कहानी: तुम अकेली नहीं
अम्माजी के दिल में हज़ारों राज़ थे. जब कोई राज़ पचाना मुश्क़िल हो जाता तो अकेले में मुझे सुनाकर बच्चों की सौगंध देकर कहतीं कि किसी से कहियो मत. मैं मन ही मन हंस पड़ती. ‘मुझे क्या पड़ी है’ मैंने तो अपना काम करते हुए ‘हूं-हां’ करा होता था, ठीक से सुना भी नहीं होता था. पर अबकी चाचीजी के यहां से आकर जो सुनाया, वो किसी अनजान का क़िस्सा नहीं, गुड्डो की हक़ीक़त थी.
‘‘गुड्डो अबकी वापस ससुराल जाए के समय बहुत रोवे थी. उसके घरवाले ने दो और बीवियां रखी हुई हैं,’’ अम्माजी ने बताया तो मैं हतप्रभ रह गई.
‘‘क्या? क्या कह रही हैं आप? बीवियां मतलब? रखैल कहिए उन्हें! बीवी एक से ज़्यादा कैसे रख सकता है कोई सरकारी कर्मचारी? जेल न हो जाएगी?’’
‘‘जेल में ही है वो. मगर बीवियों के लिए नहीं, कार्यालय से ग़बन करने के लिए,’’ अम्माजी ने खुलासा किया,‘‘लेकिन हमें उसकी चिंता न है. वहां से तो छुड़ा लेगा उसका दरोगा बाप,’’ अम्माजी बोलीं,‘‘समस्या तो सौतों की है. गुड्डो हर तरह से लड़कर देख चुकी है. मगर वो उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं. कहता है कि उन दोनों को तो तुझसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता. तुझे पड़ता है तो तू ही छोड़ दे मुझे.’’
‘‘वाह जी वाह! गुड्डो क्यों छोड़ दे? इतने दान-दहेज के साथ ब्याहकर गई है वो,’’ इस पर मैं झुंझला कर बोली,‘‘मगर रहेगी भी कैसे ऐसे आदमी के साथ? अरे! ये कोई छोटी-मोटी बात थोड़े ही है. अन्याय है, ग़ैरक़ानूनी भी है. चाचीजी ने कुछ किया नहीं?’’ मेरा दिमाग़ झनझना रहा था.
अम्माजी एक ठंडी आह भरकर चश्मा उतार कर आंखों के किनारे पोंछते हुए बोलीं,‘‘वो ख़ुद सोच-सोच कर पागल हुई जाती है, बल्कि सब सोच-सोचकर पगला गए हैं, लेकिन ऐसे कैसे कूद सके हैं किसी मामले में? शायद उसके भाग्य में यही हैं. सच में पगलेट ही है वो. जब चाहत जुड़ गई, दो बच्चों की मां बन गई तब जान सकी सौतों के बारे में? अब तक तो सास-ससुर भी उसी का साथ देवें हैं. उनकी पसंद तो वो ही है. वो दोनों उन्हें भी पसंद ना हैं. अब पति को छोड़ने का इरादा कर ले तो सास-ससुर साथ देवेंगे क्या? अकेली न पड़ जावेगी? फिर बच्चे? बच्चे न दिए उसने तो? बच्चों के बिना जी सकेगी? कोर्ट-कचहरी में तो सबकी छीछालेदर ही होवे है. तोड़ना इतना आसान भी न है बहुरिया, तोड़ने के चक्कर में ख़ुद टूट जावे है औरत.’’
अम्माजी अपने दिल का ग़ुबार निकाल कर चली गईं, पर उनकी ज़ुबान से निकली कड़वी सच्चाई मेरे दिलओदिमाग़ में झंझावात छोड़ गईं. ‘तो इसीलिए पिछले एक-दो साल से जब भी फ़ोन पर बात होती, गुड्डो अजीब-सी बातें करती थी? उलझी हुई, परेशान-सी लगती थी और कारण पूछने पर टाल जाती थी? मैं कोई काम करूं, कहीं भी जाऊं... गुड्डो की यादें जीवंत हो उठतीं. रसोई में जाऊं तो नन्हीं गुड्डो ठंडे पानी का ग्लास लिए खड़ी होती, ‘भाभी प्यास लगी है न?’ गुसलख़ाने में जाऊं तो कानों में उसकी मासूम आवाज़ गूंजती,‘भाभी, चाय पी लो. ठंडे हाथ गरम हो जाएंगे.’
गुड्डो मेरी चचेरी ननद है. संयुक्त परिवार में सास-ससुर, चचिया सास-ससुर, सब मिला कर आठ बच्चे. सबसे बड़े मेरे पति और सबसे छोटी गुड्डो. शादी के पहले दिन ही जगह बना ली थी उसने मेरे दिल में. मेरी मुंह दिखाई की रस्म चल रही थी. उसने मेरा घूंघट उठाया तो मैंने भी उसे देखा. बड़ी-बड़ी आंखें, आंखों में ढेर सारा कुतूहल. ‘आप तो बहुत सुंदर हैं, एकदम परी जैसी,’ उसने कहा.
‘अगर मैं परी हूं तो आप परियों की रानी हैं,’ दिल की बात कहकर रिवाज़ के मुताबिक़ मैंने उसके पैर छूकर रुपए दिए.
‘भाभी ने मेरे पैर छुए, मुझे रुपए दिए, मुझे आप और परियों की रानी भी कहा.’ इस अचानक मिले सम्मान से अभीभूत हो, ताली बजाकर कूदने लगी वो.
‘अरी! मुंह दिखाई में कुछ देगी नहीं? देख! सभी पैर छुआकर ज़ेवर दे रहे हैं,’ बुआ को ठिठोली सूझी.
इस पर वो ख़ुशी से पायल खोलते हुए बोली,‘मेरी पायल ले लो भाभी.’
‘अरी पगलेट! पुरानी चीज़ थोड़े ही दी जाती है,’ बुआ के कथन से उसके चेहरे की ख़ुशी ग़ायब हो गई. मैं अपने दहेज और अपने घरवालों की कटु समीक्षा को मां की दी सीख के अनुसार उपेक्षित कर रही थी, पर न जाने क्यों उस बच्ची के साथ की गई वो ठिठोली, जिससे उसकी हंसी ग़ायब हो गई थी मुझे बहुत बुरी लगी.
गर्मियों के दिन थे. थोड़ी देर में गुड्डो फिर आई. मेरा घूंघट उठाकर पानी का ग्लास आगे कर दिया. ग्लास पकड़ते ही उसकी शीतलता से पूरे शरीर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई. मैं वो बर्फ़ीला पानी एक सांस में गटककर उसके कानों में फुसफुसाई,‘आत्मा तृप्त हो गई मेरी. इससे सुंदर मुंह-दिखाई तो कोई दे ही नहीं सकता मुझे.’
‘सच्च्च्च!!’ और फिर उसका ख़ुशी से कूदते हुए ताली बजाने लगना मुझे प्यारा-सा संतोष दे गया.
जीवन की धारा बह निकली. फ्रिज बैठक में रखा गया था, जहां बहू का प्रवेश लगभग वर्जित था. हालांकि रसोई में बड़ी ननदें, सासें भी हाथ बंटाती थीं, पर गुड्डो हर समय मेरे आगे-पीछे लगी रहती. ‘भाभी, तुम ख़ुद को अकेली न समझना. मैं हूं ना तुम्हारे साथ’ वो दिन में कई बार कहती.
स्कूल से आकर बस्ता उतारे बिना पहले बैठक में रखे फ्रिज से बॉटल निकाल कर मुझे पानी पिलाती, तब ख़ुद पीती. मैं कहती पहले तू पी लिया कर तो उसका जवाब दिल को छू जाता ‘मैं स्कूल में पंखे में होती हूं तो भी ठंडे पानी की इतनी हुड़क लगती है तो तुम्हें रसोई में कितनी लगती होगी.’ उसका हर कुछ देर पर बर्फ़का पानी लेकर आना झुलसती काया से ज़्यादा शीतलता मन को दे जाता. ठिठुरती ठंड में कपड़े धोकर जब हाथ सुन्न हो जाते तो गुड्डो की बनाई ज़्यादा दूध, अदरक और इलायची की चाय की ऊष्णता मैं मन की गहराइयों तक महसूस करती. मैं पकौड़ियां तलती तो वो मुझे गरम-गरम खिलाती जाती. कोई है जो मेरी तकलीफ़ समझता है, जो मेरे ख़ुश होने से ख़ुश है, मेरे दुखी होने से मायूस हो जाता है. इस तसल्ली को ही प्यार कहते हैं, जो दुनिया का सबसे मज़बूत रिश्ता होता है. मेरा गुड्डो के साथ बस वही रिश्ता था.
उसके नाम ‘पगलेट’ का मैं अक्सर विरोध करती थी. सब कहते थे, गुड्डो में समझ कुछ कम थी. वो एक कक्षा में दो साल लगा देती थी. उसे रसोई के या घर के किसी काम का शौक़ नहीं था. उसमें ज़िम्मेदारी का भाव नहीं था, वो अडि़यल थी, बात करने की तहज़ीब नहीं थी. मगर सच तो ये था कि गुड्डो तो घर के सभी लोगों का मुफ़्त का रोबोट थी. फ्रिज में पानी की बॉटल नहीं रखी तो शामत, किसी को तो प्यास लगते ही पानी न दे तो आफ़त. घर का हर व्यक्ति उसे अपने हिसाब से आदेश-निर्देश देना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता था. वो क्या करती? विपरीत निर्देशों के कारण असमंजस में रहना या थक जाने पर सबकुछ पटककर विद्रोह कर देना उसका स्थाई स्वभाव बन गया था. जब वह अड़ जाती कि कुछ नहीं करूंगी और ग़ुस्से में बिफरना शुरू करती तो सब लाड़ लड़ाना और मनाना शुरू करते, क्योंकि गुड्डो जैसे बिना दिमाग़ लगाए आदेश माननेवाले सहायक के बिना रसोई सम्हालना किसी ज़िम्मेदार कहे जानेवाले के बस की बात नहीं थी.
मेरी पहली डिलीवरी में आठवें महीने में ननद की शादी पड़ गई. रसोई में ही इतना थक जाती थी मैं कि हफ़्ते-हफ़्ते भर कमरा झाड़ने या कपड़े धोने का सवाल ही नहीं उठा था. फिर अचानक तबियत बिगड़ गई थी. बेटी के आगमन का समाचार सुनकर सब की आशाओं पर कुठाराघात हो गया था पर इससे बेख़बर गुड्डो हॉस्पिटल से आते ही मचल गई थी,‘भाभी, मैं तो नेग में कंगन लूंगी.’
‘चुप पगलेट,’ कहकर चाचीजी ने एक ज़ोरदार थप्पड़ रसीदकर अपनी सारी खीझ उस पर उतार ली थी. हतप्रभ रह गई थी वो. ख़ुद ही तो सिखाए थे ये संवाद उन्होंने. बोले तो ये ईनाम? अब अगर ज्योतिष चाचा ने बताया था कि बड़ी बहू को पहला बेटा होगा और इसीलिए सारी तैयारियां वैसी ही कर ली गई थीं तो इसमें बेचारी गुड्डो का क्या दोष? मगर न ये चाचीजी समझा सकती थीं न गुड्डो समझ सकती थी. समझ सकती थी तो बस इतना कि भाभी अस्पताल से आ रही हैं, थकी और कमज़ोर हैं तो उनका कमरा ठीक कर दूं. इसीलिए बेटी जनने के अपराध-स्वरूप मिली उपेक्षा पर रोना नहीं आया था, पर जब व्यवस्थित कमरा और धुले तहे कपड़े अल्मारी में रखे देखे तो विस्मित रह गई मैं. ‘सब कहते हैं मैं कपड़े ठीक से नहीं धोती पर जैसे बन पड़े धो दिए,’ गुड्डो ने कहा तो ख़ुशी से आंखें छलछला आई थीं मेरी.
‘आपने कंगन बनवाए हैं न गुड्डो के लिए?’ रात में मैंने पति से पूछा.
उनके ‘हां’ में सिर हिलाने पर मैंने कहा,‘तो देंगे नहीं?’
‘दूंगा क्यों नहीं? तुम क्या सोचती हो तुम्हारी बेटी के लिए रख दूंगा? पर सोच रहा हूं, बेटा होने पर फिर से कैसे बनवा पाऊंगा?’ इस तिक्त उत्तर के बाद कुछ कहने सुनने को नहीं रह गया था. एक तरफ़ ‘तुम्हारी बेटी’, का झटका था, दूसरी ओर ये टीस कि कैसे संस्कार दिए जाते हैं इन भारतीय पतियों को. पत्नी से ये उम्मीद करते हैं कि उनके परिवार की सारी ज़िम्मेदारियां निभाए, पर इस बात पर विश्वास कभी नहीं करते कि वो उनके परिवार से प्यार भी कर सकती है. मेरी क़िस्मत अच्छी थी कि अगले साल सचमुच मैं एक बेटा जनकर सबके लाड़ का केंद्र बन गई थी. पर सास द्वारा खिलाए गए पगे मेवों में वो स्वाद कहां था, जो एक साल पहले गुड्डो के दुपट्टे में चुरा-छिपा कर लाए गए उन मेवों में था, जो बनाए तो मेरे ही लिए गए थे पर बेटी देखने के बाद ‘दबा’ लिए गए थे. उनमें उस संवेदना का भी स्वाद होता था, जो एक भारतीय स्त्री को बड़े भाग्य से मिलती है.
समय पंख लगा कर उड़ने लगा. मेरा जीवन भी अपनी धारा में सुख-दुख की लहरों के साथ बह रहा था. एक लहर में ये टीस थी कि पति की कभी दो पल साथ बैठकर सुख-दुख बांटने की आदत न थी तो दूसरी लहर में ये संतोष कि दस से पांच के कार्यालय के बाद ये सारा समय घर को ही देते थे. सारी कमाई हम पर ही ख़र्च करते थे. कोई व्यसन नहीं, व्यर्थ का अहंकार नहीं, तू-तड़ाक नहीं. साल में तीन-चार बार सब साथ में शॉपिंग करने जाते और बाहर खाते-पीते. ससुरजी का मानना था कि हॉल में सिनेमा देखने से बच्चे बिगड़ जाते हैं इसलिए केवल पति-पत्नी को अकेले जाने की ही इजाज़त थी. गुड्डो ने कैशोर्य की दहलीज़ पर क़दम रख दिया था. एक दिन उसके कॉलेज न जाने के लिए बीमारी का बहाना बनाने पर माथा ठनक गया था मेरा.
‘क्या बात है?’ अकेले में पूछते ही फूट कर रो पड़ी थी वो. ‘भाभी, मैं आत्महत्या कर लूंगी. मुझसे एक ग़लती हो गई है.’
सोलह बरस की ननद से ‘ग़लती’ शब्द सुनकर मेरा दिल बैठ गया, पर सम्हलकर बोली,‘देख, मेरे सामने पगलेट वाली बात तो करियो मत. रो ले पहले फिर बता,’ कहकर मैंने उसे गले से लगा लिया. बहुत देर रोने के बाद उसने सुबकते हुए जो बताया उसका सारांश कुछ ऐसा था-कॉलेज में उसके दोस्तों के समूह में सबको पता था कि गुड्डो ने कभी हॉल में सिनेमा नहीं देखी. एक लड़के ने गुड्डो को क्लास बंक करके सिनेमा देखने को राजी कर लिया. वहां उसे पॉपकार्न, आइसक्रीम खिलाई और उसे बाहों में भरकर किस कर लिया. पहली बार में उसे बुरा नहीं लगा, बल्कि शायद कुछ-कुछ अच्छा लगा, पर तीन-चार फ़िल्मों के बाद जब उसने और आगे बढ़ने का प्रयास किया तो वो घबरा गई. इस पर लड़का ब्लैकमेलिंग पर उतर आया. ‘वो क...ह... र...हा...था इतने पैसे ख़र्चा... वसूल कर...’ गुड्डो के शब्द सिसकियों में खोते जा रहे थे.
मैंने उसे प्यार से यक़ीन दिलाकर कि उसने कोई ग़लती नहीं की है, ये कहकर डराया कि आत्महत्या करने से आत्मा भटकेगी. वो सचमुच डर गई. फिर मैंने अपनी ज़िंदगी का सबसे ऐड्वेंचरस काम किया. गुड्डो के साथ उस लड़के से मिलने गई. ख़ुशकिस्मती से वो क़ायदे से समझाने, हाथ में दो हज़ार रुपए थमाने और गुड्डो के चार भाइयों का डर दिखाने से मान गया. पति ने जब गुड्डो की सूजी हुई आंखों का कारण पूछा तो मैंने कह दिया,‘अम्मा-चाची को सिनेमा पसंद नहीं, भाई-भाभी ले नहीं जाते, उसका भी मन करता है हॉल में सिनेमा देखे इसीलिए रो रही थी.’
‘इतनी सी बात! मुझसे क्यों नहीं कहा?’ कहकर पति उसी दिन ससुर जी से अनुमति लेकर एक पारिवारिक सिनेमा के तीन टिकट ले आए.
समय की धारा कब रुकती है. बहुएं आने के साथ घर में जगह कम पड़ने लगी तो चाचीजी के परिवार ने उस शहर में बसने का निश्चय किया जहां उनके बड़े बेटे की नौकरी लगी थी.
‘मैं आपके बिना बहुत अकेली हो जाऊंगी’ एक दिन गुड्डो के कहने पर मैंने अम्माजी से उसे अपने पास रोक लेने की बात चलाई.
उन्होंने कहा,‘पागल हो गई है क्या? जवान होती लड़की है. कल को कोई ऊंच-नीच हो गई तो? सौ भलाइयों का क्रेडिट न मिले है, एक बात उलटी पड़ जावे तो पूरे कुनबे की क़वायद झेलनी पड़े है.’’
मैं ऊंच-नीच का नमूना देख चुकी थी इसलिए मुझे अम्माजी की बात सही लगी. जब चाचीजी का परिवार अपना सामान समेट कर जा रहा था तब गुड्डो की ख़ामोश सूनी निगाहें देखकर दिल में एक हूक-सी उठ कर रह गई.
समय पंख लगा कर उड़ता रहा. देवरानियों के आने से काम बंटते गए और पति के प्रमोशन से आई आर्थिक संपन्नता भौतिक सुविधाएं बढ़ाती रही. लेकिन बेडरूम में अलग छोटा फ्रिज, अपनी लॉबी में अलग वॉशिंग मशीन गुड्डो की संवेदना के स्थानापन्न थोड़े ही हो सकते थे. उसकी यादें जब-तब पलकें भिगो जातीं.
‘‘आज चाय-नाश्ता नहीं मिलेगा क्या?’’ पति की आवाज़ से मेरी तंद्रा टूटी. शाम हो गई? ये ऑफ़िस से आ गए? मैं अपने झंझावातों को लेकर रसोई में आ गई. मैं जानती थी कि अम्माजी ने जो प्रश्न उठाए वो व्यावहारिक थे, सटीक थे. मैं ये भी जानती थी कि गुड्डो ख़ुद द्वंद्वग्रस्त है, कोई भी निर्णय लेने की स्थिति में नहीं होगी. पर फिर किया क्या जाए? जीती मक्खी कैसे निगले? समाधान क्या है?
मैं चाय-नाश्ता लेकर बैठक में पहुंची तो एक समाचार चल रहा था— लड़की ने दहेज की प्रताड़नाओं से तंग आकर आमहत्या कर ली थी और मायके वाले रो रहे थे. रिपोर्टर ने जब मां से पूछा कि आपने पहले ऐक्शन क्यों नहीं लिया तो वो वही बातें दोहराने लगी जो दोपहर में अम्माजी कह रही थीं. बच्चे...कचहरी...जुड़ाव...नाता तोड़ना आसान नहीं है. जब बहन के सामने माइक आया तो उसकी उदास आवाज़ का व्यंग्य बेध गया-हमारे यहां सब बहुत समझदार हैं इसीलिए दुनियाभर की समझदारी दीदी को सिखाते रहे पर उनके दर्द को न समझ सके. बहुत अकेली हो गई थी वो.
बहन का कहा अंतिम वाक्य जैसे मुझे किसी चित्र पहेली का खोया टुकड़ा लगा. ‘सास-ससुर साथ न देंगे तो अकेली न पड़ जावेगी वो?’, ‘भाभी, तुम ख़ुद को अकेली मत समझना’, ‘तुमसे अलग होकर मैं बहुत अकेली हो जाऊंगी’ इन्हें साथ रखकर देखा तो हल मिल गया. गुड्डो को असमंजस बढ़ानेवाले हमारे आरोपित समाधानों की ज़रूरत नहीं है. उसे तो बस इस संबल की ज़रूरत है कि इस अन्याय के विरोध में वो जो भी क़दम उठाएगी, उसके अच्छे बुरे परिणामों में वो अकेली नहीं होगी. कोई उसके साथ होगा.
जिस तरह मेरे कठिन दिनों में गुड्डो ये एहसास बनकर मेरे साथ थी कि मैं अकेली नहीं हूं, मुझे अब बस उसके लिए वो एहसास बनना था. ये एहसास ही उसे वो निर्णय लेने का आत्मविश्वास देगा जो उसका दिल लेना चाहता होगा. ये एहसास ही उसे पति पर अपनी बात मनवाने का दबाव डालने का आत्मबल देगा. मैं गुड्डो से बात करूंगी. वो जिस भी ढंग से इस अन्याय का विरोध करना चाहेगी, मैं उसका साथ दूंगी. जो भी निर्णय लेना चाहेगी उसके परिणामों में कम से कम मैं उसके साथ रहूंगी और अधिक से अधिक लोगों को उसके साथ लाने की कोशिश करूंगी. इस निर्णय के साथ मैं गुड्डो को फ़ोन मिलाने लगी.
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