कहानी: आधी बेवा

‘‘देखो आपी यह टांका ठीक आया या नहीं?’’ रूहेला ने जैसे ही फिरन आपा की ओर बढ़ाया, वे हमेशा की तरह ऐनक उठाकर आंखें छोटी करके टांके परखने लगीं.

‘‘हूं... रूहेला हुनर पकड़ लिया तेरी उंगलियों ने, पर रंगों का जोड़ तो देख लिया कर. यहां देख... अरे इधर... गाढ़े सब्ज़ के साथ गाढ़ा नीला फूल...!!! अब्बल तो एक गाढ़े रंग के साथ दूसरा गाढ़ा रंग लगाने का क़ायदा ही नहीं है और जो लगाया भी तो थोड़ी अकल का इस्तेमाल भी हो सकता था... अरे बीच में हल्के नीले या आसमानी रंग के चार टांके भर देती तो यही फूल खिल उठता.’’

रूहेला बिना कुछ बोले आंखों-आंखों में हंसने लगीं. आपी बोलीं,‘‘आंखें सलामत हैं अभी... तुम लोग जो मुर्गी की मानिंद गर्दनें लटकाकर नीचे-नीचे खी-खी किया करती हो, सब दिखता है मुझे! अब ये बत्तीसी अंदर करके ग़ौर से सुनो. इस हफ़्ते सारा काम न तुम दोनों के ज़िम्मे रहेगा... मेरा भाई आ रहा है कल... तुम्हारी अम्मी भी हाथ बंटा देगी. कह देना आपा ने ख़ास तौर पर दरियाफ़्त की है...’’

‘‘भाई!!!’’ रूहेला और सुहेला ने एक-दूसरे को देखा. यह ख़बर जैसे दुनिया की आठवीं हैरत थी.
दोनों लड़कियां हांफते हुए घर पहुंचीं. दालान में क़दम बाद में पड़े, पहले आपी के भाई के आने की ख़बर
दाख़िल हुई.

‘‘आपी का भाई... माने अशरद! इतने साल बाद!’’ ख़बर सुनकर मीमा बेग़म के दिल में एक ख़याल कौंध गया,‘मुझे तो लगने लगा था कि हम औरतों का इंतज़ार आख़िरी सांस तक नहीं छूटने वाला, लेकिन चलो... अच्छा हुआ एक बुरा यक़ी टूट गया... क्या पता जहांगीर भी ऐसे ही...’

लेकिन जाने किस अजनबी डर से मीमा ने अपना ख़्याल अधूरा छोड़ दिया.

रूहेला बोली,‘‘अम्मी... क्या अशरद भाई भी अब्बू की तरह...’’  

बेटी का अधूरा सवाल मीमा बेग़म के कलेजे में दर्द का बगूला बनकर धंस गया और तीनों के चेहरे एक पल में सांय-सांय में लिपटी पतझर की सूनी वीरान दोपहर में बदल गए.

नहीं... जहांगीर अशरद की तरह नहीं गए थे. वे तो यह कहकर गए थे कि बस गए और आए... लेकिन वे आज तक नहीं लौटे. इंतज़ार के हर लम्हे के साथ ज़िंदगी उस ताक़ की तरह होती गई, जो बड़ी आस लिए हर आहट पर खुलता है, फिर उदास होकर आंखें मूंद लेता है.

अगले रोज़ जब मीमा बेगम फिरन की गठरी लेकर आपी के घर गईं तो एक-एक टांके में मीनमेख निकालने वाली आपी यूं बैठी रहीं, जैसे बुत हों. अशरद सामने बैठा गोलियां निगल रहा था.

‘‘गोलियां?’’

‘‘हां, इतना टेंशन है ज़िंदगी में कि इनके बिना गुज़ारा नहीं.’’

‘‘लेकिन तुम तो ज़हनी सुकून के लिए घाटी छोड़कर गए थे ना? क्या इन गोलियों में बटोर लाए सुकून?’’

अशरद ने आपी को देखते हुए कहा,‘‘इंसान फकत सुकून ही तो तलाशता है मीमा, फिर वो चाहे जहां मिले. इस बार तय करके आया हूं कि आपी को भी अपने साथ ले जाऊं... आख़िर यहां है ही क्या धमाके और दहशत के सिवा?’’

मीमा के होठों पर फ़ीकी हंसी तैर गई,‘‘दहशत, धमाके... घाटी में इसके अलावा भी बहुत कुछ है अशरद... और मुझे लगता है कि सुकून से भी बड़ी चीज़ है-उम्मीद... जो मेरे जैसी सैकड़ों आंखों में इंतज़ार बनकर ठहरी हुई है.’’

ज़ेहन के कांपते हुए पानी पर दर्द की कश्ती बह आई,‘‘जानते हो 5 बरस हो गए... पूरे 5 बरस... सिक्योरिटी कैम्प से लेकर सड़कों तक कहां-कहां नहीं तलाशा जहांगीर को, पर कहीं कोई सुराग़ नहीं मिला. और अब मैं क्या हूं? घाटी में सुबकती हज़ारों औरतों की तरह इक आधी बेवा ही ना? लेकिन मेरी आंखों में बसी उम्मीद तो पूरी है... तुम यहां से दूर होने में सुकून तलाश रहे हो, लेकिन सुकून दूरियों और शिकायतों में नहीं, उम्मीद के दामन में है. 
तुम सोचो कि शिकायत के सिवा कोई उम्मीद भी दे सकते हो अपनी मिट्टी को?’’

अशरद के पास कोई जवाब न था, लेकिन ज़ेहन के किसी कोने में उस आधी बेवा का सवाल एक उम्मीद बनकर कौंध गया था.

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