कहानी: प्रेम गली अति सांकरी
‘‘तुम अपने काम से काम रखो. नाश्ता खाना बना कर रख देती हो, मैं खा लूंगा. बार बार ये क्यों बताती रहती हो कि कहां क्या रखा है. इतना बड़ा हूं, ख़ुद नहीं देख सकता क्या?’’ नमित ने फिर सुबह सवेरे बहस शुरू कर दी.
शालिनी की आंखों में पानी आ गया,‘‘यही तो बता रही थी कि आज नाश्ते और खाने में क्या बनाया है, इतनी सी बात पर इतना क्यों भड़कते हो? कितनी बार कहा है सुबह सुबह नाराज़ मत हुआ करो, पूरा दिन ख़राब बीतेगा मेरा.’’ नमित की कोई प्रतिक्रिया न पाकर उसने लंबी सांस खींची,‘‘मैं जा रही हूं. दरवाज़ा लगा लो,’’ यह कहती हुई वो चली गई.
उसके जाते ही नमित ने दरवाज़ा बंद किया और सिगरेट सुलगाता हुआ बालकनी में खड़ा हो गया. शालिनी को दूर तक जाता हुआ देखता रहा. उसे भी अपनी प्रतिक्रिया पर खीझ आ रही थी, पर...
पहले तो उनके बीच कभी इतनी कहासुनी नहीं हुआ करती थी. शादी को अर्सा ही कितना गुज़रा है...दो बरस. इन दिनों वो छुट्टी पर है और शालिनी चाह कर भी समझ नहीं पा रही है कि ऐसी छुट्टी की क्या ज़रूरत? वे दोनों न तो कहीं बाहर जा रहे हैं घूमने और ना ही नमित की तबीयत ख़राब है. समझती तो बख़ूबी है, पर शायद बन रही हो. बस, ये ख़्याल आते ही नमित उसकी हर बात को काटने लगता है. बात बे बात उससे बहस करता है. उसे नीचा दिखाता है. इससे भी तो उसके अहं की तुष्टि नहीं हो पाती.
वो ख़ुद भी परेशान रहता है और उसे परेशान देख कर शालिनी भी परेशान रहती है. कुछ दिनों तक तो उसे इस काम में भी मज़ा आया, लेकिन अब उसे लग रहा है इस सब का अंत आख़िर कहां होगा? होगा भी तो कैसे? यदि नहीं हुआ तो उनका रिश्ता किस मोड़ तक जा सकेगा या फिर ख़त्म हो जाएगा? नहीं...नहीं, शालिनी इतनी समझदार है. फिर वो ख़ुद भी तो उसे इतना प्यार करता है, ये रिश्ता ख़त्म तो बिल्कुल नहीं होना चाहिए. यदि हुआ तो जीना भी मुश्क़िल हो जाएगा उसका. फिर भी न जाने क्यों वो ऐसा व्यवहार कर जाता है? कैसे समझाए अपने मन को...
अब कल ही वो उसके लिए ख़ूबसूरत गुलाबी रंग की टी-शर्ट ख़रीद लाई. यूं तो उसे गुलाबी रंग पसंद है, लेकिन वो भड़क उठा,‘‘ये कैसी टी-शर्ट लाई हो? पैसे भले ही तुम्हें ज़्यादा मिलने लगे हों, पर पसंद वैसी ही रहेगी गांवठी!!’’
‘‘मुझे तो लगा था कि तुम्हें ये रंग पसंद है तो टी-शर्ट भी पसंद आएगी. कोई बात नहीं, मैं दुकान पर कह आई थी. कल जाकर बदल लेना. अपनी पसंद की ले आना,’’ शालिनी बोली तो बड़े प्यार से थी, लेकिन उसका म्लान चेहरा बता रहा था कि नमित की ये प्रतिक्रिया उसका दिल दुखा गई थी.
‘‘कोई बात नहीं, अब ले ही आई हो तो पहन लूंगा,’’ यह बात उसने इस अंदाज़ में कही कि सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे.
पर सोने तक शालिनी संयत, लेकिन अनमनी ही रही थी.
और उससे पहले परसों...जब शालिनी ने कहा कि वो अपनी सहेली अनामिका के यहां जाना चाहती है, क्योंकि उसने लखनवी सूट्स की एग्ज़ीबिशन लगाई है. तो कितना बिफर पड़ा था वो,‘‘अपनी सहेली के यहां जाना है तो पूरा खाना बनाकर जाओ. मैं मैच देखते हुए यह नहीं गिन सकता कि तुम्हारे कुकर की कितनी सीटी आ चुकी है.’’
शालिनी का चेहर ग़ुस्से से तमतमा गया था,‘‘ठीक है मैं खाना बनाकर ही जाऊंगी.’’
फिर उसने खाना बनाया और अनामिका को फ़ोन लगाकर कहा,‘‘अनामिका, यार मैं आज नहीं आ पाऊंगी. तुम्हारी एग्ज़ीबिशन तो शनिवार तक चलेगी ना? मैं शुक्रवार की शाम आती हूं.’’
शालिनी का दिल दुखाकर उसे भी तो अच्छा नहीं लगा था. फिर शालिनी अपने कमरे में बैठकर गुलाम अली की ग़ज़ल्स सुनती रही थी और वो मैच देखता रहा. घर के कुल जमा दो लोग दो अलग अलग कोनों में पड़े रहे.
अचानक घड़ी पर नज़र गई. साढ़े नौ बज गए. ओह माई गॉड. जल्दी जल्दी नहाना होगा. साढ़े बारह बजे उसका इंटरव्यू है और उसके कोलार रोड के घर से मंडीदीप जाने में 45 मिनट तो लग ही जाते हैं. नहा धो कर नाश्ता करने बैठा तो नाश्ते में पोहा और सूजी का हलवा देखकर बांछे खिल गईं उसकी. मेरी पसंद का नाश्ता बनाया था शालिनी ने और यही बताकर मुझे ख़ुश करना चाह रही थी वह, लेकिन मैंने उसे डपट दिया. कुछ भी हो, शालिनी खाना बहुत अच्छा बनाती है. ठीक है अब नाराज़ तो हो ही पड़ा था उस पर. इंटरव्यू से लौटने के बाद उसे फ़ोन कर के मना लूंगा. ये ख़्याल उसे बहुत सुकून दे गया.
ये नहीं कि इस जोड़े के मन में एक-दूसरे के प्रति अथाह प्यार न हो. फिर थोड़ी बहुत नोक झोंक तो हर जोड़े के बीच होती है, पर यहां नोक झोंक की बारंबारता बढ़ती ही जा रही थी. वजह...यूं तो छोटी ही है, पर यदि आप उसे पुरुष प्रधानता की नज़र से देखें तो...शायद इससे बड़ी कोई समस्या हो ही नहीं सकती. कोई पत्नी अचानक ही अपने पति से ज़्यादा कमाने लगे तो पुरुष होने के उसके अहं पर इससे बड़ी चोट और क्या हो सकती है? बस, यही वजह थी जो शालिनी और नमित के बीच दबे पांव आ गई. दो महीने पहले शालिनी का प्रमोशन हुआ और पद के साथ साथ उसकी तऩख्वाह भी नमित से बेहतर हो गई. हालांकि नमित और शालिनी की नौकरी में एक दूसरे की तुलना हो भी नहीं सकती, क्योंकि शालिनी एक बैंक में काम करती है, कॉमर्स ग्रैजुएट और नमित ने एमबीए किया है मार्केटिंग में. दोनों की ग्रोथ और उसका तरीक़ा बिल्कुल अलग है, लेकिन शालिनी का प्रमोशन होते ही नमित को यूं लगा जैसे, शालिनी और उसके बीच एक अबोली सी प्रतियोगिता ने जन्म ले लिया है.
उसे लगा कि बेहतर वेतन पाने के बाद से शालिनी का व्यवहार बदलने लगा है. वो ख़ुद को उससे ज़्यादा आंकने लगी है. ये सच था या नहीं कहना मुश्क़िल है, क्योंकि सफलता थोड़ा आत्मविश्वास तो बढ़ाती ही है और कई बार यह आत्मविश्वास कब अति आत्मविश्वास का जामा पहन लेता है ये ख़ुद वह व्यक्ति भी नहीं समझ पाता, जिसका आत्मविश्वास बढ़ गया है. पर नमित ख़ुद जानता था कि शालिनी का व्यवहार तो कम ही बदला है पर उसके मन में पुरुष होकर भी कम कमाने की कुंठा पनपने लगी...वो भी केवल दो महीने के इस छोटे से ही समय में. मन इतनी छटपटाहट से भर गया कि ये 10 दिनों की छुट्टी उसने सिर्फ़ इसलिए ली है, ताकि वो नया जॉब ढूंढ़ सके. इस बारे में शालिनी से उसने कुछ भी नहीं कहा. कहता तो वो पट से समझ न जाती कि उसकी तऩख्वाह और ओहदा बढ़ने से उसे हुई ख़ुशी न जाने कहां चली गई और अब तो वह इसी वजह से कुंठित महसूस कर रहा है.
मंडीदीप पहुंच कर कंपनी में इंटरव्यू दिया. घंटे भर चले इंटरव्यू से वो काफ़ी ख़ुश था. उसे विश्वास था कि उसका चयन ज़रूर हो जाएगा और तऩख्वाह तो उसने पहले ही इतनी मांग ली है कि शालिनी के दूसरे प्रमोशन के बाद भी उससे ज़्यादा ही रहे. यहां उसे ले लिया गया तो शालिनी के साथ पहले की तरह रहना उसके लिए आसान हो जाएगा और शालिनी को भी इस बात की ख़ुशी होगी. लौटते समय प्यास का एहसास हुआ तो 10 नंबर स्टॉप के पास बने गारफ़ील्ड रेस्तरां के पास उसने कार रोक ली. तभी सामने खड़े सौरभ पर नज़र पड़ गई.
‘‘हाय, सौरभ! ये क्या बिपाशा को स्कूल से लेने आज तुम आए हो? विभा अब ये काम नहीं करती क्या?’’ अपने दोस्त से बेतकल्लुफ़ होते हुए उसने पूछा.
उसी अंदाज़ में सौरभ का जवाब आया,‘‘अजी, विभा को तो ये काम छोड़े अर्सा हो गया. हमारी बे़गम विभा आजकल सिर्फ़ ऑफ़िस जाने का काम करती हैं. चूल्हा-चौका, बाई और बच्चा हम ही संभालते हैं. तुम यहां कैसे?’’
‘‘किसी काम से मंडीदीप गया था. लौटते में सोचा गला तर कर लूं.’’
‘‘तो चलो हमारे साथ घर. वहीं गला तर कराए देते हैं.’’
सौरभ का घर पास ही था. बिपाशा, सौरभ की चार वर्ष की बिटिया, सौरभ और नमित उनके घर आ गए. नमित से बात करते करते सौरभ ने बिपाशा को घर के कपड़े पहनाए और जब तक नमित बिपाशा के साथ खेलता रहा सौरभ झट से दो ग्लासेस में कोक डालकर ले आए.
‘‘तुम आज घर पर कैसे हो?’’ नमित ने पूछा.
‘‘अरे यार, जब से तुम्हारी शादी हुई है तुम दोस्तों से मिलते ही कहां हो? यदि मिलते होते तो मालूम होता कि मैंने जॉब छोड़ दिया है.’’
‘‘लेकिन क्यों?’’
‘‘अरे मुझे लग रहा था कि अब यदि आगे बढ़ना है तो अपने स्किल्स अपडेट करने होंगे. इसी बीच विभा का ट्रांस्फ़र रायसेन के डिग्री कॉलेज में हो गया. आने जाने में उसे काफ़ी समय लगने लगा. वो मेरी और बिपाशा की सही देखरेख को लेकर परेशान रहने लगी.’’
‘‘तुम्हारे तो मामाजी ही एज्युकेशन विभाग में सेक्रेटरी हैं. कह सुन कर रुकवा देते तबादला.’’
‘‘कोशिश तो की थी, लेकिन मामाजी केवल यही दिलासा दिलवा पाए कि एक-दो साल बाद उसका तबादला वापस भोपाल के ही किसी कॉलेज में करवा देंगे.’’
‘‘तो अब कैसे मैनेज कर रहे हो तुम लोग?’’
‘‘विभा की अच्छी भली नौकरी है. मैं नहीं चाहता था कि वो छोड़े और बिपाशा की देखरेख भी ज़रूरी थी. मुझे स्किल अपडेट करने का भी मन था. अत: हम दोनों ने इस स्थिति को एक अवसर की तरह देखा. मैंने नौकरी छोड़ दी और घर का मोर्चा संभाल लिया. मैंने टेक्निकल एनालिसिस का एक साल का कोर्स जॉइन कर लिया है, उसकी क्लासेस शाम साढ़े सात बजे से शुरू होती हैं. विभा शाम को साढ़े पांच-छह बजे तक लौटती है. तब तक मैं बिपाशा के पास रहता हूं. फिर वो रहती है.’’
‘‘सौरभ, तुम्हें अजीब नहीं लगता कि तुम कुछ नहीं कमा रहे हो और विभा...’’
‘‘अजीब भी लगता है और कभी कभी ग़ुस्सा भी आता है. फिर सोचता हूं, जब हमारी शादी हुई थी विभा नौकरी नहीं करती थी. मैं घर चलाता था, तब उसे तो अजीब नहीं लगता था. वो मेरे कमाए पैसों को भी अपना समझ कर, उन्हें बचाने और बढ़ाने के तरीक़े सोच कर हमेशा ख़ुश हो जाया करती थी. जब वो ऐसा कर सकती है तो मैं क्यों नहीं? फिर जब उसकी नौकरी लगी. उसका आत्मविश्वास बढ़ा. तब मैं भी तो बहुत ख़ुश हुआ था. ये सभी हमारे जीवन के, हमारे साझा जीवन के पल थे, जो सुकून से गुज़र गए. फिर अब, जब वो कमा रही है और मैं नहीं तो ये पल भी गुज़र जाएंगे. कहीं न कहीं अवचेतन में विभा और मैं दोनों जानते हैं कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं अपने घर और अपने जीवन को अच्छा या सुविधापूर्ण बनाने के लिए ही तो कर रहे हैं. यदि हम दोनों ही एक-दूसरे से तुलना और प्रतियोगिता रखने लगें तो हमारा घर तो टूट ही जाएगा.’’
‘‘पता नहीं मुझे लगता है कि तुम जो कह रहे हो, वो कर पाना इतना आसान नहीं है. हमने हमेशा देखा है कि पुरुष ही घर का कमाऊ सदस्य होता है और...’’
‘‘सच कह रहे हो. आसान तो नहीं है. पुरुष ही कमाऊ होता था. उसी की मर्ज़ी चलती थी, पर ये तब की बात थी, जब महिलाएं केवल घर का काम संभालती थीं. अब, जब हम ये चाहते हैं कि महिलाएं बाहर जाकर काम करें और हमारे जीवन को सुविधासंपन्न बनाने में योगदान दें तो क्या हमें भी उनके चूल्हे-चौके में झांककर नहीं देखना चाहिए कि क्या हम भी ये काम कर सकते हैं? चाहे फिर एक चुनौती की तरह ही सही. नमित, मैं तुमसे सच कहता हूं...एक दिन, बस एक दिन यदि हर पुरुष अपने घर का काम उस तरह से करे, जैसे कि उसकी पत्नी करती है. उतनी ही साफ़-सफ़ाई और सुघड़ता से. ये सब करने के बाद भी उतने ही प्यार से पत्नी को खाना परोसे, जैसा कि वो तुम्हारे लिए करती है तो पुरुषों का यह दंभ कि वो ज़्यादा कमाते हैं पलभर में ही उड़न छू हो जाएगा.’’
‘‘ये हमारे यहां तो कभी नहीं हो सकता. आई मीन भारत में तो इसकी शुरुआत ही नहीं हुई है...’’
‘‘हां, पर ये शुरुआत किसी न किसी को तो करनी होगी. मैंने तो कर दी है. दूसरों के बारे में नहीं कह सकता, लेकिन इससे मेरी किसी क़ाबिलियत में कोई कमी नहीं आई है. ये आत्मविश्वास भी अपनी जगह है कि अपना कोर्स ख़त्म करने के बाद मैं अपनी पुरानी नौकरी से कहीं बेहतर नौकरी पा जाऊंगा. फिर ऐसी स्थिति में मेरे घर को अपनी तऩख्वाह से संभाल सकनेवाली बीवी का पति होने पर फ़ख्र है मुझे. दरअसल, इस मामले में समस्या ‘हम’ और ‘हमारा’ शब्दों की जगह ‘मैं’ और ‘मेरा’ शब्दों के आने से होती है. तुम्हें नहीं लगता?’’
‘‘वेल, इस लिहाज़ से रिश्तों के बारे में सोचा ही नहीं कभी. या यूं कह लो कि ऐसी स्थिति ही नहीं आई,’’ मुस्कुराते हुए नमित कह तो गया, पर उसके दिल में भूचाल-सा उठ रहा था.
दो-एक घंटे बैठा सौरभ के साथ गपियाता रहा नमित. फिर इजाज़त मांग कर घर की ओर आने लगा. उसके मन में उठा तूफ़ान अब शांत हो चला था और सही-ग़लत का नक्शा उसके मन में साफ़-साफ़ नज़र आ रहा था. उसने बाज़ार से शालिनी के पसंदीदा चिकन रोल्स ख़रीदे. घर पहुंचते ही शालिनी को फ़ोन लगाया.
‘‘शालिनी, मेरी तबीयत ख़राब लग रही है. तुम जल्दी घर आ जाओ ना!’’
‘‘क्या हुआ? मैं तुरंत ही अपनी मैनेजर को बोलकर निकल रही हूं. तुम आराम करो. डॉ निगम को साथ लेती आऊं क्या?’’
‘‘नहीं, नहीं. तुम घर आ जाओ फिर मैं तुम्हारे साथ ही उनके यहां चलूंगा.’’
उसे पता था कि शालिनी को घर पहुंचने में सिर्फ़ आधे घंटे का समय लगेगा. नमित ने झटपट फ़ोन उठाकर मूवी के दो टिकट बुक कराए. फिर बालकनी में खड़ा होकर शालिनी की राह तकने लगा. जैसे ही शालिनी पास के नुक्कड़ पर दिखाई दी. उसने उन दोनों के लिए कॉफ़ी का पानी चढ़ाया और दरवाज़ा खोलकर उसके आने का यूं इंतज़ार करने लगा, मानो वह पूरे दो महीने बाद घर लौट रही हो.
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