कहानी: कोई एक

देवयानी ने कप को कंधों से ऊपर उठा लिया. तालियां फिर से बजने लगीं. तालियों ने उत्साह बढ़ाया तो वे कप को लेकर गोल घूम गई. हंसती रहीं. अभी पांच साल पहले क्या इस दृश्य की कोई कल्पना कर सकता था? बल्कि आज भी उज्जैन के कंठाल इलाक़े में किसी को यह बात बताओ तो वो कहेगा,‘‘साब, वो कोई दूसरी ही देवयानी रही होगी!’’

यों तो खेल पत्रकार मिनी श्रीवास्तव का ध्यान देवयानी की विशेष कथा पर जाता ही नहीं, यदि उसने कार्यक्रम की समाप्ति पर देवयानी और उनकी बहू की बातचीत न सुनी होती. गई तो बस इवेंट कवर करने, लेकिन फिर लगा कि विजेता का साक्षात्कार भी लेना चाहिए. इसलिए पीछे-पीछे चल रही थी. उसने सुना, बहू नीरांजनी के पास पहुंचते ही देवयानी ने कप बहू के हाथ में देकर कहा,‘‘लाड़ी, तेने बहुत अच्छा किया जो ये बिना बांव का बिलाउज मेरे को पहना दिया. नीं तो इस कप को ऊपर उठाने में मेरे बिलाउज की तो बांव उधड़ जाती.’’

‘‘आप तो मान ही नहीं रही थीं. मैं तो आपको जीन्स पहनाती,’’ नीरा ने मुस्कुराते हुए कहा तो कुछ झल्लाती-सी आवाज़ में देवयानी ने कहा,‘‘अरे, रेहेन दे वो, अब बुढ़ापे में जीन्स पेनाएगी मुझे.’’

बहू के चेहरे पर शरारती मुस्कान थी, जो बता रही थी कि दोनों में रिश्ते कैसे हैं. कुछ ही क्षण बात चेहरे का पसीना पोंछते हुए देवयानी ने कहा,‘‘सच्ची बोलूं रे नीरा, कोई दूसरी बहू होती, तो ये नहीं मिलता.’’

नीरांजनी कोई जवाब देती उससे पहले ही देवयानी की नज़रें मिनी से मिली और उसने कहा,‘‘आपसे कुछ बातें करनी है, अख़बार के लिए.’’

देवयानी फिर से नीरा की ओर देखने लगी. नीरा ने उन्हें समझाया, तब देवयानी अपने बारे में बात करने को राजी हुई और दोपहर का समय दिया. मिनी ने इस बीच उनके बारे में कुछ जानकारियां प्राप्त कर लीं. पता चला उज्जैन से आया है परिवार. बेटे की अच्छी नौकरी है. बहू नीरांजनी इस टाउनशिप में सभी की परिचित है और ज़रा-सी बात पर इज़्ज़त उतारकर हाथ में दे देती है, मतलब तेज़तर्रार है. और देवयानी के पतिदेव का शुभनाम है-रामरतन.

अधीक्षक भू-अभिलेख के महत्वपूर्ण पद पर काम करते रामरतनजी की कुछ ठोस मान्यताएं थीं, जैसे ये कि देश में उज्जैन जैसा सुकूनवाला शहर दूसरा नहीं. जैसे ये भी कि ज़िंदगी की गाड़ी की ख़ासियत है कि ड्रायवर तक को नहीं पता होता कि कब गाड़ी पलटी खा जाएगी. ऐसी ही किसी मान्यता का असर था कि रिटायरमेंट के बस दो साल पहले एक दिन उन्होंने घोषणा कर दी,‘‘देवी देवयानी सुनो, आज से तुम शतरंज खेलना सीखोगी. कोई बहाना नहीं चलेगा.’’

हर सफल पत्नी की तरह देवयानी को भी पता था कि जब पति बहुत उत्साह में हो, उसकी बात को बिना विरोध मान लो. उसने ‘हां’ भर दी. पत्नियों की विचार-संहिता के अनुसार, अगर पत्नी साथ न दे तो ऐसे उत्साह दो-चार दिनों में हवा हो जाते हैं. देवयानी का यही अनुमान था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. रामरतन ने नियम बना लिया, ऑफ़िस जाने से पहले बीस मिनट और लौटकर पूरे दो घंटे पत्नी को शतरंज सिखाएंगे. चाय आदि के बीच यही सब बताते हुए देवयानी हंस ज़्यादा रही थीं, बोल कम रही थीं.

‘अरे, अब ये क्या हमारी उमर है सीखने की?’’ जैसी बातें कहते हुए देवयानी ने टालना चाहा. एक बार चेसबोर्ड पर रसगुल्ले की चासनी गिरा दी. दो मोहरे ़गायब करके भी देख लिए, लेकिन रामरतन झट से बाहर गए और कोनेवाले स्टोर से नया चेसबोर्ड ले आए. पूरे सात दिन सब झेलने के बाद आठवें दिन प्यार भरे स्वर में चेतावनी दे दी,‘‘देखो देव, सयानापन तो दिखाओ मत, नहीं तो अब वो होगा, जिसकी तुम सोच भी नहीं सकतीं.’’

देवयानी जानती हैं, बल्कि पूरा कंठाल इलाक़ा जानता है, अधीक्षक रामरतन जब अपने घर में रौद्र रूप दिखाते हैं, तो मोहल्ले का रतजगा हो जाता है. झुक गईं देवयानी और शतरंज-प्रशिक्षण शुरू हुआ. रामरतन शतरंज के चैम्पियन खिलाड़ियों के साथ एक ज़माने में खेल चुके थे.

‘‘लेकिन आप इस तरह परेशान और नाराज़ क्यों करती थीं उनको?’’ मिनी ने बीच में पूछा तो प्रतिप्रश्न हुआ,‘‘तुम्हाई मैरिज हुई का?’’

‘‘नहीं, पर होने वाली है.’’ मिनी ने कहा और देवयानी ने बताया,‘‘तो ठीक है, समझ लो तुम भी. ये मैरिड लाइफ़ के प्यार का एक रूप है. टेस्ट है. जब पति ग़ुस्सा करते है, कपड़े फाड़ते है तो समझ में आ जाता है, कितनी केअर करते हैं. समझीं? अरे ये करेले की भाजी है, बीच-बीच में बनती रहनी चाहिए.’’

ना समझते हुए भी मिनी को समझना पड़ा. लेकिन आप जानो, नैशनल चैम्पियनों के साथ खेलना और पत्नी को सिखाना बिल्कुल अलग बातें हैं. जैसे पहले ही दिन देवयानी ने जो आपत्ति दर्ज कराई उसे रामरतन को अंत तक मानना पड़ा. काले और सफ़ेद खानों में कौन-सी गोट कहां रहेगी, यह समझते हुए देवयानी एकाएक झल्ला उठी,‘‘ये क्या करते हो जी, कभी कुछ कभी कुछ.’’

‘‘क्यों क्या हुआ?’’ रामरतन ने गुर्राकर पूछा.

जवाब मिला,‘‘अभी आपने बोला ये हाथी है, अब फ़ील बोल रहे हो. कभी क्वीन बोलते हो, कभी वज़ीर. क्या है ये?’’

‘‘अरी ओ देव यानी दानव, ये दोनों ही इनके नाम हैं. इसे रानी भी कहते हैं और वज़ीर भी, मीर भी कहते हैं.’’

‘‘हैं, कैसा खेल है ये, रानी कैसे वज़ीर हो सकती है? हमने तो कभी नहीं सुना किसी राजा ने रानी को वज़ीर बना दिया हो?’’

‘‘ठीक कह रही हो, राजा अक्लमन्द होगा तो कभी भी रानी को वज़ीर नहीं बनाएगा. अब से हम भी नहीं बनाएंगे.’’ हार मानी रामरतन ने और तय हुआ, अब से इन मोहरों को हाथी, घोड़ा, ऊंट, वज़ीर कहकर ही बुलाएंगे. यानी किसी भी प्रकार से झगड़कर खेल से बाहर होने का देवयानी का पैंतरा काम नहीं आया. यहां तक कि बेटे-बहू की याद आने का बहाना करके उनसे भी मिल आईं, लेकिन लौटते ही फिर शुरू.

वैसे कंठाल वाले साक्षी हैं, शतरंज सिखाते हुए रामरतन ने भी ग़ज़ब के धीरज का परिचय दिया. नाराज़ हुए, मगर वैसे बुरी तरह नहीं चीखे, जिसके लिए वे जाने जाते हैं. और उन शुरुआती दिनों में तो जैसे देवयानी उनकी परीक्षा लेने पर उतारू थीं. भला बताइए, अब इस बात पर कोई कैसे झगड़ सकता है कि ऊंट ढाई घर क्यों नहीं चल सकता?

‘‘नहीं, अब हमारी बात नहीं मानी तो हम तुम्हारी गत बना देंगे. राजा, राजा की ही जगह रहेगा और वज़ीर, वज़ीर की ही जगह. हाथी और ऊंट की जगह भी नहीं बदलेगी,’’ कहते हुए उस दिन लगा था कि रामरतन कपड़े फाड़ ही देंगे, लेकिन फिर उन्होंने अपने पर क़ाबू पा लिया और कहा,‘‘देखो माई ओल्ड डार्लिंग, पैंतीस साल हो गए तुम्हें झेलते. हमें मालूम है, तुम ये सब क्यों कर रही हो। मान जाओ, नहीं तो...!’’

और देवयानी की एकाएक हंसी फूट पड़ी. आश्चर्य से रामरतन ने पूछा,‘‘अब क्या हुआ? क्यों हंस रही हो?’’ आप समझ सकते हैं, देवयानी की हंसी का कारण, नाटक पकड़ा गया था. हंसी के साथ क़िस्से को पूरा विस्तार देते हुए देवयानी ने कहा,‘‘समझी मिनी बेटिया, ऐसा होता है पुराने जोड़ों का प्यार!’’

तो साहब उसके बाद शतरंज प्रशिक्षण ठीक से चलने लगा. केवल एक बार देवयानी नाराज़ हुईं, बल्कि रो पड़ीं जब बीसवीं-पच्चीसवीं बार उन्हें रामरतन से हार मिली,‘‘हमें नहीं खेलना. आप तो हर बार हमें हरा देते हो.’’
‘‘फिर इन्ने रूल बनाया, ऑफ़िस जाएंगे तो हरा कर जाएंगे. शाम को एक-दो बाजी हार जाएंगे,’ देवयानी ने एक लम्बी हंसी के साथ रहस्य खोला,‘‘पर इनको ज़रा हवा नहीं लगी और हमने चुपके से बच्चों के साथ खेलना शुरू कर दिया, किताब भी समझने लगे हम और फिर एक दिन हमने इनको सच्ची में हरा दिया.’’
‘‘अरे, फिर?’’ नोट्स लेती हुई मिनी ने आश्चर्य से कहा. देवयानी ने बताया,‘‘फिर क्या! अरे नाचने लगे. मिठाई भी बांटी और हमें तांगे में बैठाकर चिन्तामण, महाकाल से लेकर काल भैरव तक घुमा लाए.’’

पूरे दो साल बाद आई थी ये घड़ी और उसके बाद तो देवयानी सीखती चली गईं. लेकिन व्यवधान तब आया, जब रामरतन रिटायर हुए. सूझबूझ से काम लिया था तो पेंशन आदि शुरू हो गई. इरादा था, इसी मकान में रहेंगे लेकिन तीन महीने बाद ही मकान मालिक ने अनुरोध कर डाला,‘‘सुपरडेंट साब, बेटे ने लॉ कर लिया है, जगह कम पड़ने लगी है.’’

रामरतन की मान्यता सच हुई, गाड़ी तब पलटी, जब ड्रायवर को ज़रा भी अनुमान नहीं था. बरसों से इसी मकान में रहते आ रहे थे. एकाध बार ही किराया बढ़ाया होगा. संबंध इतने अच्छे थे कि मकान मालिक से भी कहते नहीं बना और अब इन्हीं अच्छे संबंधों के कारण छोड़ने की तैयारी करनी पड़ी. इसी भाव पर शहर में दूसरा मकान मिलना तो असंभव था. ऐसे में बेटे के पास चलने का निर्णय लिया. देवयानी ने साक्षात्कार का समापन करते कहा,‘‘बेटा भी कई बार बोल चुका था. अच्छा ही हुआ, नहीं तो शतरंज का ये कप जीतने की तो मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी.’’

कहने को मिनी की स्टोरी बन चुकी थी. लेकिन फिर उसने योंही पूछ लिया,‘‘आपके वो, रामरतनजी नहीं हैं क्या? उनसे भी कुछ पूछ लेती.’’

‘‘नहीं, वो तो दोस्त के यहां पार्टी में गए हैं. कल ही मिल पाएंगे,’’ उन्होंने कहा. मिनी ने सोचा एक स्टोरी के लिए दो दिन देना कुछ ज़्यादा नहीं हो जाएगा? लेकिन जाने क्या सोचकर दूसरे दिन उसने रामरतनजी के घर पर दस्तक दे दी और बैठते ही कहा,‘‘आपसे मुझे बस एक ही सवाल करना है, इस उमर में शतरंज सिखाने की क्यों सूझी आपको?’’

वे उठे, पानी की ट्रे लाकर रख दी. कुछ देर मुस्कुराते रहे, फिर पूछा,‘‘आपको समझ में नहीं आया क्या?’’

मिनी को चुप देख आगे कहा,‘‘ये बता रही थीं कि तुमने लम्बा इंटरव्यू लिया. पर जानता हूं, एक बात उन्होंने नहीं बताई होगी. जब हम यहां आए, तो शतरंज बंद हो गया था. महीनाभर भी नहीं हुआ और दोनों सास-बहू में खटपट इतनी बढ़ी कि इन्होंने बोल दिया, कल से अलग खाना बनाएंगी. ये बात सुनकर बहू ने तो बरतन भी अलग कर दिए. दोनों तेज़तर्रार हैं.’’

‘‘तब मैंने इनसे कहा, बिलकुल ठीक. आज ही शाम से शुरू कर दो. सास-बहू की बातचीत तो बंद हो गई थी, सो हमने प्रस्ताव कर दिया कि शतरंज की एक बाज़ी हो जाए. मैंने पूरा दिमा़ग लगाकर उस बाजी में इनको हरा दिया. फिर क्या हुआ, इनका सारा ग़ुस्सा मेरे ऊपर आ गया. हरा कैसे दिया? दूसरी खेली, मैं हारा, फिर तीसरी, मुझे बुरी तरह हराया और ...’’

‘‘भूल गई कि रात को खाना अलग बनानेवाली थीं.’’ मिनी ने हंसते, बल्कि स्टोरी के इस अंत पर प्रसन्न होते हुए कहा. रामरतन बोले,‘‘जी बिल्कुल.’’

‘‘पर वे हैं कहां, दिखाई नहीं दे रही हैं?’’

‘‘उधर तीसरे बेडरूम में बाज़ी लगी है बेस्ट ऑफ़ थ्री की. अब मेरे पिताजी भी उन्हें चाय बनाने को नहीं बोल सकते. चलो, अपन दोनों मिल कर बनाते हैं.’’ कहते हुए रामरतन किचन की ओर बढ़े और बोले,‘‘तुम तो अभी बहुत छोटी हो, मगर एक बात समझ लो, बुढ़ापे में अगर सुखी रहना है, तो एक कोई बहुत गहरा शौक़, कोई पैशन होना ज़रूरी है. तुम्हारा कोई शौक़ है या नहीं?’’

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