कहानी: एचएएएन = हां

ये भी कोई प्रेमकथा है? लड़का, अरे लड़का क्या बयालीस साल का अधेड़. माना हुआ डॉक्टर ज़रूर है, लेकिन प्रेमकथा के मामले में ऐसे बिहेव कर रहा है, जैसे पंद्रह-सोलह साल का लड़का हो. भला इस उमर में इस तरह प्रेम किया जाता है? लड़की बस-स्टॉप पर खड़ी है और आप उसकी एक झलक भर देखने के लिए गाड़ी से पूरे चार किलोमीटर का चक्कर लगा रहे हैं. लड़की के चेहरे की मुस्कान पढ़ रहे हैं, फिर भी हिम्मत नहीं हो रही कि कह दें,‘‘आजा मेरी गाड़ी में बैठ जा.’’

और लड़की भी काहे की लड़की. उमर कम लिखाई हो तो भी आज की तारीख़ में अड़तीस पार कर चुकी होगी. माना कि इस उमर की आम थुलीथुली महिलाओं की तुलना में काफ़ी स्लिम-ट्रिम है. सुंदर भी सामान्य से इतनी ज़्यादा कि बाईस-चौबीस साल के युवकों की बाइक मुड़कर देखने के प्रयास में पलटी खा जाती है. सुंदर है, पर है तो तलाक़शुदा. और तलाक़ का कारण भी तो अधेड़ लड़के यानी डॉ सुमित को पता है.

अब चाहे जितनी उबड़-खाबड़ है, पर है तो प्रेमकथा. लेकिन इस कथा को लिखने का कारण ये सुमित और सीएनजी का छिछोरे टाइप का प्रेम नहीं बल्कि प्रेम रूपी पतंग के उड़ंची लेने, ढील और खेंच के साथ पेंच लाने का नाटक करने और फिर इंतज़ार की डोर पर पड़ते रिग्गों के बीच अचानक दोनों पतंगों को एक छज्जे पर बैठा देने वाली वह घटना है, जिसे सुनकर हर कोई कहे,‘‘अरे, ऐसा तो पहली बार सुना!’’

तो अब देश-काल और वातावरण, जहां ये कहानी गर्भायमान हुई. ‘सुस्मित’ यानी शहर की प्रसिद्ध पैथोलॉजी लैब. सौ से ऊपर कर्मचारी. तेरह गाड़ियां, जो कई अस्पतालों से और मरीज़ के अनुरोध पर घर जाकर भी ख़ून आदि (ये आदि का मतलब तो आप समझते हैं ना?) के सैम्पल लेकर आती और जांच की रिपोर्ट वापस पहुंचाती हैं. सुबह सात से शाम सात, बल्कि आठ बजे तक सतत गहमागहमी. और इस सब के लगभग केंद्र्र में होती सीएनजी.

पूरा नाम है चित्रा नारायण. याद आया, सबसे पहले डॉ सुमित ने ही इस मज़ाक की शुरुआत की थी. उसके यानी चित्रा नारायण के प्रथमाक्षर रोमन में सीएन लिखने के बाद हिंदी में जी लिखा और उससे कुछ विश्लेषणों की फिर से जांच करने का अनुरोध कि या था. सहकर्मियों ने उस दिन सीएनजी का जो मज़ा लिया, उसने सीएनजी को चित्रा का स्थायी संबोधन बना दिया. एक बार तो बोर्ड मीटिंग में ही सुनने को मिला,‘‘नीट ऐंड क्लीन वर्क के लिए सीएनजी की जितनी तारीफ़ की जाए कम है.’’

लैब में तीन साल में दो प्रमोशन इसी कारण तो मिले. किसी भी नमूने में आशंका नज़र आ जाए, फट से आदेश हो जाता, ‘‘ चित्रा, प्लीज़ ज़रा एक बार इसकी जांच आप ख़ुद कर लें.’’
काम बढ़ जाता, लेकिन अपना काम पूरी नफ़ासत के साथ निपटाकर ही चित्रा घर जाती. ज़्यादा कम सिर पर लेने की आदत को सहकर्मी नादानी समझते रहे, लेकिन दो प्रमोशन मिलने पर उन्हें इस कार्यशैली का लाभ समझ में आया. आलोचना या निराशा के स्वर में बस इतना कहा जाता,‘‘ हमें तो घर के तमाम काम करने होते हैं. सीएनजी जैसे छड़े थोड़ो ना हैं कि जित्ता बोलो उत्ता रुक जाएं. घर ही नहीं जाएं.’’

जीवन की रूखी हवा में गीली सुगंध चित्रा को महसूस होने लगी थी. ऐसे मामलों में महिलाओं की छठी इन्द्री ज़रा तेज़ी से काम करती है. पिछले कुछ दिनों से डॉ सुमित दो-तीन बार ज़रूर अपने कक्ष में बुलवा लेते हैं. कभी तो कारण होता है, पर कभी कारण अकारण जैसा होता. और अकारण का कारण तो कुछ-कुछ होने का भी लक्षण है. याद आया, आज तो डॉ. सुमित ने केवल अपना लिखा एक नोट दिखाने के लिए चित्रा को बुलवाया. लैब के लिए तीन नई गाड़ियां ख़रीदी गई थीं. उनका कार्य विभाजन करने के बाद अंत में उन्होंने नोट लगाया था,‘‘गाड़ियां चलेंगी तो डीज़ल से, लेकिन सीएनजी के आदेश से.’’

नामी डॉक्टर का यह नोट और फिर उसे चित्रा को दिखाना, कितना बचकाना है ना? लेकिन प्यार वही जो बूढ़े को जवान और अधेड़ को बचकाना बना दे. गालों पर उभरती गुलाबी टिकिया के साथ चित्रा बस, मुस्कुरा दी. लेकिन लैब में अपनी जगह पहुंचते-पहुंचते काफ़ी असहज भी हो गई.

‘‘यह सब क्या हो रहा है मेरे साथ?’’ रूमानी हवा को महसूस कर घबरा गई थी चित्रा. पहली पारी में क्लीन बोल्ड हुए हों, तो दूसरी पारी में ऐसा ही कुछ लगता है. विवाह और प्रेम आदि के प्रति, बल्कि पुरुषों की निकटता के प्रति चित्रा की वितृष्णा यों ही नहीं थी. पूरे दो साल तरह-तरह के त्रास देने के बाद मां बनने की क्षमता न होने के अलावा और भी घृण्य आरोप लगाकर तलाक़ लिया था नारायण ने. रिश्तेदारों और परिचितों को अपने पिता बनने योग्य होने का अस्पताल का प्रमाण-पत्र बड़ी बेशर्मी के साथ दिखाता फिरा था. यहां तक कि कुछ मित्रों ने नारायण को फटकारा, समझाया भी था कि अपने पुरुष होने के प्रमाण के साथ चित्रा के बिस्तर प्रसंग न सुनाया करे.

यों ही रो देनेवाली लड़की नहीं है चित्रा, फिर भी अरसे बाद महसूस हुए रूमानी झोंके के बीच याद आए दु:खद प्रसंग ने आंखों को डबडबा दिया. बस स्टॉप पर कोई यों रोते देखेगा तो क्या सोचेगा? आंखों में कचरा चला जाने का दिखावा-सा करते हुए उसने पर्स से रुमाल निकाला और पूरे चेहरे की धूल हटाते हुए रुमाल आंखों पर दबा दिया.

आंख से रुमाल हटाया तो देखा, सामने डॉ सुमित की कार खड़ी थी. असल में कार थोड़ी देर बाद आई थी. लेकिन प्रेमकथा में घटना को इतना बदलने की अनुमति लेखक को होती है. पहली बार रुकने की हिम्मत जमा पाए सुमित ने झुककर कार का दरवाज़ा खोल दिया. मना करने की गुंजाइश ही कहां थी. उसके बैठते ही बोले,‘‘एलआईजी रहती हो ना? चलो, उधर ही जा रहा हूं.’’

भीड़ काटकर आगे बढ़ते हुए कुछ बोलना मुश्क़िल था. चित्रा सोचने लगी, आज डॉक्टर में इतना साहस कैसे आ गया? आज भी चार किलोमीटर का चक्कर लगाकर आए हैं. इरादा चित्रा को घर छोड़ने का ही नहीं है, कुछ और भी बात है. एक क्षण के लिए यह सोचा कि रूमानी झोंके का उसका एहसास अगर ग़लत है तो डॉ सुमित ज़रूर लैब में चल रही खींचतान या गड़बड़ियों की बात करेंगे. चुप्पी लंबी हो रही थी और चित्रा सोच रही थी कि क्या उसे कुछ बोलना चाहिए? तभी प्रेमकथा में लड़कपन का सबूत सामने आया. हल्के भर्राए स्वर में सुमित ने पूछा,‘‘कॉफ़ी पियोगी?’’

लेकिन गले को सूखा हुआ चित्रा ने भी पाया. सयास सलाइवा गटकने के बाद बोल सकी,‘‘तीन कॉफ़ी हो गई हैं. अब और नहीं.’’

एक और लंबी चुप्पी. एकाएक पुलिस कमिश्नर बंगले के पास, जहां हमेशा सुनसान रहता है, सुमित ने साइड में लेकर गाड़ी रोक दी. बिना किसी भूमिका के सीधा सवाल किया,‘‘शादी के बारे में क्या इरादा है तुम्हारा?’’
क्षण भर के लिए सांस रुक गई चित्रा की. ये कैसा प्रश्न है? कुछ सोच पाती उससे पहले ही अगला प्रश्न आ गया,‘‘मुझसे

शादी करोगी?’’

पल भर प्रतीक्षा के बाद सुमित ने कार स्टार्ट की. आगे कोई बात नहीं हुई. फ़्लैट के सामने कार रुकने पर चित्रा शायद ‘थैंक्स’ कहने को थी तभी सुमित ने कहा,‘‘कोई जल्दी नहीं है, सोचकर जवाब देना.’’

प्रेमकथा के हिसाब से होना तो तो यह था कि दोनों को रात तक नींद न आए. पर ऐसा नहीं हुआ. दोनों ठीक समय बिस्तर से लग गए. हां, जब तक जागे, इक-दूजे के बारे में ही सोचा. सोचते हुए चित्रा किसी निष्कर्ष पर न पहुंच सकी और डॉक्टर को यह सोचते हुए ही नींद लगी कि मुझे सीएनजी को फ़ोन करके सारी स्थिति समझा देनी चाहिए. कि मां की मृत्यु के बाद बिल्कुल अकेला रह गया हूं. कि इतने वर्षों में तुम तो मेरे बारे में, मेरे स्वभाव के बारे में सब जान ही गई हो कि तुम्हारे अतीत से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है, कि मुझे तो बस, शेष जीवन के लिए हरदम तुम्हारा साथ चाहिए, कि..., कि... और ऐसे ही न जाने कितने कि लगते रहे. पर फ़ोन के नंबर दबाने का साहस नहीं बन पड़ा और नींद आ गई.

इत्तफ़ाक ही था कि अगले दिन जब चित्रा लैब पहुंची तो डॉ सुमित नोटिस बोर्ड के सामने खड़े थे. देखकर मुस्कुराए और प्रेम की बारहखड़ी का पहला वाक्य बोला,‘‘अच्छी लग रही हो... इस ड्रेस में.’’
चॉक उठाया और बोर्ड के कोने पर बड़ा-सा अंग्रेज़ी का ‘ए’ लिखा और कहा,‘‘आन्सर’’

फिर एक और ‘ए’ लिखा और बोले,‘‘अवेटेड’’

‘उत्तर के इंतज़ार’ का प्रतीक बन गया बोर्ड के कोने में लिखा ‘ए ए’. लेकिन चित्रा ने कोई जवाब नहीं दिया. जीवन का उसका अनुभव, अतीत की कड़वाहट, नारायण का लगाया लांछन बार-बार कह रहे थे कि भावनाओं में बहकर सुमित के शेष जीवन को शुष्क बनाने का कोई अधिकार नहीं है उसे. डॉ सुमित ने उसे अकारण कारणों से कक्ष में बुलाना बंद कर दिया. पैथोलॉजी लेब के ज़्यादातर कर्मी प्रेमकथा की हवा को कुछ-कुछ महसूस कर रहे थे, फिर भी यह पहेली कोई बूझ नहीं पा रहा था कि रोज़ सुबह लैब में आकर ऐप्रन पहनने के साथ ही डॉ. सुमित नोटिस बोर्ड के कोने पर ‘ए ए’ क्यों लिख देते हैं? किसी ने कहा,‘‘कौन जाने? शायद अल्लाह अल्माइटी.’’

वाक़ई प्रेम के मामले में अल्लाह अल्माइटी बड़े अजीब तरीक़े से मदद कर देते हैं. बोर्ड पर लिखे अनुतरित ‘ए ए’ को देखने दिन गुज़रते जा रहे थे. फिर एक दिन चित्रा यानी सीएनजी के लिए फ़ेल्युअर की सीमा में पहुंच रहे नमूनों को फिर से जांच लेने का आदेश हुआ. कुल पांच सैम्पल थे. आधुनिकतम मशीनों ने आजकल काम आसान कर दिया है. पहले तीन नमूनों में ग़लती मिली. चित्रा ने रिडिंग्स सुधारते हुए नई रिपोर्ट शीट प्रिंट की. चौथे सैम्पल में कल्चर चेक करना था, दो घंटे पहले हुई जांच के बाद कल्चर ने रूप बदल लिया था. फ़ंगस को पहचानना और आसान हो गया. चित्रा ने रिपोर्ट पर ओके लिखा और आख़िरी यानी पांचवां नमूना उठाया.
बस, यहीं से वो जो ऊपरवाला है ना, उसका खेल शुरू हुआ. ऐसा पहली बार हुआ होगा कि किसी विश्लेषक ने अपने उस पूर्व पति के पुंसत्व के नमूने की जांच की हो, जिसने उसे मातृत्वहीनता का लांछन लगाकर तलाक़ दिया हो. पहले विश्लेषक ने जांच रिपोर्ट में नमूने को निगेटिव बताया था. चित्रा ने सजग होकर पूरी जांच को दोहराया. सैम्पल को उसने भी निगेटिव पाया. नमूने में गर्भाधान योग्य क्रोमोज़ोम्स ही नहीं थे.

रिपोर्ट पर ओके लिखने जा रही थी कि चित्रा की नज़र नाम पर गई, नारायण परसेवी. सन्न रह गई चित्रा. इस नाम का दूसरा आदमी नहीं हो सकता. फिर भी अस्पताल को फ़ोन लगाकर पुष्टि कर ली. पता भी वही था. सिर्फ़ दहेज के लिए इतना बड़ा धोखा! जांच रिपोर्ट का अतिरिक्त प्रिंट निकालते चित्रा को देर न लगी. नारायण पर आपराधिक प्रकरण दायर करने का विचार आया और ख़ारिज हो गया. कोर्ट में नारायण कह सकता है,‘मेरी यह हालत अभी हाल ही में ही हुई है.’’

ज़रूरी सामान ख़रीदते हुए घर लौटी चित्रा उस रात देर तक सो न सकी. रिपोर्ट की जो फ़ोटोकॉपी करवाई थी, उन्हें लिफ़ाफ़ों में डाल, पता लिखकर नारायण परसेवी के सारे रिश्तेदारों और मित्रों को पोस्ट जो करना था. हां, उस शाम डॉ सुमित को निराशा मिली, क्योंकि वे चित्रा को बस स्टॉप पर नहीं देख पाए थे. लेकिन अल्लाह अल्माइटी तो आप जान लें कि करिश्मों का क़ारीगर है. अगली सुबह जब उन्होंने लैब में प्रवेश किया तो देखा, बोर्ड के सामने खड़ी चित्रा पहले तो उनकी ओर देख मुस्कुराई, फिर चॉक उठाया और उनके लिखे ‘ए ए’ के नीचे लिखा,‘‘एचएएएन=हां.’’

आज तीन साल हो गए दोनों की शादी को. सहकर्मी अभी-भी चित्रा को सीएनजी कहकर पुकारते हैं. क्योंकि सुमित से शादी के बाद अब वह चित्रा नारंग हो गई है.

और हां आज भी जब कार में बैठकर दोनों का उस बस स्टॉप के आगे से गुज़रना होता है तो बिल्कुल किशोर लड़के-लड़कियों की तरह एक झेंप के साथ दोनों मंद-मंद मुस्कुराते ज़रूर हैं.

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