कहानी: सीता जब वन नहीं गई
पहले मैंने इस कहानी का शीर्षक ‘बेचारी सीता’ सोच रखा था. पर फिर सोचा सीता और बेचारी कैसे? उससे ज़्यादा स्वाभिमानी और ज़िद्दी कोई औरत तो हमारे महाकाव्यों में हुई ही नहीं. बचपन में अपनी मां से सुना कि दशहरा वो दिन है जिस दिन राम ने रावण का वध किया था. रावण को दशहरे के दिन जलाने का अभिप्राय भी यही है कि सारी बुराइयों को जला दो और एक नए जीवन की शुरुआत करो.
उसके बाद दीपावली के दिन राम सीता के साथ वापस अयोध्या आए थे. थी तो वो अमावस की रात, दीप जला उनका स्वागत किया था अयोध्यावासियों ने. तब से आज तक राम आने की ख़ुशी में हम अपने घरों में दिए जलाए जा रहे हैं. ये सब जानकी देवी अपने दोनों नाती को सुना रही थीं और वे दोनों भी बड़े ध्यान से ‘आगे’ कह कर सुनते जा रहे थे. थक कर जानकी देवी ने कहा ‘आगे अब कुछ नहीं.’ और उन्होंने अपनी कहानी समाप्त की.
नाम था उनका जानकी मां-बाप ने सीता के नाम पर रखा कि कोई राम उन्हें महल में ब्याह कर ले जाएगा. उनके रूप और गुण के क़िस्से सारे गांव में मशहूर हो गए. ब्याहने आए भी राम स्वरूप और ब्याह ले गए. वो तो राम ही थे लेकिन वो सीता नहीं बन पाई. ब्याह के बाद उनकी नौकरी बम्बई में लगी और उन्होंने उनसे साथ चलने को कहा, लेकिन वो अपने बीमार दशरथ और कौशल्या यानी सास-ससुर को छोड़ ना जा पाई. काश उन्होंने भी सीता जैसी हिम्मत दिखाई होती और सब कुछ छोड़ अपने राम के साथ वनवास के लिए चली गई होतीं, लेकिन दिमाग़ में तो मां की पढ़ाई हुई घुट्टी भरी हुई थी कि लड़की का ब्याह केवल लड़के से नहीं पूरे परिवार से होता है.
सास और ससुर मां-बाप की तरह होते हैं, उनका ख़्याल रखना हर बहू का फ़र्ज़ होता है. मन में सोचा कि अपने बाबूजी बीमार होते तो क्या वो जाती, सोचकर रुक गई. सीता की तरह राम के साथ ना जा पाई. वहां तो शायद राम ने सीता से राजमहल में अपने बूढ़े पिता दशरथ के साथ रुकने का आग्रह भी किया था, जिसका पालन करने से सीता ने साफ़ इंकार कर दिया और तो और लक्ष्मण भी अपनी उर्मिला को छोड़ भाई-भाभी के साथ वन की ओर चल पड़े. यहां राम स्वरूप जी ने उनसे ना केवल अपने साथ बम्बई चलने की ज़िद की बल्कि धमकी भी दी कि अगर वो साथ ना चली तो वे उनकी सौत ले आएंगे. लेकिन वो भी ठहरी मूर्ख, उस वक़्त सास-ससुर पर मां-बाप से ज़्यादा प्यार आया और वो उनके साथ वहीं गोरखपुर में रुक गई.
सास समझाती राम चरित मानस पढ़ो, कुछ सीखो, सचमुच की सीता बनो. ये मन में सोचती कि रामायण की रचना तो महर्षि वाल्मीकि ने की थी. उनका हृदय एक क्रोच पक्षी के जोड़े के विछोह को देख इतना व्यथित हुआ कि उसी मनस्थिति में उन्होंने रामायण का निर्माण कर दिया. क्या वे उर्मिला यानी लक्ष्मण की पत्नी का दर्द नहीं समझ पाए. इस कलयुग की जानकी अपनी ज़िंदगी की तुलना उर्मिला से करती. जब लक्ष्मण अपने भाई-भाभी के साथ वन गए तो उर्मिला को अपने मां के पास छोड़ गए. उर्मिला बेचारी तो एक कुसुम कलिका की तरह राजा प्रसाद के किसी कोने में एक दो नहीं चौदह सालों तक विरह वेदना में तड़पती रहीं.
उर्मिला की तरफ़ से तो केवल वाल्मीकि नहीं तुलसीदास जी भी निष्ठुर हो गए. दोनों ही ग्रंथों में उर्मिला के त्याग का कोई उल्लेख ही नहीं है. उनका सोचना था पूरे त्रेता युग में सीता से ज़्यादा मज़बूत स्वाभिमानी और अपनी शर्तों पे जीनेवाली कोई स्त्री थी ही नहीं. घर पर रखी राम चरित मानस पढ़ती और बार उनका मन दो लाइनों पर अटक जाता जानकी लघु भगिनी, सकल सुंदरी शिरोमणि जानिके सो तनय दिनहि ब्याही, लखनहि सकल बिधी सनमानी के ख़ुद तो थी जानकी पर अपने में उर्मिला को देखती.
सीता ने अपना स्वाभिमान अपनी हठधर्मिता पूरे रामचरित मानस में दिखाई. उस काल में भी स्वयंवर रचाया गया, रावण का परिहास किया. विवाह के जब पति को वनवास हुआ तो ख़ुद भी बीमार ससुर को छोड़ साथ चली गईं. पति और देवर को उस मृग के पीछे दौड़ाया मतलब ही है कि अपनी इच्छा का पूरा सम्मान किया. लक्ष्मण रेखा लांघी क्योंकि उन्हें लगा कि पति की आज्ञा से कहीं ज़्यादा एक भिक्षुक की भिक्षा है. अपने मन की ज़्यादा सुनी, और यही नहीं हनुमान जी को लंका से यह कह लौटाया कि जब श्रीराम उन्हें लेने आएंगे तभी वे जाएंगी. क्या कलयुग की जानकी ये सब कर पाई?
विवाह के बाद केवल चार दिन ही पति साथ रहे और पेट में अपनी निशानी छोड़ गए. बगल में ही पति के लंगोटिया यार लक्ष्मण प्रसाद यादव रहते थे. घर पर तो कोई लक्ष्मण था नहीं इससे ससुर-बहू की तबीयत ख़राब होने पर बगल वाले लक्ष्मण को ही बुला लाए. बार-बार कै करती और ख़ून की कमी से गुलाबी से सफ़ेद हो गई जानकी भाभी की हालत उस लक्ष्मण से देखी नहीं गई. वे ही उन्हें डॉक्टर के पास चेकअप के लिए ले गए. पति को कई चिट्ठियां लिखी गईं, उन्हें मिली भी या नहीं इसका कोई प्रमाण भी नहीं था. वो नहीं आए, तब उन्हें पिता की बीमारी का तार दिया गया. जब रामस्वरूप घर पहुंचे उसी दिन लक्ष्मण जी उन्हें पास के अस्पताल जांच कराने ले गए थे. उन्हें उदास देख उनके चेहरे पर हंसी लाने के लिए सचमुच के लक्ष्मण जी ने अपनी जानकी भाभी के लिए बिंदिया टिकली और चूड़ियां ख़रीद दी.
घर पहुंच रामजी ने सीता के लक्ष्मण के साथ बाहर जाने पर आपत्ति ज़ाहिर की. माता-पिता ने बहुत समझाया लेकिन उन्होंने तो अजन्मी संतान को भी अपना नाम देने से मना कर दिया. दूसरे ही दिन बिना जानकी से बात किए वो वापस चले गए. सीता को रामजी ने धोबी के कहने पर निकाल दिया अपना राजधर्म निभाने के लिए. लेकिन यहां तो राम स्वरूप ख़ुद घर छोड़ चले गए पता नहीं कौन-सा धर्म निभा रहे थे, लेकिन माता-पिता ने जानकी का साथ दिया और पोते के जन्म पर ख़ुशियां भी मनाई. यहां उन्हें अपने और सीता के भाग्य में कुछ समानता लगी. सीता की तरह ससुर वाल्मिकी बन गए और बालक कुशल अपने बाबा को ही पिता मान बड़ा होने लगा. दूसरी ज़रूरतें लक्ष्मण चाचा पूरी कर देते थे.
जानकी जी थोड़ी-पढ़ी लिखी थी इससे बेटा बड़ा होता गया और वो गांव की महिलाओं को साक्षर और स्वाभिमानी बनाने में लगी रहीं. सीता ने पति का घर छोड़ा तो कभी पलट कर वापस आने की ना सोची. सीता त्रेता युग की महान स्त्री राम जैसे राजा के सामने भी नहीं झुकी और अग्नि परीक्षा के बाद अपनी मां धरती में समा गई. लेकिन छोटे से शहर की जानकी ने ना केवल ख़ुद को स्वावलंबी किया बल्कि बेटे को भी इतनी अच्छी तालीम और संस्कार दिए कि वो किसी सीता की कभी अग्निपरीक्षा ना ले. समय बीतता गया, हर दशहरा और दीपावली उनके घाव हरा करते गए. अब तो वो दादी बन गई है पर अब भी जब रामचरितमानस पढ़ती हैं, उर्मिला के लिए आंसू बरबस निकल आते हैं.
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