कहानी: जो मैं ऐसा जानती!

मैं ऑफ़िस से लौट रही थी कि मोबाइल की घंटी बजी. मैंने मोबाइल ऑन किया, उधर से किसी ने बताया कि ‘अरुणा, तुम्हारे ससुरजी नहीं रहे, तुम तुरंत यहां आ जाओ.’ यह सुनते ही मैं सोच में पड़ गई कि अब क्या करूं? क्योंकि ऑफ़िस में ऑटिड पार्टी आई हुई थी. जब ऑडिट चल रहा होता है तब प्राय: साहब लोग छुट्टी देने से कतराते हैं. मैंने तत्काल साहब को फ़ोन लगाया और उन्हें ससुरजी के अवसान की सूचना दी. 

घर आकर तत्काल में अपना रेल टिकट बुक किया, जल्दी से सूटकेस तैयार किया और रेल्वे स्टेशन पहुंची. इंदौर जानेवाली ट्रेन प्लैटफ़ॉर्म पर खड़ी थी. मैं दौड़कर एस 7  कम्पार्टमेंट में घुस गई. मेरे सीट पर बैठते ही गाड़ी चल पड़ी. सीट पर बैठते ही यादों की नदी दिल की ज़मीं पर बहने लगी. ससुरजी का चेहरा रह-रहकर याद आ रहा था. सच कहूं तो मेरा दिल यह मानने को क़तई तैयार नहीं था कि ससुरजी नहीं रहे. गाड़ी जैसे-जैसे ऱफ्तार पकड़ने लगी, वैसे-वैसे मुझे अपने जीवन का एक-एक घटनाक्रम याद आने लगा, जो उनके साथ जुड़ा था. मुझे आज भी याद है, मैं ब्याह कर अपने ससुराल आई थी. जब मैंने पहली बार ससुरजी के पैर छुए थे, तब उन्होंने कहा था,‘‘एक बात हमेशा याद रखना कि इस घर को अपना मायका कभी मत समझना, हां हमेशा यही याद रखना कि यह तुम्हारा ससुराल है.’’ मैं उनके यह कठोर वचन सुनकर दंग भी हुई और डर भी गई थी.

दरअसल मेरे पति अरुण मिलिट्री में थे. शादी के लिए वे एक माह की छुट्टी लेकर आए थे. शादी के तत्काल बाद हम हनीमून के लिए मनाली गए और वहां से लौटने के बाद महाबलेश्वर-पूना गए. इस घूमने-फिरने के दौरान दिन कैसे कट गए यह हमें पता ही नहीं चला. उनकी छुट्टियां ख़त्म हो गईं और वे फिर कश्मीर चले गए.

जब एक दिन हम महाबलेश्वर में सनसेट पॉइंट पर बैठे थे, तब बातों-बातों में उन्होंने बताया कि अपनी ड्यूटी के तहत सीमा पर रहने के दौरान हमें पूरी तरह चौकस रहना पड़ता है, क्योंकि सीमा पार से हमारी सीमा में आतंकवादियों के घुसपैठ की संभावना हमेशा बनी रहती है, फिर सीमा पार से दुश्मन की सेना कभी भी सीज़फ़ायर तोड़कर गोलीबारी करती रहती है. इसलिए हमें हमेशा सजग रहना पड़ता है. हमारी छोटी सी ग़लती या भूल हमारे लिए जान का ख़तरा बन सकती है. जब उनकी यह बात पूरी हुई, तब मैंने ही सवाल किया,‘‘आप मुझे कश्मीर घुमाने कब ले जाएंगे?’’ तब तत्काल जवाब देते हुए वे बोले,‘‘अरुणा, अगली बार जब इंदौर आऊंगा, तब तुम्हें अपने साथ कश्मीर ले जाऊंगा.’’

उनके कश्मीर पहुंचने का फ़ोन आया और उसके अगले ही दिन सुबह पांच बजे फ़ोन की घंटी बजी. मेरे ससुरजी ने ही फ़ोन उठाया. उधर से आवाज़ आई,‘‘मैं कर्नल सिन्हा बोल रहा हूं, मुझे यह ख़बर देते हुए दुख हो रहा है कि कल रात कुछ आतंकवादियों ने हमारी सीमा पर आक्रमण कर दिया, उनके साथ लड़ते हुए आपके बेटे अरुण शहीद हो गए.’’ उधर से टेलीफ़ोन बंद हुआ और इधर मेरे ससुरजी ने मेरे कमरे का दरवाज़ा खटखटाया. मैंने दरवाज़ा खोला तो उन्होंने नपे-तुले, सपाट शब्दों में मुझे मेरे पति के शहीद होने का समाचार सुनाया. तब उनकी बात सुनकर मुझे लगा कि उनको अपने बेटे के शहीद होने का ग़म है भी या नहीं? कोई अपने सौतेले बेटे की मौत पर भी इतना सख़्त नहीं बना रह सकता. कोई पिता इतना पत्थर दिल हो सकता है, यह सोचकर मैं हैरत में थी.

अरुण के निधन के सवा महीने बाद मेरे माता-पिता पैरी छुड़ाने की रस्म अदा करने के लिए मेरी ससुराल आए. जब मेरे पिताजी ने ससुरजी को भी हमारे साथ चलने के लिए निवेदन किया तब वे बोले,‘‘तुम अरुणा को अपने साथ ले जाकर अपनी रस्म अदायगी करो, मैं इन प्राचीन ढकोसलों को नहीं मानता.’’ पापाजी उनका जवाब सुनकर स्तब्ध रह गए. क़रीब दस दिन मायके में रहने के बाद मैं पुन: अपने ससुराल आ गई. कुछ दिन तक ससुरजी ने मेरी तरफ़ बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया. मैं किसी कोने में बैठकर दिन-दिनभर रोती रहती, लेकिन उन्होंने अपना सोशल वर्क बिल्कुल उसी तरह चालू कर दिया, जैसे वे पहले किया करते थे. मैं कोने में बैठे-बैठे सोचती रहती कि यह कैसे पिता हैं, जिनके चेहरे पर अपने बेटे के मरने का ग़म तक नज़र नहीं आता.

एक दिन जब हम साथ बैठे थे, तब मैंने ही उनसे पूछा,‘‘बाबूजी क्या आपको अरुण की याद नहीं आती? मैं तो उनके ग़म को अपने हृदय से अलग नहीं कर पा रही हूं.’’

तब उन्होंने अपनी आग्नेय आंखों से मेरी तरफ़ देखा और बोले,‘‘जिस दिन उसने मिलिट्री ज्वाइन की, उसी दिन से मैंने अपना हृदय कठोर कर लिया था. मैं जानता था कि यह ख़बर एक न एक दिन तो मुझे सुनने मिल ही सकती है. फिर जो देश के लिए शहीद हो गया है, उसका ग़म क्यों करें? हमें तो गर्व होना चाहिए कि हमारा बेटा देश के काम आ गया.’’

उनके कठोर वचन सुनकर मैं दंग रह गई. कुछ दिन और बीते. मैं अक्सर उदास ही बैठी रहती थी. एक दिन वे मेरे कमरे में आए और बोले,‘‘यह क्या तुम दिन-दिनभर बिस्तर पर एक लाश की तरह पड़ी रहती हो? अरुण की मौत हुई है या तुम्हारी?’’

मैंने आंसू पोछते हुए कहा,‘‘बाबूजी, आप मेरा दुख नहीं समझ सकते...’’

मेरा इतना कहना हुआ ही था कि वे बोले,‘‘क्या कहा तुमने कि मैं तुम्हारा दुख नहीं समझ सकता? अरी नादान, मैंने भी अपनी जवानी में अपनी जीवनसंगिनी खोई थी तब अरुण केवल पांच बरस का था और तुम मुझसे कह रही हो कि मैं तुम्हारा दुख नहीं समझ सकता हूं? यदि तुमने तुम्हारा सुहाग खोया है तो मैंने भी अपना एकमात्र सहारा खोया है.’’

‘‘बाबूजी, मेरे सामने मेरी पूरी ज़िंदगी पड़ी है और मैं भ्रमजाल में हूं कि अब मैं क्या करूं?’’ मेरी बात उन्होंने गंभीरतापूर्वक सुनी और फिर अपनी विशिष्ट शैली में वे बोले,‘‘तुम इस ग़म को अपने से दूर हटाओगी, तब तो कुछ अपने बारे में सोच सकोगी न?’’

कुछ दिनों बाद एक दिन ससुरजी मेरे पास आए और बोले,‘‘बेटी, अब आज से तुम अपनी ज़िम्मेदारी भरी ज़िंदगी शुरू करो.’’ फिर उन्होंने मुझे गैस की बुकिंग कैसे करते हैं यह बताया. कुछ दिनों बाद वे मुझे बैंक ले गए और वहां के काम समझाए. फिर एटीएम ले गए और पैसे कैसे निकालते हैं यह सिखाया. टेलीफ़ोन और बिजली का बिल भरना भी उन्होंने मुझे सिखाया. यह सब काम मैं सीख गई और करने भी लगी. पर घर के काम निपटाने के बाद जब मैं अकेली रहती तब उदास हो जाती थी.

एक दिन ससुरजी ने मुझे बुलाया और कहा,‘‘देखो, अब बहुत हो गया. तुम्हारा उदास चेहरा देखकर मुझे बहुत परेशानी होती है. बेहतर यह होगा कि तुम फिर अपने मायके चली जाओ या इस घर के अलावा कहीं और रहने चली जाओ. तुम चाहो तो मैं तुम्हारे लिए कोई किराए का फ़्लैट देखता हूं या ख़ुद अपने लिए मकान या फ़्लैट देख लो.’’

मैंने उनसे कई बार कहा कि मैं अकेली कैसे रह पाऊंगी? तो वे बोले,‘‘यह तुम्हारी प्रॉब्लम है और इस तुम्हें ही हल करना है.’’ दिन प्रतिदिन उनका कठोर होता हुआ रुख़ देखकर मैंने तय किया कि वास्तव में अब रोने मात्र से काम नहीं चलेगा. फिर एक दिन दोपहर को मैं अपने लिए किराए का एक फ़्लैट देखने के लिए घर से निकल पड़ी. अरुण के मित्र रामचंदानी की मदद से मैंने एक फ़्लैट किराए पर लिया और वहां रहने भी चली गई.

अब मैं यहां अकेली थी. फिर घर और बाहर का सारा कामकाज मुझे ही करना पड़ता था. अरुण की पेंशन हर माह मिल रही थी इसलिए कोई आर्थिक परेशानी मुझे नहीं थी. शाम को समय मिलता तब मैं बालकनी में जाकर बैठ जाती और रास्ते से गुज़रनेवाले राहगीरों को निहारती रहती. इस प्रकार मेरी शामें गुज़रने लगीं लेकिन दोपहर में अक्सर मैं बोर हो जाती. सो मैंने कम्प्यूटर सीखने के लिए एक क्लास जॉइन कर ली. तीन माह में मैंने ऑफ़िस अकाउंटिंग (टेली) सीख लिया. एक दिन शाम को मैं टीवी पर अपना पसंदीदा धारावाहिक देख रही थी, तभी मिसेस रामचंदानी आ गईं. मैंने उनके लिए चाय बनाई. चाय की चुस्कियां लेते हुए वे बोली,‘‘अरुणा मेरे ऑफ़िस में कम्प्यूटर ऑपरेटर की एक पोस्ट ख़ाली है, यदि तुम ट्राय करो तो वह पोस्ट तुम्हें मिल सकती है. यदि जॉब मिल गया तो तुम्हारा समय भी अच्छा कटेगा और नए लोगों से मेलजोल भी बढ़ने लगेगा.’’

‘‘लेकिन मुझे तो काम करने का बिल्कुल भी अनुभव नहीं है,’’ मैं बेसाख़्ता बोल पड़ी.

‘‘देखो अरुणा अनुभव तो काम करने के बाद ही आता है न?’’

मुझे उनकी बात अच्छी लगी और मैंने अगले ही दिन ही नौकरी के लिए ऐप्लीकेशन दे दी. क़रीब एक सप्ताह बाद मुझे साक्षात्कार की सूचना मिली.

मैंने बहुत गंभीरता से साक्षात्कार की तैयारी की. अगली शाम मिसेज़ रामचंदानी ने घर आकर मेरे चयन की बात बताई और उसके अगले दिन मुझे नियुक्ति पत्र भी मिल गया. मैं तो यूं भी ख़ाली ही थी, मैंने दूसरे दिन से ही नौकरी जॉइन कर ली. अब मेरे पास जॉब था और मैं अपने पैरों पर खड़ी हो गई थी. एक शाम सामान जमाते हुए मैंने पाया कि ससुरजी के घर से सामान शिफ़्ट करने के दौरान ग़लती से उनके लॉकर की चाबी मेरे सामान के साथ आ गई है.

शाम को ऑफ़िस से मैं सीधे ससुरजी के यहां पहुंची, उस समय वे सामाजिक कार्यकर्ताओं की बैठक में व्यस्त थे. मुझे देखते ही बोले,‘‘बैठ जाओ, मैं तुमसे थोड़ी देर बाद बात करता हूं.’’ सामाजिक कार्यकर्ताओं की बैठक ख़त्म होने के बाद उन्होंने मेरी तरफ़ देखा और बोले,‘‘क्या तुम लॉकर की चाबी लौटाने आई हो.’’

उनकी बात सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ कि उन्हें कैसे पता चला कि मैं लॉकर की चाबी देने आई हूं. मेरा आश्चर्य से भरा चेहरा देखकर वे बोले,‘‘बेटी मैंने जानबूझकर ही लॉकर की चाबी तुम्हारे सामान के साथ रख दी थी. दरअसल, मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था कि तुम चाबी अपने पास रखती हो या मुझे वापस करती हो!’’  

मैंने टी टेबल पर लॉकर की चाबी रखी और उनको अभिवादन कर लौटने लगी, तब वे बोले,‘‘सुना है तुम नौकरी करने लगी हो और तुम्हारी अपने ऑफ़िस के मैनेजर के साथ बहुत पटती है? क्या इरादा है?’’

मैंने स्वाभिमानपूर्वक लेकिन धैर्य के साथ उनसे कहा,‘‘मैं कम्प्यूटर ऑपरेटर के पद पर हूं और वे मेरे अधिकारी हैं इसलिए कई बार मुझे उनके केबिन में जाना पड़ता है, अब इसे लोग किस नज़र से देखते हैं और क्या सोचते हैं इसकी चिंता मैं नहीं पालती.’’ मेरा जवाब सुनकर उन्होंने गर्दन नीची कर ली. मैंने उनके चरण छुए और फिर घर चली आई. मैं घर ज़रूर चली आई, लेकिन ससुरजी की यह बात मेरे कानों में बार-बार टकराती रही कि ‘सुना है तुम नौकरी करने लगी हो और तुम्हारी अपने ऑफ़िस के मैनेजर के साथ बहुत पटती है? क्या इरादा है?’

मुझे लगा कि ये बात अब मुझे यहां चैन से नौकरी नहीं करने देगी. अत: मैं रविवार को हमारे जीएम के बंगले पर उनसे मिलने गई. उन्होंने पूछा,‘‘कहिए, आप क्या कहना चाहती हैं?’’

‘‘सर मैं अपना ट्रांस्फ़र भोपाल करवाना चाहती हूं. मुझे मालूम पड़ा है कि वहां पीआरओ का पद रस्तोगीजी के सेवानिवृत्त होने से ख़ाली है. यदि आप मेरा तबादला वहां करा सकें तो मैं आपकी आजीवन आभारी रहूंगी,’’ मैंने विनम्रतापूर्वक अपनी बात उनके सामने रखी.

‘‘...लेकिन आप तो यहां कम्प्यूटर ऑपरेटर हैं, क्या आप पीआरओ का काम संभाल सकेंगी?’’
‘‘सर, मुझे लगता है कि मैं अब किसी भी पद पर काम करने के लिए समर्थ हूं.’’

‘‘कल ऑफ़िस में आप तबादले के लिए आवेदन मेरे पास पहुंचा दीजिएगा.’’ उनके इतना कहते ही मैंने उनका अभिवादन किया और घर लौट आई. अगले दिन मैंने अपना आवेदन पत्र जीएम साहब के केबिन में पहुंचा दिया. क़रीब एक माह बाद मुख्यालय से मेरा तबादला भोपाल होने के आदेश आए.

मैंने अपना तबादला भोपाल करवा लिया, ये जानकर मिसेज़ रामचंदानी सहित ऑफ़िस के सभी साथी आश्चर्यचकित थे. अगले दिन ऑफ़िस में मेरा बिदाई समारोह आयोजित किया गया. बिदाई समारोह के बाद मैं सीधे ससुरजी से मिलने उनके यहां गई.

मुझे देखते ही वो बोले,‘‘अरुणा तुमने अपना तबादला भोपाल करवा लिया है न?’’ उनकी यह बात सुनकर मैं फिर आश्चर्यचकित रह गई कि मेरे तबादला करवाने की ख़बर उनको कैसे मिली?

उन्होंने नौकर से कहकर मेरे लिए चाय नाश्ता मंगवाया और बोले,‘‘अरुणा भोपाल पहुंचने के बाद तुम्हारे घर का पता मुझे तत्काल भिजवाना. देखो अरुणा, इसमें देर मत करना.’’

भोपाल आने के दो दिन बाद ही ऑफ़िस की एक कलीग की सहायता से मैंने एक मकान किराए पर लिया और नए पते की जानकारी ससुरजी को भेज दी. मुझे भोपाल आए केवल तीन महीने ही हुए थे और आज ऑफ़िस से घर पहुंचने के दौरान ये सूचना मिली कि ससुरजी नहीं रहे. ये संपूर्ण घटनाक्रम मेरी आंखों के सामने से एक फ़िल्म की तरह गुज़र गया. गाड़ी स्टेशन दर स्टेशन आगे बढ़ते हुए इन्दौर पर आकर रुकी. मैं गाड़ी से उतरी और ऑटो करके ससुरजी के घर पहुंची. मेरे पहुंचने से पहले ही उनकी अंतिम यात्रा की पूरी तैयारी हो गई थी. मैंने अंतिम बार उनका चेहरा देखा और उनके चरण स्पर्श किए. अब वे एक शव के रूप में मेरे सामने थे, पर उन्हें देखकर लग रहा था मानो मुझसे कुछ कहना चाहते हैं. उनका आग्नेय स्वभाव उनके चेहरे पर अभी भी वैसा ही नज़र आ रहा था. उनके भाई के लड़कों ने अर्थी को कंधा दिया और उनकी अंतिम यात्रा चल पड़ी.
अगले दिन मुझे मेरे चचेरे देवर ने एक फ़ाइल सौंपी. मैंने एक-एक कर उसके कागज़ पलटना शुरू किए. ससुरजी ने मेरे नाम विरासत लिखी थी. जिसमें सारी सम्पत्ति और रुपए-पैसे मेरे नाम लिखे थे. वसीयतनामे के बाद अंत में एक चिट्ठी थी, जो उन्होंने मेरे नाम लिखी थी. जिसमें लिखा था:

प्रिय बेटी अरुणा,
आशीर्वाद. ये पत्र तुम्हें मेरे मरने के बाद ही मिलेगा. तुम मेरा स्वभाव देखकर आश्चर्यचकित थी और आजीवन आश्चर्यचकित ही रहोगी. मैंने जानबूझकर तुम्हें अपने घर से निकलने के लिए विवश कर दिया, ताकि तुम अपने कमरे के सूने कोने से बाहर निकलकर दुनियादारी को समझ सको. मिसेज़ रामचंदानी को बुलाकर मैंने ही उन्हें तुम्हारे पास भेजा था, ताकि तुम कम्प्यूटर ऑपरेटर की पोस्ट के लिए आवेदन करो. दरअसल, मैंने मिसेज़ रामचंदानी से जानकारी लेकर ही तुम पर, तुम्हारे मैनेजर के साथ ज़्यादा घुलने-मिलने का आरोप लगाया था. बेटी, मैं यह चाहता था कि तुम यथासमय अपने लिए एक योग्य जीवनसाथी तलाश लो, इसके लिए मुझे तुम्हारे ऑफ़िस का मैनेजर उपयुक्त भी लगा, लेकिन मेरी इस बात का जवाब तुमने अपना तबादला भोपाल करवाने के रूप में मुझे दिया.

बेटी ज़माने के बदलने के साथ हमें भी बदलना पड़ता है. वैसे भी अकेली स्त्री का जीना आजकल बहुत दुश्वार हो गया है. समय रहते यदि तुम्हें कोई अच्छा जीवनसाथी मिल जाए तो शादी अवश्य कर लेना.

बेटी जो मर गया उसके साथ मरा तो नहीं जा सकता न? मुझे चिंता यह थी कि यदि तुम्हें इस क़दर निराश ज़िंदगी व्यतीत करने की आदत पड़ गई तो तुम्हारा जीवन नर्क बन जाएगा, क्योंकि हमारे पास अथाह धन-दौलत हो तो भी, जीवन की ख़ुशियां सिर्फ़ रुपए-पैसे से तो नहीं मिलतीं. इसलिए मैं भी अपना तन, मन, धन सामाजिक कामों के लिए लगाता रहा.

बेटी, मानव होने का अर्थ है समाज में रहना, जबकि तुमने अपने आपको एक कमरे के एक सूने कोने भर में क़ैद कर लिया था. अब मैं यह जानकर बहुत ख़ुश हूं और संतुष्ट भी कि तुमने ज़िंदगी को फिर से जीना सीख लिया है और मैं यही चाहता था. अब जो कुछ तुम्हारा है, वह इस वसीयत के ज़रिए तुम्हें सौंप रहा हूं.
तुम्हारा ससुर नहीं, बल्कि बाबूजी

उनकी ये चिट्ठी पढ़कर मैं मन ही मन बहुत परेशान हुई और लगा कि काश! मैं अपने ससुरजी की विचारशक्ति को पहले जान पाती तो उनके बारे में वह सब कुछ नहीं सोचती, जो अकेलेपन में बैठे-बैठे सोचती रही. उनके पत्र में लिखी इस बात कि मैं समय रहते किसी जीवनसाथी को पसंद कर लूं-इस पर भी मैं विचार कर रही हूं. उपयुक्त साथी मिलने पर मैं उनकी इस बात पर भी ज़रूर अमल करूंगी. और अरुण की यादें और उनके साथ बिताए गए लम्हे तो हमेशा मेरे साथ रहेंगे ही.

कोई टिप्पणी नहीं:

'; (function() { var dsq = document.createElement('script'); dsq.type = 'text/javascript'; dsq.async = true; dsq.src = '//' + disqus_shortname + '.disqus.com/embed.js'; (document.getElementsByTagName('head')[0] || document.getElementsByTagName('body')[0]).appendChild(dsq); })();
Blogger द्वारा संचालित.