कहानी: सनसेट
ख़ूबसूरत पहाड़ियों के चक्कर काटते हुए गौतम की कार बहुत तेज़ी से आगे बढ़ रही थी. तीन दिन पहले भोपाल की आर्ट गैलरी में लगाई गई उसकी चित्र प्रदर्शनी में कलाप्रेमियों ने उसकी बनायी गई पेंटिंग्स को हाथों-हाथ लिया था. मानवीय चेहरे, उसकी संवेदनाओं और अनभूतियों का अद्भुत चितेरा था गौतम.
इतना सफल होने के बाद भी उसे लगता था कि वह अभी तक अपने जीवन की सर्वश्रेष्ठ कलाकृति नहीं बना पाया है. क्योंकि जिस चेहरे की उसे तलाश थी उसके बारे में वह स्वयं नहीं जानता था कि वह कौन है और कहां मिलेगी? ऐसे में अचानक ही वह, अपने मन का सुकून तलाशने चुपचाप भोपाल से पंचमढ़ी की ओर चल दिया था.
गौतम के पंचमढ़ी पहुंचने तक दिन ढलने लगा था. सनसेट और सनराइज़ के दृश्य देखने के लिए पंचमढ़ी का धूपगढ़ बहुत प्रसिद्ध जगह है. ये याद आते ही गौतम चित्रकारी का सामान उठा, धूपगढ़ की ओर चल पड़ा.
वहां पहुंचने तक, सूरज नारंगी होने लगा था. यूं लगा जैसे इस दृश्य को देखनेवाला वह अकेला था. नज़रें घुमाई, तो पाया कि कई जोड़ी आंखें ढलते सूरज पर टिकी थी, अचानक गौतम की नज़र थोड़ी दूर पत्थर पर बैठी एक लड़की पर ठहर गई.
उसने आसमानी रंग की पीली लहरोंवाली साड़ी पहन रखी थी. तेज़ हवा से लहराता आंचल, ऐसा लग रहा था मानो आकाश का छोटा-सा टुकड़ा काटकर ओढ़ लिया हो. उस छोटे से पत्थर के ऊपर, वह यूं बैठी थी मानो कोई राजमहिशी, राजसिंहासन पर बैठ अपनी राजसभा संबोधित करनेवाली हो.
इतनी आकर्षक मुद्रा पाकर गौतम ढलते सूरज को भूल उसका स्केच बनाने लगा. दूध-सी स्निग्ध त्वचा, झील-सी गहरी आंखें, गुलाब से ख़ूबसूरत होंठ, अंडाकार चेहरा, उम्र क़रीब 32-33 साल, पर उसके चेहरे पर बिखरी सौम्यता को गौतम चाहकर भी नहीं उकेर पा रहा था. सूरज, धरती का आख़िरी चुंबन लेकर विदा होने को था, तभी वह लड़की वहां से जाने लगी. स्केच अभी अधूरा था. उसे जाता देख गौतम तेज़ी से उसके पास पहुंचा,‘‘सुनिए!’’
वह रुकी और रोकनेवाले को ग़ौर से देखा. लंबा गठीला शरीर, गेहुंआ रंग और जिसने उसे उसकी बात सुनने के लिए मजबूर किया वो थीं गौतम की लंबी पलकों में छुपी, आत्मविश्वास से भरी बड़ी-बड़ी आंखें.
‘‘कहिए?’’ लड़की ने पूछा.
‘‘आपको कुछ दिखाना चाहता हूं, ज़रा आइए मेरे साथ,’’ गौतम की खनकती-सी आवाज़ के पीछे, मंत्रमुग्ध-सी चली आई थी वह लड़की.
स्केच दिखाते हुए गौतम ने कहा,‘‘माफ़ी चाहता हूं, बिना पूछे आपका चित्र बनाया मैंने. पर आप इस पत्थर पर बैठी इतनी अच्छी लग रही थीं कि मैं ख़ुद को रोक नहीं सका. यह अभी अधूरा है, अगर आप चली गईं तो यह हमेशा-हमेशा के लिए अधूरा रह जाएगा. आप थोड़ी देर और नहीं रुक सकतीं, प्लीज़!’’ प्लीज़ कहते हुए गौतम मुस्कुराया, मुस्कुराते ही उसके चेहरे पर शांति और विश्वास की चमक छा गई.
उस लड़की ने स्केच देखा और कुछ सोच वह वापस उसी पत्थर पर बैठ गई. गौतम एक बार फिर उसकी ख़ूबसूरती को कैनवास पर उकेरने लगा. पूरा होने पर गौतम ने उसे स्केच दिखाया. चित्रकला की अनुपम कृति थी वह.
वह मंत्रमुग्ध-सी बोली,‘‘यह तो बहुत सुंदर है, क्या आप इसे मुझे दे सकते हैं?’’
‘‘आपकी ही चीज़ है. ले लीजिए, लेकिन फिर मुझे अपना एक और चित्र बनाने देंगी?’’ गौतम ने पूछा.
कुछ सोचकर लड़की ने ‘हां’ कर दी और चली गई. तभी गौतम को ख़्याल आया कि मैंने उसका नाम पूछा न पता... फिर कैसे मिलना होगा?
अगली सुबह गौतम तैयार हो कॉटेज से निकल रहा था कि उसकी नज़र आसमानी शॉल ओढ़े उसी लड़की पर पड़ी. गौतम ने उसके पास जाकर पूछा, ‘‘अरे, आप यहां?’’
वह अचकचा गई, ‘‘मैं इसी रिसॉर्ट में रुकी हूं, लेकिन आप...?’’
‘‘मैं भी यहीं ठहरा हूं,’’ गौतम मुस्कुरा उठा,‘‘कल आपके जाने के बाद ़ख्याल आया कि मैं आपका नाम पता पूछना तो भूल ही गया, पर देखिए किस्मत ने हमें मिलाने का पूरा इंतज़ाम पहले ही कर रख था. मैं गौतम सान्याल हूं, भोपाल महाविद्यालय में आर्ट्स का प्रोफ़ेसर.’’
‘‘मैं वृंदा गांगुली हूं, इंदौर कॉलेज में लेक्चरर,’’ वृंदा पहली बार मुस्कुराई.
‘‘अच्छा हुआ आप यहीं हैं. अब मैं आराम से आपका स्केच बना सकूंगा,’’ गौतम भी खुल कर मुस्कुराया.
थोड़ी ही देर में सुकून से धूपगढ़ के उसी पत्थर पर बैठी वृंदा का स्केच बनाते हुए गौतम ने यूं ही पूछा ‘‘आप यहां कब तक हैं?’’
‘‘पता नहीं.’’
‘‘क्यों? किसी से भाग रही हैं, क्या?’’
वृन्दा तिलमिला उठी. उसे गौतम का यूं निजी जीवन में हस्तक्षेप करना अच्छा नहीं लगा. ‘‘आपसे मतलब?’’
‘‘इतनी तिलमिलाहट! यानी सचमुच आप किसी से छुप रही हैं.’’ गौतम ने वृन्दा को ध्यान से देखा फिर बोला,‘‘अगर किसी दूसरे से छिप रही हैं तो यह जगह एकदम सही है, लेकिन अगर ख़ुद से बचना चाह रही हैं तो यहां एक पल भी रुकना ठीक नहीं.’’
‘‘क्यों?’’ वृन्दा चौंक पड़ी.
‘‘क्योंकि प्रकृति और अकेलापन दोनों ही आत्ममंथन को मजबूर करते हैं. ऐसे में ख़ुद से बचना कैसे संभव हो पाएगा?’’ गौतम हल्का-सा मुस्कुराया.
वृन्दा सोचने लगी, सच ही तो कह रहा है गौतम. जिन बातों से भागना चाह रही थी, वे तो दामन से लिपटी यहां भी चली आईं.
‘‘वृन्दा जी, आपका स्केच पूरा हो गया.’’ गौतम की आवाज़ सुन वृन्दा जैसे सोते से जाग पड़ी.
‘‘पंचमढ़ी में क्या-क्या घूम लिया है आपने?’’ अपना स्केच देखती वृन्दा से गौतम ने पूछा.
‘‘कुछ ख़ास नहीं, बस धूपगढ़, पांडव गुफाएं और कुछ प्रपात देखे हैं. कल चौरागढ़ जाने की सोच रही थी पर सुना है कि वह बहुत ऊंचाई पर है.’’
‘‘ठीक सुना है आपने. मगर साथ देने के लिए कोई साथी हो तो सफ़र बिल्कुल कठिन नहीं लगता है. आप इजाज़त दें तो कल मैं भी चलूं आपके साथ?’’ गौतम के पूछनेका अंदाज़ ऐसा था कि वृन्दा इनकार न कर सकी.
अगली सुबह दोनों चौरागढ़ जाने के लिए तैयार थे. वृन्दा ने धानी रंग की साड़ी पहनी थी, जिस पर आसमानी पत्तियां बनी थीं. उसे देख गौतम मुस्कुरा उठा.
कार स्टार्ट करते हुए गौतम ने पूछा, ‘‘क्या आसमानी रंग आपको बहुत पसंद है?’’
‘‘हां, आसमानी रंग पहन कर ऐसा लगा है कि मैं भी बादल का एक टुकड़ा हूं. उन्मुक्त, स्वच्छंद और स्वतंत्र. चाहे जहां बरस जाऊं, जहां चाहूं चली जाऊं.’’ वृन्दा ने आसमान में तैर रहे बादलों को देखते हुए कहा.
‘‘जब मैंने आपको पहली बार देखा था तब भी आप आसमानी साड़ी पहने थीं. तब मुझे भी यही लगा था कि आकाश का एक टुकड़ा ग़लती से भटकता हुआ धूपगढ़ की चोटी पर उतर आया है.’’
वृन्दा हंस पड़ी,‘‘लगता है आप चित्रकार होने के साथ-साथ कवि भी हैं.’’
एक उन्मुक्त-सी हंसी, मानो ढेर से पंछी एक साथ उड़ पड़े हो. ‘‘कवि और चित्रकार दोनों ही अपनी कल्पनाओं को साकार करते हैं. एक शब्दों को आधार बनाता है तो दूसरा रंगों को. अब आप पर है कि आप मुझे क्या समझती हैं.’’
‘‘मुझे तो आप कवि और चित्रकार के साथ-साथ दार्शनिक भी लग रहे हैं.’’ वृन्दा मुस्कुराते हुए बोली.
अचानक ही गौतम ने गाड़ी को ब्रेक लगाते हुए पूछा,‘‘ऊपर जाने के लिए 1300 सीढ़ियां हैं. चढ़ सकेंगी?’’
‘‘अगर साथी अच्छा हो तो 1300 सीढ़ियां चढ़ना मुश्क़िल नहीं होगा... है न?’’ वृन्दा गौतम के ही अंदाज़ में बोलकर खिलखिला उठी.
सीढ़ियों पर बढ़ने के साथ-साथ, बातों का सिलसिला भी बढ़ने लगा.
‘‘आप यहां अकेली क्यों आई हैं? मेरा मतलब, पति...?’’
वृन्दा सतर्क हो गई जानती थी कि ये सवाल ज़रूर आएगा. वह चंद पल रुककर बोली,‘‘पति को गुज़रे पांच साल हो गए, तब से अकेली ही हूं.’’ वह जानती थी कि इस जवाब के बाद अब दस तरह की सच्ची-झूठी सहानुभूतियां जताई जाएंगी. फिर ज़िंदगी से जूझने के उसके ज़ज्बे की तारीफ़ की जाएगी.
‘‘क्यों अकेली हैं? क्या कोई नहीं मिला ऐसा, जो आपको पसंद करता हो या जिसे आप पसंद करती हों?’’ अनुमान के विपरीत प्रतिक्रिया पाकर, वृन्दा ने नज़र उठा कर गौतम की ओर देखा.
कितनी सहजता से उसने पूछ लिया था यह प्रश्न...! पर क्या इतना ही सहज होता है एक विधवा के लिए पुनर्विवाह कर पाना! कौन अपनाता है उसे? मिलते भी हैं तो दुहाजू या दो-तीन बच्चों के बाप! मगर वृन्दा तो ख़ुद ही नहीं चाहती थी अभिनव की यादों से मुक्त होना.
‘‘मिलता तो तब, जब मैंने पाना चाहा होता? मैं तो अभिनव को भूलना ही नहीं चाहती. उसके साथ बिताए तीन सालों की यादें ही काफ़ी हैं यह जीवन गुज़ार देने के लिए. किसी और के बारे में सोचती हूं तो लगता है कि अभिनव को धोखा दे रही हूं. वह नहीं तो क्या हुआ, उसकी यादें तो है मेरे पास!’’ वृन्दा एक सांस में कह गई.
गौतम उसकी बात काटता हुआ बोला,‘‘जब इंसान हमेशा साथ नहीं रहता तो उसकी यादें हमेशा कैसे साथ हो सकती हैं? जब अभिनव की यादें भी चुक जाएंगी, तब क्या करेंगी?’’
वृन्दा चिढ़ गई,‘‘नहीं चुकेंगी. अभिनव आज भी हर पल मेरे साथ रहता है फिर उसकी यादें कैसे ख़त्म हो सकती हैं?’’
‘‘यह कैसा दुराग्रह है तुम्हारा? अभिनव थम चुका है और तुम आज भी गतिशील हो. अब न वह चल सकता है, न तुम थम सकती हो वहां, जहां अभिनव रुका था. ऐसे में फ़ासले तो अवश्यंभावी हैं ना? यादें धरोहर तो हो सकती हैं, लेकिन वर्तमान नहीं.’’
वृन्दा सिहर उठी थी. गौतम की बातें उसे झकझोर रही थीं. उससे वह सब छीन रही थीं, जो उसने अब तक संभाल कर रखा था.
‘‘अच्छा वृन्दा, तुमने यह तो बताया ही नहीं कि तुम किस बात से भाग रही हो?’’ गौतम के संबोधन में वृन्दा कब ‘आप’ से ‘तुम’ हो गई, उसे ख़ुद पता नहीं चला.
कुछ पल रुक कर वृन्दा ने मन और सांसों को नियंत्रित करते हुए कहा,‘‘कह नहीं सकती किससे भाग रही हूं. शायद अपने आपसे या मां-पापा के मेरी शादी के प्रयासों से? वे हर रोज़ एक नया रिश्ता ले आते हैं. मैं थक गई थी उनके चेहरों पर छाई उदासी को देखते-देखते. इसलिए जब मुझे इस सेमीनार में जाने को कहा गया तो मैं तुरंत तैयार हो गई.’’
वृन्दा के चेहरे पर अचानक छा गई उदासी को भांप गौतम ने कहा,‘‘पता है वृन्दा, मुझे सनसेट देखना बहुत पसंद है, पर लोग कहते हैं विर्सजन क्यों देखना? सनसेट नहीं, सनराइज़ देखो! पर मैं कहता हूं कि वह विसर्जन ही सर्वश्रेष्ठ है, जो एक नए सृजन की आशा देता है. हर दिन डूबता सूरज कहता है कि आशा रखना, मैं कल फिर उदय होऊंगा, पर तुम विसर्जन में सिर्फ़ अस्त को देखती हो, उसके पुन: उदय होने की संभावना को परे रखकर! ऐसा क्यों? ’’
‘‘तुम्हारे लिए कहना आसान है क्योंकि सनसेट देखना, तुम्हारा स्वयं का चुनाव है. पर मैं इसे देखना नहीं चाहती थी, यह मुझ पर थोपा गया है मेरी सारी संभावनाएं भी डूबते सूरज के साथ डूब जाती हैं,’’ वृन्दा ने कहा और एक बार फिर सीढ़ियां चढ़ने लगी.
गौतम दो-तीन सीढ़ियां लांघते हुए वृन्दा के सामने खड़ा हो गया. वृन्दा ठिठक गई.
‘‘ग़लत परिभाषा कर रही हो तुम जीवन के नियमों की.’’ गौतम ने वृन्दा की आंखों में आंखें डालकर कहा,‘‘परिवर्तन ही एक ऐसा नियम है, जो सदा स्थिर रहता है. पतझड़ का ही शोक मनाती रह जाओगी तो बसंत का आगमन कैसे संभव हो सकेगा?’’
गौतम की आंखों में पनपता अपनत्व और स्वीकार भाव देखकर, वृन्दा सिहर उठी.
15 मिनट बाद दोनों पंचमढ़ी की सबसे ऊंची चोटी, चौरागढ़ में शिवजी के सम्मुख प्रार्थना कर रहे थे. वहां पर हज़ारों छोटे-बड़े त्रिशूल गड़े हुए थे, जो मनुष्य की ईश्वर के प्रति आस्था और विश्वास का अनुपम उदाहरण थे. दोनों प्रार्थना करके बाहर निकले तो, पहाड़ों से छन कर आती ठंडी हवा के झोकों ने उनकी सारी थकान हर ली.
वे आधी दूर ही उतर पाए थे कि आकाश में बादल छाने लगे और कुछ ही पलों में तेज़ बारिश शुरू हो गई. भीगने से बचने के लिए दोनों जल्दी-जल्दी सीढ़ियां उतरने लगे. अचानक वृन्दा का पैर फिसल गया. गौतम ने उसे बांहों में थाम न लिया होता तो वह गिर ही गई होती.
गौतम का स्पर्श वृन्दा को अंतर तक छू गया था. वह संभल कर नज़रें नीचे किए हुए सीढ़ियां उतरती चली गई. उसकी साड़ी गीली होकर उसके शरीर से चिपक गई थी. उसके शरीर की एक-एक गढ़न साफ़ नज़र आने लगी थी. वह अपने गीले आंचल से अपने तन को ढंकने की नाकाम कोशिश कर रही थी. उसकी यह अवस्था गौतम से भी छुपी न रह सकी. गाड़ी में पहुंचने पर गौतम ने उसमें रखा अपना शॉल निकाल कर उसे दे दिया. वृन्दा ने कृतज्ञ नज़रों से गौतम की ओर देखा. गौतम की नज़रें नीची थीं.
चौरागढ़ से लौटते समय गौतम ने वृन्दा से सीधे और साफ़ शब्दों में कहा,‘‘तुम्हें देखते ही ऐसा लगा था कि मेरे जीवन में कुछ नया, कुछ अलग घटने वाला है.’’
कितना सहज था गौतम का प्रस्ताव और उससे भी सहज था उसे समझ पाना, जान पाना. व्यर्थ के प्रयास और कवायद नहीं करती पड़ती थी उसके साथ. उसका सानिध्य सब कुछ सहज और सरल कर जाता था.
अगली सुबह देर तक जब वृन्दा नज़र नहीं आई तो गौतम ने ख़ुद ही उसकी कॉटेज की ओर चल पड़ा. अंदर वृन्दा बिस्तर पर लेटी हुई थी.
‘‘क्या हुआ...?’’ गौतम ने क़रीब आते हुए पूछा.
‘‘कुछ नहीं बस ज़रा-सी थकावट लग रही है.’’
गौतम उसके माथे पर हाथ रखते ही घबरा उठा,‘‘तुम्हें तो तेज़ बुख़ार है, रुको मैं डॉक्टर को बुलाता हूं.’’
जल्द ही गौतम एक डॉक्टर को साथ ले आया. डॉक्टर ने बताया कि बारिश में भीगने का असर है, सही देखभाल से दो-तीन दिन में ठीक हो जाएंगी.
यह सुनकर वृन्दा ने चिंतित स्वर में कहा,‘‘पर मेरा तो कल का रिज़र्वेशन है.’’
डॉक्टर ने सख़्ती से कहा,‘‘बिलकुल नहीं. मिस्टर सान्याल आपकी पत्नी को आराम की ज़रूरत है. यात्रा बिल्कुल ना करें.’’
‘‘पत्नी...!’’ वृन्दा का कमज़ोरी से ज़र्द पड़ा चेहरा, शर्म से लाल हो गया.
डॉक्टर के जाने पर गौतम ने कहा,‘‘अपना टिकट दे देना, मैं रिज़र्वेशन आगे करवा दूंगा.’’
वृन्दा ने दबे स्वर में कहा,‘‘मेरा जाना ज़रूरी है गौतम.’’
‘‘नहीं मैं कुछ सुनना नहीं चाहता, तुम्हारी सेहत से ज़रूरी तो कुछ नहीं हो सकता,’’ अपनेपन में पगी यह बात इतने अधिकार से कही गई कि वृन्दा कोई प्रतिवाद न कर सकी.
शाम बीतते-बीतते वृन्दा एक बार फिर बुख़ार से तपने लगी. गौतम उसके माथे पर ठंडे पानी की पट्टियां रखता, वहीं बैठ गया. रात के दो पहर बीतने पर बुख़ार कुछ कम हुआ. कुर्सी पर बैठे-बैठे गौतम ऊंघने लगा, अचानक वृन्दा की आवाज़ ने उसे चौंका दिया.
‘‘अभिनव... मुझे छोड़ कर मत जाना...अभिनव...’’ गौतम ने देखा की वृन्दा की आंखें बंद थी और नीम-बेहोशी में उसके मुंह से अस्फुट स्वर निकल रहे थे.
‘‘नहीं जाऊंगा, कभी नहीं जाऊंगा.’’ किसी अंतर-प्रेरणा से गौतम ने वृन्दा के सिर पर हाथ रख दिया.
सिर पर रखे हाथ को, थाम वृन्दा ने अपने गाल के नीचे रख लिया. उसके होंठों से अब भी कुछ शब्द निकल रहे थे, पर उनकी ध्वनि धीमी और धीमी होती जा रही थी.
‘‘अभिनव...अभिनव...गौतम... मुझे छोड़कर मत जाना...गौतम!’’
वृन्दा के होंठों से निकले इस अस्फुट स्वर से गौतम चौंक उठा. अचेतन मन से निकला प्रत्येक स्वर मन की छुपी भावनाओं का प्रतिरूप होता है. तो क्या मैं भी वृन्दा के मन में कहीं बसने लगा हूं, गौतम ने सोचा. वृन्दा के होंठों से निकला उसका नाम उसके कानों से होता हुआ सारे शरीर की नसों को महका गया था.
सुबह जब वृन्दा की आंख खुली तो गौतम पास रखी कुर्सी पर बैठा सो रहा था शायद उसने सारी रात कुर्सी पर ही काट दी थी. पर क्यों कोई अनजान इंसान, इतना कष्ट उठा रहा था उसके लिए? पर क्या गौतम सचमुच अनजान रह गया था उसके लिए?
तभी गौतम की भी आंख खुल गई. उसने क़रीब आ वृन्दा के हाथ की नब्ज़ थामते हुए पूछा,‘‘कैसी हो?’’
‘‘थोड़ी कमज़ोरी लग रही है बस,’’ वृन्दा ने मुस्कुराने की कोशिश की. नब्ज़ देखनेवाले की आंखों में उतर आई तरलता ने उसके सारे दर्द, सारी पीड़ा को हर लिया था.
गौतम के अगले 2-3 दिन बीमार वृन्दा के इर्द-गिर्द ही बीते.
अपना सामान पैक करती वृन्दा गौतम के बारे में ही सोच रही थी. अभिनव की जगह किसी और को दे पाना, आसान नहीं था उसके लिए. पर एक सच यह भी था कि गौतम उसके मन को छू गया था, जहां अब तक सिर्फ़ अभिनव था, वहां अब गौतम भी था! कई बार तो गौतम और अभिनव के चेहरे इतने उलझ जाते थे कि उन्हें अलग कर पाना कठिन हो जाता था.
‘‘वृन्दा...’’ गौतम को अचानक सामने पाकर वह अचकचा गई ‘‘मेरे सवालों के जवाब दिए बगैर जा रही हो?’’
वृन्दा ने कुछ न कहकर नज़रें झुका लीं.
गौतम ने अधीरता से कहा,‘‘वृन्दा चुप मत रहो, कुछ तो कहो! कुछ सोच लिया है, या यही कहो कि तुम्हें वक़्त चाहिए सोचने के लिए... पर बोलो तो!’’
वृन्दा ने कंपकंपाते स्वर में कहा,‘‘मेरा रिज़र्वेशन कैंसल करवा दो.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘तुम मुझे कार से छोड़ने चलना. अपने मम्मी-पापा से मिलवाना है तुम्हें,’’ उसने अपने अंदर की समस्त उर्जा बटोरते हुए कहा.
‘‘तुम सच कह रही हो?’’ गौतम का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा.
‘‘हां बिलकुल सच!’’ कहते हुए वृन्दा की आंखों से दो मोती टपक पड़े.
गौतम ने आगे बढ़कर उसके आंसू पोंछे और उसके माथे को चूमकर कहा,‘‘अब नहीं वृन्दा... अब इनकी ज़रूरत कभी नहीं पड़ने दूंगा...’’
वृन्दा ने विश्वास और अपनत्व के साथ गौतम के सीने पर हौले से अपना सिर टिका दिया. लंबी रात्रि अब समाप्त हो चुकी थी और वृन्दा के चेहरे पर सूर्योदय की सुकूनऔर शांति भरी आभा जगमगाने लगी थी.
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