कहानी: अंदरूनी चोट

‘‘मां, कितना तो समझा चुकी हूं साहिल को...पर उनका व्यवहार संयत हो पाए इसके पहले ही उनकी मां के उलाहने उन्हें और उग्र बना देते हैं...’’ आज जबकि वो अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना को अंजाम देने जा रही है, न जाने क्यों अंजली के ज़ेहन में सात साल पहले कही अपनी गूंज रही है. शायद इसलिए कि कुछ अच्छा होनेवाला हो तो हम अपने जीवन की बीती बातों को याद ज़रूर कर लेते हैं. यही इंसानी फ़ितरत है. जीवन की सबसे बड़ी ख़ुशी, जीने की एक और वजह को घर लाने जा रही अंजली भी कार चलाते हुए अपनी पिछली ज़िंदगी के पन्ने पलटने लगी.

‘‘ना बिट्टो! हमने तेरी शादी कर दी है उस घर में. अब तो तुझे निभाना ही होगा. अब कोई कर भी क्या सकता है? यूं समझ कि तेरा ही नसीब ख़राब है. तू मां बन सकती होती तो...शायद उनके व्यवहार में थोड़ा फ़र्क़ आ जाता...’’

‘‘मैं मां नहीं बन सकती तो इसमें भला मेरी क्या ग़लती है मां? क्या शारीरिक बनावट मेरे हाथ में है? मां नहीं बन सकती तो क्या मैं इंसान भी नहीं हूं?’’

‘‘मैं मां नहीं बन सकती तो इसमें भला मेरी क्या ग़लती है मां? क्या शारीरिक बनावट मेरे हाथ में है? मां नहीं बन सकती तो क्या मैं इंसान भी नहीं हूं? क्या मेरे साथ जानवरों जैसा व्यवहार करनेवालों, मुझे बात-बात पर खरी-खोटी सुनानेवालों की सही-ग़लत सभी बातों को मुझे सिर झुकाकर मानना होगा?’’

‘‘अंजली, मैं तेरे लिए बहुत परेशान रहती हूं बेटा! लेकिन तेरे पापा और भइया से बात किए बिना कोई क़दम उठाना ठीक नहीं होगा. तू तो जानती है तेरे पापा मेरी कितनी सुनते हैं...फिर वो रिटायर भी हो चुके हैं. आनंद भी पता नहीं इस बात से सहमत हो न हो...’’

‘‘मां, तुम पापा और आनंद भइया से बात कर लो, लेकिन मैं मन बनाकर आई हूं. अब उस घर में वापस नहीं जाऊंगी, जहां मेरे व्यक्तित्व को सम्मान देना तो दूर, थोड़ी-सी तरजीह भी नहीं मिलती. पापा ने और आपने ग्रैजुएशन करते ही मेरी शादी कर दी. भला 21 साल की उम्र में आजकल कोई अपनी बेटी की शादी करता है? तब भी आप लोग जानते थे कि मैं आगे पढ़ना चाहती हूं, पर आप लोगों के दबाव में आकर ही मैंने शादी की. अब 
आप लोग मेरा साथ नहीं देंगे तो कौन देगा?’’

मां ने पापा और भइया से बात की, पर वो दोनों भी यही चाहते थे कि अंजली साहिल के घर लौट जाए.

‘‘उसे समझाओ मीरा. आख़िर लड़कियां शादी के बाद अपने ससुराल की ही शोभा बढ़ाती हैं. मायके में उनका कुछ दिन रहना ठीक ही लगता है. अब वही उसका घर है और...’’

‘‘अब उनके घर रहने की कोई संभावना नहीं बची है पापा!’’ अपने पिता की बातों को बीच में काटते हुए अंजली ने कहा,‘‘आने से पहले ही मैंने तलाक़ के काग़ज़ों पर साइन कर दिए थे, क्योंकि वे लोग जल्द से जल्द साहिल की दूसरी शादी करना चाहते थे. उन्हें अपने घर में बच्चे की किलकारियां सुनना है, भले ही उसके नीचे मेरी सिसकियां ही क्यों न दबी हों?’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है?’’ पापा ज़ोर से चीखे,‘‘शादी क्या बच्चों का खेल है? इतना बड़ा क़दम उठाने से पहले उन्होंने और यहां तक कि तुमने भी हमसे बात करना ज़रूरी नहीं समझा?’’

‘‘पापा, शादी के बाद से ही तो बात करती आ रही हूं. क्या मैंने आप लोगों को नहीं बताया कि उस घर में पहले दिन से सभी किसी न किसी बात को लेकर मुझे ताने देते रहते हैं. कभी कहते हैं अच्छा खाना बनाना नहीं आता, तो कभी ये कि मैं सिलना-पिरोना नहीं जानती. कभी उन्हें मेरा पेपर पढ़ना, टीवी देखना पसंद नहीं आता तो कभी मेरे पहनने ओढ़ने को लेकर बेवजह टीका-टिप्पणी की जाती है. आपने कहा था कि वे लोग मुझे आगे पढ़ने देंगे, पर पढ़ाई का नाम लेना भी उन्हें पसंद नहीं. क्या-क्या बताऊं? दो साल से सिर्फ़ सह ही रही थी उन लोगों को. फिर मेरी मेडिकल रिपोर्ट आने के बाद से तो वहां मुझसे कोई बात तक नहीं करता था...उस घुटन के माहौल में जी पाना संभव नहीं था और मैं इतनी कायर नहीं हूं कि संघर्ष से बचने के लिए अपने जीवन का अंत कर लूं.’’

‘‘मैं रिटायर हो चुका हूं अंजली. आनंद तो अपने परिवार के साथ विदेश में ही जा बसा है. उससे किसी तरह की उम्मीद रख नहीं सकता. तुमसे जुड़े ख़र्च उठाना मेरे लिए मुश्क़िल होगा.’’

‘‘संघर्ष करने का मन बनाने से पहले मैंने आपकी आर्थिक स्थिति का आकलन भी किया था पापा! तलाक़ के काग़ज़ों पर तभी दस्तख़त किए, जब उन्होंने शादी में हुए आपके ख़र्च के साथ ही मेरे गहने भी मुझे दे दिए. मैं आगे पढ़ूंगी, पर आप पर बोझ बन कर नहीं. अब तो पढ़ने के लिए लोन भी मिलने लगा है. सब सोच के ही ये क़दम उठाया, क्योंकि मैं जीवन को जीना चाहती हूं पापा! मुझे जैसा भी जीवन मिला है, उसे खुल कर जीना चाहती हूं...’’

मां अपने पल्लू के कोने से आंसू पोंछती जा रही थीं और पिता-बेटी का वार्तालाप सुन रही थीं.

‘‘पर लोग क्या कहेंगे? मैं लोगों को क्या कहूंगा...’’

‘‘चोटें शारीरिक ही नहीं होतीं पापा, मानसिक भी होती हैं और उनके घाव कहीं ज़्यादा गहरे होते हैं. इन लोगों ने मेरी तरह त्रासदी से भरा जीवन नहीं जिया. ऐसे लोगों से कुछ कहने की ज़रूरत ही क्या है? कहने की नौबत आए तो सच्चाई ही कहिए.’’

‘‘कौन लोग पापा? कहां थे ये लोग, जब साहिल के घर में मेरे साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया जा रहा था? चोटें शारीरिक ही नहीं होतीं पापा, मानसिक भी होती हैं और उनके घाव कहीं ज़्यादा गहरे होते हैं. इन लोगों ने मेरी तरह त्रासदी से भरा जीवन नहीं जिया. ऐसे लोगों से कुछ कहने की ज़रूरत ही क्या है? कहने की नौबत आए तो सच्चाई ही कहिए. जिससे ये लोग समझें कि बेटियों को पढ़ा-लिखा कर शादी करना ही उनकी ज़िम्मेदारी नहीं होती, बल्कि पढ़ाने के बाद उसे अपने पैरों पर खड़ा करना भी ज़रूरी है, ताकि कुछ अच्छा-बुरा हो तो वो ख़ुद निर्णय ले सकें.’’

फिर अंजली ने एमबीए किया. उन दो सालों में सुबह क्लासेस अटैंड करने के बाद शाम को एक ज्वेलरी शो-रूम में सेल्स असिस्टेंट का काम भी. वो क़तई नहीं चाहती थी कि पापा पर उसकी पढ़ाई का आर्थिक बोझ पड़े. पापा की सीमित पेंशन में घर का ख़र्च तो उठाया जा सकता था, लेकिन एमबीए की पढ़ाई का नहीं. आनंद भइया अपनी गृहस्थी में ऐसे फंसे थे कि उनसे पैसों के बारे में बात करना मां-पापा और अंजली को अच्छा भी नहीं लगता था.

‘‘जब वो ख़ुद ही इस बारे में नहीं सोचते तो आप उनसे ऐसी उम्मीद ही क्यों पालती हैं मां कि वो हमें पैसे भेजें? बेकार की उम्मीद रख के दुखी होती रहती हैं आप. सालभर और रुकिए मेरा एमबीए पूरा होते ही कोई अच्छी सी नौकरी लग जाएगी. फिर मेहनत करके अपना काम करने से तो आत्मविश्वास बढ़ता है,’’ जब कभी मां उसके इतनी मेहनत करने और थक जाने पर उदास होतीं तो अंजली यही जवाब देती थी.

उसकी ज़िंदगी में कुछ एक अच्छे वाक़ये भी तो घटे थे. जब उसे एक नामचीन कंपनी में पहला जॉब मिला. वो कितनी ख़ुश हुई थी. फिर जब छह महीनों बाद ही उसका पहला प्रमोशन हुआ तो उसने एक सप्ताह की छुट्टी ली. मां-पापा को विमान से जम्मू और हेलीकॉप्टर से वैष्णोदेवी के दर्शन कराने के बाद मिली ख़ुशी को तो वो शब्दों में बयां ही नहीं कर सकती. फिर इस घटना के कुछ ही दिनों बाद उसके ऑफ़िस के सहकर्मी ने उसके सामने शादी का प्रस्ताव रखा.

‘‘मैं तलाक़शुदा हूं, राहुल,’’ उसके यह सच बता देने पर भी तो वह शादी के लिए तैयार था. मां ने कहा भी था कि उसे शादी कर लेनी चाहिए, पर वही अड़ गई थी,‘‘मां, मैं हर किसी को यह नहीं बताना चाहती...कि मैं मां नहीं बन सकती. तलाक़शुदा महिला से वो भले ही शादी कर ले, लेकिन कहीं यदि उसे भी बच्चे की आस हुई तो? मैं इसी बात से ख़ुश हूं कि उसने शादी का प्रस्ताव रखा. कम से कम मेरे ससुरालवालों और साहिल का लगाया गया ये इल्ज़ाम तो ग़लत साबित हो गया कि मैं आकर्षक नहीं हूं. एक शादी में ही मैंने इतने कष्ट देख लिए कि अब दूसरी शादी नहीं करना चाहती.’’

‘‘तो क्या ऐसे ही पूरी ज़िंदगी निकाल देगी. अभी उम्र ही क्या है तेरी? बिट्टो, जब तक हम दोनों हैं...हैं. हमारा क्या है, आज मरे कल दूसरा दिन, पर तुझे तो पूरी ज़िंदगी जीनी है.’’

‘‘मेरे इतने दोस्त हैं. शादी ही सबकुछ तो नहीं? मां तुम मेरी चिंता छोड़ो. मैं तो तुम्हें और पापा को ख़ुश देखकर ही ख़ुश हो जाती हूं. फिर दुनिया में बहुत से ऐसे काम हैं करने को, जो शादीशुदा लोग चाहकर भी नहीं कर पाते, जैसे-दुनिया घूमना, अनपढ़ों को पढ़ाना, बागवानी करना...’’

‘‘ये सब मुझे मत सिखा. एक उम्र के बाद अकेलापन काट खाता है इंसान को...’’ बीच में ही उसकी बात काटते हुए मां ने कहा था.
सच ही तो कह रही थीं मां. उसके अगले दो सालों में ही तो पहले पापा और फिर मां उसे इस दुनिया में अकेला छोड़ गए. आनंद भइया आए तो, लेकिन भाभी की घूरती आंखों के बीच ये कहने का साहस भी नहीं जुटा पाए कि अंजली तुम भी चलो हमारे साथ. कह देते तो चली थोड़े ही जाती वो और चली भी जाती तो उनपर आर्थिक बोझ तो नहीं ही बनती. ख़ैर...उसे भी समझना चाहिए कि वो भइया-भाभी से ज़्यादा उम्मीद न रखे. फिर मां-पापा के बाद से हर रविवार फ़ोन पर वो उसके हालचाल जान लेते हैं, यही क्या कम है?

मां का कहा बिल्कुल सही लगने लगा था. ऑफ़िस की व्यस्तता और ढेर सारे दोस्तों का साथ होने के बावजूद उसे अकेलापन कचोटने लगा था. घर पर कोई काम करना नहीं होता था, क्योंकि उसकी मेड सभी काम बड़े करीने से कर जाया करती थी. आर्थिक संपन्नता तो उसने अपनी क़ाबिलियत के दम पर पा ली थी, लेकिन घर में किसी का न होना किसी विपन्नता से कम नहीं था. कब तक दूसरों के यहां बैठा जा सकता था? उसके सभी दोस्तों का अपना घर-संसार बस गया था या बस रहा था. अब... अब वो क्या करे? आख़िर जीने की कोई नई वजह मिलती रहे तो जीवन आराम से कटता चला जाता है.

यूं ही एक दिन टीवी देखते हुए सिंगल मॉम्स के बारे में एक डॉक्यूमेंटरी उसके दिल को छू गई...और उसे जीने की नई वजह भी मिल गई. उसने तय कर लिया कि वो भी एक बच्ची गोद लेगी. इसके लिए उसने अपने वक़ील से संपर्क किया. अपने घर के पास ही स्थित अनाथाश्रम गई और एक बच्ची को अपना नाम देने की कोशिश की शुरुआत कर दी. हालांकि इसकी प्रक्रिया काफ़ी लंबी थी, लेकिन मन में उत्साह हो तो सारे काम आसानी से हो ही जाते हैं. और आज वो दिन आ ही गया, जब वो अपनी बेटी को घर लाने जा रही है.

अपनी बच्ची को लाने के बाद मैं साहिल के घरवालों को इस आरोप से भी मुक्ति पा लूंगी कि मैं मां नहीं बन सकती. और हां, अपनी बच्ची को पढ़ा-लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा करूंगी, उसे अपना मनपसंद जीवनसाथी चुनने की पूरी आज़ादी भी दूंगी और.... ऐसे ही कुछ विचारों और जीने की नई उमंग को महसूस करते हुए अंजली ने अपनी कार अनाथाश्रम के पास रोक दी.

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