कहानी: नीला की बेटी
अनु राहुल. कल आपसे अपॉइंटमेंट लिया था.’’ उसने अपना विज़िटिंग कार्ड आगे बढ़ा दिया.
‘‘फ़ीचर्स राइटर, ग्लोबल मीडिया सॉल्युशन्स’’ सुबोध ने ग़ौर से पढ़ा. ‘‘किसी फ़ीचर के सिलसिले में आपको मेरी मदद चाहिए, है ना?’’
‘‘जी, अपॉइंटमेंट लेते वक़्त कहा तो मैंने ऐसा ही था, लेकिन मैं नीला जी के घर से हूं. आपसे मिलने की वजह भी यही है.’’
बाईस साल बाद अचानक नीला का नाम सुन कर सुबोध को कितना मीठा एहसास हुआ ये उनकी आंखों की चमक से साफ़ बयां हो रहा था. अनु को बैठने का इशारा करते हुए सुबोध ने अपने प्लानर पर नज़र डाली, पूरे दिन कोई और अपॉइंटमेंट नहीं था. नीला के बारे में वो बहुत कुछ जानना चाहता था और ऑफ़िस में ये संभव नहीं था.‘‘यहां पास ही बरिस्ता है, वहां चलें?’’ सुबोध ने पूछा.
‘‘जी, बिल्कुल! आज मेरी छुट्टी है और मेरे पास वक़्त की कोई कमी नहीं है.’’
‘‘तुम नीला की...’’ चलते-चलते सुबोध ने पूछना चाहा.
‘‘उनकी बेटी हूं,’’ सवाल पूरा होने से पहले ही अनु का जवाब आ गया.
सुबोध की सांसें जैसे थम-सी गईं. तो मुझसे अलग होने के बाद क्या नीला ने शादी की या फिर ये मेरी ही बेटी है. नहीं इसकी उम्र तो 27-28 साल होगी, फिर ये नीला की बेटी कैसे हो सकती है? जैसे न जाने कितने प्रश्नों को मन में दबाए, सुबोध ने संयत होते हुए पूछा,‘‘उसने तुम्हें मेरे बारे में बताया?’’
‘‘हां, उन्होंने किसी से भी कुछ नहीं छिपाया.’’
नीला के बारे में जानने की सुबोध की उत्सुकता और उनका व्यवहार उनकी उम्र से मेल नहीं खा रहा था, लेकिन अनु जानती थी कि सुबोध का यह व्यवहार ही उन दोनों के बीच के प्यार का सच्चा प्रमाण है.
‘‘तुम उसकी बेटी हो...? तुम्हें बुरा नहीं लगा, कोई शिकायत नहीं हुई?’’ सुबोध जैसे सब कुछ तुरंत ही जान लेना चाहता था.
अनु कुछ देर चुप रही. बरिस्ता में पहुंच कर कुर्सी पर बैठते हुए उसने कहा,‘‘नहीं, सुबोध जी मुझे नीला मां से भला क्यों शिकायत होगी? और किसी दूसरे को भी उनसे शिकायत करने का कोई हक़ नहीं पहुंचता. आख़िर, ज़िंदगी एक बार मिलती है और हम सभी को पूरा हक़ है कि हम उसे जैसे चाहें जिएं. जीवन में हम सभी को कोई-न-कोई ऐसा निर्णय लेना पड़ता है, जब दो में से किसी एक विकल्प को चुनना हो और हमने ख़ुद ही कोई विकल्प चुना हो तो उस रास्ते पर मिलने वाले सुख-दुख सभी हमारे अपने चुने हुए होते हैं. उनसे भला कैसी शिकायत? नीला मां की यही बात तो मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी सीख है.’’
उम्र के पचासवें पड़ाव पर आ चुका, एक बड़ी कंपनी में मार्केटिंग वाइस प्रेसिडेंट सुबोध, अनु की बातों को बड़े ध्यान से सुन रहा था. ज़्यादा देर की जान-पहचान भी तो नहीं है उसकी अनु से. कल ही उसने फ़ोन पर सुबोध से मिलने का समय मांगा और आज आते ही नीला की बात छेड़ दी.
‘‘तुम उसे नीला मां कह रही हो, ये कुछ अजीब-सा संबोधन नहीं है? मैं जानना चाहता हूं कि वो तुम्हारी मां कैसे है और अब कहां है वो? हमारा अलग होना उसका ही फ़ैसला था. ये सच है कि उसके जाने के बाद मैंने उसके बारे में कुछ भी जानने की कोशिश नहीं की, लेकिन दूसरा सच ये भी है कि मैंने उसे हर रोज़ याद किया और अब भी करता हूं,’’ नीला के बारे में जानने की सुबोध की उत्सुकता और उनका व्यवहार उनकी उम्र से मेल नहीं खा रहा था, लेकिन अनु जानती थी कि सुबोध का यह व्यवहार ही उन दोनों के बीच के प्यार का सच्चा प्रमाण है.
‘‘आप दोनों का प्यार कितना अलग है, दूर रह कर भी ये कम नहीं हुआ. लगता है जैसे दूरी ने आपके प्यार को और बढ़ा दिया है. जैसे नीला मां के ज़िक्र से आपकी आंखें चमक रही हैं, आपकी बातें करते समय उनकी आंखें भी इतनी ही गहरी और चमकीली हो जाया करती थीं.’’ अनु कॉफ़ी का घूंट भरते हुए बोली.
‘‘हो जाया करती थीं...मतलब?’’ अनु का वाक्य दोहराते हुए किसी आशंका से अनमना हो आया था सुबोध का चेहरा.
‘‘मतलब यही कि वो अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी यादें तो हैं...उनसे जुड़ी मैं हूं, आप हैं. हमारे बीच तो हैं न वो?’’ अनु की आवाज़ में गहरा आत्मविश्वास और अपनापन था.
इस सच ने सुबोध की आंखों को सजल कर दिया. इतने समय के बाद नीला के बारे में जानने को मिला और वो भी ये कि अब वो इस दुनिया में ही नहीं है. सुबोध को लगा कि काश! नीला के बारे में जानने की एक कोशिश उसने भी की होती.
सुबोध के चेहरे के बदलते भाव देख कर कुछ देर की चुप्पी के बाद अनु ने कहा,‘‘आपसे अलग होने का निर्णय लेने के बाद उन्होंने दिल्ली ट्रांसफ़र ले लिया था, यहां तक तो आपको भी पता होगा.’’
सुबोध ने सिर हिलाया और ख़ुद को संभालने की कोशिश करने लगे.
‘‘...फिर उन्होंने जॉब ही बदल लिया. दूसरी कंपनी में उनका वेतन और ओहदा भी बढ़ गया, लेकिन आपके बिना समय काटना उनके लिए आसान नहीं था. इस बात का एहसास होते ही वे जीने के लिए दूसरे मक़सद की तलाश में जुट गईं. उनकी तलाश मुझ पर आ कर तब ख़त्म हुई, जब एक अनाथाश्रम से उन्होंने मुझे गोद लिया. उस समय मैं लगभग 6 साल की थी और मुझे मेरी मां अच्छी तरह याद थीं. मैं उन्हें ‘मां’ कहने में सहज महसूस नहीं कर पाती थी. तब उन्होंने ही विकल्प सुझाया कि मैं उन्हें ‘नीला मां’ कहूं. अनाथाश्रम से उनके पास आकर तो मेरी ज़िंदगी ही संवर गई. अपनी बच्ची की तरह पाला उन्होंने मुझे. अच्छी परवरिश दी, स्नेह दिया मेरा करियर बनाने में सहायता की. मुझे अपने पैरों पर खड़े होने की सीख दी, ताकि मैं कभी-भी किसी और पर निर्भर न रहूं...और मेरी पसंद का जीवनसाथी चुनने का मौक़ा भी दिया. मेरी शादी के दिन भी वो आपको याद करती रही थीं.’’
‘‘उसे हुआ क्या था, ये कब हुआ?’’ भरे गले से सुबोध ने पूछा.
‘‘साल भर पहले. उस रात वे बिल्कुल ठीक थीं. उन्होंने मुझे फ़ोन कर के घर बुलाया और बोलीं कि अगर उन्हें कुछ हो जाए तो इसकी जानकारी आपको ज़रूर दूं. यह कहते हुए उन्होंने मुझे आपके घर का पता और फ़ोन नंबर भी थमा दिया. मैं बहुत नाराज़ हो गई, मैंने कहा भी,‘आपको कुछ नहीं होगा. ऐसी बातें क्यों कर रही हैं?’ ...पर शायद उन्हें अपनी मौत का एहसास हो गया था. उस रात मैं और राहुल उनके घर पर ही रुक गए, मैं तो उनके साथ ही सोई थी. सुबह उनके लिए चाय बना कर लाई, उन्हें जगाया तो वे उठीं ही नहीं. डॉक्टर को बुलाया तो पता चला कि उन्हें सोते-सोते ही हार्टअटैक आया और...’’
सुबोध को सहज करने के लिए अनु ने जानबूझ कर दूसरी बात उठा दी,‘‘आपने उनके बारे में जानने की कोशिश नहीं की, लेकिन चंडीगढ़ से दिल्ली तक उन्होंने हमेशा आपके बारे में पूरी जानकारी रखी. जब भी आप ने नौकरी बदली, वे आपके पुराने ऑफ़िस के सहकर्मियों के ज़रिए आपका पता और फ़ोन नंबर ले लिया करती थीं. क्या आपको नहीं लगा कि औरों से बहुत अलग था उनका प्यार?’’
नीला के प्यार में कहीं कोई स्वार्थ नहीं था. उसने हमेशा मुझे घर के प्रति मेरी ज़िम्मेदारी निभाने की सलाह दी. अपने काम में तो वो पर्फ़ेक्ट थी ही, पर मेरी तरक़्क़ी के लिए मुझे भी कई प्रैक्टिकल टिप्स दिया करती थी. हमारे ऑफ़िस में सभी को हमारे रिश्ते के बारे में पता था और हमारे पीछे लोग शायद हमारे बारे में बात भी किया करते थे, पर नीला ने किसी की परवाह नहीं की.
‘‘हां, पूरी दुनिया से अलग. जब हम दोनों कलीग थे, वो काम में जितनी स्मार्ट थी, उससे कहीं ज़्यादा ऊर्जावान. न जाने कब हम दोनों एक-दूसरे के क़रीब आ गए. वो अच्छी तरह जानती थी कि मैं शादीशुदा हूं और एक बच्चे का पिता भी... मैं भी उसके स्नेहिल व्यक्तित्व में खो कर इस सच को भूल गया कि दुनिया की रीत के मुताबिक़, शादी के बाद मेरे और उसके रिश्तों की सीमाएं होनी चाहिए.’’
‘‘...पर प्यार...बस, हो जाता है. सच्चा प्यार सिर्फ़ देने में विश्वास रखता है, लेने में नहीं...है ना?’’
‘‘नीला की बेटी हो ना? उसके जैसी ही बातें करोगी. जब उसके घर वालों को हमारे प्यार के बारे में पता चला और उन्होंने उसे डांटा-फटकारा तो घर ही छोड़ दिया था उसने. मैंने भी कहा था कि वे लोग सही कह रहे हैं, मैं शादीशुदा हूं. जहां एक सच्चाई यह है कि तुम्हारा साथ मुझे बेतरह पसंद है, वहीं ये भी सच है कि अपनी पत्नी से कोई शिकायत नहीं है मुझे... लेकिन ये भी तो संभव है कि भावनाओं की आड़ में तुमसे रिश्ता जोड़कर अपने पुरुष होने का फ़ायदा उठा रहा हूं मैं. तब जानती हो उसने क्या कहा? कहने लगी,‘मैं कब कहती हूं अपनी ज़िम्मेदारियों से मुंह मोड़ो? अपनी पत्नी के साथ रहो, उसे सभी सुख दो. मैं तुम्हें और तुम्हारे परिवार को प्यार ही तो देना चाहती हूं. मेरे मन में तुम्हारी पत्नी या बच्चे के लिए कोई दुर्भावना नहीं है. मैं अपने पैरों पर खड़ी हूं, तुम्हारे बराबर कमाती हूं. तुमसे किसी तरह का फ़ायनेंशियल सहारा तो चाहिए ही नहीं मुझे. बस, तुम्हारे प्रति जो लगाव है मेरा वो कम ही नहीं होता, शायद यही प्यार है. मुझे समझ ही नहीं आता कि मैं प्यार देना चाहती हूं, किसी से कुछ छीनना या लेना तो नहीं, फिर लोग बुरा क्यों मानते हैं? दो लोग, जो अपनी पूरी ज़िम्मेदारियां ठीक ढंग से निभा रहे हैं, बिना किसी को कोई नुक़सान पहुंचाए यदि एक-दूसरे का साथ पसंद करते हैं तो लोगों को क्या तकलीफ़ होती है? रिवाज़ों का हवाला दे कर वो क्यों उन्हें अलग करना चाहते हैं?’’’.
‘‘इसके बाद जब नीला मां अलग घर ले कर रहने लगीं तो उनके परिवार वालों ने संबंध ही ख़त्म कर लिए थे उनसे, है ना?’’
‘‘हां, लेकिन वो मेरी ज़िंदगी के सबसे सुनहरे और यादगार दिन हैं. सच है कि हमने दुनिया की रीत से अलग रिश्ता क़ायम किया था, पर नीला के प्यार में कहीं कोई स्वार्थ नहीं था. उसने हमेशा मुझे घर के प्रति मेरी ज़िम्मेदारी निभाने की सलाह दी. अपने काम में तो वो पर्फ़ेक्ट थी ही, पर मेरी तरक़्क़ी के लिए मुझे भी कई प्रैक्टिकल टिप्स दिया करती थी. हमारे ऑफ़िस में सभी को हमारे रिश्ते के बारे में पता था और हमारे पीछे लोग शायद हमारे बारे में बात भी किया करते थे, पर नीला ने किसी की परवाह नहीं की. फिर न जाने कब उसने दिल्ली ट्रांसफ़र के लिए आवेदन दिया और जब उसका ट्रांसफ़र हो गया तब मुझे बताया. कहने लगी,‘सुबोध, ये सही समय है कि मैं तुम्हारे जीवन से चली जाऊं.’. लाख पूछने पर भी उसने अपने फ़ैसले का कारण नहीं बताया. उसके इस तरह कुछ भी बिना बताए दिल्ली चले जाने के बाद मैंने उससे कोई संपर्क भी नहीं किया... चाहे इसे मेरा स्वार्थ कहो, पुरुष होने का दंभ या फिर नाराज़गी. मैं आज भी उसके इस निर्णय का कारण नहीं जानता, लेकिन जानना ज़रूर चाहता हूं. क्या उसने कभी तुम्हें इसका कारण बताया?’’
‘‘हां, नीला मां ने मुझे बताया था. आप नीला मां से इसलिए और ज़्यादा प्यार करते थे कि आपको उनमें कोई स्वार्थ नज़र नहीं आता था, लेकिन आपका साथ पाने के बाद धीरे-धीरे नीला मां के अंदर नारी सुलभ इच्छाएं जागने लगीं. उन्हें लगने लगा कि काश! वे आपको पूर्णता के साथ पा सकतीं, काश! वे भी आपके बच्चे की मां बन सकतीं. जब इस तरह की इच्छाएं सर उठाने लगीं तो उन्हें दूसरों को दिए गए प्यार के अपने ही तर्क थोथे लगने लगे. उन्हें लगा कि यदि वे आपसे इस बारे में कहेंगी तो आप शायद राज़ी भी हो जाएं, लेकिन इससे आपकी पत्नी और बच्चे के हिस्से का वो प्यार भी वो छीन लेंगी, जिस पर केवल उनका ही अधिकार है और ये बात तो प्यार की उनकी परिभाषा से परे थी. स्वार्थ को ख़ुद पर हावी न होने देने का यही एक विकल्प था कि वे आपसे दूर हो जातीं और उन्होंने यही किया.’’
सुबोध की आंखें पनीली हो गईं... शायद अब उन्हें नीला की यादों के साथ कुछ वक़्त अकेले बिताने की ज़रूरत है. यह भांपते हुए अनु ने कहा, ‘‘नीला मां की मौत के बाद मैंने आपके नंबर पर फ़ोन भी मिलाया, पर पता चला कि आप ऑफ़िस के टूर पर न्यू यॉर्क गए हुए हैं और दो महीने बाद लौटेंगे. फिर मैं भी अपने काम में व्यस्त हो गई. आज आपसे मिलने का मक़सद यही था कि नीला मां की आख़िरी इच्छा पूरी कर सकूं. कल उनका श्राद्ध है... आप आएंगे?’’
सुबोध ने हामी में सिर हिलाया. अनु ने सुबोध को अपने घर का पता दिया और दोनों अपने-अपने घर जाने के लिए उठ खड़े हुए. कल नीला के श्राद्ध के लिए साथ रहने और अपनी यादों में उसे ज़िंदा रखने का विकल्प उन्होंने आज साथ-साथ ही चुन लिया था.
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