कहानी: वचन सूत्र

नए घर को सजाने की इच्छा नयना में हमेशा से थी. जब किशोरावस्था में प्रवेश किया था, उसने तभी से पत्रिकाओं के गृहसज्जा विशेषांकों पर उसकी दृष्टि अटक जाया करती थी. मां से ज़िद कर वह इन पत्रिकाओं को ख़रीदती और फिर कई-कई बार पन्ने पलटकर अपने घर को सजाने के स्वप्न बुनती रहती. इतने वर्षोंपरांत आज उसकी ये इच्छा पूरी हो रही थी. शाश्वत का तबादला बैंगलोर में होने से वो अपना छोटा-सा नीड़ बसाने यहां आ गए थे. वैसे तो भोपाल की अरेरा कॉलोनी में भी उनका शानदार मकान है, किन्तु एक बसे-बसाए संयुक्त परिवार में ब्याह कर आई नयना को एक भी मौक़ा नहीं मिला था वहां गृहसज्जा का. फ़र्नीचर का कोई हिस्सा हो या शोपीस का कोई टुकड़ा, किसी भी वस्तु की जगह बदलने का अधिकार उसे सासू मां से नहीं मिला था. 

आख़िर वो घर सासू मां ने अपने टेस्ट से सजाया था. इसीलिए बैंगलोर आकर वो बहुत प्रसन्न थी. बीटीएम लेआउट में एक दो-कमरे के मकान में शिफ़्ट कर लिया था. हालांकि ये घर भोपाल के घर की तुलना में काफ़ी छोटा था,“पर हम बंदे भी तो तीन ही हैं, और कितना बड़ा घर चाहिए हमें!,” शाश्वत का कथन सटीक था. एक कमरे में आठ वर्षीय बेटा आरोह और दूसरे में नयना-शाश्वत सब कुछ ठीक से सेट होने लगा था.  

धीरे-धीरे जीवन अपनी रफ़्तार पकड़ने लगा. आरोह सुबह स्कूल चला जाता और शाश्वत अपने दफ़्तर. फिर घर को सुव्यवस्थित कर नयना अक्सर वॉक पर निकल जाया करती थी.

‘‘यहां का मौसम, मैं क्या बताऊं... ठीक ही कहते हैं इसे एसी सिटी. जब दिल करे तब बाहर निकल सकते हैं,’’ नयना अपनी बड़ी बहन से फ़ोन पर बातें करती हुई चहलक़दमी कर रही थी. “भोपाल की तरह नहीं कि भरी दुपहरी में इंसान घर से तो क्या कमरे से भी बाहर न निकलना चाहे.”  

“बैंगलोर में ही तो सौरेश भैया रहते हैं, तू कभी मिल क्यों नहीं लेती उनसे?,’’ दीदी से ये बात जानकार नयना का मन सौरेश भैया से मिलने का हो आया.

“हां दीदी, शादी के बाद कभी मिलना ही नहीं हुआ उनसे. पिछली बार जब मिले थे उनकी शादी में तब मैं पोस्टग्रैजुएशन के आख़िरी वर्ष की परीक्षाएं दे रही थी.”

सौरेश, नयना की बुआ का लड़का था. उन दोनों की उम्र में तीन वर्ष का अंतराल होने के कारण उनकी आपस में अच्छी निभती थी. बुआ काफ़ी दूर दूसरे शहर में रहती थीं. फूफाजी का परिवार काफ़ी बड़ा था और सारी ज़िम्मेदारियां उन्हीं पर थीं सो बुआ का आना कम ही हो पता था. दो-तीन वर्षों में चक्कर लगता था एक-दूसरे के घर का, छुट्टियों में. या कोई शादी-ब्याह आ गया तो उसमें सभी की टोली एकत्रित हो जाती थी. बड़े होने तक सभी भाई-बहनों की शादियां हो चुकी थीं. सौरेश भैया की शादी में नयना गई थी पर इसकी शादी में सौरेश विदेश गया होने के कारण नहीं आ पाया था. फिर सभी अपनी-अपनी ज़िंदगी में व्यस्त हो गए. आज ये पता चलने पर कि वो भी इसी शहर में है, नयना को ये शहर कुछ अपना-सा लगने लगा था. उसी दिन बुआ को फ़ोन किया और सौरेश का फ़ोन-नंबर लिया.

“पहचानो कौन बोल रही हूं,’’ बाल-सुलभ हंसी-ठिठोली करने लगी नयना फ़ोन पर.

“आप ही बता दीजिए, हम तो आपकी आवाज़ सुनकर ही हार बैठे हैं,’’ सौरेश की आवाज़ पहले के मुक़ाबले परिपक्व प्रतीत हो रही थी. किन्तु उसके बात करने का रंग-ढंग नयना को किंचित अजीब लगा. न जाने क्यों पर उसके ज़हन में फ़िल्मों के पुराने विलेन रंजीत की छवि अवतरित हो गई, मानो वो मुंह बिचकाए अपनी गर्दन पर हाथ फिराते हुए ये कह रहा हो.
बात को लंबा न खींचते हुए नयना बोल पड़ी,“सौरेश भैया, मैं नयना! मैं अब बैंगलोर में रहने आ गयी हूं. पता चला आप भी यहीं रहते हैं सो फ़ोन घुमा डाला.”

“ओह, नयना तुम!,’’ शायद सौरेश, नयना की आवाज़ से भ्रमित हो किसी और को समझ बैठा था.

“कैसी हो, कहां रह रही हो? तुम्हारे दूल्हे मियां कहां काम करते हैं?” और दोनों का काफ़ी अरसे से छूटा हुआ तार एक बार फिर जुड़ने लगा. नयना ने अपने घर का पता बताया तो सौरेश बोला,“मेरा ऑफ़िस कुछ ख़ास दूर नहीं है. चल, आता हूं तुझसे मिलने अभी.”

“अभी?,’’ नयना का चौंकना स्वाभाविक था. “शाम को आओ न भाभी और गुड़िया को लेकर. इनसे भी मिलना हो जाएगा.”

“तेरे ‘इनसे’ भी मिल लेंगे, पर अभी तुझसे मिलने का मन हो रहा है. देखूं तो सही इतने सालों में कितना बदल गई है. क्या अब भी माथे पर गिरती अपनी लट को फूंक से उड़ाती है?” सौरेश की बात से नयना के मस्तिष्क पटल पर लड़कपन की स्मृतियां तैरने लगीं.

सौरेश एक छोटे क़स्बे में रहता था और नयना महानगर में ही पली-बढ़ी थी. उसकी स्टाइल्स से सौरेश सदैव प्रभावित रहा था. जब भी मिलता और नयना उसे हैलो-हाय करती तब हमेशा कहता,‘ज़रा फिर से हाय बोल कर दिखा, तेरे मुंह से बहुत अच्छा लगता है.’ सौरेश को अब तक याद है कि नयना माथे पर गिरती अपनी लट को फूंक से उड़ाती थी ये सोच कर उसे हंसी आ गई.

कुछ ही देर पश्चात घंटी बजी तो नयना समझ गई कि सौरेश भैया होंगे. उनके आने से पूर्व उसने भोजन की तैयारी कर ली थी फटाफट आलू-टमाटर की तीखी रसेदार सब्ज़ी, और मिक्स-वेज बना डाली थी. आटा भी मल कर रख दिया था, बस रोटियां सेंकनी बाक़ी थीं. इन्हीं सब कामों को निबटाते उसे लिपस्टिक लगाने तक का समय नहीं मिला था. बालों को जूड़े में बांधते हुए उसने दरवाज़ा खोला. सौरेश भैया समकक्ष खड़े थे. काफ़ी बदलाव आ गया था उनमें बाल उड़ गए थे, चेहरे पर परिपक्वता आ गई थी और चश्मा भी लग गया था.

“भैया,’’ कहते हुए नयना जैसे ही आगे बढ़ी सौरेश ने लगभग खींचते हुए उसे अपनी बाहुपाश में जकड़ लिया. और फिर इतना कसकर गले लगाया कि उसकी ब्रा का हुक उसकी पीठ में धंस गया. उसने सौरेश की मुट्ठियों को अपनी पीठ पर महसूस किया जैसे वो उसे सौरेश की छाती में चिपकाए डाल रही हों. नयना कसमसा उठी. ये क्या तरीक़ा है मिलने का? कोई भाई-बहन ऐसे गले मिलते हैं भला? जैसे ही वो छिटककर दूर हुई, सौरेश हंसते हुए सोफ़े पर विराजमान हो गया.

“और सुना, क्या हाल-चाल हैं तेरे? यहां कैसे आ गई, हमने तो भोपाल में ब्याही थी,’’ सौरेश सामान्य ढंग से बातचीत करने लगा. नयना ने अपना मूड ठीक किया, सोचा शायद इतने वर्षों से संयुक्त परिवार और एक बी-ग्रेड शहर में रहने के कारण वो हर चीज़ को संकीर्णता से देखने लगी है. उसने बरसों बाद मिले अपने भाई से खूब गप्पें लगाईं, उन्हें खाना परोसा और अपनी शादी का एल्बम भी दिखाया. जल्दी ही फिर मिलने का वादा कर सौरेश चलने को हुआ. नयना उसे विदा करने लिफ़्ट तक आई. “एक सेल्फ़ी तो बनती है,’’ कह सौरेश ने नयना के साथ दो-तीन सेल्फ़ी लीं. जाने से पहले एक बार फिर सौरेश ने नयना को अपने सीने से एकमेक कर लिया. एक बार फिर नयना को सौरेश की मुट्ठियों का धक्का महसूस हुआ. क्या ये ग़लतफ़हमी है या फिर... नयना एक अजीब उलझन अनुभव करने लगी. बरसों बाद मिला भाई, उसके बारे में ऐसी शंका अपने पति से भी नहीं बांट सकती थी.

कमरे की बत्ती बुझा जब नयना बिस्तर पर लेटी तो उसके मन-मस्तिष्क में जो कीड़े कुलबुला रहे थे वो और तेज़ी से हरक़त में आने लगे. सौरेश भैया हमेशा ही नयना के इर्द-गिर्द रहा करते थे. उसे याद आने लगी मम्मी की चिड़चिड़ाहट,‘‘ये सौरेश तेरा हाथ क्यों पकड़े रहता है?” किशोरावस्था में उसे मम्मी की ये सोच कितनी ओछी लगती थी. सौरेश का सदा उसकी प्रशंसा करना, उसकी अदाओं की तारीफ़ों के पुल बांधना, उसे अपनी गर्ल-फ्रेंड्स के क़िस्से सुनाना, नयना को कितनी भाती थी इतनी तवज्जो. 

एक फ़िल्मी रील की तरह पुरानी बातें उसकी आंखों के सामने प्रतिबिंबित होने लगीं... जब दीदी की शादी में सौरेश भैया आए थे तब मिलते ही उन्होंने हाथ आगे बढ़ाया था. “ओए होए, हैंड शेक!,’’ हंसते हुए नयना के हाथ मिलाने पर उन्होंने अपनी एक अंगुली नयना की हथेली में धंसा दी थी. अटपटा-सा लगा था तब भी उसे. फिर कई बार उन्होंने ऐसा ही किया था. ऐसे ही जब नयना उनकी शादी में शामिल होने गई थी तब हल्दी की रस्म के दौरान, जब नयना उन्हें हल्दी लगाने आई थी तब सौरेश ने अपने हल्दी-लगे गालों को नयना के गालों पर रगड़ दिया था. तब उसकी किशोरी बुद्धि इन हरक़तों को खेल समझती रही. किन्तु आज शादी के इतने समयोपरांत ऐसे कार्यकलाप उसे जंच नहीं रहे थे.

अगले पक्ष में नयना को सपरिवार सौरेश व उसकी पत्नी अपूर्वा ने अपने घर आमंत्रित किया. आरोह, शाश्वत तथा नयना उनके घर पहुंचे. सौरेश एक उच्च पदाधिकारी था सो उसका घर भी उसकी वस्तु-स्थिति का अच्छा झरोखा था. कोरमंगला में स्थित शोभा बिल्डर द्वारा निर्मित ऊंची इमारतों में से एक, अपूर्वा भाभी ने घर बहुत ही टेस्टफ़ुली सजाया था. उनके घर की साज-सज्जा, उनका फ़र्नीचर, दीवारों पर टंगी सिग्नेचर-चित्रकारियां सबने नयना का मन मोह लिया.
‘‘वाह भाभी, कितना सुंदर रखा है आपने घर,’’ घर में प्रवेश करने पर नयना और अपूर्वा ने एक-दूसरे को आलिंगनबद्ध किया. नयना फिर सौरेश की ओर अग्रसर हुई. वो देखना चाहती थी कि सौरेश का उसे गले लगाने का ढंग आज परिवार की मौजूदगी में भी वैसा ही था या कुछ अलग. लेकिन आज तो सौरेश ने उसे गले लगाया ही नहीं. केवल उसके कंधे पर हल्के से थपथपाया और आगे बढ़ गया. आज सौरेश उसकी तरफ़ देख भी नहीं रहा था. अपितु आज वो सबके समक्ष अपनी पत्नी को देख-देख मुस्कुरा रहा था. कभी अपूर्वा के कान में हौले से कुछ खुसफुसा कर हंस देता तो कभी उसका हाथ थाम अपने कंधे को उसके कंधे से टकराता.

घर लौट कर शाश्वत कहने लगे,“तुम्हारे भैया-भाभी में बड़ा प्यार है. देख कर लगता ही नहीं कि शादी को इतने बरस बीत चुके, लगता है जैसे आज भी हनीमून चल रहा हो. बीवी को ख़ुश रखने का मंत्र आता है उन्हें.”

नयना का मन सौरेश की तरफ़ से कसैला हो चुका था. अकेले में कुछ और व्यवहार और पत्नी व परिवार के समक्ष कुछ और. इसका अर्थ तो शीशे की भांति पारदर्शी है-सौरेश भाई-बहन के रिश्ते को ताक पर रखकर मौक़े का फ़ायदा उठाता रहा और नादान नयना उसकी मंशा समझ नहीं पाई. मां ने इशारा दिया तब भी नहीं. उसके परिवार में ऐसी बातें खुल कर नहीं की जाती थीं तो मां ने भी कुछ खुल कर नहीं कहा. आज वो और सौरेश एक ही शहर में हैं तो मिलना-जुलना होता रहेगा. ऐसे में कसैले मन से वो कैसे मिलती रहे उससे? किन्तु दुविधा ये थी कि साफ़तौर पर कुछ हुआ तो नहीं है इसलिए कुछ खुलकर कहा भी नहीं जा सकता है. 

ये सब उसकी अंतर-भावना के स्वर थे. “केवल गट-फ़ीलिंग के आधार पर इतनी बड़ी बात कही नहीं जा सकती है,’’ नयना सोच-सोच निढाल हो रही थी. सौरेश का वर्गीकरण गंदा या अच्छा व्यक्ति की श्रेणी में करने से पूर्व नयना को कभी किसी पत्रिका में पढ़ी एक मनोवैज्ञानिक बात याद हो आई,‘तार्किक बुद्धि कहती है कि चीज़ें श्वेत या श्याम नहीं होतीं, वे इन दोनों के बीच धूसर वर्ण वाली होती हैं.’ यही तो जादू है किताबों का, जब जिस ज्ञान की आवश्यकता होती है, तब पुरानी पढ़ी हुई बात स्वतः ही मानसपटल पर उभर आती है. नयना सोच में पड़ गई कि कुछ आपत्तिजनक घटना नहीं घटी है, और एक रिश्ता है तो जीवन में मिलना पड़ेगा. लेकिन अब वो किसी संकोच, किसी ग़लतफ़हमी का शिकार नहीं बनेगी.
कुछ दिनों पश्चात रक्षाबंधन का त्यौहार आया. एक ही शहर में होने की वजह से नयना सपरिवार त्यौहार मनाने सौरेश के घर पहुंची. अपूर्वा ने सारी तैयारी पहले से ही की हुई थी. सौरेश और अपूर्वा की बेटी गुड़िया ने नयना और शाश्वत के बेटे आरोह को मिठाई खिलाई और राखी बांधी. आरोह ने अपनी बहन को तोहफ़ा दिया. फिर नयना ने सौरेश को राखी बांधी. सौरेश अपनी जेब से रुपए निकाल नयना को देने लगा. अपूर्वा और मिठाई लाने रसोई में गई तो मौक़ा पा नयना ने अपने दिल की बात सौरेश से कह डाली,“सौरेश भैया, मुझे आपके पैसे नहीं चाहिए. मुझे आपसे अपनी रक्षा का वचन भी नहीं चाहिए. वो मैं स्वयं कर लूंगी. मुझे आपसे बस ये वचन चाहिए कि आप हमारे रिश्ते की मान-मर्यादा बनाए रखेंगे.”

कुछ ऐसा था नयना की दृष्टि में जिसने सौरेश की नज़र झुका दी. बिना कहे ही सब कुछ कह गई थी वो. एक रिश्ता टूटने से बच गया था और बिगड़ने से भी.  

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