कहानी: वह रात!

आज टीवी पर एक परिचर्चा में ऐंकर बार-बार कह रही थी,‘सिंगल मदर, नया ट्रेंड, नया चलन!’ क्या वाक़ई सिंगल मदर नया ट्रेंड है? मेरी मां भी तो सिंगल मदर थीं? क्या कुछ नहीं झेला उन्होंने? ना चाहते हुए भी मन मुझे पुरानी यादों की तरफ़ खींच ले गया. जब से होश संभाला है, मां को सदा परेशान ही देखा. कुछ पूछने पर रटा-रटाया जवाब दोहरातीं,‘‘बेटी तुम नहीं समझोगी...’’ मैं अक्सर सोचती काश पिताजी भी होते तो मां इतना परेशान न होतीं. पर जब कभी पिताजी के बारे में पूछती तो मां कह देतीं,‘‘वह अब इस दुनिया में नहीं हैं.’’ इसके आगे कुछ पूछने की गुंजाइश ही नहीं बचती. वक़्त के साथ-साथ मैं इतना तो समझ ही गई थी कि कोई तो बात है, जो मां छुपा रही हैं.

उस दिन हमारे घर में एक महात्मा आए थे. दादी दौड़-दौड़कर तैयारियों में लगी थीं. हर एक सदस्य दादी के आदेशों का पालन कर रहा था. महात्मा के घर में प्रवेश करते ही, उनका आशीर्वाद लेने की सभी लोगों में होड़-सी मच गई. पर मां बिल्कुल पीछे खड़ी रहीं. एकदम शांत. लेकिन उनकी आंखें उनके मन के तूफ़ान को बयां कर रही थीं. तभी दादी ने झिड़का,‘‘क्या खड़ी सोच रही है? आशीर्वाद नहीं लेगी महात्मा जी का?’’

बुझे हुए मन से मां आगे बढ़ीं, तभी एक बार दादी ने फिर झिड़ककर कहा,‘‘थाली तो ढंग से पकड़ो बहू!’’

कुछ अनमनी-सी मां ने हल्का-सा सिर झुकाया और आशीर्वाद लिए बिना आगे बढ़ गईं. रात के समय मैंने देखा, जब घर का हर सदस्य आधी नींद में था, तो मां धीरे से चौके का दरवाज़ा सरकाकर, सीधे महात्मा के कमरे में जा रही थीं. मैं भी उत्सुकतावश, चुपचाप मां के पीछे चल दी. महात्मा एक खाट पर लेटे हुए थे. उनको देखकर लग रहा था कि उनके दिमाग़ में भी कुछ उथल-पुथल मची हुई है. कमरे में मध्यम-सी रौशनी थी, जो कि किसी के भावों को पढ़ने के लिए शायद काफ़ी थी. दरवाज़े की आहट से महात्मा चौंके और उन्होंने दरवाज़े की तरफ़ देखा. दरवाज़ा अपनी पूर्ववत स्थिति में था. महात्मा ने कुछ समझा, कुछ नहीं. जैसे ही उनकी दृष्टि मां पर पड़ी, वह कुछ असमंजस में पड़ गए. एक अजीब-सी घबराहट उनके मुख से साफ़ झलक रही थी. 

महात्मा की घबराहट देखकर मेरी भी व्याकुलता बढ़ गई. आख़िर सारा माजरा है क्या? मां की आंखें सूजी हुई थीं. मां ने अचानक से महात्मा के पैर पकड़ लिए. महात्मा ने घबराते हुए पैर पीछे धकेले और बैठ गए. शायद उनको अपना पूरा अस्तित्व ख़तरे में दिखाई पड़ रहा था. वहीं दूसरी ओर सामने दीवार पर एक छिपकली दबे पांव कीड़े को झपटने वाली थी. बचते हुए कीड़ा, छिपकली की पकड़ में आने से पहले ही नीचे गिर पड़ता है. और दीवार घड़ी की टिक टिक के साथ, घड़ी का पेंडुलम इधर से उधर, उधर से इधर खेलने लगता है. आंसुओं से भीगा चेहरा और सूजी हुई आंखें लिए मां ऐसे ही बैठी रहीं. उनका चेहरा घड़ी के शीशे में साफ़ दिख रहा था और वह अपने भावों के प्रवाह को रोकने की नाकाम कोशिश कर रही थीं. पर उनके अंतरमन की पीड़ा विद्रोह कर रही थी. वह अंदर ही अंदर छटपटा रही थीं.

‘‘क्यों आए हो यहां?’’

महात्मा शायद कोई उत्तर नहीं देना चाहते थे. फिर भी बोले,‘‘क्या हुआ देवी?’’

‘‘देवी?’’ मां ने व्यंग्य भरा तंज कसा.

‘‘तुमको देवता बनना है, तो बनो. पर मुझे देवी मत कहो.’’

‘‘क्यों ऐसा क्या कह दिया मैंने?’’
‘‘मैं तुमको पहचान गई हूं. कब तक छुपाओगे ख़ुद को? डरो मत! किसी से नहीं कहूंगी. लेकिन तुम्हारे आने का कारण जानना चाहती हूं. इतने सालों बाद क्यों वापस आए? क्या ज़रूरत है वापस आने की? बड़ी मुश्क़िलों से जीवन नदी के ज्वार भाटा शांत हुए हैं, क्यों व्यर्थ ही इस शांत जल में कंकड़ फेंकने आए हो तुम? बताओ क्या चाहते हो?’’

‘‘पुष्पा...,’’ बेजान स्वर और उसमें अकुलाहट साफ़ दिख रही थी. ‘‘पुष्पा... ऐसा क्यों कह रही हो? माफ़ कर दो मुझे! मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया, मैं जानता हूं कि मैं दोषी हूं तुम्हारा. बस एक बार तुमको देखने की इच्छा जागृत हो उठी, तो चला आया.’’

एक ही सांस में सब कुछ कह गए थे वे.

‘‘कैसी हो?’’

‘‘ज़िंदा हूं! यही तो देखने आए हो ना? अभी तक सांसें चल रही हैं. मैं एक भारतीय नारी हूं, जिसके लिए उसका पति ही सब कुछ होता है. लेकिन वह बंधन तो तुम कब का तोड़ गए थे. मैं भी कब तक, उस झूठी मोह की चाशनी में फंसी रहती? वक़्त के साथ-साथ तो चाशनी भी सूख जाती है.’’

ओह!!! तो यह पिता हैं मेरे! पर मां ने मुझसे झूठ क्यों बोला? पूरा सिर चकराने लगा था.

‘‘मुझे अपने करे हुए पर बहुत पछतावा है. उसी पछतावे की वजह से मैं तुमसे मिलने चला आया.’’

‘‘तभी मैं तुमसे कह रही हूं, चले जाओ यहां से. वरना मेरी तपस्या नष्ट हो जाएगी.’’

‘‘तपस्या?’’

‘‘हां तपस्या! जाओ तुम अपनी राह जाओ. तिल-तिल जली हूं मैं. मेरी क़िस्मत में तो सिर्फ़ कर्तव्यों का बोझ ही लिखा है. आज मैं ही अपनी बच्ची की पिता हूं. मैं ही माता हूं.’’

‘‘बच्ची?’’

‘‘हां, बच्ची! जब तुम अचानक से चले गए थे, उस समय मैं तीन महीने की गर्भवती थी. जिस आग में जली हूं मैं... मैं ही जानती हूं. तुम्हारे जाने के बाद... मेरे अंदर इतनी शक्ति नहीं थी, जो मैं अपने प्राण त्याग देती. पति के साये से दूर औरत को वेश्या ही समझा जाता है. आख़िरकार इस पुरुष प्रधानसमाज में स्त्री को एक देह से अलग एक इंसान के रूप में देखता ही कौन है? स्त्रियों के लिए ये बारीक़ रेखाएं समाज स्वयं बनाता और बिगाड़ता है. स्त्री की मुक्ति केवल देह की मुक्ति है? स्त्री जिस परंपरा का शिकार है, वह सदियों से हज़ारों शाखाओं, प्रशाखाओं में कटती, बांटती, संकुचित, परिवर्तित, संवर्धित होती इस मुक़ाम तक पहुंची है. उसे गुरु, पिता, पति, भाई, बेटों ने ही मां, दादी, परदादी बनाया है. एक पूरी की पूरी सामूहिकता जिसने स्त्री के वर्तमान को गढ़ा है. अकेली स्त्री का दर्द बहुत बड़ा होता है. पर तुम नहीं समझोगे!’’

‘‘बस, बस और कुछ मत कहो. मैं शर्मिंदा हूं! माफ़ी शब्द भी बहुत छोटा है, तुम्हारे त्याग के आगे पुष्पा.’’

‘‘क्यों... क्या हुआ? तुम्हें सुनने में परेशानी हो रही है? मैंने तो भुगता है. तुम्हारे जाने के बाद समाज के तानों को सहना, अपनी स्थिति को भांपते हुए, अपनी विवशता, दयनीयता को समझते हुए, चुपचाप सब सहन किया. मैं तो तुम्हें भूल ही गई थी. ...और शायद यही मेरे लिए उचित था. मैंने आज तक अपने धर्म का पालन किया है. मुझे इस बात का गर्व है. याद है तुम ही मुझसे कहा करते थे,‘पुष्पा तुम बहुत दंभी हो! बिल्कुल उस लहर की तरह, जो सिर ऊंचा किए किनारों की ओर बढ़ती है.’ ...और मैं यह सुनते ही शर्मा जाती थी. बहुत दिनों से तुम्हारी यादों को, मन की किसी अंधेरी गुफा में बंद कर दिया था.’’

रात गहरा चुकी है. तभी रसोईघर से किसी बर्तन के गिरने की आवाज़ आई. मां पहले तो थोड़ा घबराईं, फिर ख़ुद ही अपनी घबराहट को छिपाने के लिए बोलीं,‘‘शायद कोई बिल्ली है! लगता है खिड़की खुली रह गई है.’’
‘‘अब जीना सीख लिया है. जाओ... चले जाओ...’’ मां का गला रूंध गया और आंसू बहने लगे.

महात्मा के रूप में पिताजी कुछ कह नहीं सके. उन्होंने मां के आंसू पोंछने चाहे, पर मां के सख़्त व्यवहार ने उनको रोक दिया.

सिर्फ़ इतना ही कह पाए,‘‘जाओ... ख़ुश रहो... तुम ठीक कह रही हो, मुझे यहां रहने का कोई अधिकार नहीं है.’’

‘‘बात अधिकार की नहीं है!’’ उनके उत्तर के जवाब में मां ने उनकी तरफ़ देखा. मां की नज़रें, उन्हें अंदर तक छील गईं. पिताजी ज़्यादा देर तक उन नज़रों का सामना नहीं कर पाए और आंखें झुका, फ़र्श की तरफ़ देखने लगे.  ‘‘मुझे माफ़ कर दो! मैं सवेरा होने से पहले चला जाऊंगा. ख़ुश रहो.’’

मां रो पड़ीं,‘‘जिससे जीवन है, जो जीवन की रेखा है. आज मैं उसी को अपने हाथों से मिटा रही हूं. हे भगवान, कैसा इम्तिहान है?’’ और वह रोते हुए उनके चरण स्पर्श कर वहां से चली गईं.

मेरा मन बार-बार चीत्कार कर रहा था. मुझे उस महात्मा पर बहुत ग़ुस्सा आ रहा था. मेरे अनुसार तो वह पिता कहलाने के भी हक़दार नहीं थे. एक बार को तो मन में आया, मैं उनको जाकर ख़ूब सुनाऊं. वह मात्र मेरे जन्म का कारण हैं, लेकिन मेरे कुछ नहीं. मेरी तो मां ही सारी दुनिया है. लेकिन उस मां की ख़ामोशी की, इज़्ज़त की ख़ातिर मैं चुप रही. वह रात मेरी ज़िंदगी की हर चीज़ को बदल गई थी. मेरे मन में ज़िंदगीभर के लिए मां के लिए श्रद्धा और पिता के लिए नफ़रत भर गई थी.

सुबह उठते ही पूरे घर में कोहराम मचा था कि जो महात्मा आए थे, कहां चले गए? दादी भी एक कोने में बैठी हुई रो रही थीं. शायद वह भी अपने पुत्र को पहचान चुकी थीं. और हां, मां शांत खड़ी सब कुछ देख रही थीं.
कुछ सालों बाद एक पत्र मिला. जिससे पता चला पिताजी बहुत बीमार हैं और दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में हैं. तब मैं ख़ुद मां को, उनसे मिलवाने के लिए लेकर गई. पिताजी को कैंसर था, वो भी लास्ट स्टेज का. मां रोए जा रही थीं. मां को देखते ही उन्होंने अपने जर्जर शरीर से बैठना चाहा पर नाक़ामयाब रहे. मैंने आगे बढ़, सहारा देकर बैठाया. उन्होंने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरा और नर्स को कमरे से बाहर जाने को कहा. हाथ जोड़कर मां से बोले,‘‘पुष्पा, अब तो माफ़ कर दो मुझे. मेरी ज़िंदगी का क्या है...’’ उनकी सांसें उखड़ने लगी थीं.

‘‘जानते हो तुम्हारे जाने के बाद, ज़िंदगी रोज़, कोई ना कोई नया इम्तिहान लेती रही. दिन गुज़रते रहे... और मैं मन ही मन अपने और तुम्हारे बीच की दूरी को लांघती रही.’’

मां बड़ी ही कातर दृष्टि से महात्मा की ओर देख रही थीं. वह चुपचाप बैठे रहे. शायद इन बिफरती हुई लहरों में नाव खेने का साहस तो मुझमें भी नहीं था. मां ने आगे कहना शुरू किया,‘‘ना जाने कितनी बार सूरज उगा और अस्त हुआ. ना जाने कितनी संध्याएं गहराईं और बिखर गई. तुमने नहीं आना था, तुम नहीं आए. पर मन यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि तुम मुझे धोखा दे गए.’’

मां ने उन्हें बोलने से रोकना चाहा, पर वह बोले,‘‘मुझे माफ़ कर दो! चरस की लत ने मुझे आलसी और निकम्मा बना दिया था. मेरे मन को कभी शांति नहीं मिली. बाद में मैंने सन्यासी का जीवन जीना ही श्रेष्ठ समझा और जीवनभर अपने मन से भागता रहा. मैं तो एक टूटा हुआ पत्ता हूं. ना मेरे कोई आगे, ना पीछे. क्या पता एक हवा का झोंका कहां पर फेंक दे? कम से कम इस सकून से तो मर सकूं कि, तुमने मुझे माफ़ कर दिया. वरना मेरी आत्मा तड़पेगी.’’

उस दिन वो दोनों पास बैठे घंटों रोते रहे थे. मां को भी अपने कहे हुए शब्दों पर बहुत अफ़सोस था. मां से इस मुलाक़ात के बाद पिता जी का मन हल्का हो गया था. शायद इतना हल्का कि उसके बाद उनकी सांसें हमेशा के लिए शांत हो गईं. और मां वह भी तो शांत हो गई थीं. मृत्यु की तरह शांत.

कोई टिप्पणी नहीं:

'; (function() { var dsq = document.createElement('script'); dsq.type = 'text/javascript'; dsq.async = true; dsq.src = '//' + disqus_shortname + '.disqus.com/embed.js'; (document.getElementsByTagName('head')[0] || document.getElementsByTagName('body')[0]).appendChild(dsq); })();
Blogger द्वारा संचालित.