कहानी: पियर 39

डॉक्टर देव के साथ आपरेशन थिएटर से बाहर निकलकर मैंने राहत की सांस ली. डॉक्टर देव ओपीडी की ओर बढ़ गए और मैं सिस्टर मारिया को आवश्यक निर्देश देते हुए तेज़ क़दम बढ़ाती हुई पार्किंग की ओर चल दी. आज जल्द-से-जल्द मैं विवेक के पास पहुंच जाना चाहती थी, ताकि उसे हमारे विवाह की ख़ुशख़बरी सुना सकूं. सुबह पापा-मम्मी से फ़ोन पर मेरी बात हुई थी. अगले महीने वे दोनों अमेरिका आनेवाले थे, ताकि हमारा विवाह करवा सकें. कार ड्राइव करते हुए मुझे ख़्याल आया. पूरे दो वर्ष हो गए थे. मुझे अमेरिका आए हुए. जिन हालात् में मैंने अमेरिका आने का फ़ैसला लिया था, आज भी उनकी स्मृति मुझे कंपा देती है. मेरे हाथ स्टेयरिंग घुमा रहे थे और मन अतीत में विचर रहा था.

एमबीबीएस करने के बाद पोस्ट ग्रेजुएशन करते हुए मेरे लिए डॉक्टर समीर का रिश्ता आया था. वह शहर के जाने माने सर्जन थे. बहुत छोटी उम्र में उन्होंने यह मुक़ाम हासिल कर लिया था. धूमधाम से मेरा विवाह डॉ समीर के साथ हो गया. एक अच्छे डॉक्टर होने के साथ-साथ समीर एक अच्छे इंसान भी थे. पति से पहले एक दोस्त बनकर उन्होंने मेरे दिल को जीता था. इतना अच्छा  जीवनसाथी और घर परिवार पाकर मैं अपनी कि़स्मत पर इतरा रही थी. उस समय कहां जानती थी, दुर्भाग्य दबे पांव मेरी ओर बढ़ रहा है. एक दिन अचानक तूफ़ान आया और मेरा सुख-चैन सभी कुछ अपने साथ बहाकर ले गया. समीर की कार ऐक्सीडेंट में मौत हो गई. अगले ही दिन से सास-ससुर का मेरे प्रति दुर्व्यवहार शुरू हो गया. दुख और क्षोभ के कारण मेरा हृदय छलनी हो गया था. ससुराल में एक पल काटना दूभर हो रहा था. 

मैं मायके चली आई. मम्मी-पापा ने दुख से उबरने और जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी. उन्हीं की सलाह पर मैंने अमेरिका जाने का निश्चय किया. मैंने ईसीएफ़एमजी की परीक्षा पास की और मुझे अमेरिका आने का अवसर मिल गया. अब मैं सैनफ्रैंसिस्को शहर के एक हॉस्पिटल में डॉक्टर थी. नया देश, यहां के रहन-सहन, तौरतरीक़े अपनाने में मुझे वक़्त लगा. शुरू-शुरू में बहुत अकेलापन लगता था. समीर के साथ बिताए हुए दिन याद करके अक्सर मैं रो पड़ती थी फिर धीरे-धीरे मैंने अपनी सोच की दिशा बदल दी. समीर की यादों को मैं अपनी ताक़त बनाना चाहती थी, कमज़ोरी नहीं. एक डॉक्टर होने के नाते मैं अपनी व्यस्त दिनचर्या में खोती चली गई. एक शाम मैं अपनी फ्रेंड चेल्सी के साथ प्रशांत महासागर के किनारे बसे विश्व के सबसे बड़े हार्बर मार्केट पियर 39 पहुंची. वहां पहुंचकर मैं दंग ही रह गई. 

अनगिनत दुकानें, बड़े-बड़े मॉल्स, रंगबिरंगी रोशनियों में नहाया हुआ पियर 39. अमेरिकी, चीनी, मैक्सिकन, भारतीय, फ्रेंच आदि कितनी ही संस्कृतियों को स्वयं में समेटे हुए जीवंतता की एक मिसाल, एक इटैलियन रेस्तरां के बाहर पहुंचकर मैं ठिठक गई. एक युवक जो शक्ल से भारतीय लग रहा था, गिटार पर हिंदी फ़िल्मी धुन बजा रहा था. चेल्सी का हाथ थामे मैं वहां पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गई. बहुत दिनों बाद मैं रिलैक्स महसूस कर रही थी. गीत समाप्त हुआ. लोगों ने तालियां बजाकर प्रशंसा की. चेल्सी ने लंच का ऑर्डर किया ही था कि वह गिटार वाला युवक हमारे नज़दीक आया. अपना हाथ मेरी ओर बढ़ाते हुए बोला,‘‘हैलो, आईएम विवेक फ्रॉम इंडिया.’’  

‘‘माई सेल्फ़ डॉ निधि एंड शी इज़ माई फ्रेंड चेल्सी.’’ विवेक बैठ गया और बातें करने लगा. वह एक अमेरिकन कंपनी में इंजीनियर था और तीन वर्ष पूर्व अमेरिका आया था. उसके जाने पर हम भी उठ गए. शाम तक मैं और चेल्सी ख़ूब घूमे. ढेर सारी शॉपिंग भी की. अंधेरा घिर चला था. हम पार्किंग की ओर बढ़े. ज्योंहि कार का दरवाज़ा खोलकर मैं बैठने को हुई, तभी एक काला हब्शी-सा युवक समीप आया और चाकू दिखाकर फुसफुसाया,‘‘गिव मी योर पर्स.’’

हम दोनों बुरी तरह डर गए तभी वहां विवेक आ गया. उसे देख वह युवक ग़ायब हो गया. विवेक बोला,‘‘भाग गया न, मैंने दूर से इसे तुम्हारे पास खड़े देखा तो समझ गया ज़रूर तुम्हें लूटने के चक्कर में होगा.’’

‘‘थैंक्स विवेक, ठीक समय पर आकर हमें बचाने के लिए.’’  

उससे विदा लेकर हमने कार घर की ओर दौड़ा दी. दो-तीन दिन बाद हॉस्पिटल जाते हुए रास्ते में मेरी कार ख़राब हो गई. मैंने सर्विस सेंटर में फ़ोन किया और सड़क के किनारे खड़ी हो गई, ताकि किसी से लिफ़्ट ले सकूं. तभी दूर से एक कार आती दिखाई दी. मैंने हाथ हिलाकर रुकने का संकेत किया. ज्योंहि कार रुकी, ड्राईविंग सीट पर बैठे शख़्स को देख मैं ख़ुशी से बोली,‘‘अरे विवेक तुम.’’

‘‘बंदा ख़िदमत में हाज़िर है,’’ उसने सिर झुकाकर नाटकीय अंदाज़ में कहा.

मैं मुस्कुरा दी. ‘‘मेरी कार ख़राब हो गई है. प्लीज़ मुझे हॉस्पिटल ड्रॉप कर दोगे क्या?’’

उसने कार का दरवाज़ा खोल दिया. मैं बैठते हुए बोली, ‘‘अजीब इत्तफ़ाक है, दो बार मैं परेशानी में पड़ी और दोनों बार तुम मेरी मदद को आ गए.’’  

‘‘काश, यह सिलसिला आगे भी यूं ही चलता रहे.’’

उसके इस जवाब पर मैंने आंखें तरेरीं तो विवेक खिलखिलाकर हंस पड़ा. दो मुलाक़ातों में ही मैं समझ गई थी कि विवेक बहुत ज़िंदादिल इंसान है. वह मेरी ही सोसायटी में रहता था. एक दिन तो हद ही हो गई. बीमारी का बहाना बनाकर वह मुझसे मिलने हॉस्पिटल आ गया.

दो दिन बाद डॉ देव को कॉन्फ्रेंस में न्यू यॉर्क जाना था, पर वह इंकार कर रहे थे. वजह पूछने पर वह बोले,‘‘कैसे जा सकता हूं डॉ निधि? तीन दिन की कॉन्फ्रेंस हैं. परी को कौन संभालेगा? तुम जानती हो वह बिन मां की बच्ची है. जब तक इंडिया से मम्मी यहां नहीं आ जातीं. परी को प्रॉब्लम ही रहेगी.’’  

मैं कुछ सोचते हुए बोली,‘‘डॉ आप चाहें तो परी को मेरे पास छोड़ सकते हैं. मुझसे वह काफ़ी हिलीमिली हुई है. आराम से रह लेगी.’’ डॉ. देव अपनी तीन वर्षीय बेटी परी को मेरे पास छोड़कर न्यू यॉर्क चले गए. मैं सुबह उसे स्कूल छोड़कर हॉस्पिटल चली जाती थी, जहां से वह क्रेश में जाती थी. शाम को हॉस्पिटल से लौटते हुए मैं उसे घर ले आती थी. परी बहुत ख़ुश थी. वह मेरे साथ खेलती, कहानी सुनती और अपनी मनपसंद डिशेज़ बनवा कर खाती. तीसरे दिन रात में डॉ देव न्यू यॉर्क से लौटनेवाले थे. 

मैंने उनके लिए बढ़िया खाना बनाया. डिनर के बाद वह घर जाने लगे तो परी बोली,‘‘पापा, निधि आंटी को भी घर ले चलो न. हम सब साथ रहेंगे. ख़ूब मज़ा आएगा.’’

परी की बात से मैं संकुचित हो उठी. बड़ी मुश्क़िल से डॉ देव उसे घर लेकर गए. उनके जाने पर चेल्सी बोली,‘‘निधि, मैं इंसान की आंखों से उसके मन की बात जान लेती हूं. तू उनके साथ बहुत ख़ुश रहेगी. इस बारे में सोचकर देखना.’’ चेल्सी चली गई. मैं जानती थी, वह ठीक कह रही थी. यहां आने के कुछ दिनों बाद ही यह बात मैंने महसूस कर ली थी. अगली दिन शाम को विवेक मेरे घर आया और मुझे पियर 39 ले गया जहां हमने साथ बैठकर कॉफ़ी पी. धीरे-धीरे मेरी और विवेक  की दोस्ती बढ़ने लगी. हमारी शामें अक्सर साथ बीतने लगीं. सच तो यह था कि विवेक के हंसमुख स्वभाव के आकर्षण में मेरा मन बंधने लगा था.


एक महीने बाद डॉ देव की मम्मी इंडिया से आ गईं. अक्सर वीकएंड पर वह मुझे अपने घर बुला लेती थीं. उस दौरान डॉ देव को और क़रीब से जानने का मौक़ा मिला. वे बहुत ही सरल और सुलझे विचारों वाले इंसान थे. उनसे और मम्मी से बातें करने और परी के साथ समय कब बीत जाता था. पता ही नहीं चलता था. उस दिन परी का जन्मदिन था. हॉस्पिटल के कई डॉक्टर्स आमंत्रित थे. देव की मम्मी ने मुझे जल्दी बुला लिया था ताकि डिनर तैयार करने में मेरी मदद ले सकें. रात में सब मेहमानों के जाने पर आंटी ने मुझसे कहा,‘‘निधि, आज रात तुम यहीं पर रुक जाओ. कल सुबह चली जाना.’’ परी ख़ुशी से मेरे गले लग गई, ‘‘हां आंटी, आप मत जाओ. मुझे कहानी सुनाना.’’ परी के सो जाने पर आंटी ने मुझसे कहा,‘‘निधि मैं तुमसे कुछ पर्सनल सवाल पूछूं, बुरा तो नहीं मानोगी?’’  

‘‘कैसी बात कर रही हैं आंटी, पूछिए न.’’  

‘‘तो बताओ कि तुमने अपनी शादी के बारे में क्या सोचा है?’’

‘‘सच कहूं आंटी तो मैं दोबारा शादी नहीं करना चाहती थी किंतु मम्मी पापा ज़ोर दे रहे हैं.’’

‘‘वे लोग ठीक कह रहे हैं निधि. जीवन का सफ़र बहुत लंबा होता है. इसकी राहें आसान नहीं है. सुख में दुख में कोई हमसफ़र साथ होना चाहिए, जिससे तुम अपने मन की बात कह सको. हादसे तो किसी के जीवन में भी हो सकते हैं. हादसों की वजह से ज़िंदगी रुक तो नहीं जाती. अब देव को ही लो. इसने जीवन में कितने दुख झेले हैं. छोटी उम्र में ही पिता का साया सिर से उठ गया. डॉक्टर बना, मनीषा के साथ शादी हुई लेकिन गृहस्थी का सुख फिर भी नहीं देख पाया. परी के जन्म के समय मनीषा इस दुनिया से चली गई. तब से ही इतना गंभीर हो गया है. सोचती हूं, जल्दी से इसका ब्याह हो जाए तो मैं अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाऊं. इसे जीवनसाथी मिलेगा और परी को उसकी मां मिल जाएगी. पर इसमें रिस्क भी है.’’

‘‘कैसा रिस्क?’’ मुझे हैरानी हुई.
‘‘निधि, देव को तो कोई भी लड़की ख़ुशी से अपना लेगी किंतु परी की मां हर लड़की नहीं बन पाएगी. इसलिए मुझे ऐसी लड़की की तलाश है. जो देव की पत्नी बनने के साथ-साथ परी को भी दिल से स्वीकार करे. एक मां की तरह उसे प्यार करे. उसकी देखभाल करे और ऐसा सिर्फ़ वही लड़की कर सकती है जो थोड़ी भावुक और संवेदनशील हो.’’ एक गहरी दृष्टि मुझ पर डाल आंटी मेरा हाथ पकड़कर बोलीं,‘‘और वह लड़की तुम हो निधि.’’
मेरे मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला. मैं अपलक छत को देखे जा रही थी. आंटी ने कहना जारी रखा,‘‘निधि, मैं मानती हूं, देव एक बेटी का पिता है. पर वह तुम्हें पसंद करता है है. यह बात मैं इंडिया में रहते हुए समझ गई थी, जब वह जाने अनजाने फ़ोन पर तुम्हारा ज़िक्र कर बैठता था. परी भी तुमसे बहुत हिलीमिली हुई है.’’

‘‘मैंने इस बारे में कभी सोचा नहीं आंटी,’’ मैंने झिझकते हुए कहा.

‘‘मुझे कोई जल्दी नहीं है बेटी. अच्छी तरह सोच लो. आखिर ये तुम्हारे भी भविष्य का सवाल है.’’  

आंटी सो गईं, पर मैं सारी रात विचारों के झंझावात में फंसी रही. एक ओर धीरे गंभीर डॉ देव जिनके साथ मेरा भविष्य सुरक्षित था और दूसरी ओर विवेक एक ज़िंदादिल इंसान. जिसके साथ बिताए चंद लम्हे ही जीवन को महका देने के लिए काफ़ी थे. अगले दिन संडे था. दोपहर में विवेक आया और मुझे पियर 39 के उसी रेस्तरां में ले गया जहां हम दोनों पहली बार मिले थे. जूस पीते हुए मैं बोली,‘‘रोज़-रोज़ तुम मुझे पियर 39 क्यों ले आते हो? क्या सैनफ्रैंसिस्को में घूमने लायक कोई दूसरी जगह नहीं है?’’

विवेक गंभीर हो गया. भावुक स्वर में बोला,‘‘सच कहूं निधि, पियर 39 मेरे लिए तीर्थस्थल के समान है. तुम मुझे यहां पहली बार मिली थीं.’’ विवेक ने मेरा हाथ थामा और मेरी आंखों में झांककर बोला,‘‘निधि, मैं तुमसे प्यार करता हूं और जल्द-से-जल्द तुमसे शादी करना चाहता हूं. बताओ, जीवन के इस सफ़र में क्यातुम मेरा साथ दोगी?’’ मैंने विवेक को अपनी स्वीकृतिदे दी. हालांकि विवेक हर तरह से योग्य था. हमउम्र, देखने में आकर्षक, अच्छी जॉब और इन सबसे  बढ़कर उसका हंसमुख स्वभाव फिर भी न जाने क्योंएकांत में बैठकर जब भी मैं उसके साथ अपने विवाह के सपने बुनती, मेरा दिल घबराने लगता. ऐसा लगता, कोई अदृश्य शक्ति मुझे इस राह पर आगे बढ़ने से रोक रही है. दूसरी ओर विवेक का निरंतर मुझपर दबाव बढ़ रहा था. वह जल्द-से-जल्द विवाह करना चाहता था. मैंने अपने अवचेतन मन की आवाज़ को अपना वहम समझकर दबा दिया और मम्मी-पापा से विवाह की बात की. उन्होंने भी शीघ्र विवाह कर लेने कर सुझाव दिया. इस समय मैं यही ख़बर सुनाने विवेक के पास जा रही थी.

विचारों की तंद्रा से मैं बाहर आई. घर आ गया था. कार पार्क करके मैंविवेक के अपार्टमेंट की ओर चल दी. पिछले दो दिनों से विवेक से मुलाक़ात नहीं हुई थी. इंडिया से उसका एक मित्र आया हुआ था और वह उसके साथ व्यस्त था. घर का दरवाज़ा बंद था, पर बराबर वाली खिड़की खुली हुई थी. न जाने किस भावना के वशीभूत होकर मैं खिड़की के पास पहुंची. अंदर से धीमी आवाज़ आ रही थी. मैं सुनने लगी. एक अजनबी पुरुष स्वर उभरा,‘‘नईम, तेरी दो बातें मुझे उलझन में डाल रही हैं. पहली तो यह कि तू शादी कर रहा है, जबकि हमारा मक़सद घर बसाना नहीं है.’’

‘‘यार, मैं बहुत सोच समझकर यह काम कर रहा हूं. वह एक इंडियन डॉक्टर है. मुझे बहुत चाहती है. मैं उससे शादी करूंगा तो कोई जल्दी मुझपर शक़ नहीं करेगा.’’

‘‘शायद तू ठीक कह रहा है. दूसरी बात यह कि ब्लास्ट के लिए तूने पियर 39 ही क्यों चुना?’’

‘‘पियर 39 सबसे अधिक भीड़भाड़ वाली जगह है. वहां पर ब्लास्ट करने से ज़्यादा से ज़्यादा नुक़सान होगा. अब ज़्यादा मत सोचो. आज रात दस बजे हमें इस काम को अंजाम देना है.’’ यह विवेक की आवाज़ थी.

मुझे ऐसा लगा, मानो मेरे ऊपर ज्वालामुखी फट पड़ा हो. तो क्या विवेक का असली नाम नईम है? वह नाम बदलकर अमेरिका में रह रहा है और एक आतंकवादी है. हे भगवान! एक आतंकवादी के साथ मैं अपना रिश्ता जोड़ने जा रही थी. अब मैं समझी, क्यों मेरा अवचेतन मन मुझे रोक रहा था. मेरी आंखों से आंसू बहने लगे. मैं बुरी तरह घबरा रही थी. दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था. मैं पार्किंग में खड़ी एक कार के पीछे जा छिपी. थोड़ी ही देर बाद विवेक उर्फ़ नईम अपने मित्र के साथ घर से बाहर निकला. उसके हाथ में सूटकेस था, जिसमें नि:संदेह बम था. अपनी कार में बैठकर वे चले गए. 

लड़खड़ाते क़दमों से मैं अपार्टमेंट पहुंची और धम से बिस्तर पर गिर पड़ी. मैंने आंखें बंद कर लीं. रौशनी में जगमगाते पियर 39 के दृश्य उभरने लगे. बड़े-बड़े मॉल्स जो आग की लपटों में बदलने वाले थे. लोगों के होंठों की मुस्कान मौत की चीखों में तब्दील होनेवाली थी. आग की लपटें, लाशों के ढेर, मेरे माथे से पसीने की बूंदें चू गईं. मैं झटके से उठी. नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दे सकती. मैंने पुलिस को फ़ोन मिलाया. विवेक का हुलिया, कार का नंबर और उनका इरादा बता चुकने के बाद मुझसे अपने घर नहीं रुका गया. मैं डॉ देव के घर चली आई. आंटी ने दरवाज़ा खोला. मैं ख़ुद को संयत नहीं कर पाई और फूट-फूटकर रो पड़ी.

आंटी घबरा गईं,‘‘क्या बात है निधि, तुम रो क्यों रही हो?’’

मेरी सिसकियां तेज़ हो गईं. सारी बातें जानने के बाद वे बोलीं,‘‘तुमने बहुत बहादुरी का काम किया है निधि. घबराओ मत, मैं अभी देव को बुलवा लेती हूं.’’

पर डॉ देव व्यस्त थे. तक़रीबन एक घंटे बाद उनका फ़ोन आया,‘‘डॉ निधि तुरंत आओ. इमरजेंसी है.’’
हॉस्पिटल में पुलिस ही पुलिस थी. पता चला कि दो आतंकवादी जो पियर 39 पर ब्लास्ट करना चाहते थे, पुलिस की गोली से घायल हो गए थे. डॉ. देव उनका ऑपरेशन कर रहे थे. मैं ऑपरेशन थिएटर में पहुंची, लेकिन ऑपरेशन सफल न हो सका. बीच में ही दोनों आतंकवादियों ने दम तोड़ दिया.

डॉ देव ने मेरी ओर देखा,‘‘क्या बात है डॉ निधि, तुम इतनी परेशान क्यों हो?’’

मैंने सब बताया, आश्चर्य से उनकी आंखें फैल गईं. वो बोले,‘‘आई एम प्राउड ऑफ़ यू.’’ अपनी बांहों का सहारा देकर वह मुझे ऑपरेशन थिएटर से बाहर ले आए. उनके स्पर्श से मेरा सारा डर दूर हो गया. कॉरीडोर में एक पुलिस ऑफ़िसर हमारे क़रीब आया. डॉ देव ने उसे दोनों आतंकवादियों के मरने की सूचना दी. वह बोला,‘‘डॉ निधि, हमें आपके नंबर से फ़ोन आया था.’’

‘‘यस ऑफ़िसर, मैंने ही आपको इनके बारे में सूचना दी थी.’’

मैंने फिर पूरी घटना दोहराई. प्रशंसात्मक भाव से ऑफ़िसर ने कहा,‘‘डॉ निधि, विदेशी होते हुए भी आपने जिस साहस के साथ अमेरिका के प्रति अपने कर्तव्य का पालन किया है, उस ज़ज्बे की मैं क़द्र करता हूं.’’

‘‘ऑफ़िसर मैंने जो कुछ भी किया, किसी देश की नागरिकता के आधार पर नहीं, बल्कि इंसानियत के नाते किया, इंसानियत की भावना देश की सीमाओं में बंधी हुई नहीं होती.’’ डॉ देव स्नेह से मुझे निहार रहे थे. मैंने कसकर उनकी बांह थाम ली. मेरा मन कह रहा था. यही मेरी मंज़िल है!

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