात में अचानक व्हाट्सऐप पर आयशा का मैसेज बीप कर गया.
‘बहुत बोर हो रही हूं... मैंने ड्रिंक भी किया है.’
‘घूमने जाओ, ख़ास दोस्तों से मिलो, फ़ोटोग्राफ़ी करो, लॉन्ग ड्राइव पर जाओ, मूवी देखो, राइटिंग करो...’
‘तुम जानते हो मेरा दोस्त यहां नहीं मेरे साथ... नाराज़ है इन दिनों.’
‘कौन है वो लकी मेन!’
‘यू नो बेटर...’
‘ये सुनकर मेरा दिल धक-धक कर रहा है, आयशा...’
‘मैं भी ऐसा ही महसूस कर रही हूं...’
‘जब मैं तुम्हारे शहर में हूं तब तुम ऑफ़िस के काम में बंधी रहती हो. अब दूर हूं तो मेरी ज़रूरत लगती है. बिल्कुल वैसे ही जैसे तुम से मिला था तुम्हारे घर पर जब कोई और नहीं था. गले लगी थीं तुम अचानक. बांहों में सिमट गई थीं. बहुत देर तक बाहुपाश में रहा था तुम्हारे गुदगुदे शरीर में... याद है ना?’
‘वो अब दुबारा नहीं होगा... नॉट एनी मोर, नॉट टू बी रिपीटेड... मर्द तो मतलबी होता है, मेरे साथ मेरी वुमन फ्रेंड्स हैं जिनके साथ मैं ख़ुश हूं. अवर नीड्स आर फ़ुल-फ़िल्ड.’
‘आर यू नॉट लिविंग लाइक लेसबियन... जवाब दो?’
‘कुछ भी सोचो, हम वुमन हमेशा साथ-साथ हैं. तुम हो, सुकेत हो, या कोई और... तुम जैसे सबसे दोस्ती करना मुझे आता है.’
‘पर मुझे गे मत बनाओ... गे का मतलब जानती हो न?’
‘पेट और शरीर की आग आप भी समझते हैं ना... आप चाहे जो नाम दें... आपकी मर्ज़ी... आप चाह रहे हैं कि मैं आपकी मां की बात मानूं... शादी रचाऊं... बच्चों को जन्म दूं... मेरी तमाम दौलत लेकर मर्द मुझसे भी सेपरेशन ले ले... नो वे... आय लव माय करियर... अगर आपको, जैसा आपने कहा कि गे, बनकर रहना है तो मोस्ट वेलकम इन अवर ग्रुप.’
‘तुमने ज़्यादा पी ली है... तुम सो जाओ... रात बहुत हो गई है.’
‘बिल्कुल नहीं, टीवी देख रही हूं, अपने फ्रेंड्स के साथ ‘बिताई रात’ पर सेल्फ़ी से बनाई मूवी देख रही हूं... तुम्हें देखना हो तो आ जाओ, अभी... या व्हाट्सऐप कर दूं... योर चॉइस आईएएस मिस्टर प्रत्युष राजपुरोहित.’
‘नो, आय डोंट वॉन्ट टू बी होमो. गुडनाइट, आयशा गुलाटी... हैव अ स्वीट ड्रीम...’
उसके बाद मैंने दोबारा उसे फ़ोन नहीं किया और न ही उसने मुझसे संपर्क करने की कोशिश की. पर आज भी आयशा और उससे हुई अजीब मुलाक़ातें मुझे परेशान कर जाती हैं.
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