कहानी: प्रतिशोध

रोज़ की तरह हरपाल ने गाड़ी पोर्च में लगाई और लॉन से होता हुआ दरवाज़े की ओर बढ़ चला. उसे बेहद हैरानी हुई जब इतनी आवाज़ के बाद भी कोमल का हंसता हुआ चेहरा दरवाज़े पर न दिखा, अन्यथा उसके गाड़ी पार्क करते ही वह रोज़ दरवाज़ा खोल मुस्कुराती हुई उसके पास चली आती थी. एक हाथ से उसका हाथ थाम दूसरा हाथ कमर में डालकर उसे घर में ले आती थी.

धड़कते दिल से हरपाल ने दरवाज़े पर हाथ रखा. हाथ रखते ही दरवाज़ा खुलता चला गया. बैठक कक्ष ख़ाली था, कोमल वहां न थी. वह दबे पांव रसोई में गया,‘शायद मेरे लिए कुछ बना रही हो... मैं अचानक उसे चौंका दूंगा...’ पर रसोई भी ख़ाली पड़ी थी. शयन कक्ष, लाइब्रेरी सब छान मारा... दोनों मंज़िलों का चक्कर लगा आया पर वह नहीं थी.

कोमल... कोमल... कहां हो यार... वह उसे पुकारने लगा, मगर वह होती तो जवाब देती. उसका सर घूमने लगा था. इन सात सालों में पहली बार ऐसा मौक़ा आया था कि वह उससे बिना कहे, उसके बग़ैर कहीं गई थी. आख़िर कहां गई होगी बिना बताए उसे? उसके मोबाइल पर कोई फ़ोन नहीं, मोबाइल वह रखती ही नहीं थी, अब क्या किया जाए...   


वह बरामदे में पड़ी आराम कुर्सी पर पसर गया था. अचानक दरवाज़ा खड़का. वह तपाक से उठ बैठा-आ गई शायद. ...पर वहां निशा खड़ी थी.

‘‘निशा, मैडम कुछ बताकर गईं तुम्हें, कहां जा रही हैं?’’

‘‘नहीं साब, मैं तो बारह बजे ही काम निबटा कर गई थी, तब तक तो बीबीजी घर पर ही थीं, कहीं जाने की तैयारी हो, ऐसा भी नहीं लगा...’’

‘‘ठीक है, तुम काम निबटा लो... हां एक कप चाय बना देना, खाना मत बनाना अभी...’’


निशा चाय का कप टेबल पर रख गई. चाय पीकर वह फिर आराम कुर्सी पर पसर गया था. नज़रें रह-रहकर घड़ी की सुइयों पर अटक जाती थीं. छह से आठ बजने को आए थे मगर कोमल का कोई पता न था. इस शहर में न तो उसका कोई पहचान वाला था, न ही सखी-सहेलियां... अब पता करें तो किससे...

उसका जी घबराने लगा था. पर उसने अपने आप को सांत्वना देने की कोशिश की,‘कोमल बच्ची तो है नहीं, ऊब गई होगी घर में, हो सकता है बाज़ार चली गई हो, फ़िल्म चली गई हो... आ जाएगी...’

‘कहीं वह सचमुच चली तो नहीं गई? हमेशा के लिए... उसे छोड़कर?’ उसके मन का चोर चुपके से फुसफुसाया था. इस ख़्याल के साथ ही बेतरहा कांप गया था वह. कोमल के बिना जीना यानी जीते जी मौत का वरण करने जैसा था उसके लिए.


बीते सात सालों में उसकी दुनिया उत्तर से दक्षिण हो गई थी. कोमल के प्यार की गिरफ़्त में कितना कमज़ोर, असहाय हो गया था वह, आज महसूस हो रहा था.

अतीत की परछाइयां स्मृति की दीवारों को भंभोड़ने लगी थीं.

‘ओ साहब, देखकर गाड़ी चलाया करो, कार में बैठे हो तो लाट साहब न समझो खुद को... टक्कर मारी तो समझ लेना, अच्छा न होगा...’ उसके हॉर्न बजाते ही उस लड़की ने पलटकर तेज़ आवाज़ में कहा. क़स्बेनुमा उस गांव की संकरी गलीनुमा बाज़ार में कार लेकर आना उसके लिए सचमुच परीक्षा बन गया था. लड़की की तरफ़ ध्यान गया, उतने में बगल से एक जानवर कार से आ टकराया. उसे बचाते-बचाते लड़की को कार का धक्का लगा और उसके सिर का मटका धड़ाम से नीचे गिरकर टूट गया.


‘ओ साहब, बाज नहीं आओगे? मैंने समझाया था न, उतरो गाड़ी से...अभी...बाहर आओ...’

वह चीखे जा रही थी, उसके साथ की लड़की उसका हाथ खींचते हुए उसे चुप रहने को कह रही थी और वह... वह खो गया था उसके चेहरे की मोहकता में... उस ग़ुस्सैल भाव-भंगिमा में, सुर्ख़ लाल हुए चेहरे में इस क़दर आकर्षक भी लग सकता है कोई, वह हैरान था.

‘ऐसे दीदे फाड़कर क्या देख रहे हो, खा जाओगे क्या? निकालो पूरे सौ रुपए... नया मटका तोड़ दिया मेरा...’


उसने सम्मोहन की सी अवस्था में जेब में से एक नोट निकालकर उसके हवाले कर दिया. वह अपनी जीत पर इतराती चल पड़ी और वह उसकी जाती हुई छवि को निहारता खड़ा रहा. उसकी सुंदरता या उसका बिंदास व्यक्तित्व उसे क्या अधिक भाया था, कहना मुश्क़िल था पर यह सच था कि वह उस पर मोहित हो गया था.

वह यानी हरपाल सिंह, गांव के सरपंच का नवासा था. नानाजी गांव के सबसे बड़े रईस थे. उसके माता-पिता का उसके बचपन में ही एक दुर्घटना में देहांत हो गया था. उसके बाद से दादा और नाना की अथाह संपत्ति का वह इकलौता वारिस था. सारी पढ़ाई हॉस्टल में रहकर हुई थी. उसमें वे सारे अवगुण बहुतायत में विद्यमान थे, जो एक अनाथ और रईस लड़के में होने चाहिए. चापलूस और बिगड़े हुए दोस्त हमेशा उसे घेरे हुए रहते थे. शहर की सुंदर लड़कियां उसके आगे-पीछे डोलती थीं, उनमें से कइयों से प्रेम की पींगे भी बढ़ाई थीं उसने, मगर ऐसा आकर्षण कभी भी महसूस नहीं हुआ था, जो गांव की इस अनगढ़-सी, बदज़ुबान लड़की से मिलकर महसूस हो रहा था.


सारी रात वह सो न पाया. सुबह उठते ही उसकी खोज-ख़बर में लग गया. पता चला लड़की का नाम कमला है, मां बचपन में ही स्वर्ग सिधार चुकी है और पिता की छोटी-सी किराने की दुकान है. उसकी बांछें खिल गई थीं. रुपए के ज़ोर पर कमला को जीता जा सकता है आसानी से... उसके मन में शैतानी ख़्याल मंडराया था.

उसने कमला पर नज़र रखनी शुरू कर दी. एक दिन उसे अकेला पाकर उसने उसका रास्ता रोक लिया. उससे प्रेम निवेदन किया, शादी का झांसा भी दिया... मगर बड़ी कठोरता से उसने हरपाल का प्रेम निवेदन ठुकरा दिया था. दो टूक शब्दों में बोली,‘देखो बाबू, हमको गंवार और अनपढ़ न समझना. इंटर पास हैं हम. तुम पैसेवालों की चाल खूब जानते हैं... तुम्हारी बदचलनी के चर्चे भी खूब सुने हैं हमने... आगे से रास्ता रोका तो देख लेना...’ वह तमतमाई हुई निकल गई थी. और कोई होता तो हरपाल उसे ख़ासा सबक सिखाता मगर इस लड़की ने जाने क्या वशीकरण फेरा था उस पर, ग़ुस्सा नहीं बस प्यार ही आ रहा था.


कमला न सही तो उसके पिता से ही बात क्यों न की जाए... यह सोचकर एक दिन हरपाल कमला के पिता की दुकान पर जा पहुंचा. कमला के पिता उसे अचानक आया देख अचकचा गए, क्या करें क्या न करें उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था. उसने बिना किसी लाग लपेट के कमला से शादी की बात उनके सामने रख दी. उन्होंने अपनी पगड़ी उसके क़दमों में रख दी और बोले,‘बाबू साहब, हम ठहरे छोटे आदमी, अपनी औकात से बड़ा कौर निगलने की न तो हैसियत है हमारी न ही हिम्मत. सादी-ब्याव अपनी हद में ही ठीक रहे हैं साहब. आपको उस नासपीटी कमला से लाखों गुना अच्छी लड़की मिल जाएगी.’

‘हम ऊंच-नींच को नहीं मानते,’ हरपाल ने उन्हें समझाने की बेईमान और असफल कोशिश की थी.

‘पर हम मानते हैं साहब...और यूं भी कमला का ब्याव मोहन से पक्का हो गया है. आते कार्तिक में डोली उठ जाएगी,’ उन्होंने हाथ जोड़ दिए थे.


जीवन में आज तक जो चाहा उसे हासिल किया था और यहां यह अदनी-सी लड़की और उसका बाप उसके मुंह पर अपना इनकार फेंककर चल पड़े थे. हरपाल सर से पांव तक तिलमिला उठा था. कमला की शादी की ख़बर ने जले पर नमक का काम किया था. अब उसका एकमात्र लक्ष्य येन केन प्रकारेण कमला को हासिल करना रह गया था.

हरपाल ने मोहन को खोज निकाला और थानेदार से मिलकर उसे सामूहिक बलवे के ऐसे केस में अंदर करा दिया कि उसकी ज़मानत तक न हो सके और वह कुछ साल जेल में सड़ता रहे. कमला के पिता इस ख़बर से टूट गए थे. हरपाल ने उन्हें रुपए का और कमला की ख़ुशी का लालच देकर कमला से शादी के लिए राज़ी कर लिया.

कमला सामने आई. हरपाल को सामने देखते ही उसकी आंखों से नफ़रत का लावा फूट पड़ा था, मगर वह बेबस, बेचारी सिवाय आंसू बहाने के कुछ न कर सकी.


कमला को लेकर हरपाल शहर आ गया. उसका अभीष्ट उसे मिल गया था. उसका नाम कमला से बदलकर कोमल रख दिया था हरपाल ने. वह अब हरपाल के अधिकार में थी, कम से कम शरीर पर तो उसका अधिकार काबिज हो गया था उसके. हां, मन ही मन वह घुटती रहती थी, शायद हरपाल से नफ़रत करती थी पर हरपाल को इसकी कोई परवाह न थी. दो-तीन महीने हरपाल कमला के आकर्षण में क़ैद रहा, फिर पुराने शौक़ ज़ोर मारने लगे. देर रात पार्टियां, नशा, लड़कियां... कमला के लिए यह सब अजूबा ही था, पर वह सब देख-समझकर भी घर में अजनबी बनी रहती. यूं दिखाती मानो उसका किसी से कोई वास्ता ही न हो. अपने में गुम यहां-वहां डोलती रहती. बिस्तर पर वह ज़िंदा लाश थी और घर में मानो डोलता कोई साया. उसकी उपेक्षा, उसका रूखापन हरपाल के लिए असहनीय होता जाता पर वह भी प्रकट में बेपरवाही का दिखावा करता रहता और उस पर अपना अधिकार भी जताता रहता.


कुछ महीने बीते और एक दिन अचानक जैसे हरपाल का भयावह सपना टूटा. किसी चमत्कार की तरह धीरे-धीरे वह बदलने लगी. पहली बार उसने हरपाल का हाथ अपने हाथ में लिया, उसे खाना खिलाया, उसके सिर को सहलाया... हरपाल हैरान था पर ख़ुश भी था. सब कुछ उसके मन जैसा हो रहा था. उसे लगने लगा कि वह भी उससे प्रेम करने लगी है. धीरे-धीरे वह पत्नी के रूप में ढलने लगी. हरपाल का ख़्याल रखना, घर को सजाना-संवारना, ख़ुद को व्यवस्थित करना... सब कुछ हरपाल के लिए सुखद था. और सच देखा जाए तो वह भी यहां-वहां भटकता हुआ थक चुका था. कोमल की शीतलता ने उसे उसके होने का एहसास दिलाया था. प्यार की उस मुलायमियत ने उसके तन-मन को शीतल कर डाला था. 

वह धीरे-धीरे दोस्तों से, बुरी आदतों से दूर होता जा रहा था. कोमल उसके जीवन का अभिन्न अंग बनती जा रही थी. उसकी सुबह कोमल के साथ होती थी और रात भी उसी के आगोश में ढलती थी. कोमल ने अपने आप को मानो न्यौछावर कर डाला था हरपाल पर. और हरपाल भी उसे किसी क़ीमती वस्तु की ही तरह संभालता. उसी के ज़ोर देने पर हरपाल ने अपने कारोबार की ओर ध्यान देना शुरू किया. कारोबार को गति मिली तो लक्ष्मी छमाछम बरसने लगी घर में. उसका श्रेय कोमल को देते हुए हरपाल ने कारोबार का एक बड़ा हिस्सा कोमल के नाम कर दिया था. काम और कोमल... अब जीवन बस यही तक सीमित हो गया था उसका. कोमल को पाकर हर दिन ईश्वर का शुक्रिया करने का मन होता था...

टन... टन... टन... घड़ी ने दो घंटे बजाए. हरपाल हड़बड़ाकर जागा. सोचते-सोचते न जाने कब आंख लग गई थी. कोमल का अब तक कोई पता न था. ‘क्या करूं... पुलिस को सूचित करूं?’ इसी ऊहापोह में वह शयन कक्ष की तरफ़ बढ़ चला. बिस्तर के साथ लगी टेबल पर कोमल की मुस्कुराती हुई तस्वीर लगी हुई थी. भावावेश में उसने उस तस्वीर को उठाकर सीने से लगा लिया था. ‘कहां हो कोमल, एक फ़ोन तो करो प्लीज़...’ अचानक उसकी नज़र तस्वीर के नीचे दबे काग़ज़ पर पड़ी. उसने धड़कते दिल से काग़ज़ की तह खोली... पहली पंक्ति पढ़ते ही हरपाल के हाथ कांप गए...

लिखा था-
पाली (कोमल हरपाल को इसी नाम से बुलाती थी)
हमारे बगैर परेशान हो न? हैरान हो कि तुम्हें बताए बिना आखिर गए कहां हैं हम. पाली आज सात साल बाद ही सही, नाटक के अंजाम का समय आ गया है. हम जा रहे हैं... और जानते हो किसके साथ? मोहन के साथ... हां वही मोहन, जिससे हम खूब प्यार करते थे... वही मोहन, जो तुम्हें फूटी आंख न सुहाया और तुमने उसे जेल भिजवा दिया. हमारा मोहन वहां निर्दोष जेल में सड़ता रहा और हम यहां तुम्हारी जेल में घुट घुटकर दिन काटते रहे. हर पल प्रतिशोध की आग में सुलगते रहे. ग़ुस्से की तलवार से तो मारना मुश्क़िल था तुम्हें, सो प्यार की करारी कटार से मारा है हमने तुम्हें... तुम जो हमारे प्यार में बुरी तरह से पगलाए हुए हो... तुम जिसकी सुबह ही हमारे बिना नहीं होती... तुम जो सारी बुराइयों को छोड़कर भले आदमी बन गए हो... तुम जो अपने हर दोस्त से दूर हो गए हो...


जानते हो पाली, औरत जीवन में एक ही बार चाहती है किसी को टूटकर. हमने मोहन से प्यार किया था और तुमने उसे हमसे छीन लिया, और वो भी सिर्फ हमें हासिल करने के लिए... उस दिन से हमारी हालत घायल नागिन-सी थी पाली. हर दिन सालों साल तुम्हारे हाथों को अपने शरीर पर बर्दाश्त किया हमने, बस इसी दिन की आस में कि एक दिन हम तुम्हें दिखाएंगे कि किसी पर बलजबरी करने का अंजाम क्या होता है.

हफ्ते भर पहले मोहन जेल से छूटा है. हम जा रहे हैं उसके साथ आजादी की खुली हवा में सांस लेने... हम जिस आग में सालों जले, अब वह आग तुम्हें देकर जाती हूं...

चिल्लाओ इन खाली दीवारों से सर मार-मारकर... पछताओ अपनी करनी पर... यही है हमारा बदला, हमारा प्रतिशोध...

याद है न तुमने अपने रुपयों का बड़ा हिस्सा हमारे नाम कर दिया है. काफी होगा हम दोनों के लिए...
अलविदा कमला

पत्र पढ़कर हरपाल सुन्न हो गया.

‘करनी का फल ऐसे भुगतना होगा मुझे?’ उसकी आंखों से धाराएं बह निकली थीं. अचानक एक ज़ोरदार चक्कर आया और वह बिस्तर से टकराकर फ़र्श पर धराशायी हो गया. माथे से ख़ून की लकीर बहकर फ़र्श को रंगने लगी थी.

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