कहानी: मां की साड़ी
साउथ सिटी मॉल के सामने बाइक आकर रुकी तो एक पल के लिए दोनों के बदन रोमांच से गुदगुदा गए.
भीतर बड़ा-सा वृत्ताकार आंगन. आंगन के चारों ओर भव्यता की सारी सीमाओं को लांघते बड़े-बड़े शोरूम. बीच में थोड़ी-थोड़ी दूर खड़े आगतों को मासूमियत के संग हथेलियों पर बैठाकर ऊपर की मनचाही मंज़िलों तक ले जाने को तत्पर दैत्याकार एस्क्लेटर.
‘‘कैसा लग रहा है जेन?’’ नाम तो संजना था, पर हर्ष उसे प्यार से जेन पुकारता.
‘‘वंडरफ़ुल!’’ संजना के होंठों की लिपस्टिक में गर्वीली ठनक घुल गई. ओस में नहाए गुलाब-सा खिल गया. ‘‘लगता है जैसे पैरिस पूरे शबाब के संग उतर आया हो यहां.’’
‘‘लेकिन एक बात जान लो. यहां हर चीज़ की क़ीमत बाहर के शोरूमों से दोगुनी तिगुनी मिलेगी,’’ हर्ष चहका.
संजना खिलखिलाकर हंस पड़ी तो लगा जैसे मंदिर में झूलती छोटी-छोटी घंटियां खनखना उठी हों. मुंह की फांक के भीतर करीने से जड़े मोतियों के दाने चिलक उठे. शरारत से आंखें नचाती बोली,‘‘कुछ हद तक बेशक़ सही है तुम्हारी बात. पर जनाब, इस तरह के मॉल में ख़रीदारी का रोमांच ही कुछ और होता है. इस रोमांच को हासिल करने के लिए थोड़ा त्याग भी करना पड़ जाए तो सौदा बुरा नहीं.’’
‘‘लगता है इस जादुई चिराग का कचूमर निकाल देने का इरादा है आज.’’ हर्ष ने जेब से आयताकार क्रेडिट कार्ड निकालकर संजना के आगे लहराते हुए कहा तो संजना फिर से खिलखिला पड़ी. इस बार उसकी हंसी में रातरानी की महक घुली हुई थी. हंसने से देह में थिरकन हुई तो बालों की एक लंबी लट आंखों के पास से होती हुई होंठों तक चली आई. लट को मुग्ध भाव से देखता हर्ष मुस्कुराया,‘‘तुम औरतों में बचत की आदत तो होती ही नहीं...’’
‘‘ना, ऐसा नहीं कह सकते तुम. सही जगह पर भरपूर किफ़ायत और बचत भी किया करती हैं हम औरतें. विश्वास करो, तुम्हारे जादुई चिराग पर जो भी खरोंचें लगेंगी आज, उन पर जल्द ही बचत की रफ़ू भी लगा दूंगी, ठीक? पर अभी...’’
दोनों एस्क्लेटर की ओर बढ़ गए.
पहली मंज़िल. मॉल का सबसे फ़ेमस और चर्चित शोरूम अप्सरा. दोनों शोरूम के भीतर चले गए. अंदर का माहौल रौशनी में तैरते किसी जहाज जैसा दिख रहा था. चारों ओर बड़ी-बड़ी शेल्फ़्स, वस्त्र ही वस्त्र. राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय ब्रैंड. डिज़ाइनों के लेटेस्ट कलेक्शन. चारों ओर जीवंत से दिखनेवाले पुतले डिज़ाइनों का प्रदर्शन कर रहे थे. शोरूम का दक्ष सेल्समैन उन्हें स्पेशल काउंटर पर ले आया. साड़ियां, जींस टॉप, पैंट शर्ट, अधोवस्त्र! रंगों के अद्भुत शेड्स! चयन प्रक्रिया दो घंटे तक चली. अंतत: चयनित होकर वस्त्र ढेरी से अलग हुए और आकर्षक भड़कीले पैकेटों में बंद होकर आ गए. भुगतान काउंटर पर बिल पेश हुआ. अठारह हज़ार पांच सौ! जादुई चिराग पर कुछ खरोंचें लगीं और भुगतान हो गया. संजना के चेहरे पर संतुष्टि की पुखराजी आभा फैल गई.
पैकेटों को चमगादड़ों की तरह हाथों में झुलाए कैप्सूल लिफ़्ट से नीचे उतरे ही थे कि संजना के पांव ठमक गए. ‘‘दीपावली के मौक़े पर जींस-टॉप का एक सेट बुलबुल के लिए भी ले लिया जाए तो कैसा रहेगा हर्ष? अपने जीजू की ओर से गिफ़्ट पाकर तो वह नटखट बौरा ही जाएगी.’’
‘‘अरे, वंडरफ़ुल आइडिया यार!’’ बुलबुल के जिक्र मात्र से ही हर्ष रोमांचक सनसनी से भर गया. बुलबुल संजना की छोटी बहन थी. शोख और चंचल. रूप और लावण्य में संजना से दो क़दम आगे. शादी की गहमागहमी में परिचय बस औपचारिक भर ही रहा, पर सप्ताहभर बाद जब हर्ष पीठफेरी पर संजना को लिवाने गया तो संकोचों की बलुई दीवार को ढहते देर नहीं लगी. हर्ष और बुलबुल की ख़ूब जमने लगी थी. हर्ष ने कहा,‘‘जींस टॉप के साथ-साथ एक साड़ी भी ले लो. अपनी जैसी प्राइज़ रेंज की... ठीक रहेगा ना?’’
दोनों वापस एस्कलेटर पर सवार होकर ऊपर की ओर उड़ चले.
रमा सिलाई मशीन से उठकर बाहर बरामदे में आ गई. मशीन पर लगातार पांच घंटे की बैठकी से पीठ और कमर अकड़ गई थी. सूई की ओर लगातार नज़रें गड़ाए रखने से आंखें जल रही थीं. रात के ग्यारह बज रहे थे. बाहर रात की स्याह चादर पर आधे चांद की धूसर चांदनी झड़ रही थी.
चैन नहीं पड़ा तो वापस कोठरी में लौट आई. कोठरी के भीतर बिखरे सरंजाम को देखकर हंसी छूट गई. रफ़ू की हुई पुरानी सिलाई मशीन. पास में महाजनों के यहां से रफ़ू के लिए आए कपड़ों की ढेरी. रफ़ू की हुई पुरानी जर्जर टेबल. बर्तन, भांडे, दीवार और छत, कपड़े-लत्ते, खाट-खटोले सब के सब रफ़ूमय.
रमा ब्याहकर यहां आई थी तो उम्र सोलह साल थी. रमेसर जेके अल्यूमीनियम में लेबर था. ज़िंदगी की गाड़ी सालभर ठीक-ठाक चली. उसके बाद श्रमिक संगठनों एवं प्रबंधन के आपसी मल्लयुद्ध में लहूलुहान होकर एशिया का यह सबसे बड़ा संयंत्र भीष्म पितामह की तरह शर शय्या पर इस कदर पड़ा कि फिर उठ न सका. हज़ारों श्रमिक बेकारी की अंधी सुरंग में धकेल दिए गए. रमेसर ने काम की तलाश में बहुत हाथ-पांव मारे पर कहीं भी जुगाड़ नहीं बैठ सका. अंत में वह रिक्शा चलाने लगा. पर दमे का मरीज़ होने के कारण कितनी सवारियां खींच पाता भला? खाने के लाले पड़ने लगे. तब बचपन में सीखा सिलाई और रफ़ूगिरी का शौक़िया हुनर काम आया. रमा ने पुरानी सिलाई मशीन का जुगाड़ किया. धैर्य रखते हुए पास के रानीगंज-आसनसोल शहर के व्यापारियों से संपर्क साधा और इस तरह सिलाई के साथ-साथ हुक लग जाने अथवा चूहों के द्वारा कुतरे जाने से क्षत कपड़ों की रफ़ूगिरी के पेशे से ज़िंदगी की फटी चादर पर रफ़ू लगाने की कवायद शुरू हुई.
फिर हर्ष पेट में आया. तबीयत ढीली रहने लगी. डॉक्टरों के पास जाने की औकात कहां? देसी टोटकों का रफ़ू लगा देह पर. देखते-देखते नौवां महीना आ गया. फूले पेट के भीतर हर्ष की भरतनाट्यमी कलाबाज़ियों से मरणासन्न रमा वेदना को दांत पर दांत जमाकर निरस्त करने की नाकाम कोशिश करती. उसकी अगवानी में पलक पावड़े बिछाए रही. तभी डॉक्टर ने ऐलान किया-केस सीरियस हो गया है. जच्चा या बच्चा दोनों में से किसी एक को ही बचाया जा सकता है. रमा की आंखों के आगे अंधेरा छा गया. पर दूसरे ही पल उसने दृढ़ता के साथ डॉक्टर को भगवान की सौगंध दे दी,‘सिर्फ़ और सिर्फ़ बच्चे को बचा लेना हुजूर.
मरद के गोद में हमरे प्यार की एगो निशानी तो रह जाएगी, जो इस सतरंगी दुनिया को देख सकेगी.’ डॉक्टर ने हर्ष को जीवनदान दे दिया. रमा कोमा में चली गई. कोमा की यह स्थिति पंद्रह दिनों तक बनी रही. डॉक्टरों ने उसकी ज़िंदगी की उम्मीद छोड़ दी थी. फिर जैसे चमत्कार हो गया. मौत के संग लंबे संघर्ष के बाद आख़िरकार रमा बच ही गई.
हर्ष पढ़ने-लिखने में औसत था. पढ़ने से जी चुराता. स्कूल के नाम पर घर से निकल जाता और स्कूल न जाकर आवारा लड़कों के संग इधर-अधर मटरगस्ती करता रहता. इन सब बातों को लेकर रमेसर अक्सर उसकी पिटाई भी कर देता.
‘तेरे भले के लिए ही कह रहे हैं रे?’ रमा उसे प्यार से समझाती. ‘पढ़-लिख लेगा तो इज्जत की दो रोटी मिलने लगेगी. नहीं तो अभावों और जलालत की रफू वाली जिंदगी ही जीनी पड़ेगी.’
किसी तरह मैट्रिक पास कर लेने के बाद रमा ने उसे कोलकाता भेज देने का निश्चय कर लिया. पुराने आवारा दोस्तों का साथ छूटेगा, तभी पढ़ाई के प्रति गंभीर हो सकेगा.
‘पर कोलकाता में कहां रहेगा, कहां खाएगा? वहां का खर्च क्या आसमान से उतरेगा?’ रमेसर ने शंका में मुंडी हिलाई तो रमा के चेहरे पर आत्मविश्वास की धूप खिल उठी. ‘आसमान से भला कोई चीज आई है, जो अब आएगी? खर्च हम पूरा करेंगे. आधा पेट खाकर रह लेंगे. जरूरतों पर और कटौती कर देंगे. चाहे जैसे भी करके हर्ष को पढ़ाना ही होगा. उसकी जिंदगी संवार देनी है.’
रमा की जीवटता देखकर रमेसर चुप हो गया. हर्ष को कोलकाता भेज दिया गया. सस्ता-सा पीजी होम तलाशते देर न लगी. कॉलेज में एडमिशन भी हो गया. नए दोस्तों की संगत रंग लाने लगी. पढ़ाई की ओर ध्यान जुटने लगा. रमा निरंतर पैसे भेजती रही. इस बीच रमेसर भी नहीं रहे. इन पैसों का जुगाड़ किन मुसीबतों से गुज़रकर हो रहा है, हर्ष को इस बात से कोई मतलब नहीं था. इस तरह पहले इंटर, फिर बीबीए और अंत में एमबीए.
एमबीए की डिग्री का झोली में आ गिरना टर्निंग पॉइंट साबित हुआ हर्ष के लिए. पहले ही प्रयास में टाटा स्टील जैसी ख्यात कंपनी में जॉब! फिर सुंदर और पढ़ी लिखी संजना से ब्याह. कोलकाता में ही पोस्टिंग तथा टाटा आवासीय कॉम्प्लेक्स में शानदार फ़्लैट. अरसे से दाने-दाने को मोहताज किसी वंचित को मानों अथाह सम्पदा के ढेर पर ही बैठा दिया गया हो. ढेर सारी सुविधाएं. ढेर सारा वैभव. सबकुछ छोटे से आयताकार जादुई चिराग में क़ैद. इस चिराग के एकछत्र अलादिन सिर्फ़ और सिर्फ़ वे दोनों.
टाटा स्टील में जॉब लगे तीन साल हो गए. जॉब लगते ही हर्ष ने कहा था,‘नई जगह है मम्मी, सेट होने में हमें ही वक़्त लगेगा. सेट होते ही तुम्हें वहां बुला लेंगे. इस मनहूस जगह को हमेशा के लिए अलविदा कह देंगे.’
सुनकर अच्छा लगा था. रफ़ूगिरी का काम करते-करते तन और मन पर इतने सारे रफ़ू चस्पा हो गए हैं कि घिन आने लगी है अब. अब वह भी सामान्य ज़िंदगी जीना चाहती है. जिस दिन हर्ष कहेगा, चल देगी. यहां कौन-सी संपत्ति पड़ी है. सारी गृहस्थी एक छोटी-सी गठरी में समा जाएगी.
तीन साल गुज़र गए. इस बीच हर्ष कई बार आया. दो दिनों के प्रवास का डेढ़ दिन ससुराल में बिताता. फिर बिना कुछ कहे लौट जाता. ‘मम्मी, इस बार तुम्हें भी साथ चलना है...’ इस पंक्ति को सुनने के लिए तड़पकर रह जाती है वह.
तो क्या अपने साथ ले चलने के लिए हर्ष के आगे हाथ जोड़ते हुए गिड़गिड़ाना होगा? मां की तन्हाइयों और मुसीबतों का एहसास ख़ुद ही नहीं हो जाना चाहिए उसे? न... वह ऐसा नहीं कर सकती. उसके ज़मीर को यह क़तई मंजूर नहीं होगा. सिर्फ़ एक बार... कम से कम एक बार तो हर्ष को मनुहार करना ही होगा. अगर वह ऐसा नहीं कर सकता तो न करे. वह भी कहीं जाने के लिए मरी नहीं जा रही.
शो रूम में आधे घंटे का वक़्त और लगा. जींस और टॉप के साथ सीक्वेंस वर्क की ख़ूबसूरत साड़ी भी. जादुई चिराग पर एक और गहरी खरोंच. हाथों में झूलते चमगादड़ों के झुंड में एक चमगादड़ और जुड़ गया. लिफ़्ट से नीचे उतरकर दोनों शाही अंदाज़ में चलते हुए मुख्य द्वार तक आए ही थे कि हर्ष एकाएक चौंक पड़ा.
‘‘मम्मी को तो भूल ही गए. उनके लिए साड़ी?’’ हर्ष मिमियाया.
‘‘ओह...’’ संजना भी ठमक गई.
‘‘एक बार फिर बैक टु अप्सरा...’’ हर्ष हंसा और हड़बड़ाकर वापस भीतर जाने के लिए मुड़ा तो संजना ने उसे बांह से पकड़कर रोक लिया. ‘‘अब उतर ही गए हैं तो चलो न, बाहर के किसी शोरूम से ले लेंगे.’’
‘‘बाहर के शोरूम से?’’ हर्ष एक पल के लिए सकपका गया.
‘‘एनी प्रॉब्लम?’’ संजना ने आंखें मटकाई. ‘‘मां ही तो है यार, मैडम मिशेल ओबामा जैसी तोप तो नहीं कि मॉल की साड़ी न हुई तो शान में गुस्ताख़ी हो जाएगी. वैसे भी बाहर के स्टोर से लेंगे तो सस्ती भी मिलेगी और जादुई चिराग पर रफ़ू भी लग जाएगा.’’
‘‘सचमुच, यह तो मैंने सोचा ही नहीं. यू आर रियली जीनियस जेन.’’ हर्ष संजना के तर्क पर मुग्ध हो उठा. ‘‘पर... पर लेनी प्योर सिल्क ही है यार.’’
‘‘प्योर सिल्क?’’ संजना चौंक पड़ी. ‘‘प्योर सिल्क के माने जानते भी हो?’’
‘‘पिछली बार वहां गया था तो दिवाली पर प्योर सिल्क देने का वायदा कर आया था.’’ हर्ष अपराधबोध से भर गया.
‘‘उफ़्फ़, तुम भी ना...’’ संजना बड़बड़ाई. ‘‘इस तरह के वादे करने से पहले थोड़ा सोचना भी तो चाहिए था.’’
‘‘अब कुछ नहीं हो सकता जेन. वादा कर आया हूं न. नहीं दिए तो मम्मी क्या सोचेगी?’’
‘‘ठीक है, कोई उपाय करते हैं.’’
बाइक अलीपुर की ओर दौड़ने लगी. पीछे बैठी संजना ने बायां हाथ आगे ले जाकर हर्ष की कमर पर टिका दिया.
रासबिहारी मेट्रो के पास एक ठीकठाक शोरूम के आगे बाइक रुकी. दोनों भीतर चले आए. उनके हाथों में भारी भरकम भड़कीले पैकेट्स देखकर काउंटर के पीछे बैठे मुखर्जी बाबू मन ही मन चौंक गए. ऐसे हाई-फ़ाई ग्राहक का उनके साधारण से शोरूम में क्या काम?
‘‘वेलकम मैडम... क्या सेवा करें?’’ हड़बड़ा कर खड़े हो गए मुखर्जी बाबू.
‘‘प्योर सिल्क की साड़ी लेनी है. कुछ अच्छे डिज़ाइन्स दिखाइए.’’
मुखर्जी बाबू ने सहायक को संकेत दिए. देखते-देखते काउंटर पर दसियों साड़ियां आ गिरीं. मुखर्जी बाबू उत्साहपूर्वक एक-एक साड़ी खोलकर डिज़ाइन और रंगों की प्रशंसा में कसीदे पढ़ने लगे. संजना ने साड़ी पर चिपके प्राइस टैग पर नज़र डाली. तीन से चार हज़ार तक की थीं साड़ियां. उसने हर्ष की ओर देखा.
‘‘तनिक कम रेंज की दिखाइए दादा,’’ संजना ने कहा.
‘‘मैडम, इससे कम प्राइज़ में अच्छा क्वालिटी का प्योर सिल्क नेई आएगा. सिंथेटिक दिखा दें?’’ मुखर्जी बाबू सोच रहे थे. आख़िर इतना मालदार आसामी प्राइज़ देखकर हड़क काहें रहा?
‘‘प्योर सिल्क ही लेनी है,’’ संजना रुखाई से बोली. फिर तमतमाई आंखों से हर्ष की ओर देखा. दोनों अंग्रेज़ी में वार्तालाप करने लगे.
‘‘तुम्हारी मम्मी का दिमाग़ सनक गया है. माना कि चालीस-पैंतालीस की ही हैं अभी, पर हमारे समाज में विधवा स्त्री को ज़्यादा क़ीमती और फ़ैशनेबल साड़ी पहनना वर्जित है. ये बात उन्हें सोचनी चाहिए. मुंह उठाया और प्योर सिल्क मांग लिया, हूंह! प्योर सिल्क का दाम भी पता है? प्योर सिल्क पहनने का शौक़ चढ़ा है उन्हें!’’
हर्ष कहना चाहता था कि हमारे समाज में विधवाओं को सिर्फ़ रंग-बिरंगे भड़कीले प्रिंट्स पहनने की मनाही है. किसी भी धर्मग्रंथ में उन्हें क़ीमती साड़ी पहनना वर्जित नहीं है और कि मम्मी ने मुंह उठाकर ख़ुद प्योर सिल्क नहीं मांगी, बल्कि प्योर सिल्क की बात तो उसने की है. पर उसकी बोलती बंद थी.
‘‘आईएम सॉरी जेन. वादा कर चुका हूं न. अब कोई उपाय नहीं.’’ हर्ष ने भूल स्वीकारते हुए अफ़सोस ज़ाहिर किया.
उसे अच्छी तरह याद है वह दिन. दोस्तों के संग घूम-फिरकर लौटा तो रात के ग्यारह बज रहे थे. मम्मी बिना खाए उसका इंतज़ार कर रही थी. दोनों ने साथ भोजन किया. फिर वह मम्मी की गोद में सिर रखकर लेट गया. नीचे मम्मी की गोद की अलौकिक ऊष्मा और ऊपर बालों में उसके ममता भरे हाथों का शीतल स्पर्श. न जाने कैसी जादुई तासीर थी इनमें कि आंखें झपक गईं. काफ़ी दिनों बाद निश्चिंतता वाली नींद आई थी. भोर में पांच बजे अचानक नींद टूटी तो देखा, मम्मी ज्यों कि त्यों बैठी बालों में उंगलियां फिरा रही है.
‘अरे, मम्मी तुम सोई नहीं?’ हर्ष अकबका कर उठ बैठा.
‘तुझे सोते हुए देखते रात कब बीत गई, पता ही नहीं चला रे...’ मम्मी के होंठों पर एक दिव्य मुस्कान थिरक रही थी. उन्हीं जादुई क्षणों के दौरान हर्ष के मुंह से निकल गया,‘ओह मम्मी, इस बार दिवाली पर अच्छी-सी प्योर सिल्क दूंगा तुम्हें.’ सुनकर रमा मुस्कुरा भर दी थी.
हर्ष और जेन के बीच वार्तालाप भले ही अंग्रेज़ी में हो रहा था और मुखर्जी बाबू को अंग्रेज़ी की समझ कम थी, फिर भी उन्हें ताड़ते देर नहीं लगी कि बहस साड़ी की क़ीमत को लेकर ही हो रही है.
‘‘मैडम...’’ मुखर्जी बाबू ने सिर खुजलाते हुए अत्यंत विनम्रतापूर्वक कहा. ‘‘यदि बुरा न मानें तो क्या हम पूछ सकते हैं कि साड़ी किसके लिए ले रहे हैं?’’ इससे पहले कि इस अटपटे प्रश्न पर दोनों हत्थे से उखड़ जाते, मुखर्जी बाबू ने त्वरित गति से अपने कहे का स्पष्टिकरण भी पेश कर दिया. ‘‘न... न... मैडम, गलत मत समझें. सिरिफ इसलिए पूछा कि तब हम उसके हिसाब से आपको दूसरा किफायती ऑप्शन सुझा सकता.’’
किफ़ायती ऑप्शन की बात पर दोनों का आक्रोश ठंडा हो गया. संजना ने हिचकिचाते हुए मन की गांठ खोल दी. ‘‘साहब की विडो मदर के लिए.’’ मुखर्जी बाबू के ज़ेहन में पलक झपकते पूरा माजरा बेपर्दा हो गया. मैडम ने साहब की मां को मम्मी नहीं कहा. सासू मां भी नहीं कहा. बल्कि साहब की विडो मदर का प्रयोग किया.
‘‘ऐसा बोलिए न मैडम...’’ उन्होंने सहायक को कुछ अबूझ से संकेत दिए तो थोड़ी देर में ही काउंटर पर प्योर सिल्क के नए बंडल बम की तरह आ गिरे. एक से एक ख़ूबसूरत प्रिंट! एक से एक लुभावने कलर्स!
‘‘वैसे तो ये साड़ियां भी चार हजार से कम की नेई मैडम, पर हम इन्हें सिरिफ आठ सौ में सेल कर रहा. लोडिंग-अनलोडिंग के समय हूक लग जाने से या इंदूर (चूहा) काट देने से साड़ी में छोटा-छोटा छेद हो जाता. हमारा ट्रेन्ड कारीगर प्लास्टिक सर्जरी करके उस नुख्स को नेई पकड़ पाएगा, ये हमारा चैलेन्ज!’’
‘‘प्लास्टिक सर्जरी, माने रफ़ू...?’’ संजना एक पल के लिए हकलाई.
‘‘नो... नो... मैडम! रफू नेई, प्लास्टिक सर्जरी! जैसे चेहरा का प्लास्टिक सर्जरी होता, वैसा माफिक ही साड़ी का भी प्लास्टिक सर्जरी! आप खुद देखिए न.’’ सचमुच बिल्कुल नई और बेदाग़ साड़ियां. नुख़्स बिल्कुल ही समझ में नहीं आ रहे थे. यहां-वहां छोटे-छोटे डिज़ाइनर तारे साड़ियों की ख़ूबसूरती को बढ़ा रहे थे. दोनों की बांछें खिल गईं. मन तनाव से मुक्त हो गया. आनन-फानन ढेर से एक साड़ी चयनित हुई और पैक होकर आ गई.
‘‘मैंने कहा था न, सही मौक़ा आते ही जादुई चिराग पर रफ़ू लगा दूंगी. देख लो, तुम्हारा वादा निभ गया और चिराग पर पूरे तीन हज़ार का रफ़ू भी लग गया. नहीं?’’ संजना खिलखिलाई तो बालों की महीन लट आंखों के सामने से होती हुई होंठों तक चली गई. ‘‘यू आर रियली जीनियस जेन...’’ दोनों के चेहरे खिले हुए थे.
हर्ष और संजना दिवाली के तीन दिन पहले ही यहां आ गए.
‘‘मम्मी ये तुम्हारे लिए. दिवाली गिफ़्ट. मैंने कहा था न, इस बार सुंदर-सी प्योर सिल्क दूंगा.’’ साड़ी का पैकेट रमा की ओर बढ़ाते हुए हर्ष ख़ुशी से दिपदिपा रहा था. संजना ने साड़ी को मॉल के भड़कीले पैकेट में डाल दिया था. रमा ने लरज़ते हाथों से पैकेट में से साड़ी निकाली. लगा जैसे हाथों में मुलायम फ़र वाला खरगोश ही आ दुबका हो.
‘‘इसे दिवाली के दिन पहनिएगा मम्मी. आकाश से उतरी हुई कोई परी ही लगेंगी...’’ संजना ने चुटकी ली.
‘‘इतनी महंगी प्योर सिल्क की क्या जरूरत थी रे?’’ रमा के उलाहने में गर्वोन्मत्त संतुष्टि की खनक घुली थी. बेटे को वादा याद रहा.
शाम को हर्ष संजना को लेकर ससुराल जाने निकला. जाते हुए कहा,‘‘पूजा की सारी तैयारी करके रखना मम्मी. हम दिवाली वाले दिन सुबह लौट आएंगे.’’
पांच दिनों के प्रवास का साढ़े चार दिन ससुराल में! उल्लास और त्यौहार के इस ख़ुशनुमा माहौल में भी घर में सांय-सांय करती ख़ामोशी! रमा ने ख़ुद को संयत कर लिया. साड़ी लिए मशीन के पास वाली कुर्सी पर आ बैठी. गुलाबी पृष्ठभूमि पर छोटे-छोटे फूल-पत्तियों का जाल! अचानक ज़ेहन में एक खटका सलीब की तरह टंग गया. अरे बिल्कुल ऐसे ही कलर और प्रिंट वाली प्योर सिल्क पिछले महीने ही उसके हाथों से गुज़री है. हूबहू वही शेड! हूबहू वही फूल-पत्तियों के छापे! बिजली की गति से हाथ साड़ी की तहों को खोलने में लग गए. चौकन्नी और खोजी निगाहें केचुओं की तरह साड़ी के ‘रन वे’ पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक रेंगने लगीं. बिल्कुल उसके हुनर से उपजे यत्रतत्र बिखरे नन्हे तारे! साड़ी के छोर पर कोने में लाल धागे की नन्ही बिंदी... उसकी पहचान का लोगों. अब शक़ की कोई गुंजाइश ही नहीं रह गई थी.
रमा का कलेजा धक् से रह गया. आंखें फटी की फटी रह गईं. उसे याद आया, भिखमचंद रामरतन साड़ी के थोक व्यापारी हैं और उनके यहां से माल दूर-दूर के शहरों तक सप्लाई होता है. उन्हीं के यहां से यह साड़ी आई थी रफ़ू के लिए.
उसकी आंखें छलछला आईं. अपमान बोध के तनाव से सिर भारी हो गया. ‘आसमान से उतरी हुई परी...’ क्या सचमुच!
वह सन्नीपाती आलम की स्थिति कुछ ही पलों तक रही. फिर रमा उठ बैठी. ‘न, हर्ष को इस बात की ज़रा-भी भनक नहीं लगनी चाहिए कि उसे सब पता चल गया है. कलेजे का टुकड़ा है वह. उसकी ख़ुशी में ही मेरी ख़ुशी है.’
उसने तय कर लिया कि दिवाली के दिन यही साड़ी पहनेगी वह!
कोई टिप्पणी नहीं: