कहानी: सदानंद बाबू की होली

यों तो पुराने खिलाड़ी हैं सदानंद बाबू. लोगों की नस नस से वाकिफ़ हैं. जानते हैं कि हर साल की तरह इस बार भी होली पर परेशान करने आएंगे लुच्चे. पिछली बार जब उन्होने दरवाज़ा नहीं खोला था तो कुछ देर बाद ऑन लाइन पार्सल डिलिवरी बॉय के बहाने उल्लू बना कर खुलवा लिया. जैसे ही वे पार्सल लेने के लिए बाहर निकले पार्सल बॉय बने लड़के ने उन्हें पकड़ कर बाहर खेंच लिया. मोहल्लेभर में पानी की किल्लत थी इसलिए लोग पेस्टनुमा रंग लगा रहे थे. बालों में सूखा रंग ऐसे भर दिया जैसे दुल्हन की मांग भरी जाती है यूपी बिहार में. दिक़्क़त ये कि इसे धोने साफ़ करने के जतन में रंग और फैल जाता है. ऊपर से जुल्म ये कि यह सिलसिला चार-पांच दिन जारी रहता है. नहाओ तो लगता है शावर से रंग बरस रहा है. सूखी होली तो लोग खेल लेते हैं लेकिन सूखे स्नान का कोई प्रावधान नहीं है! जितना पानी बचता नहीं उससे ज़्यादा नहाने धोने में बर्बाद हो जाता है! एक बार उन्होंने युक्ति आज़माई कि भई हमारे यहां ग़मी का घर है, एक रिश्तेदार सिधारे हैं सो होली नहीं खेलेंगे. हुलियारों ने तुरंत एक श्रद्धांजलि ठोकी, दो मिनट का मौन चिपकाया और फिर ‘बुरा ना मानो होली है’ के साथ टूट पड़े. ग़मी के कितने रंग होते हैं उस दिन पता चला. रंग लगाने वाले कहने को गिलेशिकवे दूर कराते हैं, लेकिन असल में अपने अरमान निकाल कर जाते हैं. इसलिए हर साल वे होली नहीं खेलने के उपायों के आविष्कार में लग जाते हैं.


पहला विचार तो यही आया कि होली के दिन निकाल जाएं कहीं बाहर. न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी. लेकिन कहां! आजकल समान्य दिनों में लोग सुरक्षित नहीं हैं तो होली के दिन कोई उम्मीद रखना गंजे के सिर पर बाल उगाना है. कोई मिलता नहीं है तो लोग सांड़ तक पर भी रंग डालते हैं. सांड़ साहब तो होली खेलते नहीं हैं, लेकिन होली पर रंगे ख़ूब जाते हैं. फिर सदानंद बाबू में तो सांड़ होने की एक भी विशेषता नहीं है. लोगों को तो शरीर चाहिए पोतने के लिए. पकड़ में आ गए तो सबसे पहले मुंह काला या सिल्वर. ग़रीब की जोरू सबकी भौजाई इसी दिन के लिए होती है. जिसका कोई नहीं होता है, सुना है उसका भगवान होता है, किंतु होली पर वह फ्री नहीं होता है.


इन दिनों चुनावी माहौल है शबाब पर. कटआउट, पोस्टर और पुतलों से लोग अपने अपने जिन्न जगाने की कोशिश में लगे हैं. ऐसे में विचार आते-जाते हैं. कई बार कौंधते भी हैं. सदानंद को भी विचार कौंधा, और ऐसा कौंधा कि वे लगभग उछल पड़े. अब होली के दिन वे घर में ही बंद हैं. बाहर के दरवाज़े पर ताला और सूचना लटका दी है कि ‘आवश्यक कार्य से बाहर गए हैं.’ कंपाउंड की दीवार से अपना एक आदमक़द फ़्लेक्स टिका दिया, साथ में यह संदेश कि ‘होली सबके लिए शुभ हो, पोस्टर को रंग लगा कर कृपया अपना चित्त निर्मल करें.’ नियत समय पर टोला आया. कहते हैं अधिक हो जाए तो चालाकी ख़ुद बोलने लगती है. लड़कों को समझते देर नहीं लगी कि अगर सदानंद बाबू घर पर नहीं हैं तो उनका अख़बार यहां क्यों नहीं पड़ा है! एक ने कान लगाया दीवार से और दूसरे ने मोबाइल पर कॉल किया और रिंगटोन सुन ली. तीसरे ने ज़ोर से सुनाते हुए घोषणा की कि ‘सदानंद  बाबू अंदर ही हैं और हमें बेवकूफ़ बना रहे हैं. अब डबल डोज़ देना पड़ेगा. रौशनदान से रंग डालो.’ दूसरी आवाज़ वैधानिक चेतावनी के साथ आई कि ‘अरे भई ऐसा मत करो, उनका सोफ़ा, टीवी वगैरह ख़राब हो जाएगा. सदानंद बाबू भले ही समझदार न हों, भाभी जी तो हैं, कॉलबेल बजाओ.’


सदानंद झांसे में नहीं आने वाले थे, लेकिन गृहणी को हज़ार चिंताएं होती हैं. घर उनका होता है असल में, तो घर की चिंता भी उन्हीं को होना स्वाभाविक है. पता नहीं कब उन्होंने पीछे का दरवाज़ा खोल दिया. तीन-चार मुश्टंडों ने सदानंद को बाइज़्ज़त दबोच लिया और डंगा डोली करते मैदाने रंग में ले आए. वे गिड़गिड़ाते रहे कि इस बार होली का चंदा भी ज़्यादा लिया है आप लोगों ने. कुछ तो लिहाज़ करो भई. लेकिन किसी ने कुछ नहीं सुना. चंदे की पाई-पाई का हिसाब कर वे आराम से चले गए.


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