कहानी: विजेता

‘सब्ज़ी ले लो...’’ सब्ज़ीवाली कांता की पुकार पर मैंने थैली उठाई और सीढ़ियों से नीचे उतरकर उसके ठेले तक आ पहुंची. हमारे घर से दो-तीन घर छोड़कर नीम का बहुत बड़ा घना-सा पेड़ है, उसी के नीचे कांता अपना ठेला खड़ा करती है. उसकी बुलंद आवाज़ की एक पुकार पर मोहल्ले की महिलाएं सब्ज़ियां ख़रीदने उसके ठेले पर पहुंच जाती हैं. जब वो आती है तो आसपास की आठ-दस महिलाएं एक ही समय वहां खड़ी देखी जा सकती हैं. सब्ज़ी लेने के साथ-साथ सबसे रोज़मर्रा की बातचीत भी हो जाती है. एक तरह से कांता का ठेला महिलाओं के छोटे-छोटे समूहों के लिए मीटिंग की जगह बन जाता है. कांता बाज़ार भाव पर ही सब्ज़ियां देती है और उसकी सब्ज़ियां ताज़ी भी होती हैं इसलिए मोहल्ले की दो-तिहाई महिलाएं उसी से सब्ज़ी ख़रीदती हैं.

कांता की बुलंद आवाज़ के साथ ही उसका व्यक्तित्व भी उल्लेखनीय है. ऊंची-तगड़ी, गहरा रंग, कसकर बांधा ऊंचा-सा जूड़ा, गले में मंगलसूत्र, माथे पर बड़ी-सी गोल बिंदी और इन सबसे बढ़कर चेहरे पर सदा बिराजनेवाली बेफ़िक्र मुस्कान. उसे देखकर यही महसूस होता है, मानो इसकी ज़िंदगी में तनाव और चिंताओं की कोई जगह नहीं. हंसते-मुस्काते हुए सब्ज़ी तौलने के साथ-साथ सबसे परिवार के बारे में भी जानकारी लेती जाती है.

‘भाभी, गर्मी की छुट्टियां शुरू हो गई हैं, आपकी बेटी कब आ रही है?’ ‘रानी भाभी, आपकी बहू आजकल दिखती नहीं, कहीं बाहर गई हुई है?’ ‘बुटीकवाली आंटी के पिताजी बीमार हैं, आपको पता है?’ यानी सब्ज़ी बेचने के साथ ही ख़बरों का भंडार भी रखती है और उसे बीच-बीच में बांटती जाती है. एक और ख़ासियत है कांता में. जिस किसी महिला को, किसी विशेष सब्ज़ी-फल की ज़रूरत होती है, कांता से कह देती है. फिर कांता किसी भी तरह उस सब्ज़ी-फल का जुगाड़ कर, नियत दिन उस महिला तक पहुंचा देती है. यहां तक कि अचार बनाने के लिए कच्चे आम कटवाकर घर पर पहुंचा देती है. जब घर बैठे ही इतनी सुविधाएं मिल रही हों तो किसे ज़रूरत पड़ी है दो-तीन किलोमीटर दूर सब्ज़ी मंडी जाकर भाव-ताव करे, ऑटो या रिक्शे का किराया दे और वक़्त ख़राब करे! यही कारण है कि मोहल्ले की अधिकांश महिलाएं उससे सब्ज़ी लेना बेहतर समझती हैं.

उस दिन हम पांच-सात महिलाएं सब्ज़ी ख़रीदने पहुंचे. सब्ज़ी छांटते हुए गपशप भी हो रही थी. तभी कांता ने ठेले के निचले हिस्से से मिठाई का डिब्बा निकाला और हम सबकी ओर बारी-बारी से बढ़ाती हुई बोली,‘‘मेरी बेटी को 12 वीं की परीक्षा में 80 प्रतिशत नंबर आए हैं. मुंह मीठा करो.’’

एक सुखद आश्चर्य से हम एक-दूसरे को देखने लगे. फिर कांता को बधाई दी.

एक महिला ने पूछा पूछा, ‘‘अब आगे क्या करेगी वो?’’

‘‘कम्प्यूटर का कोर्स करेगी, उसमें नौकरी जल्दी मिल जाती है न! और पैसा भी अच्छा मिलता है.’’ कांता के चेहरे पर चमक ‍आ गई.

‘‘तुम्हारा लड़का क्या करता है?’’ दूसरी महिला ने पूछा.

‘‘कपड़े की दुकान में नौकरी करता है. उसका पढ़ाई में मन नहीं लगता. मैट्रिक में फ़ेल हो गया था, तभी उसने आगे पढ़ने से मना कर दिया था. कहने लगा, काम करूंगा. साथवाले मोहल्ले की रमा भाभी की कपड़े की दुकान है. उनसे कहा तो उन्होंने अपनी दुकान पर नौकरी लगवा दी.’’

उसकी पारिवारिक बातें चल रही थीं, सो सहजता से ही मैंने पूछ लिया,‘‘तुम्हारा पति क्या करता है?’’

उसके चेहरे पर क्षणभर के लिए अजीब-से भाव दिखे और तुरंत ही उसने मेरे प्रश्न को अनसुना करते हुए, दूसरी महिला की ओर मुख़ातिब होकर पूछा,‘‘हां भाभी, आपके लिए भिंडी कितनी तौलूं?’’  

मुझे कुछ अटपटा लगा, लेकिन मैंने चुप रहना ही उचित समझा. सब्ज़ी देकर जब वह चली गई तो एक महिला मुझसे बोली,‘‘तुम्हें नहीं पता उसके पति के बारे में? सारे मोहल्ले को पता है. इसने अपने पति को छोड़ दिया है. दोनों बच्चों को अकेले ही पाल-पोस रही है. पति से इसे इतनी नफ़रत है कि उसका ज़िक्र तक नहीं सुनना चाहती.’’

मैं हतप्रभ रह गई. इतनी ख़ुशमिजाज़, परिश्रमी महिला के साथ ऐसा हादसा! मेरे लेखक मन में यह जिज्ञासा और बलवती हो गई कि कांता के साथ ऐसा क्याहुआ होगा, जो उसे इतना कठोर, चुनौतीपूर्ण निर्णय लेना पड़ा. लेकिन वास्तविकता तो केवल कांता ही बता सकती थी. मैं सही अवसर की तलाश कर रही थी. साथ ही उसका विश्वास भी जीतना था, जिससे वह नि:संकोच इस बारे में बता सके.

दोपहर को खाने का टिफ़िन कांता अपने साथ लाती थी. खाने का वक़्त होने पर जहां-जहां सब्ज़ी देती थी, उनमें से ही किसी घर के अहाते में बैठकर खाना खा लेती थी. थोड़ी देर सुस्ताने के बाद, फिर से अपने काम पर लग जाती. एक दिन मौक़ा देखकर मैंने उससे कहा,‘‘कांता, तुम चाहो तो हमारे घर के बरामदे में बैठकर खाना खा सकती हो. जब तुम्हारा मन चाहे आ जाना. हमें कोई आपत्ति नहीं होगी.’’

वह हौले से मुस्कुराई और स्वीकृतिकी मुद्रा से गर्दन हिलाई.

मुझे ज़्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा. दस-बारह दिनों के बाद ही वह खाना लेकर आ गई. मैंने बरामदे में चटाई बिछाते हुए कहा,‘‘आराम से बैठकर खाना खा लो.’’ साथ ही ठंडे पानी की बोतल भी उसे दे दी. खाना खा चुकने के बाद वह लेट गई. मैंने वहां एक कुर्सीडाल ली और बैठते हुए कहा,‘‘कांता, उस दिन मैंने सबके सामने तुमसे तुम्हारे पति के बारे में पूछ लिया था, शायद तुम्हें बुरा लगा होगा. असल में मुझे तो कुछ पता नहीं था.’’

‘‘कोई बात नहीं भाभी. बुरा क्या लगना है, जब उससे रिश्ता ही ख़त्म कर दिया है,’’ उसके चेहरे पर हल्की-सी उदासी छा गई.

‘‘पति-पत्नी के बीच छोटे-मोटे झगड़े तो होते ही रहते हैं. शायद तुम्हारे बीच कोई बड़ा कारण रहा होगा, वरना बच्चों के साथ अलग रहना, उन्हें पालना, देखभाल करना, कितना कठिन काम है.’’ उसे विश्वास में लेते हुए मैंने कहा.

कुछ क्षणों तक वह चुप रही, फिर एकाएक बोल उठी,‘‘भाभी, जब कोई उसके बारे में बात करता है, पुरानी घटनाएं एक-एक करके सामने आ जाती हैं. उन दिनों की याद से मेरे भीतर जैसे आग लग जाती है. मैं उस नरक को पूरी तरह भूल जाना चाहती हूं,’’ उसके चेहरे पर आक्रोश के भाव तैरने लगे थे.

मैंने कहा,‘‘कहते हैं न, अपना दुख किसी को कह देने से हल्का हो जाता है. वैसे ज़बरदस्ती नहीं करूंगी, पर तुम चाहो तो अपना मन हल्का कर सकती हो.’’

कुछ पल उसने सोचने में लगाए, पर फिर उसने अपनी आपबीती मेरे सामने सुना ही डाली,‘‘नासिक शहर के पास ही एक गांव है, जहां की मैं रहनेवाली हूं. गांवों में पढ़ाई-लिखाई का कोई महत्व नहीं होता, लेकिन मुझे शौक़ था पढ़ने का. ज़िद करके आठवीं तक की पढ़ाई मैंने पूरी कर ली. फिर मां ने घर के काम सिखाने शुरू कर दिए. कहने लगी, ये पढ़ाई से ज़्यादा ज़रूरी है. मैं पंद्रह बरस की हुई तो मेरी शादी की बातें होने लगीं. गांव में तो यह उम्र भी ज़्यादा है. इससे भी छोटी उम्र की लड़कियों की  शादी कर दी जाती है. एक साल के भीतर ही मेरी शादी हो गई. साथ के गांव में ससुराल था. लड़का शहर में एक बैंक में चौकीदार था. मैं बहुत ख़ुश थी कि शहर में रहने का मौक़ा मिलेगा. ढेर सारे सपने थे आंखों में. पति के बारे में, अपने घर के बारे में, शहर के बारे में, अपने नए संसार के बारे में, जिन्हें संजोए हुए मैं पति के घर पहुंची. कुछ दिन गांव में रहकर हम शहर में अपने घर रहने आ गए. दो कमरों का छोटा-सा घर था. मैंने उसे संवारना शुरू कर दिया.

‘‘पति का व्यवहार मुझे पहले दिन से ही अजीब-सा लगा था. सहेलियों से कुछ सुना था और फ़िल्मों में भी देखा था कि पति-पत्नी के बीच प्यार, चुहल और छेड़छाड़ होती है, उसका तो कहीं पता ही नहीं था. पहले दिन ही वो मुझसे बड़ी रुखाई से पेश आया. पति नाम का वह जीव न सहज था, न उसे नई दुल्हन के जज़्बात का एहसास था, न उसकी भावनाओं का. मां ने शिक्षा देकर भेजा था कि अब वही तेरा सब कुछ है. जैसा वह कहे, करना. उसका विरोध मत करना. उसी बात को गांठ बांधकर रख लिया. पति का ऑफ़िस छह बजे बंद हो जाता था, लेकिन वह रात को नौ-दस बजे से पहले घर नहीं लौटता था. पूछने पर डांटता. कहता,‘ज़्यादा पंचायत करने की ज़रूरत नहीं. जैसा चल रहा है, चलने दे.’ अक्सर ही बाहर से शराब पीकर आता था. 

आते ही खाने पर टूट पड़ता, चाहे खाता बहुत कम था. जब मैं रसोई समेटकर बिस्तर पर जाती तो मुझ पर टूट पड़ता. मुझे उबकाई आ जाती. जब कभी विरोध करती, तो गाली-गलौज पर उतर आता. इस बीच मैं गर्भवती हो गई. सोचा, बच्चे के आने से ज़िम्मेदारी बढ़ जाएगी. फिर अपने आप सुधर आ जाएगा. इस उम्मीद में समय गुज़रने लगा. बेटे के पैदा होने पर, कुछ समय अच्छा बीता. वह समय से घर भी आने लगा. बच्चे को भी खिलाता था, लेकिन ख़ुशी के ये दिन ज़्यादा समय तक नहीं रहे. फिर से वह अपने पुराने ढर्रे पर आ गया. ज़िंदगी रोते-झींकते कटने लगी. सालभर बाद ही बेटी भी पैदा हो गई. अब मेरा तो सारा दिन बच्चों को संभालने में ही बीत जाता था. लेकिन पति दिन-ब-दिन क्रोधी, चिड़चिड़ा होता जा रहा था. बच्चों में मां-बाप के प्राण बसते हैं. बच्चों की शरारतें मां-बाप का तनाव दूर कर देती हैं, लेकिन मेरे पति का स्वभाव तो और भी बिगड़ने लगा था.
‘‘बच्चों का स्कूल दाख़िला किया तो ख़र्च बढ़ने लगे. उससे पैसे मांगती तो चिल्लाता पैसे क्या पेड़ पर लगते हैं? मेरे पास नहीं हैं? मैं हैरानी से उसका मुंह देखती. मैं कहां से लाऊं? एक दिन बच्चों की फ़ीस के पैसेमांगे तो वह फट पड़ा,‘अपने बाप से मांगकर ले आ. मुझसे तेरे ख़र्चे नहीं उठाए जाते.’ अब तक तो मैं उसके अत्याचार, ज़्यादतियां सहन कर रही थी. उस दिन मेरे भीतर का लावा फूट गया. मैंने भी क्रोध में कह दिया ‘मेरे बाप ने तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को पालने का ठेका नहीं ले रखा. वे पहले ही हैसियत से बढ़कर दे चुके हैं.उनके बारे में कुछ कहने की ज़रूरत नहीं.’ यह सुनते ही वह आग की तरह भड़क उठा,‘ज़ुबान चलाती है. क्या दिया है तेरे बाप ने? सरकारी नौकरीवाला दामाद क्या फोकट में मिल जाता है? टुच्चे कहीं के. अपनी बेटी को कुछ भी नहीं दे सकते.’

मैंने भी पलटकर जवाब दे दिया,‘क्यों दें? बच्चे तुम्हारे हैं, तुम पालो. शराब के लिए तुम्हारे पास पैसे हैं, पर बच्चों की फ़ीस के लिए...’ मेरा वाक्य पूरा होने से पहले ही उसने मुझे तड़ातड़ थप्पड़ मारे. बच्चे भी वहीं थे. मेरे साथ वे भी रोने लगे. पति गालियां देता हुआ घर से बाहर चला गया. देर रात को लौटा तो उसने शराब पी रखी थी. चुपचाप सो गया. उसके मुझ पर हाथ उठाने के बाद उसे बरदाश्त करना मेरे लिए मुश्क़िल था. अपने मां-बाप से कहा तो उन्होंने मुझे ही नसीहत दे डाली,‘दुनिया में हर इंसान में कुछ-न-कुछ बुराई तो होती ही है. जैसे भी हो अब तो तुझे निभाना ही पड़ेगा.’  वे भी डर गए, कहीं पति को छोड़कर दोनों बच्चों के साथ मैं उनके यहां डेरा न जमा लूं. सास-ससुर को तो अपने बेटे में कोई दोष नजर नहीं आता था. उनसे मदद की आशा क्या करती?

फिर एक दिन जब किसी बात पर उसने दोबारा मुझ पर हाथ उठाया तो मैंने साफ़ कह दिया,‘मुझे तुम जैसे जल्लाद के साथ नहीं रहना.’ वह ताव खाकर बोला,‘जा अभी निकल यहां से और इन पिल्लों को भी लेती जा.’
‘हां, चली जाऊंगी और इन्हें भी ले जाऊंगी. तुम जैसे राक्षस के पास छोड़कर थोड़े ही जाऊंगी.’ वह फिर मुझे मारने आया तो मैंने उसका हाथ पकड़कर मोड़ दिया. वह चीखा तो मैंने कहा,‘अभी तो मैं लिहाज करके छोड़ रही हूं, अब अगर हाथ उठाने की कोशिश की तो हाथ तोड़ दूंगी.’ मेरा रौद्र रूप देखकर वह कुछ घबरा-सा गया. लेकिन फिर लगातार बोलता रहा,‘चली जा यहां से. निकल यहां से.’ बच्चे सहमे-से कोने में दुबके हुए थे.

अगले दिन ही उसके नौकरी पर जाने के बाद मैंने अपना और बच्चों का ज़रूरी सामान, कपड़े, शादी में मिले गहने व बचत के रुपए इकट्ठे किए. उसके लौटने पर बच्चों के साथ घर छोड़ दिया. उसने भी रोकने की कोई कोशिश नहीं की. कुछ दिन उसी शहर के दूर के मोहल्ले में रही. लेकिन मैं उस शहर को छोड़ना चाहती थी. वह पता लगाते हुए मुझ तक पहुंच गया था. एक छोटी-सी पुरानी खोली में मुझे और बच्चों को देखकर व्यंग्य से बोला,‘बहुत अकड़ है न! देखता हूं, कितने दिन अकेली रह लेगी इन बच्चों के साथ.’

मैंने भी पलटकर कह दिया,‘जैसे भी रह लूंगी, पर तुम्हारे साथ नहीं रहूंगी. जाओ यहां से.’ वह क्रोध से बिफर उठा,‘इतना घमंड है तुझे! ऐसा सबक सिखाऊंगा कि सारी हेकड़ी भूल जाएगी.’

मैं समझ गई थी, वहां वो इसी तरह परेशान करता रहेगा. ठीक रहेगा कि इस शहर को ही छोड़ दिया जाए.
कुछ दिनों बाद वह शहर छोड़ बच्चों के साथ मैं यहां आ गई. शुरू में कुछ परेशानियां तो आईं, लेकिन मैंने भी हिम्मत नहीं हारी. पहले लोगों के घरों में सफ़ाई, बर्तन, कपड़े धोने का काम किया. फिर सब्ज़ी बेचने का विचार आया. शुरू में टोकरे में सब्ज़ी लाती थी. इस मोहल्ले की सभी महिलाएं मुझसे ही सब्ज़ी लेने लगीं. जब देखा, ग्राहक काफ़ी बढ़ गए हैं तो ठेला ख़रीद लिया. इस मोहल्ले के लोग बहुत अच्छे हैं. मुझे कई बार आर्थिक मदद की है. इन सबके साथ एक रिश्ता-सा बन गया है.’’ कांता के चेहरे पर चिर-परिचित मुस्कान उभर आई.

‘‘तुम्हारा पति अब कहां है? क्याकरता है? इसके बाद कभी मिला या यहां आया?’’ मेरी उत्सुकता को देख वह उसी प्रकार मुस्कराती रही.

‘‘कुछ साल पहले उसने शादी कर ली. मायके की तरफ़ से कभी-कभार कोई इधर आता है तो जानकारी दे जाता है.’’

‘‘तो फिर तुम यह मंगलसूत्र क्यों पहनती हो और बिंदी क्यों लगाती हो?’’ मेरे मुंह से हठात् निकल गया.

उसकी मुस्कान ग़ायब हो गई,‘‘आप नहीं जानती भाभी, इस दुनिया में लोग अकेली औरत का जीना मुश्क़िल कर देते हैं. उसके चरित्र पर शक़ करते हैं, पुरुषों की बुरी नज़र हमेशा उसपर रहती है. इन सबसे बचने के लिए ही मैं बिंदी लगाती हूं और मंगलसूत्र पहनती हूं. कम से कम देखनेवालों को मेरी ज़िंदगी की सच्चाई का पता तो नहीं चलता.’’

उसकी हिम्मत और स्पष्टवादिता पर मैं चकित थी. बेशक़ वह अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थी और गांव की रहनेवाली थी, लेकिन उसकी निर्णयक्षमता और साहस तो शहर की उच्च शिक्षित महिलाओं से भी अधिक था.
माहौल को हल्का बनाने के लिए मैंने पूछ लिया,‘‘अगले कुछ सालों के बाद तुम्हें अपनी बेटी की शादी भी करनी होगी. क्या कन्यादान के वक़्त उसके पिता को बुलाओगी?’’

कुछ पल सोचते हुए वह बोली,‘‘‘जब बच्चों के लिए माता-पिता दोनों की ज़िम्मेदारी मैं ही निभा रही हूं तो कन्यादान भी मैं ही करूंगी. उस आदमी से अब मेरा और बच्चों का कोई रिश्ता नहीं है.’’ उसकी आंखों में हल्की-सी टीस उभर आई.

‘‘अच्छा भाभी, मैं चलती हूं. काफ़ी देर हो गई है. अभी अगली गली में सब्ज़ी देनी है,’’ यह कहते हुए उठ खड़ी हुई. उसके चेहरे पर वही चिर-परिचित मुस्कान फैल गई थी. कुछ देर पहले अपने जीवन के जो दुखद प्रसंग, उसने बायन किए थे, उसका कोई प्रभाव उसके चेहरे पर नहीं था. एक विजेता की तरह उत्साह से भरी हुई, वह बरामदे से बाहर निकल गई. गांव की पली-बढ़ी वह कम पढ़ी-लिखी महिला मुझे महिला सशक्तिकरण की सही परिभाषा से रूबरू करा गई थी.

कोई टिप्पणी नहीं:

'; (function() { var dsq = document.createElement('script'); dsq.type = 'text/javascript'; dsq.async = true; dsq.src = '//' + disqus_shortname + '.disqus.com/embed.js'; (document.getElementsByTagName('head')[0] || document.getElementsByTagName('body')[0]).appendChild(dsq); })();
Blogger द्वारा संचालित.