कहानी: तलाश
मां-बेटी में फिर से बहस होने लगी थी. महीने में तीन दिनों के लिए अर्पिता दिल्ली आती थी और उतने में ही तीन-चार बार मां-बेटी की बहस हो जाती थी. मुद्दा एक ही होता था-शादी. अर्पिता का तेज़ स्वर बाहर तक सुनाई पड़ रहा था,‘‘मां मैंने कह दिया न कि मुझे शादी नहीं करनी है.’’
‘‘पर क्यों, छब्बीस पार हो चली है, नौकरी भी अच्छी-ख़ासी है. फिर रुकना क्यों है? अभी तो अच्छे रिश्ते आ रहे हैं, उम्र बढ़ गई तो वो आना भी बंद हो जाएंगे,’’ पत्नी ने कहा.
‘‘मुझे शादी-वादी के झंझट में नहीं पड़ना है. ये घर-परिवार की, पति की चाकरी मेरे बस की बात नहीं है. मैं अकेली ही भली.’’
‘‘कब तक अकेली रहोगी? वो भी मुंबई जैसे शहर में? आख़िर साफ़-साफ़ बताती क्यों नहीं तुम?’’
‘‘सुनना ही चाहती हो तो सुनो-मैं लिव इन रिलेशनशिप में हूं. मेरा कलीग है गौरव, उसके साथ.’’
‘‘क्या?’’ पत्नी को काटो तो ख़ून नहीं. आजकल ख़ूब पढ़ रही थी पत्र-पत्रिकाओं में लिव इन के बारे में. महिला मंडल में जमकर भर्त्सना भी की थी इस बेशर्मी की उसने. क्या पता था अपने ही घर में.
‘‘हे भगवान, यह सब सुनने से पहले तूने मुझे उठा क्यों नहीं लिया?’’ मां का करुण विलाप शुरू होता देखकर अर्पिता पैर पटकती हुई बाहर निकल गई.
मैं वॉक से लौट रहा था कि गरमा-गरमी कानों में पड़ी. कमरे के दरवाज़े पर ठिठका दोनों की बातें सुन रहा था. पत्नी कमरे में बैठी सिसक रही थी. एक मन हुआ कि जाकर उसे सांत्वना दे आऊं. पर सोचा बात और बढ़ जाएगी. वैसे भी मुद्दा कुछ ज़्यादा ही संवेदनशील था अत: शांति से काम लेना ही उचित था. पत्नी का बिफरना स्वाभाविक था. उसकी सोच भले ही प्रगतिशील थी, मगर मूल्य तो भारतीय ही थे. औरत विश्वास की महीन डोर को थामकर सारा जीवन बिता देती है. इसी विश्वास के सहारे उसने अर्पिता को बाहर भेजा था. मगर आज जब वह विश्वास टूटा तो वह बिखर गई थी. और विश्वास को दरकानेवाला कोई और नहीं था, अपना ही ख़ून था.
अर्पिता मुझे कुछ कहने का अवसर दिए बिना ही शाम की फ़्लाइट से मुंबई निकल गई. पत्नी सिर पर कपड़ा बांधकर कमरे में पड़ी थी. मैंने अपने लिए एक बड़ा ग्लासभर दूध बनाया और बालकनी में आ बैठा. दो साल पहले पीलिया होने के बाद डॉक्टर ने ड्रिंक्स न लेने की सख़्त हिदायत दी थी. तब से दूध का बड़ा ग्लास बनाकर, सिप मारकर ही तसल्ली कर लेता हूं. मुझे अपने आप पर हैरत हो रही थी कि अर्पिता के इतने बड़े रहस्योद्घादटन पर भी मेरे मन में किसी तरह की उद्विग्नता क्यों नहीं? क्या इस भवितव्य की कल्पना पहले से थी मुझे? अर्पिता सुंदर है, युवा है, एक प्रसिद्ध कंपनी में काम करती है. हर महीने एक मोटी रकम वेतन के रूप में पाती है और एक आदर्श बेटी का फ़र्ज़ अदा करते हुए हमारे अकाउंट में हर महीने ढेर-सा रुपया जमा करती है. सच कहूं तो इतना रुपया मैंने अपनी नौकरी में कभी नहीं बचाया जितना वह आज हमें दे रही है. क्या यही सब सोचकर आज मैं चुप हूं? उसकी ‘हां’ में ‘हां’ मिलाना चाहता हूं? या ज़माने की प्रगतिवादी सोच के साथ जुड़कर स्वयं को आधुनिक साबित करना चाहता हूं?
मेरा ध्यान फिर से पत्नी की ओर चला गया. मेरी साधारण-सी नौकरी में घुट-घुटकर जीती मेरी पत्नी अर्पिता के दम पर अपने जीवन भर की अधूरी हसरतें पूरी कर रही थी. महंगी साड़ियां, लेटेस्ट फ़ैशन के गहने. लेडीज़ क्लब का पदाधिकार. सब कुछ रुपए के बल पर ही हो रहा था और रुपया भेजनेवाली थी अर्पिता.
मेरा ध्यान अचानक लिव इन पर चला गया था. भले ही इस तरह के रिश्ते समाज में ग़लत माने जाते हों, मगर दिन पर दिन सामाजिक रिश्तों के विकृत होते जाने और परिवार में कमाऊ होने पर भी स्त्री की हालत अच्छी न होने के चलते रिश्तों का अंत इस रूप में होना ही था. अर्पिता जैसी पढ़ी-लिखी, वेल सेटल्ड, लड़कों के बराबर या उनसे ज़्यादा ही कमानेवाली लड़कियां भला क्यों कर पिसेंगी परिवार-ससुराल की ज़िम्मेदारियों में? वह भी उस समाज में जहां पहनावा तो आधुनिक हुआ है मगर विचार उतने ही दकियानूसी हैं. शायद इसीलिए युवाओं ने आसान तरीक़ा खोज निकाला है लिव इन का. ऐसा रिश्ता, जहां जीवनभर के रिश्तों का पट्टा पहनने से बेहतर कोई हमख़्याल साथी ढूंढ़ना. वह भी बिना शर्त. जब तक निभी ठीक. नहीं तो...नहीं.
पर देह से परे एक भूख और होती है मन की भूख. मगर विवाह बंधन में बंधने के बाद भी इस भूख को आहार मिले ही इसकी क्या गैरंटी?
मुझे अपने ही रिश्ते का ख़्याल आया. मैं इतने वर्षों से पत्नी के साथ विवाह धर्म निभाता आया था. उसकी देह का उपभोग करना मेरा अधिकार था, मगर मन...? वर्षों बीतने के बाद भी हम दोनों एक-दूसरे के मन की थाह कभी नहीं पा सके थे. हां, एक बात का ख़्याल दोनों ने रखा कि मन की दूरी किसी भी विवाद का कारण न बने और अर्पिता की परवरिश पर उसका प्रभाव न पड़े.
मन की बात सोचते ही मेरी आंखों में अचानक बिन्नो की तस्वीर कौंध गई थी. यदि मैं आज के युग में जन्मा होता तो क्या बिन्नो के साथ लिव इन जैसा संबंध कायम करता? याद आया गांव का पीपल, जिसे सब भुतहा कहते थे और शाम होते ही उसके पास भी जाने से डरते थे. शाम ढले वही भुतहा पीपल हम दो प्रेमियों के लिए हरसिंगार बन जाता था. मैं और बिन्नो. मेरी उम्र होगी 16-17 और बिन्नो की 13-14.
घंटों पीपल के पीछे खड़े हम बतियाते रहते. मगर कभी उसका हाथ तक थामने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था मैं. बस आंखों से ही उसके रूप को दिल में उतार लिया करता था. एक दिन अचानक आंसू भरी आंखों से मुझे जीभर देखते हुए उसने कहा,‘‘वीरेन, अब मुझसे मिलने मत आना. कल मेरी सगाई है. बापू को पता चल गया तो तुम्हें जान से मार देगा.’’
उस आख़िरी मुलाक़ात में मैंने पहली बार उसकी नाज़ुक उंगलियों को छुआ था. उसके रेशमी होंठों पर अपनी खुरदरी उंगलियों को घुमाकर उनकी मिठास का जायज़ा लिया था. शायद उसे पराए हाथों में सौंपने से पहले उसे तन-मन में बसा लेना चाहता था. उस पहले और अंतिम स्पर्श का रोमांच आज भी महसूस कर सकता हूं मैं. बिन्नो की सगाई हो गई और मैं पढ़ाई के लिए शहर चला आया. धीरे-धीरे बिन्नो स्मृति की किताब का पन्ना बनती गई.
अचानक मोबाइल घनघनाया. अर्पिता थी.
‘‘पापा, मां को समझाना प्लीज. आप तो मुझे समझ सकते हैं. कुछ बातें बस हो जाती हैं. पुरानी बातें भूलने का यही रास्ता था मेरे पास.’’
‘‘मैं समझता हूं बेटी, पर हर निर्णय सोच-समझकर लेना,’’ मैंने कोमलता से कहा.
अर्पिता कॉलेज में थी, जब मेरे मित्र के दूर के रिश्तेदार के बेटे से उसकी सगाई पक्की हो गई थी. दोनों एक-दूसरे को पसंद करते थे, सालभर तक साथ घूमना-फिरना चलता रहा. एक दिन अचानक लड़के को एनआरआई लड़की मिली, उसने विवाह के साथ विदेश में सेटल होने का प्रस्ताव दिया. लड़के के परिवार ने झट से अर्पिता का रिश्ता तोड़ दिया और लड़का उस लड़की से विवाह करके विदेश चला गया. उस धक्के से अर्पिता पागल-सी हो गई थी, आत्महत्या का प्रयास कर बैठी. उसे हमने कैसे संभाला हम ही जानते थे. इसके बाद विवाह के फेर में पड़ने से ही उसने मना कर दिया था.
मैंने कमरे में जाकर पत्नी को समझाने का उपक्रम किया. वह जल्दी ही समझ गई. यूं भी समझे बिना चारा ही क्या था. उसने रिश्ते के लिए आए सारे प्रस्ताव वापस भिजवा दिए और लड़की करियर माइंडेड है और अभी शादी नहीं करना चाहती, कहकर रिश्तेदारों का मुंह बंद कर दिया.
दो साल बीत गए. अर्पिता तरक़्क़ी की सीढ़ियां चढ़ती जा रही थी. रुपया, प्रतिष्ठा, ग्लैमर से अटा पड़ा था उसका जीवन.
इस बार दीवाली पर घर आई तो कुछ अनमनी-सी लगी. बड़ी विचलित. मेरे कुरेदने पर फट पड़ी,‘‘आय विल किल दैट बास्टर्ड. मुझे छोड़कर अब अपनी मां की मर्ज़ी से शादी कर रहा है.’’ उसके शब्दों में तिलमिलाहट थी, फिर से ठुकराए जाने का अहसास था.
मैंने हौले से कहा,‘‘जीवनभर साथ निभाने का वादा कब किया था उसने?’’
उसकी आंखें पनीली हो गई थीं. पहली बार मुझे उसकी आंखों में मन की भूख नज़र आई थी.
‘‘बेटा यहां-वहां शांति तलाशने से अच्छा है अपना घर बसा लिया जाए,’’ मैंने उसका सिर सहलाते हुए कहा था.
‘‘पापा इतनी दूर निकलने के बाद मेरे लिए वापस लौटना आसान नहीं है. बंधन को निभाना भी हर किसी के बस में नहीं होता,’’ वह फीकी मुस्कान ओढ़कर बोली.
इस बार वह गई तो मुझे कुशंकाओं के चक्र में उलझा गई. तृप्ति की चाह कहीं उसे किसी अंधी खोह में न धकेल दे.
पर मेरी सारी आशंकाएं निर्मूल साबित हुई. अर्पिता शांत रही और संतुलित भी. शादी के बंधन को ज़रूर उसने सिरे से नकार दिया मगर अनाथालय से एक प्यारी-सी बच्ची को गोद ले लिया है. एक अनाथ का जीवन सुधारने में उसने मन की शांति तलाशी है. अर्पिता ने उसका नाम दीया रखा है. नाना-नानी बनकर हम अक्सर उससे मिलने जाते हैं. पत्नी भी अब प्रसन्न है, मुंबई जाने का बहाना ढूंढ़ती रहती है. कुल मिलाकर जीवन स्थिर हो चला है.
पर सच कहूं तो मुझे अब भी लगता है कि शायद कभी मन की भूख के चलते अर्पिता कहे,‘‘पापा, मेरे लिए कोई अच्छा-सा लड़का देख ही लो अब.’’
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