कहानी: प्रेमरस

ये कहानी प्रेमरस संस्कृत की 20वीं सदी के प्रारंभ की प्रसिद्ध लेखिका पंडिता क्षमाराव की कथा प्रेमरसोद्रेक (1930) की हिंदी में सरल प्रस्तुति है. यह कहानी इस अर्थ में प्रभावित करती है कि 20वीं सदी के प्रारंभ में भी नारी सशक्तिकरण जैसे मुद्दे पर महिलाओं में जागरूकता थी.

कश्मीर में पानपुर नाम का एक गांव था. यहां एक बुज़ुर्ग किसान नूरा और उसकी पत्नी फ़रीदा रहते थे. वे एक टूटी-फूटी झोपड़ी में सुख से दिन गुज़ार रहे थे. एक दिन की बात है. बर्फ़ीले तूफ़ान और कड़कड़ाती ठंड के कारण गांव के सारे लोग अपने-अपने घरों में दुबके हुए थे. ऐसे में किसी ने नूरा की झोपड़ी का दरवाजा थपथपाया.

‘‘ऐसे तूफ़ान में हमारे दरवाज़े पर कौन हो सकता है?’’ नूरा ने आशंकित होकर कहा. किसी तरह वह उठा और दरवाज़े की दरार से झांककर देखा. बाहर बर्फ़ीले तूफ़ान से जूझती हुई एक युवती कांपती हुई खड़ी थी. उसके कपड़ों और बालों पर बर्फ़ जम गई थी.

‘‘क्या बात है? कौन है?’’ फ़रीदा से रहा नहीं गया. वह भी नूरा के पीछे-पीछे उठकर आ गई. जैसे ही उसने युवती को देखा तो उसने झोपड़ी का दरवाज़ा ज़रा-सा खोला और उसे हाथ पकड़कर अंदर खींच लिया.
वह ठंड के कारण नीली पड़ गई थी. उसकी आवाज़ भी नहीं निकल रही थी.

फ़रीदा ने अपना कंबल उसके बदन पर कसकर लपेट दिया. फिर दूध गर्म करके उसे देते हुए बोली,‘‘बेटी, पहले यह दूध पी लो.’’

आग तापने और गर्म दूध पीने के बाद उसे थोड़ी गर्माहट आई. फ़रीदा ने बड़े प्यार से उसे सहलाते हुए पूछा,‘‘बेटी तुम कौन हो? ऐसे बर्फ़ीले तूफ़ान में तुम कहां से आ रही हो?’’

उसे हिचकिचाते देख नूरा ने कहा,‘‘बेटी, इसे अपना घर ही समझो. यहां तुम पूरी तरह सुरक्षित हो.’’

वृद्ध दंपति का दुलार पाकर उसके आंसू बह निकले. रोते हुए उसने बताया,‘मेरा नाम हामीदा है. मुझे कोई संतान नहीं है. इस कारण मेरा पति मुझसे मारपीट करता है. उठते-बैठते मुझे बांझ होने के ताने देता रहता है. तंग आकर मैंने घर छोड़ दिया है. पर अब मैं कहां जाऊं?’’ यह कहकर वह फूट-फूटकर रोने लगी.

नूरा और फ़रीदा को कोई संतान नहीं थी. उन्होंने हामीदा से कहा,‘‘बेटी, चिन्ता न करो. इसे अपना ही घर समझो. हमारी भी यदि कोई बेटी होती तो आज तुम्हारे बराबर ही होती.’’

हामीदा ने कहा,‘‘बाबा, मैं आपका कैसे शुक्रिया अदा करूं. मैं आपकी बेटी बनकर रहूंगी. मैं आप पर बोझ नहीं बनूंगी.’’

हामीदा ने जल्दी ही घर के और खेती-बाड़ी के कामों को संभाल लिया और उनका हाथ बंटाने लगी.

अभी कुछ ही दिन बीते थे कि हामीदा को मालूम पड़ा कि पति का घर छोड़ते समय वह गर्भवती थी. पर अब वह अपने पति के घर जाना नहीं चाहती थी. वह अपने पति के दुर्व्यवहार को चाहकर भी भूला नहीं पा रही थी.

नूरा और फ़रीदा उसका बहुत ख़्याल रखते थे. हामीदा के आने से तो उनकी वीरान ज़िंदगी में बहार आ गई थी.

समय आने पर हामीदा ने सुंदर-सी बेटी को जन्म दिया. पर बेटी के जन्म के बारहवें दिन अचानक हामीदा की तबियत बिगड़ गई. नूरा और फ़रीदा ने उसकी देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी. पर हामीदा की हालत बिगड़ती ही चली गई. उसे लग रहा था कि अब उसका आख़िरी समय आ गया है. अपनी चांद-सी बेटी को प्यार से निहारते हुए उसने उसे फ़रीदा की गोद में सौंपकर कहा,‘‘अम्मा, मैंने आपको और बाबा को अपने सगे माता-पिता की तरह माना है. मैं अपने कलेजे का टुकड़ा आपको सौंपकर जा रही हूं. मुझे मालूम है आप इसे अपनी जान से बढ़कर संभालेंगे. पर एक बात का ध्यान रखना-हो सकता है कि इसका पिता मुझे ढूंढ़ते हुए कभी भूले-भटके यहां आ जाए. उसे मेरे बारे में मत बताना और ना ही यह बच्ची उसे देना,’’ इतना कहकर हामीदा ने हमेशा के लिए आंखें मूंद ली.

हामीदा की मौत से नूरा और फ़रीदा टूट-से गए. बारह दिन की मासूम बच्ची अपनी मां की मौत से बेख़बर फ़रीदा के सीने से चिपकी हुई थी. नूरा और फ़रीदा उसे हामीदा की अमानत समझकर बड़े लाड़-प्यार से पालने लगे. उन्होंने उसका नाम अस्मा रखा.

इस तरह कई साल बीत गए. अस्मा युवावस्था में क़दम रख रही थी. वह अपनी मां की ही तरह घर के और खेती-बाड़ी के कामों में अम्मा और बाबा की बहुत मदद करती थी.

एक दिन अस्मा ने रोज़ की तरह कहा,‘‘बाबा, मैं खेत पर जा रही हूं.’’

नूरा ने कहा,‘‘पर बेटी, आज तुम्हें जाने में देर हो गई है. थोड़ी ही देर में शाम हो जाएगी. अंधेरा घिर जाएगा. ऐसे में तुम्हारा खेत पर रुकना ठीक नहीं रहेगा.’’

अस्मा ने समझाते हुए कहा,‘‘बाबा, आप चिन्ता क्यों करते हो? मैं अब बड़ी हो गई हूं. मैं ख़ुद की हिफ़ाज़त अच्छी तरह कर सकती हूं.’’

अस्मा की इच्छा देख फ़रीदा ने कहा,‘‘उसका मन है तो उसे जाने दो. वह अपना भला-बुरा अच्छी तरह समझती है. इस तरह रोक-टोक करके तो हम उसे कमज़ोर ही बनाएंगे.’’

नूरा ने कहा,‘‘हां, तुम ठीक कह रही हो. हम तो अब बूढ़े हो चले. पर इसे मज़बूत बनाना ज़रूरी है, ताकि ये हर परिस्थिति में ज़माने से मुक़ाबला कर सके.’’

फिर नूरा ने अस्मा को समझाते हुए कहा,‘‘ठीक है बेटी, जाओ. पर अंधेरा होते ही जल्दी घर आ जाना. हमें तुम्हारी चिंता लगी रहेगी.’’

अस्मा ख़ुशी से उछलती-कूदती खेत पर चल दी. वहां खेत की रखवाली करती हुई चिनार के पेड़ के नीचे बैठ गई. पर वह ख़ाली नहीं बैठ सकती थी इसलिए वह पुआल की जूती सिलने लगी. पड़ोस के खेत में कुछ औरतें काम कर रही थीं. उन्होंने आवा़ज लगाई,‘‘अस्मा, थोड़ी देर के लिए इधर आकर हमारी मदद कर दो.’’ हमेशा की तरह अस्मा झट से दौड़कर गई और उनके काम में हाथ बंटाने लगी.

उन औरतों का काम निपट गया तो वे सब सिर पर गट्ठर उठाकर घर जाने लगीं.

उन्होंने कहा,‘‘अस्मा, अब तुम भी घर चलो.’’

‘‘आप लोग चलो, मैं भी अपना काम ख़त्म करके आती हूं.’’ कह अस्मा अपने खेत में आ गई और फिर से पुआल की जूती सिलने लगी. धीरे-धीरे अंधेरा घिरने लगा.

अस्मा अकेली खेत की रखवाली करते हुए धीरे-धीरे कुछ गुनगुनाती भी जा रही थी. तभी उसे दूर से कोई छाया आती हुई दिखाई दी. क्या मालूम वह कोई राहगीर है या चोर उचक्का? यह सोचकर वह एक झाड़ी के पीछे छुप गई.

राहगीर उसी झाड़ी के सामने आकर रुका. अस्मा सांस रोककर उसे चुपचाप देख रही थी. राहगीर ने अपने अंगरखे की जेब से एक बटुआ निकाला. शायद रात होती देख वह अपने पैसों की हिफ़ाज़त के लिए चिंतित हो गया था. इसलिए उसने सारा पैसा कमर में खोंस लिया और आगे बढ़ गया. अस्मा उसे जाते हुए देखती रही. अब वह घर जाने के लिए निकलने ही वाली थी.
थोड़ी ही देर बाद दूर कहीं से मारने-पीटने और चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें आने लगीं. अस्मा समझ गई कि ज़रूर उस राहगीर को किसी ने लूट लिया है. कराहने की आवाज़ उस सन्नाटे में गूंज रही थी. अस्मा से रहा नहीं गया. वह दौड़ती हुई वहां पहुंची. राहगीर घायल होकर बेहोशी की हालत में पड़ा था. लुटेरों ने मार पीटकर उसका सारा पैसा लूट लिया था. उसके घावों से ख़ून रिस रहा था. अस्मा दौड़कर अपनी झोपड़ी तक आई.

नूरा और फ़रीदा अस्मा की राह तकते हुए दरवाज़े पर ही बैठे थे. अस्मा ने उन्हें राहगीर के बारे में बताया. वे सब राहगीर को सहारा देकर किसी तरह अपनी झोपड़ी तक लाए. उसके घावों की मरहम पट््टी की. वह अर्ध-बेहोशी की हालत में हामीदा-हामीदा करकर बुदबुदाता रहा. नूरा और फ़रीदा सोच में पड़ गए कि कहीं यह हामीदा का पति तो नहीं है?

सुबह हुई उठने पर राहगीर की तबियत कुछ ठीक लग रही थी. वह समझ गया कि रातभर इन लोगों ने उसकी बहुत सेवा की है.

अस्मा तो अभी भी दौड़-दौड़कर उसकी सेवा कर रही थी. उसके लिए दूध और नाश्ता तैयार कर रही थी. अस्मा की मीठी आवाज़ और चेहरे को देखकर उसे हामीदा की याद आ रही थी.

फ़रीदा से रहा नहीं गया. उसने अजनबी से पूछा,‘‘क्यों बेटा, कल रात तुम बेहोशी की हालत में हामीदा-हामीदा कहकर पुकार रहे थे. यह हामीदा कौन है? तुम कौन हो? कहां से आए हो?’’

राहगीर ने दुखी मन से कहा,‘‘मेरा नाम गुकलू है. श्रीनगर में मेरा बहुत बड़ा कारोबार है. हामीदा मेरी बीवी थी. हमारे कोई बच्चा नहीं हुआ. इस वजह से दिए जानेवाले मेरे तानों से तंग आकर वह घर छोड़कर चली गई. तब से मैं उसी की खोज में जगह-जगह भटक रहा हूं.’’

गुकलू को अब तक नूरा के परिवार की ग़रीबी का अंदाज़ा हो गया था. उसके दिमा़ग में एक विचार आया. उसने झिझकते हुए प्रस्ताव रखा,‘‘आपकी बेटी ने मेरी जान बचाई है, क्या आप इसे मुझे दे सकते हैं? मेरे पास बहुत धन दौलत है. यह बहुत ठाठ से रहेगी. मैं इसे किसी तरह की तकलीफ़ नहीं होने दूंगा.’’

अब तक नूरा और फ़रीदा को विश्वास हो गया था कि गुकलू ही अस्मा का पिता है.

गुकलू ने कहा,‘‘मैं आप लोगों को मुंहमांगा धन दूंगा. आप लोगों की सारी ग़रीबी दूर हो जाएगी. बुढ़ापा आराम से कट जाएगा.’’
नूरा ने दृढ़ता से कहा,‘‘इन रुपयों के बदले चाहे मेरे खेत और मेरी भेड़ें ले जाओ. हम अस्मा को अपने से अलग नहीं कर सकते.’’

गुकलू ने बहुत कहा,‘‘मैं इसे हर तरह से ख़ुश रखूंगा. इसे गहनों कपड़ों से लाद दूंगा. कई नौकर-चाकर इसकी सेवा में रख दूंगा. इसे कोई तकलीफ़ नहीं होने दूंगा.’’

फ़रीदा नूरा को इशारे से झोपड़ी के बाहर ले गई और कान में फुसफुसाकर बोली,‘‘कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह इसके साथ शादी करना चाहता है? यह नहीं जानता कि यह इसकी ही बेटी है! पर हामीदा को किए गए वादे के मुताबिक हम यह बात इसे बता भी तो नहीं सकते.’’

अब तो नूरा भी सोच में पड़ गया. कुछ देर सोचने के बाद उसने अंदर आकर गुकलू से कहा,‘‘अस्मा हमारी नातिन है. हमने ही इसकी मां के गुज़र जाने के बाद पाल पोसकर इसे बड़ा किया है. यह यहां बहुत आराम से है. इसे यहां कोई तकलीफ़ नहीं है. समय आने पर कोई हमउम्र लड़का देखकर इसकी शादी कर देंगे. पर हम इसे तुम्हें नहीं दे सकते.’’ नूरा की आवाज़ में दृढ़ता थी.

गुकलू को अंदाज़ा हो गया कि ये लोग प्रस्ताव का कुछ दूसरा ही अर्थ लगा रहे हैं. उसने अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहा,‘‘आप लोग मुझे ग़लत मत समझिए. मुझे इसने मौत के मुंह में जाने से बचाया है. मैं इसे अपनी बेटी की तरह अपनाना चाहता हूं. यह और इसका होनेवाला पति मेरे वारिस रहेंगे.’’

‘...तो गुकलू अस्मा को बेटी के रूप में मांग रहा था...’ नूरा और फ़रीदा सोच में पड़ गए.

‘अगर अस्मा हमारे पास रहेगी तो इसी तरह ग़रीबी में ही जिएगी. पर यदि यह इसके पिता के साथ चली जाती है तो सुख से रहेगी. इसका जीवन संवर जाएगा. अस्मा के भावी जीवन के सुखों को छीनने का हमें कोई हक़ नहीं है. बेहतर यही होगा कि हम अस्मा को ही इस बारे में निर्णय लेने दें.’ यह सोचकर उन्होंने अस्मा से कहा,‘‘बेटी, तुमने इस अजनबी की जान बचाई है. ये तुमसे बहुत ख़ुश है. ये तुम्हें बेटी बनाकर अपने साथ ले जाना चाहता है. इसके यहां तुम्हें किसी प्रकार की कमी नहीं होगी. ये तुम्हारी अच्छी जगह शादी कर देंगे और अपनी सारी जायदाद तुम्हारे और तुम्हारे होनेवाले पति के नाम कर देंगे. हम दोनों तो बूढ़ हो चले हैं. हमारे पास तुमने ग़रीबी के सिवाय और देखा ही क्या है? हम चाहते हैं कि तुम अपने बेहतर भविष्य के लिए ख़ुशी-ख़ुशी इनके साथ चली जाओ.’’

अस्मा ने शांतिपूर्वक सारी बात सुनकर अपना निर्णय सुनाने में देर नहीं की,‘‘मैं आप दोनों को छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी. मुझे धन दौलत, ज़मीन-जायदाद का कोई लालच नहीं है. जो सुख मुझे इस झोपड़ी में मिल रहा है वह किसी महल में भी नहीं मिल सकता.’’

अस्मा की आंखें डबडबा गईं और वह फ़रीदा से लिपट गई,‘‘नहीं मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

अपने जीवन से संबंधित इतना बड़ा निर्णय लेकर अस्मा बहुत ख़ुश थी.

अस्मा का स्वाभिमान देखकर गुकलू चकित था. वह भरे मन से सबसे विदा लेकर लौट गया.

कोई टिप्पणी नहीं:

'; (function() { var dsq = document.createElement('script'); dsq.type = 'text/javascript'; dsq.async = true; dsq.src = '//' + disqus_shortname + '.disqus.com/embed.js'; (document.getElementsByTagName('head')[0] || document.getElementsByTagName('body')[0]).appendChild(dsq); })();
Blogger द्वारा संचालित.