कहानी: मन का वज़न
एरोबिक्स की क्लास लेकर मौली ने अपना मोबाइल उठाया तो उसमें स्वर्णिम नाम की लड़की की फ्रेंड रिक्वेस्ट और मैसेज बॉक्स में मैसेज था.
‘मैम, मैं स्वर्णिम आपकी स्टूडेंट... आपके जिम में आती थी. आपको फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी है एक्सेप्ट कर लीजिएगा और आज शाम पांच बजे टीवी के डीडी चैनल पर मुझे लाइव देखिएगा.’
मौली के जिम में रोज़ाना साठ-सत्तर कस्टमर आते हैं. प्रोफ़ाइल पिक्चर के आधार पर स्वर्णिम नाम की लड़की कौन है वह दिमाग़ पर ज़ोर डाल ही रही थी कि तभी एक नए कस्टमर ने उसका ध्यान खींचा...
‘‘ये मेरी बेटी है, वज़न कम करवाना है. अगर दो-तीन महीनों में कुछ वज़न कम हो जाए तो...’’
“कोई ख़ास वजह...” मौली के पूछने पर उस लड़की की मां फुसफुसाई,‘‘रिश्ते की बात चल रही है... थोड़ा वज़न कम हो तो देखना-दिखलाने का कार्यक्रम बनाए...”
मौली के जिम में प्रोफ़ेशन स्वास्थ्य के साथ बड़ी संख्या में लोग शादी के लिए वज़न कम करने की मंशा से आते हैं. मौली उनकी काउंसलिंग करते समय यही कहती है कि अच्छे स्वास्थ्य और आत्मविश्वास के लिए अपने शरीर को फ़िट रखना ज़रूरी है. अपने शरीर को फ़िट रखने का प्रयास जीवन पर्यंत होना चाहिए. यदि आप ऐसा कर पाए तो जीवन में कभी हार का मुंह नहीं देखना पड़ेगा.
जिम में आई उस नई लड़की को खाने-पीने के कुछ दिशा-निर्देश देने के बाद जिम इंस्ट्रक्टर उस स्थूल काया धारिणी को मशीनों के संचालन की जानकारी दे रहे थे, तब उस लड़की के चेहरे पर छाए तनाव ने सहसा स्मृतियों से स्वर्णिम को खंगालकर निकाल लिया.
ओह! स्वर्णिम तो तुम हो... उफ़! कितना भारी शरीर था उसका! पचासी किलो की स्वर्णिम को लेकर उसकी मां आई थी. वह बहुत मूडी थी. मौली विगत में डूबती चली गई. पहले ही दिन स्वर्णिम जिम इंस्ट्रक्टर पर चिल्ला पड़ी,‘नहीं, अब और वर्कआउट नहीं कर सकती. आप जाइए, मेरे बाजू में दर्द हो रहा है. एक बार और, एक बार और करके आपने बीस बार वेट उठवा लिया है. मुझे नहीं करना वर्कआउट.’ जिम इंस्ट्रक्टर ने उसके हद दर्जे के रूखे व्यवहार के आगे हाथ खड़े कर दिए.
दूसरे दिन जब वह आई तो आरामकुर्सी पर बैठकर च्विंगम चबाती रही. उसके हाव-भाव ऐसे थे जैसे खुली चुनौती दे रही हो कि है कोई माई का लाल जो मुझे मेरे मन के विरुद्ध मुझसे तोला भर वज़न भी उठवाए.
‘सुनिए, आपका समय सिर्फ़ डेढ़ घंटे का है बीस मिनट बीत चुके हैं. आइए थोड़ा कार्डियो करते हैं,’ मौली ने उसे ट्रेडमिल की ओर जाने का इशारा किया तो वह बुरा-सा मुंह बनाकर ट्रेडमिल के बजाय साइकिल पर बैठकर लापरवाही से पैडल मारने लगी.
क़रीब चार-पांच दिन यूं ही निकलने के बाद मौली ने उससे सख़्त पर दृढ़ लहज़े में पूछा,‘आप हमारे साथ कोऑपरेट क्यों नहीं करतीं?’
उसने लापरवाही से जवाब दिया,‘मैं पतली नहीं होना चाहती.’
‘पर क्यों?’ मौली की हैरानी पर उसने बुरा-सा मुंह बनाते हुए कहा,‘मैं शादी नहीं करना चाहती. पढ़ना चाहती हूं.’
यह सुन मौली को उससे सहानुभूति-सी महसूस हुई कुछ दिन तक उसने उसे कोई कमांड नहीं दी. जब मन करता वह आती, जितनी देर मन करता वह वहां रहती.
एक दिन वह शाम को साइकिल के धीमे-धीमे पैडल मारती हुई कान में ईअर प्लग लगाए बैठी थी. वह बीच-बीच में जेब से कुछ निकालकर मुंह में जो डालती जा रही थी वह शायद चॉकलेट थी.
देर तक साइकिल के पैडल मारने के बाद वह मौली के पास आकर शिकायती लहजे में बोली,‘कितनी देर से बैठी हूं, पर कोई मुझ पर ध्यान नहीं दे रहा है.’
यह सुनकर मौली सपाट शब्दों में बोली,‘जो लोग तुमसे ज़्यादा समर्पित हैं, पहले उन्हें देखूंगी. वैसे अगर तुम हमारे साथ चलना चाहती हो तो आज मैं एरोबिक्स करवा रही हूं, तुम भी जॉइन कर लेना.’ मौली के इस उपेक्षा भरे व्यवहार की अपेक्षा उसे नहीं थी. एरोबिक्स में वह सबसे पीछे खड़ी हुई. बेमन से इधर-उधर थोड़ी देर हाथ-पैर फेंक कर वह फिर बैठ गई.
क़रीब दस दिन यूं ही निकले. फिर एक दिन बरसात में वह भीगी हुई जिम पहुंची. जिम में एक्का-दुक्का लोग थे. उसे भीगी देखकर मौली ने कहा,‘अगर तुम चेंज करना चाहो तो मैं तुम्हें ट्रेकसूट दे सकती हूं. यह सुनकर वह तल्खी से बोली,‘रहने दीजिए, मुझे कुछ भी फ़िट नहीं आएगा.’ जाने क्या था उसकी आवाज़ में कि मौली द्रवित हो गई.
‘मेरे पास प्लस साइज़ है ट्राई कर लो.’ उसे गीले कपड़ो में उसे असुविधा हो रही थी इसलिए उसने ‘हां’ में सिर हिला दिया.
चेजिंग रूम से बाहर आई तो नीली टीशर्ट और केप्री में उसे देखकर मौली मुस्कराकर बोली,‘अच्छी लग रही हो...’
‘झूठ मत बोलिए, मैं बिलकुल अच्छी नहीं दिखती हूं...’ उसके रूखे स्वर से विचलित मौली बोल पड़ी.
‘स्वर्णिम, क्या आप अपने स्कूल में अपनी टीचर्स-फ्रेंड्स से ऐसे ही बात करती है?’
सुनते ही वह तपाक से बोली,‘मेरे मां-बाप ने बस एक काम अच्छा किया है मेरा नाम सुंदर रखा है स्वर्णिम पर इस नाम से मुझे कोई नहीं पुकारता. मोटी उपनाम है मेरा. स्कूल हो या घर, सब मोटी कहते हैं. मेरे क्लासमेट मेरे टिफ़िन में झांककर देखते हैं मैं क्या खा रही हूं... मेरी टीचर्स हमेशा मुझे क्रिस्मस में सेंटाक्लॉज़ बना देती है...’
‘हां तो अच्छा है. सेंटाक्लॉज़ हमेशा ख़ुशियां बांटता है.’ मौली ने उसकी बात का जवाब दिया तो वह मायूसी से बोली,‘पर मेरी मम्मी ख़ुश नहीं होती, वह मुझे सिंड्रेला बनते देखना चाहती है. मेरे कज़न्स, मेरा भाई सब सुंदर हैं.’
‘तुम भी तो सुंदर हो.’ उसके कहने पर वह धीमे से बोली,‘वो पतले भी हैं’ यह कहते ही उसकी आंखों में दर्द पानी बनकर बह निकला.
मौली उसकी तरफ़ कॉफ़ी का कप बढ़ाते हुए बोली,‘मेरा मानना है कि सुंदरता का कोई तय मानक नहीं है, और अगर हो भी तो ज़रूरी नहीं वह सबके लिए एक हो. मैंने उस दिन देखा, तुम सड़क के पार वाली गली के एक कुत्ते को बिस्किट खिला रही थी. सड़क किनारे बैठी बूढ़ी भिखारिन को कुछ खाने को भी देती हो.’
उसने मासूमियत से मुस्काराकर स्वीकारा तो मौली भी मुस्कराकर बोली,‘तुम मन से बहुत सुंदर हो.’
‘नहीं, मम्मी-पापा कहते हैं कि मैं बहुत ख़राब हूं... मन से भी...’ वह अड़ियल घोड़ी की तरह अपनी बात पर ऐसे अड़ी थी. जैसे उसकी अच्छाई प्रकट हो गई तो उसका बड़ा नुक़सान हो जाएगा, पर मौली ने बातचीत के सूत्र थामे रखे,‘तुम्हें हंसते बहुत कम देखती हूं, पर जब कभी तुम मुस्कुराती हो तो आंखों के किनारे बनती ये दो लकीरें बड़ी सुंदर दिखती हैं और हां, हंसते हुए हाथ मुंह पर मत धरा करो, तुम्हारे दांत छिप जाते हैं. तुम्हें शायद किसी ने नहीं बताया कि तुम्हारे ऊबड़-खाबड़ दांत तुम्हारी हंसी में चार चांद लगाते हैं.’ यह सुनकर वह झट से बोली,‘मुझे हंसना नहीं चाहिए, क्योंकि हंसने से भी लोग मोटे होते हैं. वैसे हंसने के लिए किसी का साथ चाहिए पर मुझसे तो कोई बात नहीं करता. कोई मुझे सुनता नहीं है. सबकी फ़िक्र यही है कि कैसे भी मेरा वज़न कम हो जाए, ये पिंपल्स ख़त्म हो जाएं.’
एक ही धुरी पर उसको घूमते देख मौली ने कहा,‘तो क्या बुरा है, अगर ये मोटापा और चेहरे के धब्बे दूर हो तो...’
‘ये संभव नहीं है, मैंने कोशिश की थी पर न मोटापा दूर गया और न ही मुहांसे दूर हुए. फ्रेंड्स भी चिढ़ाते हैं, मुझे अजीब तरीक़े से देखते हैं. कॉलेज में किसी भी फ़ंक्शन में मुझे कोई काम नहीं मिलता. कोई लड़का मुझे अपने ग्रुप में शामिल नहीं करता. एक बार मैंने ज़बरदस्ती डिबेट में पार्ट लिया, आप जानती हैं डिबेट कंपटिशन में जो लड़का मेरा पार्टनर था, उसे सब ने बहुत चिढ़ाया. ख़ैर फ्रेंड्स से मैं बात नहीं करती, पर घरवालों को कैसे छोड़ दूं?’
नाराज़ स्वर्णिम बोलती जा रही थी,‘मेरे पैरेंट्स, भाई-कज़न्स सब मेरे हाथ से तला-भुना खाना यूं छीनते हैं जैसे मैं चोर हूं. सब छोले के साथ भटूरे खाते हैं, पर मुझे रोटी यूं देते हैं, जैसे मेरे मोटापे की मुझे सज़ा दे रहे हों. मैं भी उन्हें सताती हूं. ख़ूब मीठा तला-भुना खाकर. मैं वो सब खाती हूं, जो मुझे मना है. वो सब मुझसे घृणा करते हैं. हमारे घर में ऐसे ही चलता है वो मुझे तंग करते है मैं उन्हें... और क्यों न करूं? कितना बुरा लगता है जब वो मुझे कहते हैं कि मैं चलती हूं तो पेट हिलता है. कोई कहता है ए मोटी, मुंह फाड़कर मत हंसो. ऊबड़-खाबड़ दांत देखकर कोई डर जाएगा. कोई बाहरी कहे तो समझ में आता है पर मेरे घरवाले, मेरे पैरेंट्स.... उफ़! जब कभी कोई पूछता है कि मैं किसकी बेटी हूं तो, वो शर्मिन्दा से हो जाते हैं. मुझे बेटी बताने में उन्हें शर्म आती है.’
मायूसी और दुःख से निर्मित विकृत भाव भंगिमा में वह अपने मन की कड़वाहट अपने क़रीबियों और घरवालों पर उड़ेलते थक नहीं रही थी. ‘मम्मी-पापा क्यों सबको झूठी सफ़ाई देते हैं कि इम्तहान के दिनों में पढ़ाई करते हुए बैठे-बैठे मैंने अपना वज़न बढ़ा लिया है, जबकि ऐसा नहीं है. मैं तो पहले से ही मोटी रही हूं... मोटी थी, मोटी रहूंगी. आप सोच नहीं सकतीं ये बातें कितनी बुरी लगती हैं.’
उसकी लाल छलकने को आतुर आंखों को देखती मौली बोली,‘स्वर्णिम, उनकी बातें उनका व्यवहार तुम्हें आहत करता है ये कभी उन्हें बताया?’ इसका जो जवाब उसने दिया उसने मौली के भीतर सिहरन भर दी. ‘किसी के पास मुझे सुनने का समय नहीं है. सब सुनाने को तैयार बैठे हैं. जी करता है ख़ुद को काट-छांट दूं. तभी सबके कलेजे को ठंडक पड़ेगी...’
जिम में रोज़ाना मोटे लोगों से रूबरू होने के बावजूद आज उसने पहली बार मोटापा ग्रस्त लड़की की व्यथा को अनुभव किया. मौली का मानना था कि स्वस्थ और स्वयं को ख़ुश रहने के लिए फ़िटनेस ज़रूरी है, पर यहां दूसरों की आकांक्षाओं पर खरा उतरने के लिए फ़िटनेस मंत्र अपनाया जा रहा था.
स्वर्णिम अगले दिन जिम आई तो कुछ सहज लगी. ‘आज क्या करूं मैम, कार्डियो या वेट्स...’ उसने अपने आप ही आगे बढ़कर पूछा तो मौली बोली,‘दस मिनट कार्डियो करो... फिर बताती हूं.’ दस की जगह बीस मिनट तक उसने कार्डियो किया और बेतरह हांफ गई.
वर्कआउट के बाद आराम के क्षणों में मौली स्वर्णिम के पेट की और संकेत करते हुए मज़ाकिया लहज़े में बोली,‘तुम्हारे पिंपल्स के लिए ये ज़िम्मेदार है. अगली बार तुम्हारा पेट फ्रायड और मीठा मांगे तो उसे डपट देना...’
यह सुनकर वह मासूमियत और शरारत भरी हंसी हंसते हुए अपने पेट की ओर इशारा करते हुए बोली,‘मैम, ये बड़ा ढीठ है. डपटने का इस पर कोई असर नहीं होता है. ज़िद करता है तो मुझे खिलाना ही पड़ता है...’
मौली ज़ोर से हंसते हुए बोली,‘अच्छा ठीक है, जब ये खाना मांगे तो इसे खाने के लिए फ्रूट और सैलेड देना, क्योंकि अब ये नाइंसाफ़ी है कि तुम यहां इतनी मेहनत से वर्कआउट करो और ये उसका सत्यानाश करे..’ पेट पर चुभती मौली की उंगली पकड़कर वह हंस देती और कहती,‘ठीक है, कोशिश करती हूं... आज से इसे डांट-डपटकर रखूंगी...’
धीरे-धीरे स्वर्णिम को एक्सरसाइज़ का जूनून-सा सवार होता गया. दो महीने में ही उसमें बहुत परिवर्तन आया. शारीरिक रूप से तो कोई ख़ास अंतर नहीं दिखा पर व्यवहार बदला था. वह ख़ुशमिज़ाज दिखती थी. चेहरे पर हरदम छाई चिढ़ नदारद थी. अब वह एक सहज मुस्कान के साथ आती और आते ही वर्कआउट शुरू कर देती.
जिम के सभी लोग उसे प्रोत्साहन दे रहे थे. हलके-फुल्के माहौल में उसे ख़ुद में हल्केपन का आभास होता. फिर एक दिन वज़न-मापनी में देखा गया तो क़रीब तीन-चार किलो वज़न कम हुआ. उस दिन वह ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर गई.
पर अगले दिन फिर वह पहले जैसी अनमनी-सी साइकिल पर पैडल मारती दिखी. पूछने पर बताया,‘मैम, कल मैंने भाई को वेट लॉस की बात कही तो कहने लगा,‘हाथी कितना भी दुबला हो, भैंस से मोटा ही रहता है...’ बस मुझे ग़ुस्सा आया मैंने ढेर सारा मख्खन लगाकर पराठे खाए...’ उसे रुआंसी देखकर मौली गंभीरता से बोली,‘ओह! कल तुम्हारे ग़ुस्से की वजह से मेरी और तुम्हारी दोनों की मेहनत पानी में चली गई.’ वह चुपचाप बैठी रही तब मौली ने उसे समझाया,‘देखो, कितना सुंदर नाम है तुम्हारा ‘स्वर्णिम’ तुम ख़ुद भी सुंदर हो, फिर क्यों तुम मोटापे और ग़ुस्से की परतों को ख़ुद पर चढ़ाए हो? ख़ुद को स्वस्थ रखने के लिए मोटापे को किक मारो. पैरेंट्स, भाई, फ्रेंड्स के लिए नहीं, ख़ुद के लिए अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण करो.’ उसकी बात सुनकर वह अविश्वास भरी आंखें उस पर टिकाकर पूछती,‘क्या ये होगा?’
‘क्यों नहीं होगा, बस अब ये सोचो कि तुम वर्कआउट अपने लिए करोगी. कोई कितना भी ग़ुस्सा दिलाए तुम मीठा-फ्रायड नहीं लोगी. ग़ुस्सा आए, तो एक गिलास गर्म पानी पीकर अपना आक्रोश ज़ाहिर करोगी. हां, हफ़्ते के आखिरी दिन तुम वह सब खाना, जो तुम्हें पसंद है.’ वह एक बार फिर चार्ज हुई. सकारात्मक सोच उस पर असर दिखाने लगी थी.
शुरू-शुरू में तो वह वीकेंड पर ख़ूब जमके खाती थी पर धीरे-धीरे वह वीकेंड पर भी संतुलित आहार लेने लगी. वर्कआउट के साथ शरीर में जमा फ़ैट ढीला होने लगा.
मौली उसे अनवरत समझाती रही कि सेहत दूसरों की ख़ुशी के लिए नहीं अपनी ख़ुशी के लिए संवारी जाती है. मौली ने स्वर्णिम के पैरेंट्स की काउंसलिंग करते हुए सख़्त अंदाज़ में उन्हें हिदायत दी कि वे अपनी बेटी को ‘स्वर्णिम’ के इतर उपनामों पर प्रतिबंध लगाएं. वे स्वयं भी स्वर्णिम के वाह्य-आंतरिक परिवर्तन को महसूस कर रहे थे. इसलिए मौली की हिदायतों का अक्षरश: पालन हुआ. वो अब स्वर्णिम के मनोविज्ञान को समझकर उसे प्रोत्साहित करते, सहयोग करते. क़रीब आठ-नौ महीने बाद स्वर्णिम के पिता का तबादला पूना हो गया. इतने सालों बाद स्वर्णिम ने उससे संपर्क किया. आज स्वर्णिम कैसी है, कहां है इन रोमांचकारी प्रश्नों का जवाब ढूंढ़ने के लिए उसने उसकी प्रोफ़ाइल चेक करते हुए वह अभिभूत हो गई. मोटापे के साथ मानसिक तनाव और अन्य शारीरिक समस्याओं से जूझती स्वर्णिम आज आत्मविश्वासी डाइटीशियन बन चुकी थी.
तय समय पर वह टीवी खोलकर बैठ गई. उसे लाइव देखना और सुनना परी कथा-सा एहसास था. विश्वस्तरीय कार्यशाला से कॉटन साड़ी में चुस्त-दुरुस्त सुविख्यात डाइटीशियन स्वर्णिम पांड्या स्वस्थ जीवन के लिए स्वस्थ आहार पर धाराप्रवाह बोलते हुए लोगों के प्रश्नों का जवाब दे रही थी. एक प्रश्न के जवाब में उसने अपने अतीत का वह हिस्सा उधेड़ा जिसमें मौली थी. विश्वस्तरीय आहार नियंत्रण कार्यशाला में बैठे अनेक स्टूडेंट और आहार विशेषज्ञ सब उसे सुन रहे थे कि किस तरह उसके अमावसपूरित जीवन में मौली नन्हा दिया बनकर आई और उसने अपनी रौशनी में उसे अंधेरे से बाहर आने का हौसला दिया. साक्षात्कार में स्वयं का ज़िक्र सुनकर मौली की पलकें भीग गईं.
उसने एक बार फिर स्वर्णिम को स्क्रीन पर ताका. कौन सोच सकता था कि जो कभी ख़ुद इन्द्रियों के वश में थी, वह आज इन्द्रियों को वश में करने के गुर सिखा रही थी. इस जिम में उसके द्वारा तन तो कइयों के तराशे गए, पर मन को संवारना और तराशना उसे सृजनकर्ता-सा एहसास दे रहे थे. काश हम सभी तन का वज़न कम करने से पहले अपने मन के वज़न को कम करने की सोचते!
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