कहानी: सफ़र में धूप तो होगी

‘‘यही है ज़िंदगी...

चंद ख़्वाब कुछ उम्मीदें

इन्हीं खिलौनों से तुम बहल सको तो चलो...’’

“ज़िंदगी शायरी नहीं होती जान्हवी, हक़ीक़त होती है. तुम समझती क्यों नहीं?” जान्हवी ने जब उक्त लाइनें एक बार फिर दोहराईं, तो जलेश थोड़ा नाराज़गी से बोला.

“मैंने भी तो तुम्हें कई बार रिक्वेस्ट की है, कि तुम शादी कर लो मैं शादी नहीं कर सकती. और ये जो शायरी और हक़ीक़त की बात तुम कर रहे हो ना ये बेमानी है. इसलिए कि तुम ख़ुद हक़ीक़त से आंखें चुरा रहे हो,” जान्हवी ने कहा.


“मैं तुम पर कोई दबाव तो नहीं बना रहा. मैं इंतज़ार कर रहा हूं ना,” जलेश ने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

“हां दबाव तो नहीं बना रहे हो. लेकिन मेरे चक्कर में अपने माता-पिता को बहू के लिए कब तक तरसाओगे? यह भी तो सोचने की बात है,” जान्हवी ने उसे फिर समझाया.   

“उन्होंने भी मजबूर हो कर इंतज़ार का मन बना लिया है. और कोई रास्ता भी नहीं है.”

“ऐसी भी क्या ज़िद है तुम्हारी जलेश कि शादी करोगे तो सिर्फ़ मुझसे वरना नहीं. मैं समझ नहीं पा रही हूं कि मुझमें ऐसा क्या है. तुम कोशिश तो करो मुझसे अच्छी कई लड़कियां मिल जाएंगी तुम्हें,” जान्हवी ने कहा.
“लेकिन तुम नहीं मिलोगी ना. और जहां तक तुम में ऐसा क्या है यह देखने, जानने के लिए तुम्हें ख़ुद को मेरी नज़र से देखना होगा. लेकिन वह शायद तुम न कर सकोगी इसलिए हम चल रहे हैं साथ-साथ दो किनारों की तरह,” जलेश ने भावुकता से कहा.


“हां किनारे कभी मिलते नहीं. वे होते ही हैं, न मिलने के लिए,” जान्हवी ने निर्लिप्त भाव से कहा.

“न सही साथ होने का संतोष भी कम नहीं होता. यह समझने की, महसूस करने की बात है जान्हवी,” यह कह, जलेश ने सिगरेट सुलगा ली.

“सिगरेट से तुम बाज़ नहीं आओगे. मुझसे इतना प्यार करते हो, लेकिन मेरी इतनी-सी बात नहीं मान सकते,” जान्हवी की आवाज़ में थोड़ी तल्ख़ी आ गई थी.

“ये लो आज तक भी जीवन तुम्हारे ही नाम था, लेकिन जो कुछ भी थोड़ा-बहुत मेरा था, आज से वह भी तुम्हारा हुआ. सेंट परसेंट. अब मेरे पास मेरा अपना कुछ नहीं है, सिवाय तुम्हारे इंतज़ार के,” जलेश ने एश ट्रे में सिगरेट को पूरा ज़ोर लगाकर मसल डाला.


जलेश और जान्हवी दो अलग-अलग पारिवारिक पृष्ठभूमि, खानपान, संस्कार और व्यवहार के धरातल पर एकदम उत्तर दक्षिण ध्रुव जैसे. लेकिन दोनों के बीच इतना एका कैसे हो गया, वे ख़ुद भी कभी-कभी आश्चर्य करते हैं.

जलेश एक गुजराती व्यापारिक परिवार से था. अपने व्यवसाय में पूरे मनोयोग से लगे ऐसे परिवार का इकलौता लड़का, जिसमें पीढ़ियों से व्यापार था. इसी कारण आर्थिक रूप से अति सम्पन्न उसके दादाजी गुजरात से आकर मुंबई में बस गए थे, इसलिए वह मुंबईकर था. कहते हैं ना ईश्वर भी जब देता है तो छप्पर फाड़ कर ही देता है. सम्पन्न लोगों में प्रायः सुंदरता भी उसी अनुपात में होती है. जलेश का व्यक्तित्व ऐसा था कि उसे देखकर कोई भी मोहित और प्रभावित हो सकता था. क़द छह फ़ुट. तीखे नाक नक़्श, गौर वर्ण, ऊपर से उतनी प्रभावी आवाज़ भी... जब बोलता तो उसकी धीमी लेकिन मीठी आवाज़ मानो कानों में रस-सा घोल देती थी. 

हर तरह से इतनी सम्पन्नता के बावजूद निराभिमानी, निर्व्यसनी और निर्झर की मानिंद साफ़ शुद्ध मन का धनी. कुल मिलाकर यही लगता था कि मानो ऊपरवाले ने उसे पूरे मनोयोग से गढ़ा था. इसी कारण वह पढ़ने में भी आउटस्टैंडिंग था. बचपन से लेकर चिकित्सा का मास्टर होने तक एक जैसा शैक्षणिक ट्रैक रिकॉर्ड. और अब अपने सुपर स्पेशलाइजेशन के कोर्स के लिए वह यहां है एम्स दिल्ली में. यहीं उसकी मुलाक़ात जान्हवी से हुई.

और जान्हवी?

बिहार के सुदूर और अति पिछड़े इलाक़े में पली-बढ़ी. बचपन पूरी तरह अभावों और विपन्नता के असंख्य टापुओं के बीच गुज़रा. इसी कारण मलेरिया और टाइफ़ाइड जैसे साधारण बुख़ार के कारण अपने माता-पिता को बचपन में खो चुकी जान्हवी में लावण्य तो कहां से होता? फिर भी ईश्वर की बनाई इस दुनिया में वह किसी को भी ख़ाली हाथ नहीं भेजता. इसी बात को एक बार फिर सिद्ध करती थी उसकी असीम मेधा. इसी बुद्धिमत्ता के बल पर ही वह अपने अंतहीन संघर्षों से पार पाती रही. जिन गांवों में डॉक्टर का नाम सुनकर ही लोग भयभीत हो जाते हों, वहां अपने माता-पिता को इलाज के अभाव में असमय खो देने से उसमें इस अद्भुत और अविश्सनीय संकल्पशक्ति ने जन्म लिया कि वह डॉक्टर बनकर भविष्य में अपने इलाक़े में किसी को भी इलाज के अभाव में मरने नहीं देगी. लेकिन इस संकल्प में सबसे बड़ी बाधा था पैसा! 


वह कहां से आएगा और कौन देगा? पर जब हज़ार हाथ वाला देने लगे तो दो हाथ वालों से समेटते भी नहीं बनता. यही हुआ. एक बार उसके स्कूल निरीक्षण के दौरान उसके मास्टर जी ने वहां एक कार्यक्रम में आए मंत्री जी और अधिकारियों को उसके अति मेधावी होने और उसके इस संकल्प के बारे में बताया तो मदद के हाथ बढ़ते गए और उसकी पढ़ाई की पूरी व्यवस्था होती चली गई. बड़ी उम्मीद से उसने एमबीबीएस करके अपने छोटे से क़स्बे में अपना क्लीनिक खोल लिया. लेकिन इस सपने के पूरा होते-होते उसे लगा कि एमबीबीएस के बाद भी वह अपना मिशन जारी तो रख लेगी लेकिन उसका दायरा बहुत छोटा होगा. इस सेवा कार्य को और व्यापक बनाने का उद्देश्य लेकर ही एम्स दिल्ली का रुख़ किया था.

इस तरह अलग-अलग शहरों के बाशिंदे जलेश और जान्हवी इस तीसरे शहर में आ मिले. आरम्भिक परिचय के दौरान ही जलेश ने उसके नाम पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कह दिया था कि जितना अच्छा और सुंदर तुम्हारा नाम है उतनी तुम नहीं. सुनकर जान्हवी ने प्रत्यक्ष तो कुछ नहीं कहा, लेकिन उसकी आंखों में अंगारे, नापसंदगी के साथ ही उपहास के जो मिले-जुले भाव आए उससे जलेश अंदर तक न सिर्फ़ हिल गया, बल्कि द्रवित हो उठा. क्योंकि उसका भी मूल स्वभाव भी तो वैसा नहीं न था, न है. लेकिन एक बार बात ज़ुबान से निकली तो बस निकली. बात ज़ुबान से ही नहीं निकलती, वह अक्सर हाथ से भी निकल जाती है. फिर उसके प्रतिकार का सिरा पकड़ में आ जाए तो अहोभाग्य.

इस प्रारम्भिक परिचय के बाद दोनों में सामान्य संबंध बने रहे. जैसे कि साथ पढ़ने या काम करने वालों के होते हैं. जान्हवी का अपने पढ़ाई के प्रति समर्पण अद्भुत था. वह कोई क्लास कोई सेमिनार या कोई लेक्चर किसी भी परिस्थिति में मिस नहीं करती थी. इसके साथ ही उसकी ईश्वर द्वारा दी हुई बेजोड़ स्मरण शक्ति, भी एक चमत्कार थी. एक बार जो बात वह सुन लेती थी, समझो उसके दिमाग़ की हार्ड डिस्क में हमेशा के लिए सेव हो जाती थी.  

एक बार शहर में महामारी फैल गई. छोटे-बड़े सभी अस्पतालों में मरीज़ों का तांता लगने लगा. आनेवाले हर मरीज़ को लगता कि डॉक्टर सबसे पहले उसे ही देखें. एम्स जैसे अस्पतालों में वैसे भी सामान्य मरीज़ तो नहीं ही आता है. बीमारी की गम्भीरता के साथ ही आर्थिक सम्पन्नता दोनों ने जिसको पूरी तरह पकड़ रखा हो, उनकी बहुतायत होती है यहां आने वालों में. इसी गहमागहमी में एक दिन जो हुआ, वह हर तरह से न केवल अनोखा था बल्कि अनुकरणीय भी था. एक जवान बेटे के पिता उसको लेकर आए. बेटे को ब्लड कैंसर था और प्रथम दृष्टया ऐसा लग रहा था कि वह थोड़े ही दिनों का मेहमान है. उस समय वॉर्ड में जो ड्यूटी डॉक्टर मौजूद थे, उसे देखते ही इधर-उधर होने लगे. उनको लगा कि यदि वह अभी ही चल बसा तो इसकी नैतिक ज़िम्मेदारी उन पर आ सकती है. उस क़िस्मत के मारे के असहाय पिता की तमाम अनुनय विनय पर वे पिघले तो इलाज के लिए ब्लड की मांग की. पिता सहर्ष देने को तैयार हो गया. ‘मेरी एक एक बूंद निचोड़ लो, लेकिन मेरे बेटे की जान बचा लो,’ उसने कातर स्वर में कहा. जबकी वह ख़ुद कुपोषित जैसा ही था. न उसके पास पैसे ही थे.


‘कहीं से भी व्यवस्था करो ब्लड ला दोगे तो हम चढ़ा देंगे,’ कहकर डॉक्टर्स ने अपनी ड्यूटी पूरी कर ली. मरीज़ का पिता बेचैन हो उठा. ‘क्या करूं? कहां से ब्लड लाऊं?’

होते-होते यह चर्चा जान्हवी तक भी पहुंची. सारा माजरा समझ में आने पर उसने ख़ुद ही ब्लड डोनेट करने की पेशकश की. साथी डॉक्टरों ने उसे ऐसा करने को मना किया.

‘हमारा तो रोज़ का ही काम है. किस-किस को हम ब्लड देते फिरेंगे,’ उन सभी ने कहा.

‘रोज़ाना न सही, जब भी ऐसी कोई इमरजेंसी हो तो हम सहायता के लिए आगे नहीं आ सकते?’ जान्हवी ने ज़िदपूर्वक ब्लड डोनेशन टेबल पर लेटते हुए कहा. जब वह ब्लड डोनेट कर चुकी, तब उसके चेहरे पर आत्मसंतुष्टि का जो भाव था वह व्यक्ति के जीवन में यदाकदा ही आ पाता है.

मेडिकल कॉलेजों में देर-सबेर सभी अपनी-अपनी जोड़ियां बना लेते हैं. जलेश पर मिटने बल्कि कहें उसके साथ रिलेशन में रहने को तो कॉलेज की सारी लड़कियां तैयार थीं. लेकिन वह पता नहीं किस मिट्टी का बना था कि उसने ख़ुद को किसी के साथ अभी तक असोसिएट नहीं किया था. लेकिन इस घटना के बाद जान्हवी की सेवा भावना का कायल हो गया. एक दिन कैंटीन में जान्हवी बैठी नाश्ता कर रही थी. तभी जलेश वहां आया और उसको जॉइन कर लिया. उसकी प्लेट में से एक पकौड़ा उठाते हुए बोला,‘मैं भी तुम्हारे साथ कुछ बांटना चाहता हूं.’

‘...’ जान्हवी ने अपना प्रश्न आंखों के माध्यम से पूछा.

‘अपनी ज़िंदगी तुमसे शेयर करना चाहता हूं. शादी करनी है मुझे तुमसे,’ वह बोला.

‘...हूं ख़्याल अच्छा है,’ जान्हवी ने हंसते हुए कहा.


‘यह हंसी में उड़ाने की बात नहीं है. आईएम सीरियस,’ जलेश ने उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

‘बट आई एम नॉट,’ जान्हवी ने कहा और अपना हाथ खींच लिया.

‘क्यों क्या कमी है मुझमें? बताओ!’ जलेश की आवाज़ में थोड़ा ग़ुस्सा और आश्चर्य दोनों के ही भाव थे.


‘नहीं कोई कमी नहीं है तुममें. मुझमें है. मैं अपने क़स्बे और क्लीनिक को छोड़कर कहीं और नहीं जा सकती. मेरे लोग, मेरा और मेरे अस्पताल का इंतज़ार कर रहे हैं.’

‘अस्पताल तो हम मुंबई में भी बना सकते हैं. तुम्हारे क़स्बे के क्लीनिक और सपनों से भी बड़ा.’

‘लेकिन वो मेरे क़स्बे में नहीं होगा ना?’ जान्हवी ने कहा और उठकर जाने लगी.

‘रुको शादी न सही बात तो पूरी करो. बैठो प्लीज,’ जलेश ने उसे रोका फिर अपनी पारिवारिक और आर्थिक पृष्ठभूमि विस्तार से बताई. उसे उम्मीद थी कि उसकी सम्पन्नता के आगे जान्हवी की आंखें चौंधियां जाएंगी. और वह फ़ौरन हां कह देगी.

‘यह ठीक है जलेश कि मेरा जीवन तुमसे बिल्कुल उलट अत्यन्त विपन्नता में बीता है. लेकिन जब हम दरिद्रनारायण थे तब भी दौलत की इतनी चाह नहीं थी, अब तो मेरी ज़रूरतों का मेरे पास है. इसलिए तुम्हारी सम्पन्नता मेरे लिए कोई मायने नहीं रखती.’ जान्हवी ने सपाट लहज़े में कहा. इस बात पर जलेश झुंझला गया. जान्हवी ने फिर आगे अपनी बात जारी रखी,‘तुम्हारा इरिटेट होना ग़लत नहीं है. लेकिन हम दो ध्रुव हैं. और हमें केवल कल्पना की अक्ष रेखा ही मिलाती है. मेरे जीवन में शुरू से धूप ही धूप है जलेश. मेरा सारा सफ़र कड़ी धूप में कटा है, और कदाचित धूप में ही काटना है.’

यह कहकर जान्हवी उसकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार किए बिना वहां से चली गई.

इन्हीं असहमतियों के बीच वे कई बार मिले. हर बार वही बातें दोहराई गईं. दोनों में से कोई भी दूसरे को सहमत नहीं कर सका. अब एम्स का कोर्स पूरा होने को है और वे सब अपने-अपने अगले पड़ावों को निकलने वाले हैं. काल के बहाव में आज जान्हवी के वापस अपने क़स्बे जाने का अवसर है. जलेश उसे छोड़ने आया है रेल्वे स्टेशन. यहां उसने फिर अपनी रिक्वेस्ट दोहराई. और जान्हवी ने अपनी वही असहमति. ट्रेन चलने को है. जलेश को कुछ सूझ नहीं रहा.

उसका एक मन कह रहा है कि जान्हवी को ट्रेन से उतार ले. और एक मन कह रहा है कि वह ख़ुद उसके सफ़र में उसके साथ हो ले. ट्रेन रेंगने लगी है. जलेश की आंखों में याचना के भाव हैं. वह बेमन से उतरने लगा जान्हवी ने उसका हाथ अपने हाथ में लिया और कहा


‘‘सफ़र में धूप तो होगी

जो चल सको तो चलो...’’

जलेश और जान्हवी ने पीछे छूटते प्लैटफ़ॉर्म को देखा. प्लैटफ़ॉर्म छोड़ते ही पूरी ट्रेन धूप से भर उठी.

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