कहानी: बदलते रिश्ते

जितनी तेज़ी से ट्रेन भाग रही थी, उससे कहीं ज़्यादा तेज़ भाग रहा था नेहा का मन. जैसे बीते हुए समय को भी आज ही जी लेने पर आतुर हो. अच्छा ही हुआ कि मोहित उसके साथ नहीं आए, वरना इतनी देर अपने आप में खो कर कुछ सोचना संभव ही नहीं हो पाता. वो उसे ज़रा देर भी चुप नहीं देख सकते, शायद इसलिए, क्योंकि उससे बहुत प्यार करते हैं. उनके बिना अब नेहा को भी कहां अच्छा लगता है? पर आज बात कुछ और है... आज वो बहुत ख़ुश है, क्योंकि मां ने उसे ख़ुद बुलाया है, ताकि वो और पापा उनके साथ रहने आ सकें. 

मां के मुंह से यह सुनने के लिए उसने कितना लंबा इंतज़ार किया है और आज जब ये मौक़ा आया है तो भोपाल से बीना तक का चार घंटे का सफ़र उसे बहुत लंबा लग रहा है. उसे तो सारी घटनाएं जैसे कल की ही बात लगती हैं. अपने मायके से ससुराल का सफ़र नेहा ने भी वैसे ही तय किया जैसे कोई आम लड़की करती है. पढ़ाई पूरी करने के बाद उसके मां-पापा ने उसके लिए वर की तलाश शुरू की. उसकी पढ़ाई, रूप और गुण देख कर पंकज से उसकी शादी भी ऐसे हुई कि बस चट मंगनी और पट ब्याह.

उस रात जब पंकज कमरे में आए और बिना कोई भूमिका बांधे उन्होंने नेहा का हाथ पकड़ा तो उनके पहले स्पर्श के मीठे एहसास में वो खो-सी गई.

‘‘नेहा, तुम पढ़ी-लिखी और समझदार हो, यही वजह है कि मैंने तुमसे शादी की रज़ामंदी दी. तुम मुझे पहली ही नज़र में भा गईं और मां-पापा को भी मेरी शादी की जल्दी थी इसलिए मैंने शादी के लिए ‘ना’ नहीं कहा. अब तुम मेरी पत्नी हो इसलिए बहुत खुल कर तुमसे कुछ कहना चाहता हूं.’’

पंकज की बातों को बहुत ध्यान से सुन रही थी वो, क्योंकि अपना घर छोड़ते समय मां ने उसे यही तो सिखाया था कि अब वो और उनका परिवार ही उसकी दुनिया है. कुछ रुक कर, उसकी आंखों में झांकते हुए पंकज ने कहा,‘‘दरअसल, हमारी शादी इतनी जल्दबाज़ी में हुई की चाह कर भी मेरे माता-पिता और मैं तुमसे एक बात नहीं कह पाए. बहुत हिम्मत कर के तुम्हें बता रहा हूं, उम्मीद है तुम नाराज़ नहीं होगी. हमारी शादी तय होने के दस दिन बाद मुझे ऑस्ट्रेलिया में एक जॉब का ऑफ़र मिला था, जहां पहले छह महीने के लिए केवल मैं ही जा सकता हूं. उसके बाद ही तुम्हें ले जा पाऊंगा. हालांकि मेरे करियर के हिसाब से देखा जाए तो ये एक अच्छा मौक़ा है, लेकिन समस्या ये है कि मुझे परसों ही जाना है और मुझे इस बात का दुख है कि तुम्हें हनीमून पर भी नहीं ले जा सकूंगा.’’ यह कह कर नेहा के हाथों को सहलाते हुए पंकज ने अपनी नज़रें नेहा के चेहरे पर टिका दीं, मानो उसके जवाब की प्रतीक्षा कर रहे हों.

शादी की पहली रात और हनीमून के सपनों में उड़ती नेहा जैसे अचानक धरातल पर आ गई. पति के घर के हर रिश्ते को धैर्य के साथ निभाने की मां और भाभी की सीख उसके कानों में पड़ने लगी. वो चुप थी, लेकिन नाराज़ नहीं, क्योंकि पति के करियर के अच्छे विकल्प पर भला उसे क्या आपत्ति हो सकती थी? लेकिन इस बात के खुलासे का ये मौक़ा...उसे पसंद नहीं आया.

‘‘क्या बात है, नाराज़ हो गईं? कुछ तो बोलो... मैं जानता हूं आज की रात यह बात बताने का उचित मौक़ा नहीं था, लेकिन अपनी पत्नी के साथ नए जीवन की शुरुआत झूठ बोल कर भी तो नहीं कर सकता था.’’

‘‘मैं आपकी भावनाएं समझ रही हूं, लेकिन यदि आपने यह पहले बता दिया होता तो मैं इसके लिए मानसिक रूप से तैयार रहती. आपकी तरक़्क़ी से मैं ख़ुश हूं, लेकिन शादी के तीन दिन बाद ही चले जाएंगे? हम तो एक-दूसरे को अच्छी तरह जान भी नहीं सके हैं.’’

‘‘मैं जानता हूं नेहा और इसलिए एक और बात कहना चाहता हूं. क्यूं न ये तीन दिन हम बहुत अच्छे दोस्तों की तरह बिताएं और शादीशुदा जीवन की शुरुआत मेरे लौट के आने पर ही करें. इन तीन दिनों और आगे के छह महीनों में एक-दूसरे को समझने का पूरा मौक़ा भी मिल जाएगा हमें.’’

पंकज की इस पेशकश ने नेहा को थोड़ा संबल दिया और यह समझने का मौक़ा भी कि पंकज वाक़ई बहुत अच्छे इंसान हैं. उस रात पंकज और नेहा ने एक-दूसरे से अपनी ज़िंदगी की ढेर सारी बातें शेयर कीं. सुबह उठ कर, नहा-धो कर जब नेहा किचन में पहुंची तो सासू मां ने पूछा,‘‘नेहा, बेटा तुम नाराज़ तो नहीं हो ना? हमने तुम्हें शादी के पहले पंकज के ऑस्ट्रेलिया जाने के बारे में नहीं बताया. सच पूछो तो इसकी ज़िम्मेदार मैं ही हूं. कब तक तो ना-नुकुर करता रहा, जब तुम पसंद आ गईं तो मैं शादी में ज़रा भी देर नहीं चाहती थी और इसी बीच यह जॉब ऑफ़र आ गया. पंकज ने तो कहा था कि वो तुम्हें बताएगा, लेकिन मैंने ही रोक दिया उसे. वो नहीं रहेगा तो क्या...मैं हूं, पापा हैं, तुम्हारी जेठानी-जेठ और उनके ये दोनों बच्चे भी तो हैं. हम तुम्हें कोई तकलीफ़ नहीं होने देंगे.’’

‘‘कैसी बात करती हैं मां, भला आप लोगों के होते मुझे किस बात की चिंता? हां, शादी को तीन दिन भी नहीं हुए और ये जाएंगे इस बात का बुरा ज़रूर लगा, पर इनका करियर अच्छा बनेगा इसकी ख़ुशी कहीं ज़्यादा है मुझे. फिर छह महीनों की ही तो बात है, निकल जाएंगे,’’ बीती रात पंकज के स्नेह और विश्वास में पगी नेहा ने कहा.

अगले दो दिन तो पंकज के जाने की तैयारी में ही बीत गए. जाते समय पंकज ने नेहा को अपने क़रीब खींचा और चुंबन लेते हुए कहा,‘‘नेहा, मैंने किसी को भी नहीं बताया है कि मुझे इन छह महीनों में सात दिन का एक मिड टर्म ब्रेक मिलेगा. मैं तब तुम्हारे लिए ऑस्ट्रेलिया का टिकट भेज दूंगा. तुम वहां आओगी और इजाज़त दोगी तो हम अपनी ज़िंदगी की शुरुआत वहीं करेंगे. इन तीन दिनों में ही ऐसा लग रहा है, जैसे तुम पता नहीं कब से मेरी हो. मेरा तो जाने का मन ही नहीं हो रहा,’’ फिर उसकी आंखों में आंखें डाल कर उन्होंने पूछा,’’यूं चुपचाप ही विदा करोगी क्या?’’

नेहा ख़ामोश ही रही, लेकिन पंकज के इतने क़रीब आ गई कि उसके मौन समर्पण के आगे ऐसे मौक़ों पर बोले जाने वाले सारे शब्द बेमानी हो गए.

पंकज के जाने के बाद घर के सभी सदस्यों का ख़्याल रखना उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया. पंकज से रोज़ ही वो इंटरनेट पर चैट कर लिया करती. धीरे-धीरे तीन माह बीत गए. पंकज ने उसके लिए ऑस्ट्रेलिया का टिकट भेज दिया और नेहा अपने पति से मिलने वहां जा पहुंची. पंकज के साथ बिताए वो सात दिन...वो तो नेहा ज़िंदगी में कभी नहीं भूल सकती. उसकी नई ज़िंदगी की सुनहरी शुरुआत थी. ज़िंदगी इतनी हंसी और ख़ूबसूरत हो सकती है, कोई उसे इतना प्यार दे सकता है, कभी सोचा भी नहीं था उसने. पंकज ने तो जैसे उसे जन्नत की परी बना कर रखा. उन सात दिनों ने पंकज और उसके बीच की सारी दूरियां मिटा दीं. जब पंकज से मिल कर भारत लौटी तो उसके चेहरे का नूर देख कर उसकी सास, जेठानी ने ही नहीं उसकी मां और भाभी ने भी उससे चुहलबाज़ी करने का कोई मौक़ा नहीं गंवाया.

बस तीन ही दिन बाद तो पंकज आने वाले थे, जब ऑस्ट्रेलिया से आए एक फ़ोन ने नेहा की ज़िंदगी का नक्शा ही बदल दिया. फ़ोन पंकज के ऑफ़िस से था और उन्होंने बताया कि ट्रेनिंग ख़त्म होने पर सभी लोग पिकनिक मनाने गए थे और वहां एक हादसे में पंकज की मौत हो गई. वो क्या घर में कोई भी इस बात पर विश्वास नहीं कर सका था और सब यही मना रहे थे कि ये कोई ग़लतफ़हमी हो, लेकिन तीन दिन बाद जब पंकज की जगह उनकी डेड बॉडी घर पहुंची तो...

‘‘आप रो रही हैं?’’ ट्रेन में नेहा के बगल में बैठी महिला ने पूछा तो उसे एहसास हुआ कि यह सब सोचते-सोचते उसकी आंखों से न जाने कब आंसू बह निकले.

‘‘नहीं, बस ऐसे ही,’’ कह कर नेहा ने रुमाल से आंसू पोंछे. ‘‘कौन-सा स्टेशन है?’’ कुछ संयत होते हुए उसने पूछा.

‘‘गंजबासौदा,’’
यहां से एक-सवा घंटे बाद तो वो अपनी सासू मां के पास ही होगी. चाय वाले से एक कप चाय ले कर खिड़की से बाहर झांकती नेहा एक बार फिर अतीत में पहुंच गई. पंकज की डेड बॉडी देख कर भावशून्य-सी वह घर के एक कोने में बैठ गई. उसकी सासू मां का तो रो-रो कर बुरा हाल था. घर के सभी सदस्य दुखी थे और वो ख़ुद भी सदमे में थी. अपनी मां, भाभी को देख कर उसने पूछा,‘‘मां, क्या ये वाक़ई सच है? मां, पंकज ने तो कहा था कि लौट कर वो मुझे साथ लेकर ऑस्ट्रेलिया जाएंगे. भला ऐसा झूठा वादा भी कोई करता है? मां, ये मेरे साथ ही क्यों हुआ? इसे बदल दो मां...इसे बदल दो,’’ अपनी मां के गले लग कर नेहा फूट-फूट कर रो पड़ी.

पंकज की तेरहवीं के दूसरे दिन उसके ससुर ने उसके माता-पिता को बुलाया और बोले,‘‘नेहा अब हमारी बहू नहीं, बेटी बन कर इस घर में रहेगी. मैं उसे आगे पढ़ाऊंगा और जब अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी तो उसका दूसरा विवाह भी करूंगा. मुझे उम्मीद है कि मेरे इस निर्णय से आप भी इत्तफ़ाक रखते होंगे, क्योंकि अभी मेरी बच्ची की उम्र ही क्या है? दुनिया के सुख देखे ही कहां हैं उसने?’’ उसके माता-पिता ने उसके ससुर के इस निर्णय से कैसा महसूस किया ये तो उसे नहीं पता, लेकिन उसकी सास और ख़ुद उसका चेहरा ग़ुस्से से तमतमा उठा था,‘‘अभी पंकज को गए तेरह दिन भी नहीं बीते और पापा जी ऐसा सोचने लगे?’’

उसकी सास ने तो कह ही दिया,‘‘बेटे की मौत की वजह से बहकी-बहकी बातें कर रहे हो. इनसे ये कहने के पहले अपनी पत्नी से बात करने की कोई ज़रूरत नहीं समझी तुमने?’’

उनकी बातों को अनसुना करते हुए उन्होंने आगे कहा,‘‘मेरी भी उम्र हो चुकी है और मैं चाहता हूं कि अपने जीवित रहते-रहते नेहा को ज़िम्मेदार हाथों में सौंप दूं, ताकि निश्चिंत हो कर मर सकूं,’’ यह कहते कहते उसके ससुर उसके पिता के कंधे पर सिर रख कर फफक-फफक कर रो पड़े. फिर कुछ ही दिनों में उन्होंने नेहा का दाख़िला एमएससी के लिए करवा दिया. दो साल एमएससी और फिर पीएचडी करने तक नेहा बिल्कुल बेटी बन कर अपने ससुराल में रही. हां, ये सच है कि  उसके जीवन से रंग उड़ गए थे, जीने का उत्साह तो ख़त्म ही हो गया था. सभी चीज़ें बस, यंत्रवत होती चली जा रही थीं. पढ़ाई में डूब कर उसने पंकज को भुलाना चाहा, लेकिन उनकी याद जब-तब उसकी पलकों की कोरों को गीला कर ही जाती थी. पीएचडी करते करते ही उसने बीना के एक कॉलेज में पढ़ाना शुरू कर दिया और पीएचडी पूरी होने से पहले ही उसे भोपाल यूनिवर्सिटी में नौकरी का ऑफ़र मिल गया. उसके सास-ससुर ने उसे भोपाल रह कर नौकरी करने की इजाज़त भी दे दी. यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में रह कर अपनी नौकरी करते हुए जीवन अपनी गति से चल निकला. 

सप्ताह भर यूनिवर्सिटी में पढ़ाना और लगभग हर सप्ताहांत बीना चले आना उसकी ज़िंदगी का हिस्सा बन गया था. इस बीच अचानक एक दिन उसकी मुलाक़ात मोहित से हुई, जो अपनी छोटी बहन को हॉस्टल में छोड़ने आए थे. अपनी छोटी बहन राशि को पहली बार हॉस्टल में छोड़ने का डर ही था, जो वे उसका ख़्याल रखने की बात कहने दोबारा नेहा से मिलने आ पहुंचे. नेहा ने उन्हें आश्वस्त किया और बातों ही बातों में उसे पता चला कि वे डॉक्टर हैं और उनके माता-पिता की मृत्यु के बाद राशि की देखभाल का ज़िम्मा उन पर ही है. वे ख़ुद यहीं हॉस्टल में रह कर एमएस कर रहे हैं इसलिए भोपाल में अपना घर होते हुए भी राशि को हॉस्टल में रखना पड़ रहा है. राशि का ख़याल रखते रखते न जाने कब वह राशि और मोहित के इतने क़रीब आ गई कि एक दिन मोहित ने पूछा,‘‘नेहा, राशि ने मुझे तुम्हारे बारे में सब कुछ बता दिया है. क्या तुम मुझसे शादी करोगी? मेरा घर भी बस जाएगा और राशि को भाभी का प्यार भी मिल जाएगा. कोई जल्दी नहीं है, सोच-समझ कर फ़ैसला लेना. जो भी निर्णय लोगी, मुझे स्वीकार होगा.’’

‘‘एक बार घर बसाने की शुरुआत की तो इतना बड़ा हादसा हो गया. अब मुझे ऐसी ख़ुशी से डर लगने लगा है मोहित, लगता है जैसे ऐसी ख़ुशियां सिर्फ़ दूसरों के लिए हैं, मेरे लिए नहीं. मुझसे दोबारा ऐसा नहीं हो सकेगा.’’

‘‘फिर भी, सोच कर तो देखो. एक हादसा होने का ये मतलब तो नहीं कि ज़िंदगीभर के लिए ख़ुशियों से किनारा कर लिया जाए. ईश्वर के किए पर किसी का बस नहीं चलता नेहा, लेकिन हादसों से उबरना ज़िंदगी जीने के लिए ज़रूरी है. मैं केवल यही नहीं चाहता कि तुम्हारी ज़िंदगी में रंग और मुस्कान लौटा सकूं, बल्कि अपनी रीती-सी ज़िंदगी को रंगों से सराबोर करने के लिए मुझे तुम्हारे जैसी समझदार जीवनसाथी की ज़रूरत है.’’
‘‘मुझे कुछ समय चाहिए मोहित, ताकि ज़िंदगी के बदलते रिश्तों से तालमेल बिठा सकूं.’’
इस सप्ताह बीना जाने की योजना बनाती, इससे पहले ही अपने ससुर जी को अपने ऑफ़िस में आया देख नेहा अचरज से भर गई, लेकिन मोहित को उनके पास खड़ा देख कर उनके यहां आने का कारण उसकी समझ में आ गया.

‘‘नेहा, मैं तो यही चाहता था कि तुम्हारी दोबारा शादी करूं. मोहित ने मुझसे और तुम्हारी मां से तुम्हारा हाथ मांग कर मेरी चिंता दूर कर दी. तुम तो अपनी मां को जानती ही हो, पंकज के बाद से ही वो उखड़ी-उखड़ी रहती है. मां है ना और वो भी परंपरावादी मां, उसकी बहू किसी और से शादी करे ये उससे भला कैसे बर्दाश्त होगा? यही वजह है कि उसने मोहित को भी बहुत खरी-खोटी सुनाई. मोहित ने इस बात का बुरा नहीं माना...यही बताता है कि उसे तुमसे कितना लगाव है. बिटिया, मुझे लगता है कि तुम्हें उससे शादी कर लेनी चाहिए, ’’ उसके ससुर ने बड़ी गंभीरता से कहा.

नेहा सुबकते हुए उनकी बात सुनती रही. नेहा के माता-पिता की रज़ामंदी ले कर उन्होंने जल्द ही सादगी भरे समारोह में नेहा और मोहित का विवाह करवा दिया. इस विवाह में नेहा की सास को छोड़कर सभी शामिल थे. उसके ससुर के लाख मनाने पर भी वे शादी में शामिल नहीं हुईं. नेहा से तो उन्होंने बात करना भी बंद कर दिया, यह बात नेहा को हमेशा सालती रहती थी. नेहा की शादी को साल होने आया और मोहित के प्यार और राशि के स्नेह के बीच उसे अब ज़िंदगी रंगीन लगने लगी थी. एक रात क़रीब दो बजे उसके ससुर जी का फ़ोन आया कि उसकी सास को हार्ट अटैक आया है और वो हॉस्पिटल में हैं. नेहा और मोहित तुरंत बीना के लिए रवाना हो गए. मोहित डॉक्टर थे अत: वहां अन्य डॉक्टरों से बात कर के उन्होंने मां का बेहतरीन इलाज कराने और उनकी तीमारदारी में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन उनके होश में आने से पहले ही मोहित ने उसके ससुर से नेहा और अपने जाने की बात कही तो नेहा भड़क उठी,‘‘तुम्हारा ये अपनापन सिर्फ़ दिखावा है मोहित, वरना तुम मां के होश में आने से पहले पिताजी से हमारे लौटने की बात नहीं करते.’’

‘‘जानती हो नेहा, अपने बेटे की मौत और बहू की शादी जैसे बोझ मन में लिए वो हार्ट पेशेंट बन गईं. मैं डॉक्टर हूं और जानता हूं कि ऐसी हालत में होश आते ही यदि वे हमें यहां देखेंगी तो और टेंशन में आ जाएंगी. ये उनकी सेहत के लिए अच्छा नहीं होगा, फिर भी यदि तुम चाहती हो तो यहां रुक सकती हो.’’

अपनी नादान समझ पर दुखी होती हुई नेहा मां के होश में आने से पहले ही मोहित के साथ वापस लौट गई. इस घटना को दो माह बीत चुके हैं और कल रात जब बीना से फ़ोन आया तो ख़ुद मां ने उससे और मोहित से बात कर के कहा कि वो अपनी बेटी और दामाद के घर रहने आना चाहती हैं. मोहित का हॉस्पिटल से निकल पाना संभव नहीं था इसलिए आज वो ख़ुद अपने मां और पिता को अपने घर ले जाने बीना जा रही है. ट्रेन की गति धीमी हुई तो बीना स्टेशन पर मां और पापा को इंतज़ार करते देख उसकी आंखें छलछला आईं. मां-बेटी के मिलन के ये आंसू बदलते रिश्तों की स्वीकारोक्ति पर मुहर लगा रहे थे.

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