कहानी: अलविदा डर

पूर्वी अफ्रीका का देश तंज़ानिया. तंज़ानिया की पूर्व राजधानी दार-ए-सलाम... छोटा-सा सोया शहर. लंबे-चौड़े स्याह काले बादलों का रंग लिए लोग. अधिकतर लोग ढीले-ढाले यूरोपीय परिधानों में अपनी संस्कृति का भी पुट दिए. अफ्रीकी प्रिंट और चटख रंगों वाले ढीले-ढाले गाउन पहने महिलाएं. मुस्लिम महिलाओं ने बस सिर को भी ढका हुआ था. लोग अमीर हों या ग़रीब, सभी को यहां की स्थानीय भाषा स्वाहिली में बोलते देखा जा सकता था, न कि हमारे भारत की तरह जहां अंग्रेज़ी भाषा से आपका स्टेटस पता चलता है. हम भारतीय आज़ाद भले ही हो गए हों, पर मानसिकता अभी भी ग़ुलामी की है.

यहां प्रवासी भारतीय ख़ूब हैं और यहां के रिवाज के अनुसार सभी के घर में सुबह से शाम तक काम करनेवाली एक स्थानीय नौकरानी सहज में उपलब्ध है, जिसे डाडा यानी बहन कहते हैं. सुबह आठ से शाम पांच बजे तक वो सभी कार्य करने के साथ-साथ सभी कपड़े धोकर एक-एक कपड़ा प्रेस कर के रखती हैं. मोज़े से लेकर रसोई के डस्टर तक. आप अपने देश में ऐसा कभी सोच सकते हैं! जो भारतीय यहां पहले से रहते हैं, उनका कहना है कि यहां कोई कीड़े हैं, जो प्रेस करने से मर जाते हैं. मुझे यह सुनकर बहुत हास्यास्पद लगता है. यहां धूप इतनी है कि ऐसा कभी हो ही नहीं सकता. पर हमारे भारतीय मित्र कहते हैं कि यदि सहज में ये सुविधाएं मिल रही हैं, तो मज़े से रहिए न. और तो और अफ्रीका के ही एक दूसरे छोटे-से देश में तो बाहर से आने पर नौकर आपके जूते तक उतारते हैं. इन नौकरानियों की रविवार तथा अन्य किसी भी सार्वजनिक अवकाश के दिन छुट्टी होती है. इसलिए पार्टी वगैरह यहां छुट्टी के दिन नहीं रखी जाती. दिमाग़ ख़राब है क्या? डाडा के बिना काम कैसे चलेगा?

डाडा के संबंध में प्रवासी भारतीयों में एक चुटकला प्रसिद्ध है कि भारतीय महिलाएं जब यहां आती हैं तो छोटी उंगली के आकार की होती हैं, पर यहां हर काम के लिए डाडा उपलब्ध होने के कारण अंगूठे के आकार की हो जाती हैं. हम अभी नए-नए आए हैं और हमारे नीचे वाले वापस भारत जा रहे हैं, इसलिए हम उनकी डाडा की निगाह में हैं. उसे काम चाहिए. वो किसी न किसी बहाने से रोज़ मिलने आती है. हमारे लिए देश, भाषा, संस्कृति सभी नए हैं इसलिए हमें भी उसकी ज़रूरत होगी, ऐसा वो सोचती है.

उसका नाम मारिया है. एक दिन शाम को चार बजे वो छत पर खड़ी है. मैं उसके उस समय वहां आने का कारण पूछती हूं, तो वो कहती है कि नीचे वाले कहीं चले गए हैं और वो शाम को घर जाने के लिए कपड़े बदलने छत पर आई है. मैं सहज ही उसे अपने घर के बाथरूम में आकर कपड़े बदलने को कह देती हूं. वो बाथरूम में जाती है कपड़े बदलने, पर काफ़ी देर तक बाहर नहीं आती. मुझे घबराहट होती है. मैंने क्यों इसे अंदर बुलाया? ये दरवाज़ा क्यों नहीं खोल रही है? कहीं अंदर किसी को फ़ोन कर के कुछ तैयारी तो नहीं कर रही मुझे मारने की? नैरोबी में ऐसे ही एक डाडा ने किसी गुजराती महिला को दीवारों पर घुमा-घुमा कर मार डाला था. ये लोग होते भी तो लंबे तगड़े हैं. और यहां की स्थानीय पुलिस भी इन्हीं का साथ देती है. यहां के स्थानीय लोगों में प्रवासी भारतीयों के लिए घृणा और बदले की भावना भरी हुई है, क्योंकि इन्हें लगता है कि प्रवासी लोग इनके देश का पैसा ले जाते हैं और इन्हें ग़ुलाम बना कर रखते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि ग़रीबी के कारण यहां शिक्षा का अभाव है और पारिवारिक व्यवस्था भी स्थिर नहीं है. 

शादी महंगा उत्सव है इसलिए यहां शादी करना भी अनिवार्य नहीं है. कुछ लोग बच्चा होने के बाद शादी करते हैं. एड्स भी महामारी की तरह फैली है. यही सब देखते हुए प्रवासी भारतीयों में काफ़ी असुरक्षा की भावना है. यहां लोग अकेले कहीं बाहर नहीं जाते. स्थानीय लोगों द्वारा रोज़ प्रवासी भारतीयों का मोबाइल या पैसा खींच लेना आम बात है. यही सब सोच कर काफ़ी घबराहट हो रही है. मैं काफ़ी भयभीत हूं. बाहर का दरवाज़ा खोल देती हूं, पर हमारा तो तीसरी मंज़िल का अकेला फ़्लैट है. कौन आएगा यहां मेरी चीख सुनकर. क्या करूं? हे राम, मैंने इसे क्यों बुलाया.

तभी दरवाज़ा खुलता है. मारिया नहाई-धोई, साफ़-सुथरी मेरे सामने खड़ी है. परफ़्यूम से महकती हुई. सुंदर से स्कर्ट ब्लाउज़ में. सुबह का गाउन उसने धो दिया है. विश्वास ही नहीं हो रहा. अपने यहां की नौकरानियों से ऐसे व्यवहार की तो हमने कभी अपेक्षा ही नहीं की. मेरी सांस में सांस आती है. मारिया मेरी ओर देखकर बालसुलभ भोलेपन से मुस्कुराते हुए कहती है,‘क्वाहेरी’ यानी अलविदा, गुडबाय. सारे डर भी विदा हो जाते हैं, मारिया के साथ. बाद में लोगों ने बताया कि यहां डाडा सुबह आकर काम करने का गाउन पहनती हैं और शाम को जाते समय नहा धोकर तैयार हो कर गाउन धोकर फिर घर जाती हैं. हे भगवान, काश पहले पता होता तो इतना डर न लगता! क्वाहेरी डर! यानी अलविदा डर!

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