कहानी: ख़ुशियों का बजट

सुमन हर दो-चार मिनट में दादी और अर्नव को घूरे जा रही थी. अर्नव तो खाना खाने में मग्न था, पर दादी सुमन को बीच-बीच में देखकर ज़रूर मुस्कुरा देतीं. दादी जानती थीं कि बहू को उनके ऊपर बहुत ग़ुस्सा आ रहा है, पर शिष्टाचार की मारी, बेचारी सुमन घूरने के अलावा कर भी क्या सकती है?

अब दादी और सुमन के बारे में संक्षेप में बता दें. वैसे तो ये सुमन की नहीं उसके बच्चों की दादी हैं, पर उन्हें रिश्तों का बोध कराते हुए परिवार के सभी लोग उन्हें दादी कहने लगे, बेशक़ दादी के बेटे यानी सुमन के पति निखिल को छोड़कर. खाने की टेबल पर दादी को खा जानेवाली दृष्टि से देख रही सुमन को देखकर आप ये अंदाज़ा न लगाएं कि उनके रिश्ते टिपिकल सास-बहू जैसे हैं. दोनों में ख़ूब जमती है, पर उनके स्वभाव में एक बुनियादी फ़र्क़ है. जहां ममतामयी सास मस्तमौला है, वहीं गुणी बहू समतौल और कुछ अधिक ही मित्यव्ययी.  



चलिए संक्षिप्त परिचय ख़त्म, अब मुख्य कहानी पर आते हैं. आज बेटी मैत्री का दसवां जन्मदिन है. परिवार के सभी लोग-दादी, दादा, निखिल, सुमन, मैत्री और अर्नव बाहर खाने के लिए आए हैं. अर्नव और दादी पर बहू की त्यौरियां इसलिए चढ़ी हैं, क्योंकि दोनों ने डेज़र्ट में आइसक्रीम तो मंगा ली, पर अब खा नहीं पा रहे हैं. अर्नव ने मैत्री के आगे सरका दिया और दादी सबको थोड़ा-थोड़ा टेस्ट करने के लिए कह रही हैं. वो दादी की आदत तो जानती थी, वे किसी भी ऑफ़र को ठुकरा नहीं सकतीं, मसलन-खाना न भी हो तो भी वे चीज़ें मंगाकर दूसरों में बांट देती हैं. वे बुज़ुर्ग हैं, उनके लिए यह ठीक है, पर ये अर्नव भी उनकी यह आदत सीखते जा रहा है. सुमन को सबकुछ बर्दाश्त होता है, पर इस तरह की फ़िज़ूली ख़र्ची नहीं. बिना मतलब के पैसे ख़र्च होते देख वो चिड़चिड़ा जाती है. वैसे भी उसका रेस्तरां में आने का बिल्कुल भी मन नहीं था, मन की छोड़िए महीने का आख़िरी दिन चल रहे थे, उसे घर का बजट बिगड़ने का डर था. इस महीने वे लोग तीन दफ़ा बाहर खाने जा चुके थे.

जब कल शाम को दादी ने खाने की टेबल पर घोषणा की थी कि मैत्री के जन्मदिन पर हम सब बाहर चलेंगे, तो सुमन को छोड़कर सभी ख़ुशी से चिल्ला पड़े थे. हालांकि जब सुमन ने सबसे अच्छे रेस्तरां की साधारण कमियां गिनाते हुए कहा कि वो मैत्री के पसंद की चीज़ें घर पर बना सकती है तो बर्थडे गर्ल मान गई थी, शायद उसके अंदर भी मां का थोड़ा अंश मौजूद था, जिसे दादी की शिक्षा भी नहीं मिटा पाई थी. पर अर्नव और दादी तो ज़िद पर ही अड़ गए और हमेशा बहुमत के साथ जानेवाले दादाजी और निखिल भी मामला टाई होने के बाद दादी के समर्थन में आ गए. सुमन जानती थी कि वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि पिछले कई दिनों से उसे ऑफ़िस से लौटने में देर हो रही थी. वो ख़ुद भी आराम करना चाहती थी, पर जब उसने छह लोगों के रेस्तरां में खाने के बिल की सोची तो थके शरीर में एनर्जी भर आई, बिल्कुल एक आम वर्किंग क्लास महिला की तरह, जिसके बजट में बच्चों की पढ़ाई, होम लोन, व्हीकल लोन, राशन, भविष्य के लिए बचत, घर के बुज़ुर्गों के मेडिकल बिल्स आदि के बाद शायद ही कुछ बचता हो.



ख़ैर आज की पार्टी हो गई. सब घर लौट आए. घर वापसी के बाद सुमन ने भी राहत की सांस ली, क्योंकि भले ही निखिल ने उसे खाने के बिल के बारे में नहीं बताया, पर मेनू के अनुसार उसने मन ही मन गिनती की तो पाया कि ख़र्च उतना नहीं हुआ था, जितना उसने सोचा था. ‘शुक्र है, शैतान अर्नव का जन्मदिन नहीं था, वर्ना...,’’ दिमा़ग में यह ख़्याल आते ही वो आत्मग्लानि से भर गई. ‘कैसी इंसान हूं मैं, जो ख़ुशियों के बजाय रुपए-पैसों के बारे में सोच रही हूं.’ लेकिन दूसरे ही क्षण उसे बदमाश अर्नव द्वारा किए गए वेस्टेज का ख़्याल हो आया और वो आत्मग्लानि के बहकावे में आने से बच गई.

दूसरे दिन संडे था. सब घर पर ही थे. बैठके में दादाजी और निखिल अख़बार पढ़ रहे थे और मैत्री तथा अर्नव कार्टून्स में खोए थे. सुमन अपने कमरे में हफ़्तेभर की बिखरी हुई वॉर्डरोब को व्यवस्थित कर रही थी कि दादी अंदर आकर बेड पर बैठ गईं. वो यंत्रवत अपने काम में लगी रही. ‘‘बेटी, थोड़ा दम तो ले ले,’’ दादी ने मुस्कुराकर कहा. ‘‘हां, दादी. बस हो ही गया,’’ कहते हुए वो दादी के पास सूखी हुई चादर समेटते हुए बैठ गई. वो जानती थी कि दादी उससे कोई ज़रूरी बात करने आई हैं. दादी ने बड़ी आत्मीयता से कहा,‘‘सुमन, चादर समेटना तक तो ठीक है. तुम ख़ुद को क्यों समेट रही हो?’’ वो समझ रही थी कि दादी क्या कह रही हैं, पर उसके चेहरे पर न समझनेवाले भाव थे. ‘‘देखो सीधे मुद्दे पर आती हूं. मैं जानती हूं कि तुम बजट की बड़ी पाबंद हो, पर यह तो ज़रूरी ख़र्च था ना बेटी!’’ वो जानती थी कि दादी कल की बात ज़रूर निकालेंगी. सफ़ाई देती हुई सुमन ने कहा,‘‘नहीं दादी. मैंने कब कुछ कहा?’’ ‘‘तुम्हें क्या लगता है, बारह साल साथ रहते हुए भी मैंने अपनी बहू को नहीं जाना?’’ दादी ने अपनी बात जारी रखी,‘‘कल तुम्हारा ध्यान अपनी थाली की बजाय अर्नव और मेरी ओर अधिक था. हम लोगों को घूरने के अलावा तुमने अपनी पसंद की चीज़ें नहीं मंगाई, यह सोचकर की कहीं ज़रूरत से अधिक ख़र्च न हो जाए.’’ दादी के तीर सही निशाने पर लग रहे थे. उन्होंने आगे कहना जारी रखा,‘‘सुमन, तुम्हारी यही आदत मुझे पसंद नहीं है. घर का बजट न बिगड़े इसलिए हर बार तुम्हारे द्वारा अपनी पसंद को नज़रअंदाज़ करने से जानती हो क्या होगा?’’



सुमन चुपचाप सुनती रही. ‘‘शुरू-शुरू में लोग तुम्हारी मान-मनौव्वल करेंगे, फिर उसके बाद यदि इसी तरह तुम क़ुर्बानी की देवी बनी रही तो लोगों को तुम्हारे इस व्यवहार की आदत पड़ जाएगी. वे तुमसे कभी तुम्हारी पसंद-नापसंद भी पूछना गवारा नहीं समझेंगे. तुम्हें अभी जो ख़ुशी परिवार के सभी लोगों को देखकर मिलती है, वो एहसास उपेक्षा और अकेलापन में बदल जाएगा.’’ दादी की बातें, जैसे सुमन को अपना भविष्य दिखा रही हों. उसे चिंतित देख दादी ने मुस्कुराते हुए कहा,‘‘चिंता मत करो, मुझसे पूछोगी तो शायद तुम्हें इससे निपटने का रास्ता भी सुझा सकूं.’’ सकुचाते हुए सुमन ने कहा,‘‘मैं क्या करूं दादी, मुझसे फ़िज़ूल का ख़र्च किया नहीं जाता. पर्स में हाथ जाते ही बजट दिख जाता है.’’ दादी ने उसे मीठी झिड़की दी,‘‘फिर से बच्चों की पार्टी को फ़िज़ूल ख़र्ची कह रही हो! मैं तो तुम्हें बस यही कहूंगी कि अपना हिस्सा कभी मत छोड़ो. यहां बात सिर्फ़ खाने की नहीं है, जीवन के हर क्षेत्र की है. भले ही उसे बाद में किसी और के साथ बांट लो, पर अपना हिस्सा लो ज़रूर.’’

दादी की काफ़ी कुछ बातें उसके दिमा़ग में उतर चुकी थीं, लेकिन बजट बिगड़ने की चिंता से अब तक मुक्त नहीं हुई थी. ‘‘पर दादी बजट का भी तो सवाल होता है ना? और ये महीने का आख़िरी हफ़्ता...’’ उसकी बात पूरी होने से पहले दादी बोल उठीं,‘‘देखो बेटी मैंने अपने अनुभवों से बस इतना सीखा है कि हज़ार, दो हज़ार रुपए हमारी ख़ुशियों से ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं होते. वैसे भी तुम्हारे बच्चे बड़े हो रहे हैं, उन्हें अभी से बजट रूपी राक्षस से डराओगी? मैत्री तो आधी डरपोक बन भी गई है.’’ सुमन को फ़र्श को घूरता देख दादी ने कहा,‘‘बस भी करो. अपनी इस सोच को बदलो और मेरी यह बात गांठ बांध लो कि ख़ुशियों का कोई बजट नहीं होता. यदि अपनी और अपने परिवार की ज़िंदगी को ख़ुशहाल बनाए रखना चाहती हो तो अपने शौक़ और इच्छाओं को मत मारो. बस मुझे और प्रवचन नहीं देना है,’’ कहते हुए दादी उठकर जाने को हुईं तो सुमन उन्हें मुस्कुराकर देखती रही और सोचा,‘दादी मुझे वाक़ई ख़ुशियों का सही अर्थ समझा गईं.’



राहत की सांस लेती हुई दादी सुमन को आत्ममंथन के लिए अकेली छोड़ कमरे से बाहर निकल आईं.



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