कहानी: दरीचा बेसदा कोई नहीं है

ज़िंदगी कब, किसे, कहां ले जाएगी किसी को पता नहीं होता. मिसाल के तौर पर आप मुझे ही लो. मैं था सपने देखने वाले छोटे-से क़स्बे में पला-बढ़ा बंदा और आ गया हर रोज़ हज़ारों सपनों को निगलने वाले इस महानगर में... ख़ुदा कसम अगर अब्बा का खौफ़ न होता तो मैं कब का ये डॉक्टरी-फ़ाक्टरी छोड़ के वापस अपनी दुनिया में लौट जाता. अपने घर, अपनी हुस्ना के पास! लेकिन मेरी ज़िंदगी का सितम यही है कि मैं जो चाहता हूं, वो कर नहीं सकता और जो मुझे करना पड़ता है, उसे चाहना मेरे वश में नहीं. दसवीं के फ़ॉर्म में विषय भरने से लेकर शादी के लिए लड़की चुनने तक मैंने हर काम अपने अब्बा की मर्ज़ी से किया है. इस वक़्त भी मैं इस जाहिल माहौल में अब्बा की मर्ज़ी की वजह से हूं. न्ना...! 

आप ये मत समझिएगा कि मैं खेतों की जगह बसाई कॉलोनियों को, पेड़ काटकर खड़ी की गई ऊंची-ऊंची इमारतों को, रेत में सीमेंट मिलाकर तैयार किए गए फ्लाईओवर्स को या गांव की पीठ पर लदकर उसी को मुंह चिढ़ाते आपके शहर को जाहिल कह रहा हूं. मुझे मालूम है यह सब बड़प्पन की निशानियां हैं. जाहिल तो वे लोग हैं जो ऐसी हसीन-तरीन जगहों के आसपास अपनी मैली-कुचैली बस्तियों की चादर फैलाए बैठे रहते हैं और दिखावा करते हैं मजबूरी और ग़ैरत का. अच्छा आप ही बताओ, साफ़-सफ़ाई से कोसों दूर पच्चीस घर और डेढ़ सौ लोगों की आबादी वाली एक बस्ती, जिसके हर घर की तस्वीर में चूहों के बिलों से खोखली होती दीवारें, टपकती छतें, सीले-अंधेरे कमरे, टूटे-फूटे बर्तन, चीकट बीवियां, परेशान शौहर और चिल्ल-पौं करते नंग-धड़ंग बच्चे हों तो आप उसे क्या कहेंगे? इसीलिए मैं यहां आना ही नहीं चाहता था, लेकिन अब्बा....

उफ़ अल्लाह! हुस्ना शायद सही कहती है कि मेरी ज़िंदगी का दूसरा नाम अब्बा की मर्ज़ी रखा जा सकता है. मगर ये कहानी अब्बा की नहीं, नाजिश की है. अब्बा का रोल इस कहानी में बस इतना है कि जब मेरा दाख़िला इस शहर में हुआ तो उन्होंने अपने मरहूम दोस्त और नाजिश के अब्बा पर कई साल पहले किए अहसान की एवज़ में मेरा इस घर में बतौर किराएदार रहना पक्का कर दिया. अब्बा का हुक़्म था इसीलिए यहां आना पड़ा, वरना कहां लकदक करता हॉस्टल और कहां धुंए की कारीगरी से सजा नाजिश रानी का ये महल! जिसकी काई लगी ढलवां छत हरदम किसी गहरी सोच में डूबी मालूम होती थी. इस घर की फ़िज़ा में भी एक बेज़ार ख़ामोशी पसरी हुई थी, जो मुझ जैसे दुआ-सलाम के शौक़ीन इंसान के लिए ख़ासी दिक़्क़तशुदा बात थी.  

मुझे याद है जब मैं यहां पहुंचा पूरा शहर गर्मी से तप रहा था. छत, दीवारें और खिड़कियां भी गर्म सांसें फेंक रहे थे. हवा में अटका बादल का गुच्छा अपने साथियों से बिछुड़ गया जान पड़ता था जबकि सूरज के तेवर आंखों से रोशनी छीनने पर उतारू थे. पुराने लोग कहते हैं कि जब मौसम के मिज़ाज में चिंगारियां भरी हों तब अच्छे-ख़ासे इंसानों को अंगारा बनते देर नहीं लगती लेकिन मेरे सामने सुर्ख़ लिबास में जो बेरौनक-सी लड़की खड़ी थी उसका संजीदा चेहरा, कसकर पीछे बंधे बाल, अजनबीयत से भरी उदास आंखें अनजाने ही उसे इस मौसम का हिस्सा बनने से रोक रहे थे. ये लड़की बुझी हुई राख सरीखी थी, जिसमें अंगारा बनने की न कोई ताब थी, न गुंजाइश. इतने पर भी उसकी शख़्सियत में एक मज़बूती थी, एक ख़ुद्दारी जो किसी-किसी शख़्सियत में इल्म के साथ शुमार हो जाती है. मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूं कि आधा दर्जन बैगों से लदे-फंदे शख़्स को अपने सामने देखकर उसे यह कयास लगाने में देर नहीं लगी होगी कि मैं कौन हूं, लेकिन चेहरे पर पहचान की कोई लकीर जाहिर किए बग़ैर उसने ख़ामोशी से एक कमरे की तरफ़ इशारा कर दिया. जी चाहा कि इस रूखेपन के लिए उसे चार बातें सुनाऊं पर कुछ सोचकर चुप रह गया.

मुझे क्या मालूम था कि आज की ये छोटी सी चुप आने वाले दिनों की बानगी भर थी, क्योंकि इस घर में मेरे अलावा दो लोग और थे, एक नाजिश और दूसरी उसकी अम्मी, पर दोनों ख़ामोश. नाजिश को तो ख़ैर अब आप पहचानने ही लगे हैं. रहीं उसकी अम्मी यानी मेरी चचीजान तो उनसे पहचान बढ़ाने का कोई फ़ायदा नहीं, क्योंकि पिछले कई सालों से वे ख़ुद को भी नहीं पहचानतीं. मैं सोचता हूं ऐसे हालात् में इंसान के पास कहने के लिए बहुत कुछ होता है, फिर भी ये लड़की इतनी ख़ामोश क्यों थी? क्या उसे ऐसा कोई नहीं मिला, जिससे वो अपने जज़्बात कह दे या उसकी चुप्पी महज़ नाटक थी, एक ज़िद! यूं मुझे उसके बोलने या चुप रहने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. आख़िर वह कौन कश्मीर की कली थी, जिससे बात करे बिना मैं मर जाता? पर अपने आस-पास घूमते सन्नाटे से मुझे बड़ी बेचैनी होती है. अलावा इसके मेरी बेचैनी की एक वजह थी.

दरअस्ल, कहने के लिए मेरा कमरा बाहर था, उनकी रिहाइश अंदर. मगर इन दोनों इलाक़ों के बीच महज़ आठ फ़ीट का फ़ासला था. इस फ़ासले को आंगन कहा जा सकता था, जिसके एक कोने में ग़ुस्लख़ाना था और दूसरे में नाजिश का मदरसा. घर का सारा काम निपटाकर नाजिश यहां बस्ती के बच्चों को पढ़ाती थी. अब ख़ुदा जाने पढ़ाती थी या बस्ती की इकलौती मैट्रिक पास होने का दिखावा करने के लिए फ़ालतू भीड़ बटोरे रहती थी, क्योंकि संजीदगी, ख़ामोशी या इल्म जैसे तमाम दिखावों के बावजूद मैंने अक्सर उसकी चीकू के बीज जैसी आंखों को ख़ुद पर उसी तरह टिका महसूस किया था, जैसे चिड़िया की आंख सांप पर ठहरी रहती है. शुरुआत में मुझे ये मन का वहम लगा, लेकिन बाद में समझ आया कि यही सच है. 

हालांकि मैं समझ सकता था कि भले नाजिश ऐसी लड़की थी, जिसके सिर पर बाप का साया नहीं था, जिसका भाई नालायक़ियत की सारी हदें पार करके घर छोड़कर भाग गया था. जिसकी मां सरफ़िरी थीं और जिसकी स्याह रंगत उसकी शक्ल पर किसी नज़र को ठहरने नहीं देती थीं, फिर भी आख़िर थी तो वह एक लड़की ही. इस नाते अगर वह भी किसी के मन का मौसम बनना चाहती थी तो मुझे कोई एतराज़ नहीं था मगर मैं ही क्यों? कभी-कभी जी चाहता कि उससे कहूं, यूं टकटकी बांधने से इंसान नहीं बंधा करते, पर मैं कोई सड़कछाप आवारा शोहदा तो था नहीं कि जो मन आया सो कह दिया इसीलिए चुप रह जाता. इसी तरह चुप रहते, खीझते वक़्त गुज़रता गया और गुज़रते वक़्त के साथ मैं इस सब का आदी हो गया. बच्चों का शोर, चचीजान की कराहें, बस्ती की औरतों की जूतम्पैजार और नाजिश की चुप्पी... सबकुछ जैसे मेरी ज़िंदगी का हिस्सा हो चला था. तभी एक हादसा हुआ.

एक रोज़ मैं कॉलेज ख़त्म करके लौटा तो देखा कि बित्ताभर की गली में आधा दर्जन औरतें मजमा जमाए खड़ी थीं. पप्पू, रहमान, तौफ़ीक और बिज्जन भी खुस्सो ख़ाला के चबूतरे पर उकड़ू बैठे नए ज़माने को कोस रहे थे. एक ओर बजबजाती नालियां और दूसरी ओर आसमान गिराने को आमादा बच्चों का कहर... अल्लाह तौबा! मन किया वापस मुड़ जाऊं, लेकिन दिनभर की थकान ने इसकी इजाज़त नहीं दी और क़दम ठिकाने की ओर बढ़ते रहे. बाहर जितना कोहराम मचा था भीतर उतना ही सन्नाटा था, लगा अभी-अभी कोई तूफ़ान गुज़रा है. चचीजान आंगन में चारपाई पर नीम बेहोशी की हालत में बड़बड़ा रही थीं, जबकि हाथ में पुरानी किताब पकड़े नाजिश भी किसी सोच में गुम बैठी थी. उस रोज़ पहली बार हमारी बात हुई.
  
‘‘मैंने सुना उस्मान आया था?’’

‘‘हां.’’

‘‘कहां है?’’

‘‘जेल में.’’

‘‘जेल में!!!’’ मैं चौंका. आमतौर पर यह शब्द जिस शर्मिंदगी, तकलीफ़ और खौफ़ से भरा होता है, नाजिश के लहज़े में उसका कहीं नामोनिशान नहीं था. पता चला आज कोई कांड करके उस्मान घर में पनाह ढूंढने के इरादे से आया था. जैसे ही नाजिश को असलियत मालूम हुई. उसने चुपचाप एक शागिर्द को भेज पुलिस बुलवा ली और...एकबाऱगी इस लड़की की हिम्मत देख मैं कांप गया, लेकिन अगले ही पल गर्म आंसुओं के सैलाब ने मुझे अजब बेचारगी से भर दिया. मैं उसे दिलासा देना चाहता था, लेकिन मेरे पास राहत के ल़फ्ज़ भी नहीं थे. मैं भारी क़दमों से अपने कमरे में लौट आया और उस बेचारगी की जड़ें तलाशने लगा, जिसने चंद लम्हों में मेरा पूरा वजूद झिंझोड़ दिया था. कहना न होगा कि पूरी रात मैं सो नहीं सका.

अगली सुबह आसमान के माथे रोज़ की तरह रौशनी हुई. हमेशा की तरह (अलार्म लगाने के बावजूद) मैं देर से उठा. हमेशा की तरह आंगन में धूप का पैबंद बनी चचीजान बड़बड़ाती रहीं और हमेशा की तरह नाजिश की ख़ामोश आंखें मुझे घूरती रहीं. मगर सच कहूं पहली बार उसकी नज़रों ने मुझे बेज़ार नहीं किया, बल्कि मुझे ख़ुदा से शिकायत हुई कि जिस उम्र में इसे अरमानों की डोली में बैठना चाहिए था, बेचारी को अपनी ख़्वाहिशों से लड़ना पड़ रहा है. मगर ख़ुदा भी क्या करे इसकी क़िस्मत और सूरत दोनों एक जैसी हैं, स्याह...! वो तो शुक्र है कि आज चचीजान हैं, पर कल?

बस उस दिन के बाद यह सवाल हमेशा मेरा पीछा करने लगा. मैं एक जवाब तलाशता तो सैकड़ों नए सवाल मुझे घेर लेते. कभी मैं ख़ुद से पूछता कि क्या दुनिया भर का आइडियलिज़्म सिर्फ़ पढ़ाने भर के लिए है? तो कभी सोचने लगता क्या मैं इसकी के लिए कुछ नहीं कर सकता? मेरे भीतर एक ख़्याल जाग रहा था. बेशक़ यह ख़्याल आसमान में तनी रस्सी पर चलने जैसा था, फिर भी ज़िंदगी में पहली बार मैं अब्बा की मर्ज़ी के बग़ैर उस ओर बढ़ना चाहता था.

अर्से बाद मौसम में आज नई ख़ुनक थी. जल्दी आंख खुल जाने के बावजूद मैं जानबूझकर लेटा रहा. सूरज के सामने बादलों के घिर आने से परछाइयां बार-बार अपनी जगह बदल रही थीं. बाहर तोहमतों और लानतों की शक्ल में ज़िंदगी जाग रही थी, जबकि आंगन में चांदी की घंटियों जैसी आवाज़ खनक रही थी. बहुत देर तक मैं सुनता रहा. पहले क़ुरान-शरीफ़ की आयतें पढ़ी गईं, फिर ककहरा सिखाया गया, फिर हिसाब-किताब की बातें हुईं और आख़िर में बच्चों के झगड़े सुलझाए गए. मुझे हंसी आई, जिसकी अपनी ज़िंदगी उलझी हो वो दूसरों के झगड़े सुलझा रही है! जब बच्चे तशरीफ़ समेटकर चले गए मैंने नाजिश को पुकारा. नज़रों में सवाल लिए वह चौखट पर आ खड़ी हुई. उसके माथे पर लकीरें खिंची थीं. 

सधे लहजे में मैंने कहना शुरू किया,‘‘देखो नाजिश मुझे घुमाफिरा के बात कहना नहीं आता. इसीलिए सीधे-सीधे कह रहा हूं कि भले औरत कितना ही मज़बूती का दिखावा करे, पर उसका वजूद पति, पिता और भाई का मोहताज है. बदक़िस्मती कि तुम तीनों से ही महरूम हो. तुम्हारा ख़ैऱख्वाह होने के नाते मैं तुम्हें इससे निजात दिलाना चाहता हूं. हालात् और अपनी ओर तुम्हारे झुकाव के मद्देनज़र मैंने सोचा है कि तुम्हारे नाम में अपना नाम जोड़ ने दूं. इस तरह तुम मुकम्मल भी हो जाओगी और महफ़ूज़ भी... हुस्ना की चिंता तुम मत करना. उसे मैं समझा लूंगा. निकाह के बाद भी तुम यहीं बनी रहना. जब-तक पढ़ाई चल रही है मैं यहां हूं. बाद में बीच-बीच में आता रहूंगा. क्यों ठीक है ना?’’

पूरी बात कहने के बाद मैं दूध के उफ़ान की तरह बैठ गया. मुझे लगा था कि जवाब में ख़ुशी से लबरेज़ एक चुप बिखर जाएगी, पर मैं ग़लत था. वहां कई चुप्पियां एक साथ टूट गईं...   

“तो आप भी वही निकले, औरत की ग़ैरत को दिखावा और उसके वजूद को अपने रहम की भीख से आंकने वाले!” चांदी की घंटियों जैसी आवाज़ इस वक़्त हथौड़े की चोट जैसी थी, “माफ़ करना माजिद भाई, जो मैं आपको ताकती थी तो इसलिए क्योंकि मुझे लगता था कि आपका ताल्लुक़ उस दुनिया से है, जहां इंसानों को तक़सीम करने वाले तराजू नहीं तालीम और तरक़्क़ी है. मुझे लगता था कि मुट्ठीभर इल्म के भरोसे मैं जिस दुनिया को अपनी बस्ती में उतार लाने के सपने देखती हूं, उसका हिस्सा होने के नाते आप मुझे मेरी कोशिशों में कोई राह दिखाएंगे, लेकिन आप क्या राह दिखाएंगे. आप तो ख़ुद आइडियलिज़्म के खोल के नीचे सदियों पुरानी सोच लिए घूम रहे हैं. वरना क्या मुझे इन हालात से निकालने का इकलौता ज़रिया निकाह ही था? माजिद भाई इस मुल्क में बहुत सी नाजिश हैं किस-किस को अपना नाम दीजिएगा? अगर वाक़ई कुछ करना चाहते हैं तो बस इतना कीजिए कि हमें अपना मोहताज मत समझिए और ख़ुदाया हमारे वजूद की लाठी मत बनिए, क्योंकि सीधे खड़े रहने के लिए हमारे पास अपनी रीढ़ है...!!!”

उसकी आवाज़ के ताप में मेरा वजूद पिघलकर बौना होता जा रहा था. छटपटाकर मैंने सांस लेनी चाही मगर आसपास हवा का एक क़तरा भी नहीं था. उस पल मुझे ज़िंदगी में दरीचों के मायने समझ आए और समझ में आया कि भले कोई खिड़की कितने ही बड़े अर्से तक बंद क्यों न रहे जब वह खुलती है तो उसकी ज़द में हमेशा आसमान ही होता है!

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