कहानी: लेट हो गई!

आज टीचर्स डे था अतः मेधा बहुत उत्साह से स्कूल जाने के लिए तैयार हो रही थी. वे सभी हैप्पी टीचर्स डे वाली शुभकामनाएं, फूल, गुलस्ते, कार्ड उसके ज़ेहन में लहरा रहे थे, जो वह अपने टीचर्स को इस विशेष दिन पर दिया करती थी. आज उसका बतौर टीचर पहला टीचर्स डे था और ऐसे ही कुछ विशेष ट्रीटमेंट अपने लिए चाह रही थी.
दो अवसरों को मेधा बेहद ख़ास मानती थी. एक तो वुमन्स डे, क्योंकि वह उस दिन ख़ुद को आज की जागरूक युवा आत्मनिर्भर नारी का प्रतिनिधि मानती थी और दूसरा टीचर्स डे, क्योंकि उसकी नज़र में टीचिंग प्रोफ़ेशन दुनिया का सबसे सम्माननीय प्रोफ़ेशन है. ख़ैर, अब उसकी बात करें तो यह करियर उसने मजबूरी से नहीं बल्कि स्वेच्छा से अपनाया था. कम्प्यूटर साइंस में पोस्ट ग्रैजुएशन करने के बाद एक आईटी कंपनी का ऑफ़र हाथ में होने के बावजूद उसने टीचर बनना पसंद किया.

मेधा जब छोटी थी तो अपनी गुड़ियों, खिलौनों को ही काल्पनिक विद्यार्थी बनाकर अकेले बैठी टीचर-टीचर खेला करती. जब बड़ी हुई तो मोहल्ले के बच्चों को घेरकर कुछ न कुछ सिखाती रहती. पढ़ाना उसका जुनून था और ख़ुद को एक आदर्श टीचर के रूप में देखना उसकी महत्वाकांक्षा... कलफ़ लगी कॉटन साड़ी पहने एक आत्मविश्वासी गर्वान्वित शिक्षिका जिसके चेहरे से अनुशासन और सौम्यता टपक रही हो, जो अपने स्कूल में जहां-जहां से गुज़रती है,‘गुड मॉर्निंग टीचर’ की मधुर गुंजार गूंज उठती हो. जिसका कहा हरेक वाक्य छात्रों के लिए ब्रह्मवाक्य बन जाता हो... जिसके लिए उसके छात्रों की आंखों में अपने माता-पिता से भी ज़्यादा सम्मान हो... उसकी अपनी फ़ेवरेट टीचर का कुछ ऐसा भी प्रभावशाली ऑरा हुआ करता था, जिसे पाने के लिए वह भी उत्कंठित थी.

पढ़ाई पूरी होने के बाद मेधा ने बाक़ी करियर विकल्पों को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर टीचिंग ट्रेनिंग की और अपने गृहनगर ऋषिकेश में पढ़ाने लगी. जॉइनिंग के दो माह बाद ही उसकी पुणे के एक आईटी इंजीनियर से शादी हो गई तो वह ऋषिकेश से पुणे आ गई. दो-तीन महीने घूमने-फिरने और घर सेटेल करने के बाद उसने पुणे में टीचिंग जॉब देखनी शुरू कर दी. जल्दी ही दो जगह से ऑफ़र आए. मगर दोनों बिल्कुल विपरीत अवधारणा के स्कूल थे.

पहले स्कूल का नाम उसे थोड़ा अजीब लगा ‘आशासेतु’ और जब वहां इंटरव्यू देने गई तो स्तब्ध रह गई. उसे लगा जैसे किसी स्कूल में नहीं बल्कि नैसर्गिक केंद्र में आ गई हो. भरपूर हरियाली, पक्षियों का मधुर गान, कच्चे रास्ते, झोपड़ीनुमा कक्षाएं, जो अलग-अलग बनी थीं. दौड़ लगाते खरगोश और गिलहरियां, कक्षाओं के बाहर बनी रंगोलियां... वहां बहुत-सी उपजाऊ जगह थी, जहां पर बागवानी हो रही थी. बच्चे ऐसे ख़ुशहाल और बिंदास घूम रहे थे, जैसे वे स्कूल में न होकर कहीं घूमने-फिरने आए हुए हों. वहां की प्रिंसिपल, सुहासिनी मैडम भी कुछ अलग थीं, न अपने ओहदे की अकड़, न बनावटी सोफ़ेस्टिकेशन... उन्होंने मेधा का कोई फ़ॉर्मल इंटरव्यू नहीं लिया. बस स्कूल घुमाया और स्कूल के आदर्शों से अवगत कराया. 

उन्होंने बताया कि ‘‘हमारे स्कूल का वातावरण बाक़ी स्कूलों से अलग है. यहां सबसे पहले बच्चों को अनुशासन में रहना, एक-दूसरे का और प्रकृति का सम्मान करना, अपनी ज़िम्मेदारियां समझना और श्रमदान करना सिखाया जाता है. आपको जानकर हैरानी होगी कि यहां स्कूल में आकर बच्चे रोज़ाना पहले एक घंटा श्रमदान करते हैं. वे अपनी कक्षाओं को, कैम्पस को साफ़ करते हैं, पेड़ों को पानी देते हैं, बागवानी करते हैं, रंगोली बनाते हैं, थोड़ा खेलते हैं और फिर उनकी पढ़ाई शुरू होती है. यहां सब खाना स्कूल की कैंटीन से ही खाते हैं. खाना परोसना, अपने झूठे बर्तन साफ़ करना... ये ज़िम्मेदारियां भी बच्चों को ही दी गई हैं.’’   

मेधा ने ऐसे सुरम्य वातावरण का स्कूल पहली बार देखा था, वह अभिभूत हो उठी,“मगर मैम आजकल के पैरेंट्स..”

“यही ना आजकल पैरेंट्स बच्चों से ऐसा काम कराना कहां पसंद करते हैं? इसे तो वे समय की बर्बादी मानते हैं. हां, यह बात और है कि उन्हें फ़ालतू की चार-चार ऐक्टिविटी क्लॉसेज़ में दौड़ाए रखना समय का सदुपयोग समझते हैं,” सुहासिनी मैम हंसते हुए बोलीं. फिर थोड़ा गंभीर होते हुए उन्होंने कहा,“बहुत कम पैरेंट्स हमारे इन सर्वांगीण विकास के आदर्शों से सहमत हैं इसीलिए हमारे यहां छात्रों की संख्या कम है. मगर हम ज़्यादा फ़ीस वसूलने या छात्रों की संख्या बढ़ाने के लिए अपने मूल आदर्शों से समझौता नहीं करते... यह स्कूल मेरा और मेरे स्वर्गीय पति का सपना था... जो धीरे-धीरे ही सही मगर साकार हो रहा है. हमारे यहां आपको बाक़ी स्कूलों जैसी सैलरी नहीं मिल सकती, मगर मैं यह दावे से कह सकती हूं कि वो सम्मान, वो कार्यसंतुष्टि आपको ज़रूर मिलेगी, जिसके लिए शिक्षा को बिज़नेस बना चुके स्कूलों के टीचर तरसते हैं... यहां से जब आप वापस घर जाएंगी तो टीचर होने के सुख और संतुष्टि के साथ, कोई तनाव लेकर नहीं...” मेधा और प्रिंसिपल मैम का सुखद वार्तालाप एक पेड़ की छांव में खड़े-खड़े समाप्त हो गया.

मेधा आशासेतु से बड़ा ही मधुर अनुभव लेकर घर लौटी और ऐसे अद्भुत स्कूल को जॉइन करने का मन बना लिया, मगर फिर उसके पति ने कहा,‘‘कुछ भी निर्णय लेने से पहले दूसरा स्कूल भी देख लो.’’ सो अगले दिन वह दूसरे स्कूल ‘विक्ट्री इंटरनैशनल स्कूल’ पहुंची. यह एक इंटरनैशनल बोर्ड का बड़ा ही भव्य और नामचीन स्कूल था. फ़ुल एसी, स्टाइलिश कैम्पस, स्वीमिंग पूल, बड़े-बड़े स्पोर्ट्स ग्राउंड, किसी हाई-फ़ाई रेस्तरां सरीखा कैंटीन, सोफ़ेस्टिकेटेड स्टूडेंट्स... और उतने ही सोफ़ेस्टिकेटेड सधे हुए टीचर्स.

मेधा का कॉन्फ़रेंस हॉल में इंटरव्यू हुआ और फ़ाइनली उसका सलेक्शन हो गया. यहां की सैलेरी आशासेतु से दोगुनी थी, तो मेधा मना नहीं कर पाई. दो दिन बाद उसकी जॉइनिंग तय हुई. टीचर कार्डिनेटर मेधा को स्कूल के तौर-तरीक़े समझाने लगी. वह मेधा को स्कूल घुमाते हुए बोली,“देखिए, मेधा मैम, नाउ यू आर ऑन बोर्ड, सो आपको पहले स्कूल के तौर-तरीक़े समझने होंगे. हमारे यहां की पॉलिसी है, कीप पैरेंट्स हैप्पी... इफ़ दे आर हैप्पी, वी आर हैप्पी... हमारे यहां कभी स्टूडेंट्स की शिकायत पैरेंट्स से नहीं की जाती. अगर कोई मैटर है या फ़ेलियर है तो उसकी ज़िम्मेदारी टीचर लेते हैं, पैरेंट्स नहीं... आप स्टूडेंट्स से लाउडली बात नहीं कर सकते, उन्हें किसी तरह का मेंटल स्ट्रेस नहीं होना चाहिए. यूं नो दिस इज़ अ वेरी रेप्यूटेड बिग इंटरनैशनल स्कूल... यहां सब हाई सोसाइटी के पैरेंट्स हैं, जो पैरेंट मीट पर अपने बच्चों की कमियां नहीं, बल्कि अचीवमेंट सुनने आते हैं. एज़ अ टीचर आपको उनके बच्चों के फ़ेलियर को भी अचीवमेंट बनाकर पेश करना है. स्टूडेंट या पैरेंट्स कैसे भी बोलें, मगर आपको विनम्रता से ही बात करनी है...”

यह सब सुनकर मेधा अवाक रह गई,“मगर मैम... यह तो कस्टमर केयर के तरीक़े हैं, टीचिंग के नहीं...’’

कोऑर्डिनेटर मुस्कुराते हुए बोली,“अरे वाह, अच्छा है आप जल्दी समझ गईं. इसे ऐसे ही देखना है. पैरेंट्स हमारे कस्टमर हैं और हमें उन्हें हर हाल में ख़ुश रखना है... इस स्कूल में एग्ज़ाम नहीं होते, सिर्फ़ सालभर की परफ़ॉर्मेंस के बेस पर ग्रेड देकर प्रमोट कर दिया जाता है. सो आपको बच्चों की ऐक्चुअल प्रोग्रेस के बारे में ज़्यादा सोचने की ज़रूरत नहीं है... हर साल बढ़नेवाली 10-15 परसेंट फ़ीस पर पैरेंट्स को कोई ऑब्जेक्शन नहीं होता, लेकिन यदि उनके लाड़लों को ज़रा-सी असुविधा हो गई तो अगले ही दिन लड़ने चले आते हैं... एज़ अ टीचर यू हैव टू बी वेरी केयरफ़ुल...”

छोटे शहर की मेधा को इस इंटरनैशनल स्कूल का रवैया बड़ा विचित्र लगा. जॉइनिंग के पहले महीने में ही उसे एहसास हो चला कि यहां के बच्चों को अनुशासन में रखना टेढ़ी खीर है. कल ही आईटी लैब में उसकी आठवीं कक्षा के दो छात्रों से झड़प भी हो गई थी. वे माउस का वायर निकाल उसे ऐसे घुमा रहे थे, जैसे खेतों में कोई पक्षियों को उड़ाने के लिए पत्थर बांध डोरी घुमाता है. उसने दोनों को डांटकर लैब से बाहर कर दिया था. एक और स्टूडेंट नेट पर कुछ अडल्ट कंटेंट सर्च करने की कोशिश कर रहा था. उसको भी डांटा और पैरेंट से शिकायत करने की धमकी दी. मगर किसी पर कोई असर न था... न आंखों में ग़लती का शर्म, न टीचर के प्रति रिस्पेक्ट... सोचते-सोचते बाल संवारती मेधा के हाथ रुक गए... मन उदास हो गया... क्या ऐसे असंवेदनशील स्टूडेंट्स से वह टीचर्स डे की शुभकामनाओं की उम्मीद कर रही है?

ख़ैर, वह तैयार होकर समय से स्कूल पहुंची. स्कूल पहुंचते ही उसे प्रिंसिपल सर के ऑफ़िस से कॉल आ गई. जिन बच्चों को कल डांटा था उनके पैरेंट्स आए हुए थे. वो भी बड़े एग्रेसिव मूड में.

“देखिए सर, हमने अपने बच्चों के आपके स्कूल में सिर्फ़ इसलिए डाला है ताकि उन पर कोई स्ट्रेस न आए. पढ़ाई के नाम पर उनका ह्यूमीलिएशन न हो... मगर कल पूरी क्लॉस के सामने उन्हें सज़ा दी गई, डांटा गया... उनकी सेल्फ़ एस्टीम कितनी हर्ट हुई... दिस इज़ नॉट एक्सेप्टेबल...” त्यौरियां चढ़ाकर पहले अभिभावक ने कहा.

प्रिंसिपल सर ने बड़ी मुश्क़िल से मेधा को नया टीचर बताते हुए उसका बचाव किया. मेधा को न चाहते हुए भी सॉरी बोलना पड़ा और उसे आगे से ऐसा न करने की हिदायत देकर बाहर भेज दिया गया. टीचर्स डे के उत्साह में भीगी आई मेधा के अरमानों पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया. वह पानी उसकी आंखों से दर्द बनकर छलक आया. उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि उससे ग़लती क्या हुई है? ग़लती पर बच्चों को डांटना या टोकना कहां से ग़लत हो गया?
उसका क्लास जाने का मन न हुआ और बुझे दिल से स्टॉफ़ रूम में आकर बैठ गई. सभी समझ गए थे कि प्रिंसिपल सर से मेधा की क्लास लगी है. उसकी सहशिक्षिका नीरू ने उसे सांत्वना देने की कोशिश की,“छोड़ यार, ज़्यादा दिल पर मत ले... यहां अगर टिकना है तो अपने स्वाभिमान से समझौता करके चलना पड़ेगा. जानती है पिछले महीने मैथ्स की सीनियर टीचर रूबी दी ने जॉब छोड़ दी, क्योंकि कुछ बच्चे उसके ओवर वेट होने को लेकर बुलिंग करते थे. और लाख शिकायत करने के बाद भी उन बच्चों के ख़िलाफ़ कोई ऐक्शन नहीं हुआ...’’  

“यार, हमारे ज़माने में तो ऐसा नहीं होता था, बड़े-बड़े कारण तो छोड़ो, छोटी-छोटी बातों पर हमारी धुलाई हो जाती थी. मां-बाप से भी और टीचर से भी. मगर कभी उन्हें पलटकर कुछ नहीं बोला,’’ आहत मेधा अनमनी-सी बोली.

“ये हमारे जैसे बच्चों का नहीं बल्कि ओवर पैंपर्ड, ओवर प्रोटेक्टेड बच्चों का ज़माना है. इस जैसे इंटरनैशनल स्कूलों में टीचर्स बच्चों को हाथ लगाना तो दूर तेज़ आवाज़ में बात भी नहीं कर सकते. यदि वे छोटे हुए तो धांय-धांय करके रोने लगेंगे और यदि बड़े हुए तो उल्टा तुम्हें ही धमकी दे डालेंगे और अगले दिन उनके पैरेंट आकर स्कूल सिर पर उठा लेंगे. वे अपने लाड़ले के आंसुओं का बदला लेने की कसम खाएंगे, कोर्ट केस की धमकी देंगे. हो सकता है तुम्हारी नौकरी ही छीन लें... तू जानती है न ड्राइवर रमेश भइया का केस? वो मेरे रूट पर ही थे... पता है ना उन्हें पिछले महीने नौकरी से निकाल दिया था!’’

“हां..., सुना तो था.”

“पता है क्या हुआ था, उनकी बस में दो बड़े स्टूडेंट अपने जूनियर स्टूडेंट की बुलिंग कर रहे थे. उस पर अपनी वॉटर बोतल से पानी डाल रहे थे. रमेश भइया ने बस रोककर दोनों को थोड़ी देर बस से नीचे उतारकर खड़ा कर दिया था और उनसे उस बच्चे को सॉरी बुलवाकर ही वापस बस में बैठाया था.”

“तो फिर?’’

“फिर क्या... अगले दिन स्कूल में जो सीन क्रिएट हुआ था. उनके मां-बाप रमेश भइया की जान लेने पर उतारू हो गए थे. प्रिंसिपल सर ने भी उनका पक्ष लेते हुए रमेश भइया को तुरंत नौकरी से निकाल दिया. रमेश भइया जाते-जाते उन पैरेंट्स के मुंह पर बोलकर गए कि अगर मेरी ऐसी औलाद होती तो बजाय उसकी साइड लेने के उसे सीधा कर देता... देखना एक दिन तुम्हारे बच्चे ही तुमसे पानी भरवाएंगे.’’

“ओह, बड़ा बुरा हुआ... बेचारे की नौकरी गई.”

“नहीं गई.’’ नीरू मुस्कुरा उठी.

“क्या मतलब?”  

“जानती हो प्रिंसिपल सर ने रमेश भइया को अपने घर पर पर्सनल ड्राइवर रख लिया. वही उनके बच्चों को स्कूल और एक्स्ट्रा क्लासेज़ लाते-ले जाते हैं. इतना ही नहीं प्रिंसिपल सर ने उन्हें हिदायत भी दी है कि अगर उनके बच्चे ऐसी कुछ बद्तमीज़ी करें तो वह उनके साथ इतनी ही सख़्ती से पेश आने को स्वतंत्र हैं.”

“क्या कह रही हो...,’’ मेधा भी नीरू की हंसी में शामिल हो गई.

“जो थोड़ा भी सेंसिबल फ़ादर होगा, वह अपने बच्चों को अनुशासित और सभ्य ही देखना पसंद करेगा. सही समय पर सही डांट और सख़्ती, टार्चर नहीं ज़रूरत होती है. बस कुछ लोग हैं जो पश्चिमी फ़िलॉसफ़ी को बिना समझे फ़ॉलो करते हैं... बच्चों को ग़लतियों पर डांटने-समझाने के बजाय हर वक़्त पुचकारते ही रहते हैं. उनकी सारी बातों पर आंख मूंदकर विश्वास कर लेते हैं, उन्हें इतना इमोशनली वीक और ओवर सेंसिटिव बना देते हैं कि ऐसे बच्चे जब उनकी छत्रछाया से निकल बाहर समाज में आते हैं तो दुनिया की कठोरताओं को न झेल पाने के कारण कभी डिप्रेशन में चले जाते हैं तो कभी उग्र हो जाते हैं...”

“सही कह रही हो नीरू, पता है हमारे सामनेवाली सोसायटी में एक 15 साल के लड़के ने सिर्फ़ इसलिए सुसाइड कर लिया क्योंकि उसके पापा ने एग्ज़ाम के दिनों में उसका मोबाइल छीन लिया था... इस बात से उसे इतना ग़ुस्सा आया कि उसी रात बिल्डिंग की छत से कूदकर सुसाइड कर लिया. उसके पापा आज तक पछताते हैं कि उन्होंने मोबाइल क्यों लिया? काश वे समझ पाते कि सुसाइड का कारण मोबाइल लेना नहीं बल्कि वह पूरी परवरिश थी जो उन्होंने उसे शुरू से दी. जिस बच्चे ने मम्मी-पापा से हमेशा लाड़-दुलार ही पाया हो, उनसे मनमानी ही करवाई हो उसके लिए तो यह छोटा-सा झटका भी बहुत बड़ी बात थी.”

उनकी चलती बातों के बीच बेल बजी, नीरू और मेधा अपनी-अपनी कक्षाओं की ओर चल पड़ीं. वही क्लास और वही बिगड़ैल छात्र, जो मेधा की तरफ विजयी मुस्कुराहट फेंक रहे थे. मेधा को वह क्षण बेहद अपमानित करनेवाला लगा. उसे लगा जैसे उसका टीचर होने का गर्व उन छात्रों के पैरों तले पड़ा सिसक रहा है. वह एक टीचर नहीं बल्कि सामान्य कर्मचारी की तरह काम कर सैलरी पानेवाली मशीन भर बनकर रह गई है. उसका हृदय चीत्कार उठा. ऐसी लाचारी भरी भावनाएं महसूस करने के लिए तो वह इस नोबल प्रोफ़ेशन में नहीं आई थी. नहीं, यह उसकी मंजिल नहीं है... जैसे-तैसे उसने क्लास पूरी की और एक निर्णय के साथ प्रिंसिपल के ऑफ़िस की ओर बढ़ चली. उन्हें अपना त्यागपत्र थमाया, स्कूल से बाहर आई, ऑटो पकड़ा और सीधे आशासेतु चली गई.

सुहासिनी मैम थोड़ा व्यस्त थी, अतः वह बाहर प्रांगण में उनका इंतज़ार करने लगी. पीछे क्यारियों में लगे गुलाब के पौधों की भीनी-भीनी महक आ रही थी, जो उसके थके, निराश मन को थोड़ा सुकून दे रहे थे. तभी उसके आसपास से बच्चों का एक समूह गुज़रा और एक मधुर गुंजार गूंजी,“गुड आफ़्टरनून मैम... हैप्पी टीचर्स डे...’’ कहकर कुछ बच्चों ने उसे विश किया, तो अंदर से भरी बैठी हुई मेधा की रुलाई फूट पड़ी. वो शुभकामनाएं, जिन्हें सुनने के लिए उसके सुबह से कान तरस रहे थे.. जिन्हें सुनने के लिए वह उत्साहित होकर घर से निकली थी... जो उसे अपने स्कूल में नहीं मिली थी, आख़िरकार उस तक पहुंच ही गई. मगर कहां से... इस पराए स्कूल में पराए विद्यार्थियों से... वह अभिभूत थी तभी वहां प्रिंसिपल सुहासिनी मैम आ गईं. ‘‘कहो मेधा, क्या हाल है? बड़ा समय लिया सोचने में?”

“हां मैम, थोड़ा लेट हो गई. यदि अभी भी आपके स्कूल में वैकेंसी है तो मैं आपका स्कूल जॉइन करना चाहूंगी... मैं कम्प्यूटर के साथ-साथ मैथ्स और साइंस भी पढ़ा सकती हूं. बिलीव मी, मेरे तीनों ही सब्जेक्ट बहुत स्ट्रॉन्ग हैं. आप चाहे तो मेरा टेस्ट ले सकती हैं,’’ मेधा लगभग याचना पर उतर आई.

“अरे... अरे मेधा मैम... मैं जानती हूं आप बहुत अच्छी टीचर साबित होगी. मैंने आपके सर्टिफ़िकेट्स देखे हैं. मुझे आपका टेस्ट लेने की ज़रूरत नहीं है. आपके व्यक्तित्व में ही एक टीचर छिपा है और हमारे स्कूल के विद्यार्थियों ने तो पहले ही आपको अपना टीचर मान विश भी कर दिया है...,’’ सुहासिनी मैम हंसते हुए बोलीं.

उस हंसी से मेधा की गीली आंखें भी हंस पड़ीं, जो गवाह थीं इस बात की कि उसका खोया सम्मान और आत्मविश्वास अभी-अभी वापस लौट आया है.

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