कहानी: इंतज़ार के पार

बादल बरसते-बरसते थक चुके थे. थककर ऊंघने लगे थे. हालांकि उन्होंने बरसना बंद नहीं किया था लेकिन बरसते-बरसते जो थकान आ गई थी उससे उनकी गति थोड़ी-धीमी हो गई थी. थके हुए बादलों को देखना भला लग रहा था. घर में दूध था, आटा था, नमक था इसलिए बरसना बहुत अखर नहीं रहा था. चाय बनने का इंतज़ाम हो, नमक और आटा हो तो घर से बाहर जाए बिना काफ़ी दिन मज़े में निकाले जा सकते हैं. दूर्वा ने मन ही मन सोचा और मुस्कुराई. वो इन बादलों के रुकने की प्रतीक्षा में नहीं है, इनके जी भरके बरस लेने के इंतज़ार में है. बरसने की इच्छा को बचाकर रखना बहुत मुश्क़िल होता है. बरसने को न मिले जिन बारिशों को वो फिर बाढ़ बन सकती हैं, तबाही ला सकती हैं. बेहतर है कि उन्हें वक़्त पर बरस लेने दिया जाए.

हाथ बढ़ाया तो बारिश उंगलियों को छूते हुए कमरे तक चली आई. कुहनी से टपकती हुई बूंदें फ़र्श भिगोने लगीं. दूर्वा ने महसूस किया अब उसके जीवन में किसी भी तरह की कोई प्रतीक्षा नहीं है न भीतर, न बाहर.


यूं प्रतीक्षाएं हमेशा रही हैं उसके जीवन में. ठीक उसी तरह जैसे वो हर किसी के जीवन में रहती हैं. कुछ प्रतीक्षाएं पूरी हो जाती हैं, कुछ बूढ़ी हो जाती हैं, उनके चेहरे पर हाथों पर झुर्रियां पड़ जाती हैं, उनकी आवाज़ कांपने लगती है. कुछ प्रतीक्षाएं असमय मौत की शिकार हो जाती हैं, जिनकी विदाई कुछ दिन के आंसुओं और उदासी से हो जाती है. कुछ प्रतीक्षाएं अजीब होती हैं. वो बार-बार भ्रम देती हैं कि वो अब नहीं हैं, लेकिन वो रहती हैं शाश्वत. और कुछ की आपस में अदला-बदली होती रहती है. जैसे किसी के आने की प्रतीक्षा उसे भूल जाने की प्रतीक्षा में बदल जाती है. जैसे बारिश की प्रतीक्षा धूप की प्रतीक्षा से अदला-बदली हो जाती है.

बारिश में भीगने की इच्छा को सूखे रेनकोट की तरह तह करके मन के भीतर रखते हुए दूर्वा चाय पीने की इच्छा के साथ चल पड़ी. चाय के खौलते पानी में उसने चाय की पत्ती के दरदरे दानों के साथ अतीत के कुछ लम्हे भी उबलते देखे. सनी के बिना जी नहीं सकेगी लगता था, उसे लगता था कि एक रोज़ सनी समझेगा इस बात को. वो समझेगा एक दिन, इस प्रतीक्षा में कितने बरस बीत गए. एक दिन यह प्रतीक्षा इस प्रतीक्षा से बदल गई कि असल में सनी को नहीं उसे ख़ुद को समझना है. और एक दिन दूर्वा सनी की प्रतीक्षा से बाहर निकल आई.


चाय के बनते-बनते बारिश थम-सी गई और दूर्वा चाय लेकर बाहर बालकनी में आ गई. पत्तियों पर अटकी बूंदें जैसे मन के किसी कोने पर अटका कोई इंतज़ार हो, ख़ूबसूरत, दिलकश और किसी भी वक़्त टप्प से टपक जाने को व्याकुल.

13 बरस हो गए सनी से अलग हुए. हालांकि 13 सेकेंड भी उसकी याद मन से दूर गई हो ऐसा उसे याद नहीं. आज सनी शहर में है. और वो उससे मिलने आना चाहता है. दूर्वा समझ नहीं पा रही कि उसे कैसा महसूस हो रहा है. वो चाय की एक-एक बूंद को भीतर जाते महसूस कर पा रही है, उसके स्वाद को ज़ुबान पर महसूस कर पा रही है, लेकिन सनी के 13 साल बाद मिलने आने को महसूस नहीं कर पा रही.

कुछ ही देर को रुकी थी बारिश फिर वापस आ गई. दूर्वा कमरे में लौटी तो मोबाइल स्क्रीन पर मैसेज था सनी का. घर का पता पूछ रहा था वो. दूर्वा देर तक मोबाइल के उस मैसेज को देखती रही. जवाब दे, न दे. पता भेजे, न भेजे तय नहीं कर पा रही थी. फिर उसने पता भेज दिया और चार तकियों के गड्डे पर सर रखकर लेट गई.


जब सनी के आने के दिन होते थे तो कैसे झूम-झूम कर घर सजाती थी वो. उसकी पसंद की खाने की चीज़ें, बेड कवर, किताबें. गिटार घर में सिर्फ़ इसलिए है इतने सालों से कि किसी रोज़ सनी ने कहा था कि उसकी इच्छा है कि उसका एक कमरा हो, जिसमें गिटार हो. वो यह बात कहकर भूल गया, लेकिन दूर्वा उस बात को उठा लाई. घर में गिटार रहता है तो लगता है सनी भी रहता है थोड़ा-सा.गिटार अब भी रखा है ड्रॉइंग रूम में हालांकि अब वह सिर्फ़ एक सामान की तरह ही है बस. कई बार दिल चाहा कि हटा दें, आख़िर उसे कोई बजाने वाला तो हो, म्यूज़िक स्कूल है पास में वहीं रखवा दे, लेकिन जाने क्यों दूर्वा गिटार हटा नहीं पाई.

आज जब सनी आ रहा है तो घर एकदम बिखरा पड़ा है, बारिश के चलते न खाना बनाने सावित्री आ रही है, न मोहन भैया जो सफ़ाई कर जाते थे और न ही घर में कुछ सामान है. दूर्वा को थोड़ी-सी चिंता हुई, वो उठी सफ़ाई करने को फिर न जाने क्या सोचकर वापस लेट गई.

मौसम ख़ूब ठंडा हो रहा है, दूर्वा ने शॉल लपेटते हुए चाय का पानी चढ़ा दिया. शायद सनी का इंतज़ार ही था यह पानी चढ़ाना. लेकिन यह इंतज़ार तो बीत गया था, फिर भी बचा रह गया क्या?


फ़ोन घरघराया तो दूर्वा चौंकी. सनी ही था. ‘‘हैलो! ये माधव जनरल स्टोर से किधर को मुड़ना है, राइट या लेफ़्ट?’’

‘‘लेफ़्ट, वहां से सीधा लेना फिर एक लेफ़्ट उसके बाद एक राइट. बस.’’

‘‘ओके,’’ कहकर सनी ने तुरंत फ़ोन काट दिया.


‘कितना लेफ़्ट राइट करवा रही हो. एक ठीक-सी जगह घर नहीं लिया जाता तुमसे? ऊपर से इतनी बारिश. दिमाग़ ख़राब करके रखा है!’ दूर्वा के अतीत के पन्ने खुलने लगे थे, जहां से सनी कुछ इस तरह बड़बड़ा रहा था.
बारिश और तेज़ होती जा रही थी. कुछ ही देर में सनी घर में था.

‘‘काफ़ी बारिश हो रही है न?’’ सनी ने जूते बाहर उतारते हुए कहा.

‘‘हां,’’ कहकर दूर्वा किचन में चली गई पहले से चढ़ाए पानी में चीनी अदरक डालने.

लौटी तो सनी अख़बार पलट रहा था.

‘‘तुम क्या सारी ज़िंदगी अख़बार पढ़ते हुए बिता सकते हो? इतने सालों बाद आए हो और अब भी अख़बार?’’ पहले का वक़्त होता तो मुलाक़ात की शुरुआत इसी के साथ झगड़े से होती. लेकिन दूर्वा ने कुछ नहीं कहा.


‘‘एक मीटिंग थी यहां? उसी में आया था,’’ सनी ने कहा.

दूर्वा चुप रही.

कमरे में देर तक चुप्पी छाई रही. यह चुप्पी इतनी बड़ी होती जा रही थी कि दूर्वा को घबराहट होने लगी. वो चाय लेने को उठी तो सनी भी उठ गया.

‘‘तुम बैठो, मैं ले आता हूं चाय’’ यह अतीत के पन्नों में गुम हो चुका सनी ही था.

‘‘कप कहां हैं, छन्नी कहां है?’’ सनी ने किचन से ही ऊंची आवाज़ में पूछा. दूर्वा का जी चाहा ज़ोर से चिल्लाकर बोले 13 साल बाद लौटे हो तो बैठो न मेहमान की तरह, क्यों गए किचन में. उसके भीतर रुदन उखड़ने लगा था. वो गई और कप और छन्नी निकालकर रख आई.


‘‘बारिश की वजह से फ़्लाइट काफ़ी लेट हैं,’’ सनी शायद चुप्पी वापस न आ जाए इसलिए बोल रहा था.

‘‘मनु, ये वाला घर कब लिया तुमने?’’

चार साल हुए. दूर्वा ने जवाब दिया.

मनु, यह नाम कितने अरसे बाद उसने सुना अपने लिए. मनु नाम सनी ने ही दिया उसे. दूर्वा नाम उसे पसंद नहीं था. कहता था,‘यह कैसा नाम है, तुम घास हो क्या?’


दूर्वा कहती,‘हां, जंगली घास, बिना परवरिश के बढ़ती जाती है, जितना कुचलो उतनी और बढ़ती है.’

‘क्यों कुचले कोई, उन्हें. यह सब बकवास है. मुझे यह नाम पसंद नहीं. तुम मनु हो मेरी, मेरे मन की साथी, मनु.’
मनु नाम से उसे कोई नहीं बुलाता.

बाहर संवाद कम थे, भीतर संवादों का कोहराम मचा था.

‘‘मीटिंग अभी है या ख़त्म हो गई?’’ दूर्वा ने औपचारिकता वश पूछ लिया.

‘‘ख़त्म हो गई,’’ सनी ने जवाब दिया.

‘‘तुम कैसी हो?’’ अभी शायद पूछेगा सनी दूर्वा को बार-बार लग रहा था. लेकिन सनी ने नहीं पूछा.

‘‘चाय मीठी पीने लगी हो तुम?’’

नहीं, तुम्हारी वजह से चीनी ज़्यादा डाली थी, उसने कहना चाहा लेकिन कहा,‘‘हां.’’

‘‘घर में कुछ खाने को नहीं है, बारिश के कारण निकलना नहीं हो पाता न. ड्राइवर भी छुट्टी पर है,’’ दूर्वा ने कहा.


‘‘अरे तो बता देती न, कुछ लेते आता.’’

‘‘मेरे भर का तो है,’’ दूर्वा ने अनमने मन से कहा.

‘‘अरे तो मैं अपने लिए ही ले आता,’’ सनी ने माहौल को हल्का करते हुए कहा.

‘‘मनु, तुमने अभी तक गाड़ी चलानी नहीं सीखी?’’

कितना कुछ तो सीखा है. गाड़ी चलानी ही ज़रूरी है क्या? दूर्वा ने कहना चाहा लेकिन कहा,‘‘नहीं. मोहन भैया की वजह से कोई दिक़्क़त नहीं होती. वो आ जाते हैं जब ज़रूरत होती है.’’


‘‘कब तक किसी पर डिपेंड होती रहोगी?’’ सनी ने कहा.

‘‘पता नहीं!’’

‘‘तुम कुछ खाओगे?’’ दूर्वा ने बात बदलते हुए पूछा.

‘‘हां, लेकिन तुम्हारे घर में तो कुछ है नहीं, कुछ ऑर्डर करें क्या?’’ सनी ने कहा.

‘‘इस बारिश में ऑर्डर भी क्या होगा, कौन आएगा. पिज़्ज़ा मुझे पसंद नहीं तुम तो जानते ही हो.’’

‘‘नहीं मैं कुछ नहीं जानता,’’ सनी ने दृढ़ता से कहा.

‘‘घर में आटा है, आलू, प्याज़ है. चावल और नमक है,’’ दूर्वा ने रसोई की स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा.

‘‘अरे, इतने में तो पार्टी हो जाएगी. प्याज़ के परांठे बनाएं?’’ सनी ने कहा.

दूर्वा बिना कुछ कहे किचन में गई. पीछे से सनी भी आ गया और प्याज़ काटने के लिए चाकू तलाशने लगा. दूर्वा आटा माड़ने चली तो सनी ने उसे रोक दिया, मैं करूंगा ये. मुझे पता है तुम्हे आटा माड़ना पसंद नहीं. दूर्वा चुपचाप बाहर आ गई. और सनी प्याज़ काटकर आटा माड़ने लगा.


अतीत के पन्नों से फिर कोई स्मृति निकलकर बाहर आ गई छिटककर. जब वो किचन में होती थी और वो यूं आ जाया करता था किचन में कितना मुश्क़िल हो जाता था खाना बन पाना. पीछे खड़े होकर वो उसे बीच-बीच में चूमता रहता था और मसाले अक्सर जल जाया करते थे.

तेज़ हवा का झोंका भीतर आया तो सिहरन से वर्तमान में लौटी दूर्वा. सनी किचन में कुछ गुनगुना रहा था. उसे देखकर लग ही नहीं रहा था कि वो तेरह बरसों का फ़ासला पार करके आया है. अतीत की कोई सलवट नहीं है उसकी आमद में. जबकि दूर्वा बार-बार अतीत में हिचकोले खाने लग रही है.

ये हमेशा से ख़ुद को छुपा ले जाने में माहिर रहा. इस तरह की सहजता से ये क्या बताना चाहता है कि कुछ भी नहीं बदला है? सब पहले जैसा ही है? कि यह मुझे अब भी पहले जैसे ही प्यार करता है? लेकिन ऐसा तो इसने कभी कहा नहीं था. यह हमेशा कहा कि मैं इसका सर खाती रहती हूं. तो अब यह मेरा सर क्यों खा रहा है? क्यों आया है? दूर्वा के भीतर घमासान छिड़ा हुआ था.


‘‘मनु, परांठे के साथ फिर से चाय पिओगी न?’’ सनी ने किचन से ही उसे आवाज़ दी.

‘‘हां!’’ दूर्वा ने आवाज़ में आई नमी को भरसक रोकते हुए कहा, लेकिन वो भीगापन सनी तक पहुंच गया था. वो चाय और परांठे लेकर लौटा तो दूर्वा किचन में यह कहकर चली गई कि शायद अचार रखा होगा. और अचार मिल गया.

‘‘मुझे नहीं चाहिए होता है अचार, तुम्हें पता तो है. चाय परांठा बेस्ट कॉम्बिनेशन!’’

दूर्वा बाहर देखने लगी. चाय उतनी ही बुरी बनी थी जितनी पहले सनी बनाया करता था. हर सिप अझेल हो रही थी.


यह आदमी हमेशा सिर्फ़ अपने बारे में क्यों सोचता है. इसे पता है इतने दूध वाली और इतनी मीठी चाय मुझे पसंद नहीं फिर भी. दूर्वा को ग़ुस्सा आ रहा था.

सनी शायद काफ़ी भूखा था, चार परांठे चट कर गया.

‘‘होटल वाले खाने को नहीं देते क्या?’’ दूर्वा ने व्यंग्य में पूछा.

सनी ने दूर्वा की प्लेट से आधा परांठा लेते हुए कहा,‘‘देते हैं लेकिन प्याज़ के परांठे नहीं देते. और मैं बनाता भी तो अच्छे हूं.’’


फिर वही सेल्फ़ ऑब्सेस्ड. हुंह. दूर्वा का ग़ुस्सा लगातार बढ़ता जा रहा था.

‘‘तुमको क्या लगता है मनु, 2019 में किस करवट बैठेगा ऊंट?’’

‘‘अरे मुझे क्या पता? क्या तुम मुझसे अबकी बार किसकी सरकार का एग्ज़िट पोल लेने आए हो?’’ दूर्वा मन ही मन खिसिया रही थी. लेकिन मन को सामने क्यों लाना, सनी अब उसके लिए सिर्फ़ एक मेहमान ही तो है. सिर्फ़ औपचारिक संवाद ही होने चाहिए सो उसने अनमने ढंग से कह दिया,‘‘लगता तो है कि लौटेगी यही सरकार.’’

‘‘यह बहुत बुरा होगा मनु, बुरा तो हो ही रहा है वैसे लेकिन...’’

‘सरकार जो बुरा कर रही है उसकी चिंता है, ख़ुद जो मेरे साथ बुरा किया उसके बारे में कोई बात नहीं!’ मनु लगातार भीतर के संवाद में थी.


‘मैं तो औपचारिक संवाद में हूं लेकिन यह कहां से मेहमान लग रहा है. वैसे ही चपर-चपर करके खा रहा है, उंगलियां चाट रहा है, किचन में कब्ज़ा जमा लिया है. इसे देख बिल्कुल नहीं लग रहा कि 13 साल बाद लौटा है.’
हालांकि दूर्वा ने महसूस किया कि 13 बरसों का सफ़र सनी पर भी साफ़ दिख रहा है. बालों की सफ़ेदी काफ़ी बढ़ गई है. दाढ़ी भी खिचड़ी सफ़ेद हो चुकी है. चश्मा लग गया है. रंग वैसे ही मरीले से पहनता है. वही ग्रे कलर आज भी पहना हुआ है, जिसके कारण कितनी बार झगड़ चुकी है दूर्वा. ‘गिरा हुआ ग्रे क्यों पहनते हो तुम?’ लेकिन मजाल है कि सनी ने पहनना छोड़ा हो. देखो तो इतने बरस बाद मिलने आया है तो भी वही ग्रे. जैसे चिढ़ाने को करता हो ये सब. हालांकि वो कहा करता था,‘किसी के लिए ख़ुद को बदलना अस्थाई है, बदलाव को भीतर से स्वफूर्त आना चाहिए. मुझे जब तक ख़ुद ग्रे से कोई दिक़्क़त नहीं होगी मैं तो पहनूंगा. हां, हो सकता है तुम्हें यह बात न पसंद आए लेकिन यह तुम्हारी दिक़्क़त है.’

वक़्त बीत गया लेकिन चीज़ें बदली नहीं. सनी अब भी ग्रे में अटका है, हालांकि उस ग्रे की उदासी दूर्वा के जीवन में चली आई और शायद चमक सनी के जीवन में रह गई. ऐसा दूर्वा को लगता रहा.


‘‘यार, सबसे घटिया राजनीति होती है भावुकता की राजनीति. लोगों के इमोशन्स पर कब्ज़ा. पब्लिक साली अलग पागल है, माने रोने लगते हैं लोग पागलपन में. लेकिन पब्लिक का यह चरित्र भी तो इन्हीं सालों ने गढ़ा है. सोचो मत, जैसा हम कहते हैं वैसा मानो, जब हम कहें जिस बात पर कहें उस बात पर भावुक हो. जो हम दिखाएं वही देखो. तो भाई वही देख रही पब्लिक.’’ दूर्वा के मन के भीतर चलती उथल-पुथल को सुने बिना सनी बोले जा रहा था, हालांकि दूर्वा को लग रहा था कि वो अपने भीतर की आवाज़ों को अनसुना करने के लिए बाहर की आवाज़ों का सहारा हमेशा से लेता रहा है. जब पहली बार आया था मिलने, तब भी दुनियाभर की राजनीति का गणित समझाता रहा था. हालांकि न वो सुन रहा था, जो वो कह रहा था, न दूर्वा सुन रही थी. वो दोनों वही सुन रहे थे, जो कहा नहीं जा रहा था.

‘‘कितनी अजीब बात है न मनु, किसी की थाली में दो रोटी थी. उसकी भूख तीन रोटी की थी. सरकार ने वो दो रोटियां यह कहकर ले लीं कि वो चार करके वापस करेगी. जैसे सरकार न हो कोई चोट्टी फ़ाइनेंस कम्पनी हो. फिर सरकार ने कहा, तुम्हारी रोटी विपक्ष खा गया, पिछली सरकार खा गई, लेकिन फ़िक्र न करो यह सरकार ग़रीबों के हितों की सरकार है, उनकी रोटी उन्हें ज़रूर दी जाएगी. और सरकार ने लम्बे इंतज़ार के बाद एक रोटी ग़रीब की ओर उछाल दी. ग़रीब ने कहा, सरकार की जय, सरकार ने हमें रोटी दी. भूख से मरने से बचा लिया. वो भूल गए कि रोटी दी नहीं है, बल्कि छीनी है. जो तुम्हें मिली वो तुम्हारी ही रोटी थी. जितनी मिली वो अपर्याप्त है. कोई नहीं सुनेगा यह बात. जो यह बोलेगा वो देशद्रोही कहलाएगा और राजा वोट कमाएगा.’’


सनी, परांठे खाकर एकदम ऊर्जावान हो गया था और उसके भीतर का ऐक्टिविस्ट सक्रिय हो उठा था. ‘‘अपनी ज़मीन, अपनी ज़िंदगी, अपने खेतों की फसल के सही दामों के लिए तरस रहे हैं लोग और उन्हीं को वोट दे रहे हैं, अपने ही घर में असुरक्षित हैं, लेकिन जिससे सुरक्षा को ख़तरा है उसी से पनाह मांग रहे हैं. यह अफीम आज नहीं चटाई गई, बरसों से यही हो रहा है.’’

दूर्वा ने छेड़ दिया,‘‘भरे पेट की बात ख़ाली पेट की बात से अलग होती है न?’’

सनी, मुस्कुरा दिया,‘‘सही कह रही हो.’’

‘‘आख़िर हम भी तो तमाम सुख-सुविधाएं भोगते हुए सिर्फ़ बातें ही कर रहे हैं. क्या करें समझ नहीं आता,’’ सनी ने प्लेट उठाते हुए उससे कहा.


‘‘तुमने खाया नहीं परांठा?’’ सनी ने दूर्वा की प्लेट देखते हुए कहा.

‘‘मैं देखना चाह रही थी कि भूखे पेट इंसान को भरे पेट इंसान की बात कैसी लगती है,’’ दूर्वा ने कहा.

इस बात के जितने भी अर्थ थे सब सनी ने सुने और वो चुपचाप किचन में चला गया. प्लेट धोने की आवाज़ सुनकर दूर्वा किचन में गई,‘‘अब, प्लेट तो रहने ही दो धोने को.’’ उसने सनी का हाथ पकड़ लिया.

बरसों बाद का स्पर्श शायद दोनों को सहन नहीं हुआ. सनी ने तुरंत प्लेट छोड़ दी और बाहर आ गया, दूर्वा की पलकें नम हो गईं.


‘‘तुम लोग यार कितनी ही बड़ी-बड़ी बातें कर लो फ़ेमिनिज़्म की लेकिन अब भी कामों को जेंडर लेंस से देखना छोड़ नहीं पाई पूरी तरह,’’ सनी ने भीतर की सनसनाहट को भीतर धकेलते हुए कहा.

‘‘ऐसा कुछ नहीं है,’’ दूर्वा ने कहा.
‘‘तुम अब भी चाय बनाना नहीं सीखे,’’ दूर्वा ने बात बदलने के लिहाज़ से अपने कप में छोड़ी हुई चाय को देखते हुए कहा.

‘‘कुछ भी कहां बदलता है मनु,’’ सनी ने कहा. यह कहते हुए उसका स्वर इतना स्थिर था कि दूर्वा ठिठक गई. सनी बाहर देखने लगा जहां एक चिड़िया ने बारिश से बचने की तमाम कोशिशों के बाद आख़िर भीगना ही चुन लिया था. सनी का दिल चाहा एक छाता लेकर जाए और चिड़िया के ऊपर लगा दे. जब मनु को जीवन की आंधियों और बारिशों से बचने के लिए प्रेम की छतरी चाहिए थी, तब तो वह नहीं था. यह सोचकर सनी की आंखें गीली हो गईं. उसे लगा वो भीगती चिड़िया मनु है. सनी जानता था कि उसे छतरी होना चाहिए था, पर वो बारिश हो गया है, वही वजह है उसके इस तरह भीगने की.


‘‘अंकिता कैसी है?’’ दूर्वा ने पूछा.

‘‘अच्छी है, ख़ूब शैतान. इतना बोलती है क्या बताऊं,’’ सनी की आवाज़ में चमक आ गई थी.

दूर्वा आवाज़ की उस चमक के भीतर अपनी उदासी को भी ढूंढ़ रही थी शायद.

‘‘और रश्मि?’’ दूर्वा ने अपने पांव के नाख़ून पर नज़रें टिकाए हुए पूछा.

‘‘वो बहुत अच्छी है. अपना काम शुरू किया है बुटीक का. अच्छा चल रहा है. ख़ुश रहती है,’’ सनी ने जैसे रटी हुई स्पीच उगल दी हो और उसके बाद राहत की सांस ली हो.

‘‘और तुम?’’ यह दूर्वा के पास सनी के लिए अंतिम प्रश्न था.

‘‘तुम्हारे सामने हूं हट्टा-कट्टा. मरा नहीं हूं तुम्हारे बिना. हा हा हा,’’ सनी ने गंभीरता को सहजता में बदलने की कोशिश की.

‘‘सामने होने से कुछ नहीं होता. होना और सामने होना दो अलग-अलग बाते हैं,’’ दूर्वा धीरे से बुदबुदाई.


‘‘तुम कैसी हो?’’ सनी ने पूछा.

‘‘तुम्हारे सामने हूं. हट्टी-कट्टी. मरी नहीं हूं तुम्हारे बिना,’’ दूर्वा ने उसी का जवाब कॉपी पेस्ट कर दिया.
सनी उदास हो गया.

‘‘हां, क्यों मरना यार. जब लोग भूख से मर रहे हों ऐसे में प्यार में मरने की बात करना लग्ज़री ही तो है. हालांकि न मरना जीना ही है, यह कहना मुश्क़िल है.’’

बादलों की गड़गड़ाहट तेज़ होती जा रही थी. शायद बिजली गिरी है कहीं. बारिश लगातार तेज़ होती जा रही थी.

‘‘गाड़ी ठीक है?’’ सनी ने पूछा.

‘‘हां. क्यों?’’
‘‘जाना था कहीं काम से. कुछ देर को. चाबी दोगी?’’

दूर्वा ने गाड़ी की चाबी टेबल पर रख दी.

दो घंटे हो गए हैं सनी ने अब तक उसे छुआ तक नहीं. पहले किस तरह बेसब्र हुआ करता था. चाय रखे-रखे ठंडी हो जाती थी. चुम्बनों की बौछार होती थी उस पर. कितना नशा था उस स्पर्श का. उसकी बेसब्री किस क़दर मोहती थी दूर्वा को. लेकिन 13 बरस का फ़ासला सब बहा ले गया.


‘‘मैं आता हूं कुछ देर में? कुछ लाना है? दवाई वगैरह?’’

‘‘नहीं सब है मेरे पास.’’ कहते हुए दूर्वा ने सुना कि कुछ भी तो नहीं है मेरे पास क्या-क्या ला सकोगे?

सनी चला गया.

दूर्वा अतीत और वर्तमान के बीच हिचकोले खाती रही. कोई वजह नहीं थी उन दोनों के बीच इस दूरी की. कोई भी वजह नहीं थी फिर भी फ़ासले उगते गए. मनु, कितने बरसों बाद इस नाम से पुकारा जाना अच्छा लग रहा था दूर्वा को. शायद इस तरह का अच्छा लगने का अभ्यास छूट गया था उसका.

दूर्वा अब ज़्यादा ख़ामोश हो गई है. हालांकि उसके भीतर काफ़ी शोर भर गया है. सनी अब ख़ूब बोलने लगा है, लेकिन शायद वो भीतर कहीं मौन हो गया है. बारिश इन दोनों की धुन को समझती है.


सनी लौटा तो उसके दोनों हाथों में सामान था. सब्ज़ियां, फल, राशन का ज़रूरी सामान, मैगी दूध वगैरह.
दूर्वा यह देख चौंककर बोली,‘‘यह सब क्या है? इसकी कोई कोई ज़रूरत नहीं थी.’’

‘‘जो ज़रूरत है, वो मैं पूरी कहां कर पाता हूं मनु,’’ सनी की आवाज़ एकदम भीग चुकी थी. अपनी भीगी पलकें छुपाने के लिए उसने चेहरा घुमा लिया.
बाहर बारिश की धुन और तेज़ हो गई थी.


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