कहानी: नया मायका
सुबह नौ बजे अपने पति तारिक और युवा बच्चों सारा और समीर के जाने के बाद रीना ने बालकनी में रखी चेयर पर बैठकर न्यूज़ पेपर उठाया ही था कि उसके मोबाइल पर किसी अनजान नंबर से फ़ोन आया ,उसने जैसे ही ‘हैलो’ कहा उधर से एक खनकती-सी आवाज़ आई,‘‘रीनू?’’
‘‘जी, आप कौन?’’
‘‘रीना शर्मा?’’ स्वर थोड़ा शरारती हुआ.
‘‘रीना ख़ान?’’
रीना शर्मा सुनकर रीना का दिल ज़रा धड़क-सा गया. यह नाम सुने तो मुद्दत हो गई. अब तो वह बीस सालों से रीना ख़ान है और इसमें वह बहुत ख़ुश भी है. उसने पूछा,‘‘जी, आप कौन?’’
उधर से नारी स्वर अब खिलखिलाया,‘‘क्या कर रही थी रीनू? सब ऑफ़िस, कॉलेज निकल गए?’’
‘‘हां, मगर यह तो बताइए कि आप कौन हैं?’’ अब रीना थोड़ा गंभीर हुई. कोई उसे रीनू कह रहा था, रीना शर्मा कह रहा था, यह ज़रूर कोई ख़ास ही है. अजनबी तो ज़रा भी नहीं. कोई उसे छेड़ रहा है, वही नहीं पहचान पा रही है. कोई उसे जान बूझकर सता रहा है. फिर रीना ने कहा,‘‘आप बताएंगी कि आप कौन हैं या मैं फ़ोन रख दूं?’’
‘‘ओहो, धमकी दे रही हो? तुम फ़ोन नहीं रखोगी, मैं जानती हूं, लगातार यही सोच रही हो न कि तुम्हें इस उम्र में रीनू कौन कह सकता है? कोई सहेली ही परेशान कर रही है.’’
रीना अब हंस पड़ी,‘‘जी, आप सही सोच रही हैं.’’ फिर थोड़ा हल्के मूड में आते हुए कहा,‘‘कोई क्लू तो दो.’’
‘‘मायके की तीन-तीन छतों को कूद फांदकर सर्दियों की दोपहर में धूप का पीछा करते-करते कौन तुम्हारे साथ इधर से उधर बैठने की जगहें बदलता रहता था, तुम तो किताबों में खोई रहती थी, मैं बेचारी तुम्हारा चेहरा देखती रहती थी, तुम्हारे चक्कर में मुझे भी पढ़ना पड़ता था.’’
रीना का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क उठा,‘‘निम्मी? नमिता जैन?’’
‘‘जी, सही फ़रमाया.’’
‘‘निम्मी!’’ ज़ोर से चिल्लाई रीना. ‘‘तुम? मुझे कैसे ढूंढ़ लिया? मेरा नंबर कहां से मिल गया?’’
‘‘क्या बहुत मुश्क़िल था? इस बार मेरठ गई तो आंटी रास्ते में मिल गईं, उनसे लिया था.’’
‘‘हूं’’, रीना का स्वर अचानक धीमा हो गया. पूछा,‘‘कैसे हैं सब?’’
‘‘ठीक ही हैं. तुमसे बात होती तो रहती ही है न?’’
‘‘हां, महीने में एकाध बार मां, भैया-भाभी के हालचाल ले लेती हूं.’’
नमिता हंसी,‘‘और... हीरो कैसा है तुम्हारा?’’
‘‘कौन?’’
‘‘अरे, तारिक... और कौन?’’
रीना हंस पड़ी,‘‘बहुत अच्छा है. बहुत प्यार करता है. बहुत केयरिंग है. समीर और सारा कॉलेज में हैं. तू बता, फ़ैमिली में कौन-कौन हैं?’’
‘‘अमित और हमारे दो बच्चे, राहुल और विनी. वे भी पढ़ रहे हैं. हम शुरू से भोपाल में ही हैं.’’
‘‘मेरठ में आंटी, अंकल कैसे हैं?’’
‘‘मम्मी-पापा नहीं रहे.’’
‘‘ओह, वेरी सैड, निम्मी.’’
‘‘रीनू, आंटी की बातों से अंदाज़ा हुआ कि आठ-दस साल पहले ही तुम मायके गई थी न, उसके बाद नहीं गई?’’
रीना का स्वर उदास हो गया,‘‘तारिक से विवाह कर सबकी नज़रों में मैंने बड़ा अपराध किया है, पापा को तो मैंने बचपन में ही खो दिया था, विवाह के बाद बच्चों को लेकर एक दो बार गई, दिल हर बात में दुखा, हर बार दुखी होकर लौटी तो जाना छोड़ दिया. बच्चों के मन में नानी, मामा-मामी के मीठे रिश्तों की कोई बुरी छवि नहीं बनाना चाहती थी, इसलिए जाना ही छोड़ दिया. फ़ोन पर ही हालचाल पूछ लेती हूं.’’
‘‘फिर भी, याद नहीं आता मायका?’’
इस सवाल ने रीना की ज़ुबान लड़खड़ा दी. आंखें भीग गईं, न चाहते हुए भी आंसू गालों पर ढलक आए. मुंह से आवाज़ ही नहीं निकली. उधर भी सन्नाटा छा गया था, कुछ पलों बाद रीना ने ख़ुद को संयत किया, कहा,‘‘निम्मी, अब बाद में बात करें?’’
‘‘हां, ठीक है.’’ दोनों ने फ़ोन रख दिया. रीना सुस्त-सी उठकर बेडरूम में आकर आंखें बंद कर लेट गई. निम्मी के एक फ़ोन ने उसे अतीत की उन गलियों में पहुंचा दिया जिनका रास्ता वह सालों से भूलने की कोशिश ही कर रही है, भूल पाती कहां है!
अब अकेली लेटी वह अपनों से मिले दुःख के महासागर में आपाद मस्तक डूबती जा रही थी. एकाकी, मौन, स्तब्ध-सी होकर कुछ ही पलों में अतीत को फिर से जी रही थी. लड़कियों का बचपन जिस मिट्टी पर लोटता है, जिस मिट्टी में खेलता है, वह मिट्टी उनके अस्तित्व में इतनी रच बस जाती है कि उसे झाड़ देना या भुला देना असंभव ही होता है. कौन लड़की अपने मायके की गलियां, वह घर जहां जीवन के इक्कीस साल बिताएं हों, मां की ममता, पिता का स्नेह, भाई से शरारतें, आंगन का वह अमरूद का पेड़, छत पर रखे गमले, मिली हुई छतें कूद-कूद कर सहेलियों के घर ऊपर से ही आना-जाना भूल सकती है? अपने दिल की क्या सुन ली, तारिक को जीवन साथी क्या चुन लिया, कोई अपराध कर दिया! सबको नफ़रत हो गई.
धीरे-धीरे वह भी तारिक के साथ सुखी, संतुष्ट घर गृहस्थी में व्यस्त होती चली गई थी पर यह कसक तो हमेशा मन में रही कि मायका छूट गया. जीवन में मिली सारी सुख-सुविधाएं इस कसक को ख़तम नहीं कर पाईं. जब-जब उसकी सहेलियां छुट्टियों में मायके भागती हैं, उसका मन तड़प-तड़प कर तरसता रह जाता है. तारिक उसे घुमाने कभी कहीं, कभी कहीं ले जाते रहते हैं पर उन छूटी गलियों में न जाने का दुःख कम नहीं हो पाता. ससुराल में कोई है ही नहीं, तारिक अकेले हैं. और यह निम्मी, यह तो रोज़ याद आती है. बचपन से लेकर युवा अवस्था तक साथ खेली, पढ़ी निम्मी के साथ तो जीवन का एक लम्बा महत्वपूर्ण समय बिताया है.
कितनी शरारतें, कितनी मस्ती, कितने राज, कितने सुख दुःख बांटे थे, निम्मी ही तो उसकी एकमात्र घनिष्ठ सहेली थी, तारिक से विवाह करने पर वह भी उससे नाराज़ हो गई थी. नमिता ने फ़ोन रखा तो अपनी बेस्ट फ्रेंड के स्वर की उदासी उसके दिल को छू गई. उसका मन उसे धिक्कार उठा, क्यों उसने इतने साल रीनू की कोई खोज ख़बर नहीं ली? तारिक से विवाह होते ही रीनू मुंबई चली गई थी, नमिता भी विवाह के बाद भोपाल आ गई थी. जब वह मायके गई तो इतने साल उसने क्यों नहीं उसका फ़ोन नंबर लेकर उसकी ख़बर ली? नया समाज, नए लोग, नया शहर, उसे एक अच्छी दोस्त की उस समय कितनी ज़रूरत रही होगी! वह क्यों चुप रही? जब नमिता का रूढ़िवादी जैन परिवार दिन रात रीना को कोस रहा था, अपशब्द कह रहा था, वह क्यों चुप रही? यह कैसी दोस्ती थी? आज बीस साल बाद उसे फ़ोन कर रही है, अब तक तो उसे सबके बिना जीना आ ही गया होगा.
पिछले महीने जब वह मायके गई तो रीना की मम्मी से मार्केट में सामना होने पर रीना का फ़ोन नंबर ले लिया था. आंटी के चेहरे पर रीना का नाम लेने पर जो भाव आए, उसने सब समझा दिया था नमिता को. रीनू क्यों मायके आए? ठीक किया उसने, आना ही छोड़ दिया. पर नमिता क्यों अपने कट्टरपंथी परिवार के साथ धर्मजनित नफ़रतों में बहती चली गई? मन ही मन उसे भी तो तारिक से विवाह करने पर रीना पर ग़ुस्सा था. तारिक उनकी सहेली शबाना का ही तो भाई था. सभ्य, शरीफ़ तारिक सबको अच्छा लगता था पर बचपन की दोस्ती, आपस का रात दिन का साथ और प्यार, पारिवारिक दबाब के चलते नफ़रतों में दबता चला गया था.
उम्र के इस मोड़ पर जब युवा बच्चों के साथ उसकी सोच बदली है तो नमिता को अपनी पुरानी सोच पर दुःख हो रहा है. उसके घर तो प्याज़ ,लहसुन भी नहीं आता था, राहुल और विनी ने बड़े होते-होते जैन परिवार में चली आ रही पुरानी रीतियों को सिरे से नकार दिया, दोनों का कहना था,‘‘ये सब नियम हमसे नहीं होंगे, घर में खाने के इतने परहेज़ रखोगी तो भी हम बाहर तो सब कुछ ही खाते हैं.’’ नमिता ने युवा बच्चों के आगे हथियार डाल दिए थे और अब बच्चों के साथ चलकर पहले से कहीं ज़्यादा लाइफ़ एन्जॉय कर रही थी. अब अमित भी बच्चों के विचारों से सहमत थे. कुछ ही दिन पहले नमिता ने अपने बच्चों को रीना के बारे में सब कुछ बताया तो विनी कह उठी,‘‘मम्मा, हद है, आपने भी अपनी बेस्ट फ्रेंड से मतलब नहीं रखा? आई हेट इट. मेरी बेस्ट फ्रेंड को कोई कुछ कहकर देखे! नानी, नाना, मामा आपकी बेस्ट फ्रेंड को गाली देते रहे और आप उनकी हां में हां मिलाती रहीं? हाउ सैड?’’
‘‘बरसों से परम्पराओं और सामाजिक मापदंडों में जकड़ा मेरा मन इतनी जल्दी और आसानी से आज़ाद नहीं हो सकता था. परिवार की मान मर्यादा का ध्यान, अपने संस्कार और सामाजिक व्यवस्था का सम्मान, जाने कितनी वर्जनाओं से बंधी थी मैं,’’ नमिता का स्वर बोझिल होता चला गया था.
‘‘अगर जाति धर्म से परे मौसी ने अपना मनपसंद जीवन साथी अपने लिए ढू़ंढ़ लिया तो ग़लत क्या किया?’’ राहुल ने भी कहा था. अपने बच्चों की ग़लत बातों का विरोध करने की क्षमता देखकर नमिता को एक आत्मिक संतुष्टि भी हुई थी, शायद उनमें वह ख़ुद को देख रही थी. अब नमिता को अपनी पुरानी सोच पर दुःख हुआ था तो उसने रीना को फ़ोन कर लिया था. एक लम्बा अंतराल, जब सुधियां धुंधलाने लगती हैं, आपस में बातें करना बहुत सुखद था, बचपन की दोस्ती को पुनर्जीवित करने का अवसर भी.
अगले दिन दोपहर में रीना ने फ़ोन किया,‘‘निम्मी, मैं तो कल पूछना ही भूल गई कि तुम्हारे दोनों भाई विजय भैया और अजय कैसे हैं?’’
उधर पलभर सन्नाटा छाया रहा.
‘‘बोल निम्मी, सुन नहीं रही है क्या?’’
धीमी-सी आवाज़ आई,‘‘दोनों ठीक हैं, रीनू.’’
‘‘सब ठीक तो हैं, न तुम्हारे मायके में?’’
एक गहरी सांस ली नमिता ने, फिर दिल खोल कर रख दिया,‘‘कुछ ठीक नहीं है रीनू. मम्मी-पापा के जाने के बाद दोनों भाइयों में झगड़े रहने लगे. मकान के दो हिस्से हो गए. मैं जाती थी तो अजीब से तनाव में दिन बीतते थे. विजय भैया को लगता था कि मैं अजय के पास ज़्यादा बैठ आई, अजय को लगता था कि मैं भैया के पास ज़्यादा रहती हूं. अजय मुझसे छोटा है, पहले तो चुप रहता था पर अब दोनी की पत्नियां चैन नहीं लेने देतीं. जाते ही पूछती हैं, किधर रहोगी? किधर खाओगी? फिर एक समय का खाना उधर, एक समय का खाना इधर, फिर सवाल, उधर क्या खाया? दोनों भाई तो आपस में बोलते ही नहीं. जाती हूं तो जैसे तलवार पर चलती हूं.
पिछली बार से जबसे आई हूं, तय करके आई हूं, मायके पैर नहीं रखूंगी. जिस दिन आना था, दोनों भाइयों के परिवार सुबह-सुबह ही किसी बात पर लड़ पड़े, शाम को मेरी ट्रेन थी, बच्चे साथ नहीं थे ,यह भी अच्छा हुआ ,अमित मुझे लेने एक दिन पहले ही आए थे. सब आपस में लड़ते रहे, अमित और मैं दिनभर आंगन में चारपाई पर बैठे रहे. भाइयों ने मुझे कह दिया था कि यह हमारा आपसी मामला है, तुम्हें बीच में नहीं बोलना है. दोनों परिवार एक-दूसरे को ऐसे-ऐसे ताने सुना रहे थे कि सिर शर्म से झुकता चला गया था.
अमित की सांत्वना देती नज़रों से ही मेरा दिन कटा. हम दोनों दिनभर भूखे, प्यासे बैठे रहे. आपस के ग़ुस्से में किसी ने हमें खाने के लिए भी नहीं पूछा. ख़ुद खाना लेना अच्छा नहीं लगा. शाम को रिक्शा बुलाई, अपना बैग उठाकर घर से निकल गए. लगा, मां आज गई है इस घर से. मां को ही याद कर रोती हुई वापस आ गई. मां होती तो कौन लड़की सुबह से शाम तक भूखी रहकर ऐसे निकल सकती है? दोनों परिवारों को यह होश ही नहीं रहा कि हम जा रहे हैं, बहन कैसे दुखी लौट रही है.
घर के दो हिस्से भी अपनी मर्जी से कर लिए, मुझसे पूछा था ‘तुम्हें कुछ चाहिए?’ मैंने कहा था, मुझे कोई ज़मीन जायदाद नहीं चाहिए, बस, मेरा मायका बना रहे, साल में कभी दो-चार दिन आऊं तो मुझसे प्यार से मिलना. यह भी किसी से नहीं हुआ. अमित उस दिन ट्रेन में बिठाकर स्टेशन से ही खाना लाए. रोती हुई मुझे अपने हाथ से खिलाया और इतना ही कहा,‘आज के बाद तुम कभी उस घर में पैर नहीं रखोगी, किसी के जीने मरने में भी नहीं.’ ठीक ही कहा है अमित ने. हम लड़कियों से पता नहीं क्यों मायके का मोह नहीं छूटता!’’
रीना नमिता के मन का दुःख महसूस कर सिसक उठी थी, कहा,‘‘निम्मी, कितना दुःख हुआ सुनकर. ऐसे मायके के छूट जाने क्या दुःख मनाना, निम्मी, दुखी मत होना.’’
‘‘हां, रीनू अब उन गलियों के छूट जाने का दुःख नहीं मनाना है, जिनके लिए धर्म, जाति, ज़मीन-जायदाद ज़्यादा महत्व रखते हैं, ऐसे मायके नहीं चाहिए हमें. हम अपनी गृहस्थी में ख़ुश हैं. मैं वह दिन कभी नहीं भूलूंगी जब हम दोनों भूखे रहकर सिर्फ़ लड़ाई देखकर वापस आ गए थे.’’
‘‘हां, निम्मी, अब दुखी नहीं होना है.’’
‘‘दुखी क्यों हों? हमें तो नए मायके मिल गए हैं न! कहते-कहते नमिता की आवाज़ में चिर-परिचित खनक सुनाई दी.
रीना चौंकी,‘‘नए मायके? कौन? कहां?’’
‘‘सालों की कसर पूरी करनी है, मेरा घर अब तुम्हारा मायका है. तुम्हारा घर अब मेरा मायका है. जब भी घर गृहस्थी से जी ऊबेगा, चले आएंगे एक-दूसरे के घर, कुछ दिन साथ रहेंगे. बच्चों को एक रिश्ता तो मौसी का मिल ही जाएगा, बाक़ी अब हमें चाहिए ही नहीं, बोलो, नया मायका मंजूर है?’’
रीना खिलखिला पड़ी,‘‘और क्या, एकदम मंजूर है, तो पहले मायके कौन आ रहा है?’’
‘‘तुम ही आओगी, तुम्हें मायके आए ज़्यादा दिन हुए हैं, मैं तो अभी ही लौटी हूं, मेरे घाव अभी ताज़ा हैं, पर मैं यह भी जानती हूं, घाव लगते ही घाव भरने की प्रक्रिया भी शुरू हो जाती है, जितना दर्द आज है, उतना कल नहीं होगा, जितना कल होगा, उतना परसों नहीं होगा, अब हमारे नए मायके ही ताउम्र रहेंगे, तारिक आएं तो प्रोग्राम बना लो.’’
शाम को तारिक, समीर और सारा आए तो रीना पूरी बातें बताते हुए कई बार रोई, कई बार हंसी. तीनों उसका चेहरा ही देख रहे थे. कभी कुछ बताते हुए रो पड़ती थी, फिर अपने आप ही कुछ और बताते हुए हंस पड़ती थी. देर तक लगातार कुछ कहती रही, तीनों चुपचाप सुनते रहे. उसकी मनोदशा से तीनों अवगत थे. बच्चों से रहा नहीं गया, उनका मन भर आया, वे मां से लिपट गए. तारिक ने कहा,‘‘बताओ, कब जाना है? और वहां सबके लिए क्या लेना है, लिस्ट बना लो, जाओ, इस दोस्ती के, प्यार के कोमल, अनोखे एहसास को तुम जीभर कर जी लेना.’’ रीना ने एक हाथ से अपने आंसू पोंछते हुए, दूसरे हाथ से अपने मोबाइल पर नमिता का नंबर मिला दिया था.
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