कहानी: आदर्शवादी बहू
सुबह-सुबह रितु बिस्तर से उठ बैठी. आज उसका अपनी सहेलियों के साथ पिकनिक पर जाने का प्रोग्राम था. रात में उसकी सास वंदना ने छोले बनाकर फ्रिज में रख दिए थे. सुबह जल्दी उठकर वे उसके लिए पूरी बनाने वाली थीं. रितु ने आंखें बंद की और ईश्वर को धन्यवाद दिया कि उसे इतना अच्छा घर मिला है. रितु की मां नहीं थी. हालांकि पापा ने उसे मां-बाप दोनों का प्यार दिया फिर भी उसके मन में मां के ममत्व की चाह सदैव बनी रही. शादी के बाद उसकी चाह पूरी हो गई. रितु ने किचन में जाकर दो कप चाय बनाई.
‘‘मम्मी उठिए, मुझे देर हो जाएगी,’’ ज्यों ही उसने स्नेह से मम्मी की बांह पर हाथ रखा, वो कांप गई. मम्मी का बदन तेज़ बुख़ार में तप रहा था. रितु ने उनका माथा छुआ और तेज़ी से अपने बेडरूम में आई. ध्रुव को झिंझोड़ते हुए वह बोली,‘‘ध्रुव उठो, देखो मम्मी को कितना तेज़ फ़ीवर है.’’ ध्रुव तुरंत उठकर मम्मी के कमरे में चल दिया. रितु ने अपनी फ्रेंड नेहा को फ़ोन किया और बोली,‘‘हेलो नेहा...सॉरी, मैं आज पिकनिक पर नहीं जा सकूंगी. मेरी सास की तबियत ख़राब है.’’
‘‘अरे, यह क्या कह रही हो तुम? सब तैयार हैं और ऐन वक्त पर तुम प्रोग्राम कैंसल कर रही हो. आज संडे है. ध्रुव तो घर पर ही रहेंगे न. वह अपनी मम्मी की देखभाल कर लेंगे.’’ नेहा ने कहा.
‘‘तुम ठीक कह रही हो नेहा, पर मम्मी को बीमार छोड़कर मैं पिकनिक पर नहीं जाऊंगी.’’
‘‘प्लीज़ रितु, ज़्यादा आदर्शवादी मत बनो. सारा मज़ा किरकिरा हो जाएगा,’’ नेहा खीज कर बोली.
‘‘सॉरी नेहा, फिर कभी सही.’’ कहकर रितु ने फ़ोन काट दिया.
थोड़ी देर बाद मम्मी भी जाग गईं. वो उठने को हुईं तो रितु बोली,‘‘मम्मी, लेटी रहिए.’’
उसकी बात को अनसुना कर, क्षीण-सी आवाज़ में बोलीं,‘‘अभी तक तैयार भी नहीं हुई हो. चलो मैं पूरी बना दूं.’’
‘‘मम्मी, आप आराम कीजिए. मैं पिकनिक पर नहीं जा रही हूं. थोड़ी देर बाद ध्रुव डाक्टर को बुला लाएंगे. तब तक आप गरम चाय के साथ बिस्किट ले लिजिए.’’
‘‘लेकिन रितु,’’
‘‘ओह मम्मी, पिकनिक आपकी तबियत से ज़्यादा ज़रूरी है क्या?’’ रितु ने कहा. उसने देखा, ध्रुव बड़े प्यार से उसे निहार रहा था.
थोड़ी देर बाद डाक्टर आए. मम्मी को वायरल था. तीन दिन तक बुख़ार कभी कम तो कभी ज़्यादा होता रहा. रितु ने ऑफ़िस से सप्ताह भर की छुट्टी ले ली. इस बीच उसने मम्मी की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी. चौथे दिन दोपहर में खाना खाकर मम्मी सो गईं. रितु बरामदे में बैठी मैगज़ीन पढ़ रही थी. तभी उसकी सहेलियां नेहा और सपना आ गईं.
‘‘अरे तुम लोग,’’ मुस्कुराते हुए रितु ने उनका स्वागत किया.
नेहा बोली,‘‘हमने सोचा, तुझे तो अपनी सास की सेवा से फ़ुर्सत है नहीं. हम ही मिल आएं.’’
‘‘मैं तुमसे बहुत नाराज़ हूं रितु, अच्छा भला प्रोग्राम चौपट करवा दिया,’’ सपना ने शिकायती लहजे में कहा.
‘‘क्या तुम लोग भी नहीं गए?’’ रितु ने हैरानी से उनकी ओर देखा.
‘‘अकेले क्या ख़ाक एन्जॉय करते? तेरे बिना मज़ा भी नहीं आता.’’ सपना नाराज़गी से बोली.
‘‘जो बीत गया उसे छोड़ो रितु, पर हम तुझे ये समझाने आए हैं कि इतना आर्दशवादी होना ठीक नहीं है. सास की ज़रा-सी तबियत ख़राब हो गई और तुमने प्रोग्राम कैंसिल कर दिया.’’
सहेलियों की बातें सुनकर रितु ने कहा,‘‘नेहा, कैसी बातें कर रही हो? मम्मी का ख़्याल मैं नहीं रखूंगी तो कौन रखेगा? वास्तव में भूल तुम लोगों की भी नहीं है. बचपन से ही लड़की के मन में सास की असंवेदनशील नारी की इमेज होती है और पूर्वाग्रह ग्रस्त लड़की जब ससुराल में क़दम रखती है तो सास से दूरी बनाकर रखती है. मैंने बचपन में ही अपनी मां को खो दिया था. मन में आस थी कि अपनी सास से मां का प्यार मिलेगा और मम्मी ने मेरी इस आस को पूरा कर दिया. मैं तो यही जानती हूं कि नि:स्वार्थ भाव से प्यार दोगे तो प्यार ज़रूर मिलेगा. मम्मी ने जीवन में बहुत संघर्ष किया है. बहुत दु:ख सहे हैं. तुम लोग कभी उनकी डायरी पढ़ो तो तुम्हें एहसास होगा.’’
‘‘मम्मी डायरी लिखती हैं. हमें भी दिखाओ.’’ सपना ने कहा.
रितु कमरे में से एक डायरी उठा लाई और अपनी सहेलियों को देते हुए बोली,‘‘तुम लोग डायरी पढ़ो, तब तक मैं बढ़िया-सा नाश्ता बनाती हूं.’’ नेहा और सपना मम्मी की जीवन गाथा पढ़ने बैठ गईं.
मैं वंदना माथुर प्रेम विवाह को सुख की गारंटी समझ बैठी थी. पर मेरे पति समीर का मन किसी मरुभूमि की तरह था, जिसमें प्यार के कोपलें खिल ही नहीं पाई. विवाह को छ:माह ही बीते होंगे की हम दोनों में टकराव की स्थिति पैदा होने लगी. उनके उग्र और शक्की स्वभाव के कारण आए दिन घर में तनाव रहता. मैं पब्लिक स्कूल में इंग्लिश की अध्यापिका थी. स्कूल से घर लौटने में थोड़ी भी देर हो जाती तो मैं सवालों के कटघरे में खड़ी कर दी जाती. मैं जितनी संवेदनशील थी वो उतने ही भावशून्य थे. ध्रुव के जन्म के बाद मुझे लगा था स्थिति में सुधार होगा, लेकिन यह आशा भी छलावा थी. घर के झगड़ों का असर धीरे-धीरे ध्रुव पर पड़ने लगा था. वह अधिकांश समय सहमा रहता. दूसरे सामान्य बच्चों की तरह न तो शोर मचाता न ही खेल-कूद में अधिक रुचि लेता.
वक़्त सरकता गया और हमारे बीच की दूरी उस समय एक गहरी खाई में बदल गई, जब मुझे पता चला उनकी जिंदगी में दूसरी स्त्री है. गीता समीर के ऑफ़िस में काम करती थी. पहले पहल एक पार्टी में उसे देखा था. जिस अधिकार से उसने समीर को थामा था वह बात मेरे मन को खटकी थी, पर समीर के प्रति अविश्वास नहीं उपजा था. हां, अब मुझे समझ में आया क्यों वह बेवजह मुझ पर शक़ करते थे. उनके मन में एक गिल्ट थी, जो उन्हें कचोटती रहती थी. एक दिन अपनी एक साथी अध्यापिका के साथ मैं शॉपिंग कर रही थी कि सामने से आ रहे समीर पर निगाह पड़ गई. उनकी बांह साथ में चल रही गीता के कमर में थी. उस रात हम दोनों के बीच जमकर झगड़ा हुआ. कितनी बेशर्मी से उन्होंने स्वीकारा था कि वो मुझे छोड़ सकते थे किंतु गीता को नहीं.
जल्द ही हमने तलाक़ ले लिया. मैं ध्रुव पर अपना क़ानूनी हक़ चाहती थी, जिसके लिए समीर तैयार हो गए. वह मेरी ज़िंदगी का सबसे कठिन दौर था. लोगों की सवालिया नज़रें दूर तक मेरा पीछा करतीं. कभी मैं हमारे असुरक्षित भविष्य की चिंता में घुलती और कभी अपने पांच वर्ष के बेटे ध्रुव की परवरिश की. वह अपने पापा को याद करके रोता तो उसे संभालना बेहद कठिन हो जाता था. तरह-तरह के झूठे आश्वासनों से मैं उसे शांत कर पाती थी. उस समय मुझे किसी अपने की आवश्यकता थी अत: मैंने मां को अपने पास बुला लिया. एक वर्ष पूर्व पिताजी के स्वर्गवास हुआ था, तब से वह अकेली ही थीं. मां के आने से मुझे काफ़ी राहत मिली. ध्रुव के सब कामों का दायित्व उन्होंने अपने ऊपर ले लिया था. ध्रुव भी नानी के आने से ख़ुश था. देखते ही देखते एक वर्ष बीत गया. जीवन एक बार फिर पटरी पर आ गया था. एक दिन स्कूल से घर लौटी तो मां को बिस्तर पर लेटे देखा. उनके पैर में प्लास्टर था. मैं परेशान हो उठी,‘‘मां, यह कैसे हो गया? ’’
‘‘क्या बताऊं राशन लाने बाज़ार गई थी. रास्ते में रिक्शा पलट गया. वो तो अच्छा हुआ ईश्वर ने मदद के लिए विकास को भेज दिया वरना पता नहीं क्या होता?’’ मां कुछ क्षीण स्वर में बोलीं.
‘‘तुम भी कमाल करती हो मां, तुमसे किसने कहा था अकेले बाज़ार जाने के लिए?’’
तभी मेरे सहकर्मी विकास कमरे में आए. उन्होंने टेबल पर दवाइयां और फल रखें और बोले,‘‘इत्तफ़ाक से आज छुट्टी पर था. बाज़ार घूमने निकला था, तभी मेरी आंखों के सामने ही मां जी का रिक्शा पलटा.’’
‘‘विकास ने मदद की वंदना. सहारा देकर डॉक्टर के पास ले गया. एक्सरे कराया, प्लास्टर चढ़वाया और अब सारी दवाइयां लाया है.’’
‘‘कैसी बातें कर रही हैं मां जी, आप मेरी मां जैसी हैं?’’
मैंने विकास का दिल से आभार प्रकट किया. विकास और मैं एक ही स्कूल में पढ़ाते थे. उस दिन के बाद से वो अक्सर मां को देखने घर आने लगे थे. धीरे-धीरे उनसे औपचारिकता समाप्त होने लगी. मां भी काफ़ी खुल गई थीं. विकास जब भी आते घर का वातावरण ख़ुशगवार हो उठाता. धीरे-धीरे आत्मीयता बढ़ रही थी. बातें करते-करते विकास का यकायक खामोश हो जाना और मेरी ओर खोई-खोई दृष्टि से देखना मुझे कहीं भीतर तक छू जाता था. उन नज़रों का मतलब समझकर भी मैं समझना नहीं चाहती थी. एक दिन मां ध्रुव को पार्क में घुमाने ले गई थीं. एकांत के उन क्षणों में विकास ने मेरे समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा. मैं हैरत में पड़ गई थी. सोच-समझकर संयत स्वर में जवाब दिया था,‘‘दूसरे विवाह के बारे में तो मैंने कभी सोचा ही नहीं. यूं भी आप अविवाहित हैं और मैं एक बेटे की मां. ऐसा कैसे संभव है?’’
‘‘अविवाहित हूं तो क्या? तुमसे चार वर्ष बड़ा भी तो हूं. मुझे कोई जल्दी नहीं है तुम अच्छी तरह सोच लो फिर जवाब देना.’’
रात में मैंने मां को बताया. वह उत्साहित हो उठी. ‘‘वंदना, सच कहूं, मेरे दिल में भी कई बार यह ख़्याल आया, पर तुम्हारी नाराज़गी के डर से चुप रही. विकास शक्ल-सूरत में साधारण है तो क्या स्वभाव से हंसमुख है और हर तरह से तुम्हारे योग्य है.’’
‘‘कैसी बातें कर रही हो मां? मैं एक बेटे की मां हूं.’’
‘‘मां के साथ साथ तुम एक स्त्री भी हो, यह मत भूलो. पहाड़-सी ज़िंदगी अकेले कैसे काटोगी? कुछ ही वर्षों में ध्रुव बड़ा हो जाएगा. उसकी अपनी दुनिया होगी, तब तुम अकेली पड़ जाओगी. उस समय तुम्हें अपने निर्णय पर पछतावा होगा. विवाह के बाद ध्रुव तुम्हारे पास ही रहेगा. दूर थोड़े ही चले जाएगा.’’ बहुत देर तक मां मुझे समझाती रही थीं.
मां तो सो गई किंतु मेरे मन में विचरों का तूफ़ान उठने लगा. सच ही तो कहती हैं मां. समीर ने दूसरा विवाह कर लिया. ज़िंदगी की सभी ख़ुशियां उसे हासिल हैं और मेरे हिस्से में क्या आया? बेबसी, घुटन और ध्रुव को पालने का कर्तव्य. मेरी अंतरात्मा ने मुझे धिक्कारा. यह कर्तव्य भी तो मैंने स्वेच्छा से ही हासिल किया है. यदि समीर ध्रुव को अपने साथ ले जाते तो? इस कल्पना से मेरा हृदय तड़प उठा और मैंने पास लेटे ध्रुव को कसकर ख़ुद से सटा लिया. मैं तो जी ही नहीं पाती उसके बग़ैर. विकास हर तीसरे-तौथे दिन घर आते थे, लेकिन मैं रोज़ ही उनकी प्रतीक्षा करती थी. मेरी स्वीकृति पाकर विकास उच्छवासित हो उठे. मेर मन फिर से सुखमय भविष्य के सपने बुनने लगा. इन पलों के बीच मैं भूल ही गई थी कि ध्रुव उपेक्षित हो रहा था. कहां तो वो अपनी क्लास में हमेशा अव्वल आता था और कहां अब उसके दो-दो विषयों में लाल निशान थे. होमवर्क भी अक्सर पूरा नहीं होता था. उसमें असुरक्षा की भावना भर रही थी. वह चिड़चिड़ा होता जा रहा था. नए बन रहे संबंधों की उष्णता ने मेरी दृष्टि को धुंधला कर दिया था. एक दिन विकास के साथ बाहर घूमने का प्रोग्राम था. मैं तैयार हो रही थी, तभी रुआंसा-सा ध्रुव मेरे पास आया. आंखों में उमड़ आए आंसुओं को पीते हुए बाला,‘‘मम्मी, मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगा.’’
‘‘मैं काम से जा रही हूं बेटे. तुम्हारे लिए ढेर सारी चॉकलेट लाऊंगी. तुम तब तक नानी के बास बैठकर पढ़ो.’’
‘‘नहीं पढ़ना मुझे और चॉकलेट भी नहीं चाहिए. मैं बस तुम्हारे साथ चलूंगा मम्मी.’’ ग़ुस्से के आवेग में वह पैर पटककर चिल्लाया फिर न जाने क्या हुआ मेरे पल्ला पकड़कर फूट-फूटकर रो पड़ा. मैं कर्तव्यविमूढ़-सी खड़ी रह गई. उसका इस तरह का व्यवहार मेरे लिए अप्रत्याशित था. मैंने प्यार से उसके बालों पर हाथ फिराया. बोली,‘‘अच्छा रोना बंद करो और तैयार हो जाओ.’’
मुझे लगा ध्रुव को साथ ले जाना अच्छा रहेगा. धीरे-धीरे वह विकास के साथ सहज महसूस करने लगेगा. किंतु जैसा सोचा वैसा कुछ भी न हुआ. विकास चुप्पी साधे बैठे रहे. रेस्तरां में कॉफी पीने बैठे तो मैंने टोका,‘‘इतना ख़ामोश रहना था तो आए ही क्यों थे?’’ वह कुछ क्षण मुझे देखते रहे बोले,‘‘अब तुम ही बताओ इसके सामने क्या बोलूं? इसे साथ लाने की क्या आवश्यकता थी?’’ सुनकर मेरे मन को ठेस लगी. वह चाहते तो उस दिन उसके और अपने बीच की दूरी को कुछ कम कर सकते थे. कई बार कह उनसे कह चुकी थी, उनका ध्रुव के साथ घुलना-मिलना ज़रूरी था. तभी वह उन्हें पिता के रूप में स्वीकार करेगा. उसके अगले रविवार को विकास आए और बोले,‘‘वंदना जल्दी से तैयार हो जाओ. तब तक मैं ध्रुव को घुमा लाता हूं अन्यथा यह भी हमारे पीछे लगेगा.’’ विकास के आख़िरी शब्द मेरे हृदय को बींध गए. जबरन ठेलकर ही भेजा था मैंने ध्रुव को. वह तो जाना नहीं चाहता था. रात में विकास के साथ खाना खाकर लौटी तो मां ने बताया कि ध्रुव जब से लौटा है, न तो कुछ भी बात कर रहा है और न ही खाना खाया है. मैंने सोचा मेरे अकेले बाहर चले जाने की वजह से मुझसे नाराज़ होगा इसलिए उसे मनाने के लिए मैं उसके पास लेटी, लेकिन वह उठ गया और मां के पास जाकर लेट गया. कोई और समय होता तो मैं उसे मनाकर ही दम लेती किंतु उस दिन मैं ऐसा कुछ भी न कर पाई. एक अजीब-सा अपराधबोध मन को घेरे हुए था, जिससे चाहकर भी ख़ुद को मुक्त नहीं कर पा रही थी.
अगले ही दिन स्कूल के प्रिसिंपल वर्माजी ने मुझे बुलवाया. मेरे पहुंचते ही उन्होंने प्रश्न दाग़ दिया,‘‘आजकल ध्रुव को क्या होता जा रहा है वंदना?’’
‘‘उसे क्या हुआ है सर, कुछ भी तो नहीं.’’
वर्माजी ग़ौर से मुझे देखते हुए बोले,‘‘दो-दो विषयों में फेल है वो और तुम कह रही हो कुछ भी नहीं हुआ. स्कूल के सबसे मेधावी छात्रों में उसका नाम गिना जाता था. उसका व्यवहार भी असामान्य होता जा रहा है. उसकी क्लास टीचर का कहना है क्लास में या तो गुमसुम रहता है या बेवजह साथियों से झगड़ा करने लगात है. मुझे लगता है उसके मन में कोई बात है, जो वह खुलकर कह नहीं पा रहा है. कोई गांठ है, जो बड़ी होती जा रही है. देखो बेटी, मैं यह बात एक प्रिंसिपल की हैसियत से नहीं, वरन एक बुज़ुर्ग की हैसियत से कह रहा हूं. वो बच्चे स्वयं को अधूरा और असुरक्षित महसूस करते हैं, जिन्हें जीवन में मां और पिता दोनों का प्यार नसीब नहीं होता है. ध्रुव के सिर पर भी उसके पिता का हाथ नहीं है. ऐसे में तुम्हारा दायित्व दोगुना हो जाता है. तुम्हें उसके मन को समझना होगा. वंदना, बच्चों को पालना, पढ़ा-लिखा कर अच्छा इंसान बनाना एक तपस्या है, जिसमें अपनी बहुत-सी इच्छाओं की आहुति देनी पड़ती है. तभी तपस्या फलित होती है.’’
वर्माजी ने मेरे सोए हुए विवेक को जगा दिया. स्कूल में सारा दिन मैं बेचैन रही. शाम को मैंने उसे नए कपड़े पहनाकर तैयार किया तो वो बोला,‘‘मम्मी हम घूमने जा रहे हैं?’’
‘‘हां बेटा.’’
‘‘क्या अंकल के साथ?’’ उसने शंकित होकर पूछा
‘‘नहीं. बस मैं, तुम और नानी ठीक है न.’’ वह कुछ आश्वस्त हुआ. पार्लर में आइसक्रीम खाकर और कैरमबोर्ड ख़रीदकर हम घर लौटे. रात में उसके पास लेटी तो उसे ख़ुश देख पूछ बैठी,‘‘अच्छा ध्रुव, उस दिन तुम विकास अंकल के साथ घूमने गए थे तब तुम दोनों ने क्या-क्या खाया था?’’ ध्रुव के चेहरे का रंग उड़ गया.
मैंने फिर कुरेदा,‘‘बेटा विकास अंकल तुम्हें कैसे लगते हैं?’’ मेरा हाथ झटक ध्रुव खड़ा हो गया. उसकी आंखों में ग़ुस्सा और आंसू दोनों झलक रहे थे.
वो बोला,‘‘मम्मी, विकास अंकल कह रहे थे, तुम उनसे शादी कर रही हो...मगर मम्मी मैं हॉस्टल बिल्कुल नहीं जाऊंगा’’ ‘‘हॉस्टल? तुमसे किसने कहा तुम हॉस्टल में रहोगे?’’ इस नई बात ने मुझे अचंभित कर दिया.
‘‘अंकल ने उस दिन कहा था कि हॉस्टल बहुत अच्छी जगह होती है. हम तुम्हें वहीं रखेंगे. पापा तो छोड़कर चले ही गए. अब तुम भी चली जाओ मगर मैं कहीं नहीं जाऊंगा. यही रहूंगा नानी के पास.’’ मेरा चेहरा फक पड़ गया.
अगले दिन विकास आए तो मैं उत्तेजित होकर बोली,‘‘तुमने ध्रुव से कहा था कि उसे हॉस्टल में रहना होगा. मैं सोच भी नहीं सकती थी तुम मेरे बच्चे को दूर करने की सोच रहे हो. जानते हो, ध्रुव इन दिनों स्वयं को कितना असुरक्षित महसूस करने लगा है?’’ कहते-कहते मेरी आंखों में आंसू आ गए.
विकास ने एक गहरी दृष्टि मुझपर डाली. शांत स्वर में बोले,‘‘उत्तेजित मत हो वंदना, ठंडे दिमाग़ से सोचो. विवाह के शुरुआती दिनों में पति-पत्नी के बीच कोई तीसरा हो तो कभी उनमें अच्छी अंडरस्टैंडिंग नहीं हो सकती. ध्रुव साथ रहेगा तो तुम्हारा ध्यान बंटा रहेगा तुम उसमें और मुझमें सामंजस्य बैठाने में लगी रहोगी. इस प्रयास में हमारा रिश्ता प्रभावित होगा, जो मैं सहन नहीं कर सकता.’’
‘‘तो तुम क्या चाहते हो, अपनी ममता को तुम्हारी उमंगों पर क़ुर्बान कर दूं? मैं इतनी स्वार्थी नहीं कि अपने सुख के लिए अपने बच्चे को अपने से दूर कर दूं.’’ मेरी बातों से विकास का मूड उखड़ चुका था. ग़ुस्से में वो बोले,‘‘तुम्हें अपने लिए पति की नहीं, बल्कि अपने बच्चे के लिए पिता की आवश्यकता है.’’
‘‘मेरा पति भी वही इंसान बन सकता है जो मेरे बेटे को बाप का प्यार दे सके. उसे घर से दूर करने की न सोचे. पहले ही तुम्हारे मनोभावों का पता चल जाता तो मैं कभी भी इस राह पर आगे न बढ़ती.’’
विकास उठकर चले गए. तब मैंने देखा, दरवाज़े की आड़ में ध्रुव खड़ा था. उसे अपने सीने से लगा मैं फूट फूटकर रो पड़ी.
‘‘मम्मी, मैं तुम्हारा बहुत ख़्याल रखूंगा. हमेशा कहना मानूंगा,’’ रुंधी आवाज में कहे उसके शब्दों ने मेरी आत्मा तक को झकझोर दिया. मां मेरे नज़दीक आ बैठीं. उनके कंधे पर सिर रख मैं बोली,‘‘तुम बताओ मां, समीर तो छोड़कर चला ही गया. अब क्या अपनी ममता से भी इसे महरूम कर दूं?’’
‘‘नहीं वंदना, तुमने बिल्कुल ठीक किया. ऐसा पाषाण हृदय व्यक्ति तुम्हें भी ख़ुश नहीं रख सकता था.’’
इसके बाद मैंने अपने जीवन की पुस्तक से विकास का अध्याय निकाल फेंका. भविष्य में फिर कभी भी भटकाव की स्थिति पैदा नहीं हुई. अब जीवन में एक ही उद्देश्य था, ध्रुव को उच्च शिक्षा दिलाकर एक अच्छा इंसान बनाना. समय आगे बढ़ता रहा और अपनी मेहनत और लगन से एक दिन वह भी दिन आया, जब ध्रुव सॉफ़्टवेयर इंजीनियर बन गया. उसे एक प्रसिद्ध बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी मिल गई थी. रितु ध्रुव के साथ उसी कंपनी में नौकरी करती थी. मुझे पता चला वे दोनों एक-दूसरे को चाहते हैं तो मैंने उन्हें प्रणयबंधन में बांधने में विलंब नहीं किया. चांद-सी सुंदर बहू घर में आ गई थी. आज सुबह मैंने सुना ध्रुव रितु से कह रहा था,‘‘मैं पांच वर्ष का था, जब पापा हमें छोड़कर चले गए. मम्मी ने सारा जीवन संघर्ष किया है. रितु, आज मैं जो कुछ भी हूं उन्हीं की तपस्या का प्रतिफल हूं यदि तुम वास्तव में मुझे प्यार करती हो तो मुझे एक वचन दो, मम्मी का सदैव ख़्याल रखोगी. उन्हें कभी अकेलेपन की त्रासदी न झेलनी पड़े.’’ हर्षातिरेक में मेरी आंखों से आंसू बह निकले. आज मेरी तपस्या फलित हो गई है.
डायरी समाप्त हो चुकी थी. नेहा, सपना और निधि खामोश बैठी अपने विचारों में तल्लीन थी. तभा नाश्ता लिए रितु कमरे में आई.
‘‘क्या तुम दोनों ने डायरी पढ़ ली?’’
नेहा बोली,‘‘हां रितु. तुमने सच ही कहा था अपने पूर्वाग्रह के पैमाने से ही हम रिश्तों को मापने लगते हैं. अब हमें एहसास हो रहा है कि रिश्तों के प्रति हमारा नज़रिया कितना संकुचित था. वास्तव में तुम्हारी मम्मी आर उनकी तपस्या पूजनीय है.’’
रितु का चेहरा सहेलियों की बातें सुनकर ख़ुशी से खिल उठा. उसे लगा अगर प्रत्येक इंसान इसी तरह से अपने दृष्टिकोण को बदलकर रिश्तों को आत्मीयता से अपना ले तो जीवन कितना आनंदपूर्ण और सहज हो जाएगा.
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