कहानी: तीसरी दीवार
पहली दीवार
हाथ में अपने दस्तावेजों की फ़ाइल पकड़े परेशान चेहरों वाले लोग और काले चोगे में अपने लिए आसामी ढूंढ़ रहे वक़ीलों की भीड़ कोर्ट परिसर की पारंपरिक पहचान है.
फ़ैमिली कोर्ट के इस गहमा गहमी भरे माहौल में यहां की हलचल को नज़रअंदाज़ करते हुए दोनों एक दूसरे की ओर देख रहे हैं. उनकी पलकें थोड़ी गीली हैं, पर आंखों में चमक है. ऐसा लग रहा है मानों आंखों आंखों में संवाद चल रहा हो. काफ़ी देर तक इसी मुद्रा में रहने के बाद प्रतीक ने पलक के हाथ को थामा तो पलक उसकी ओर खिंची चली आई.
‘‘तो आख़िरकार पहली दीवार टूट ही गई,’’ प्रतीक ने बड़ी सौम्यता से कहा.
‘‘पर यह तो क़ानूनी जीत है ना. अब अगली दीवार को तोड़ना नहीं पिघलाना है,’’ प्रतीक के हाथ को और कस कर पकड़ते हुए पलक ने थोड़ी चिंतातुर आवाज़ में कहा. प्रतीक की आंखों में सहमति देखकर उसने आगे कहना शुरू किया,‘‘इस समय इस दीवार को फ़तह करने की ख़ुशी से कहीं ज़्यादा अपनों की भावना और स्नेह रूपी दीवार की चिंता हो रही है.’’
‘‘हां, हमारे लिए इसी दीवार का सबसे अधिक महत्व है, क्योंकि हमें अपनी नई ज़िंदगी की शुरुआत इसी की सुरक्षापरिधि के बीच करनी है.’’ प्रतीक के इस जवाब पर पलक ने अपने सिर और पलकों को हिलाकर सहमति जताई.
तभी एड्वोकेट गुप्ता आए. उन्होंने प्रतीक को बगल में बुलाया. प्रतीक और एड्वोकेट गुप्ता की बातचीत के दौरान पलक इस पूरे घटनाक्रम के बारे में सोचती रही. क्या यह क़दम उठाना सही था? यह सवाल उसे कब से परेशान कर रहा है. प्रतीक और पलक दोनों कितनी बार इस बारे में चर्चा कर चुके हैं. अपने इस क़दम को सही ठहराने के लिए दिए जानेवाले कई तर्कों के बावजूद मन के किसी कोने में यह बात रह-रहकर चुभ जाती है. पर दोनों परिवारों को मनाने की कोशिशों के नाक़ामयाब होने के बाद इसके अलावा कोई चारा भी कहां था? प्रतीक के वापस आने से वह अपनी दुनिया से बाहर आई.
‘‘गुप्ताजी ने कहा है कि कल अपनी शादी का सर्टीफ़िकेट मिल जाएगा. चलो चलें,’’ प्रतीक ने उत्साह से कहा.
पलक की कोई प्रतिक्रिया न देखकर उसे उकसाते हुए जानबूझकर कहा,‘‘क्या हुआ? इस शादी से ख़ुश नहीं हो?
चलो लगे हाथों तलाक़ के लिए भी अप्लाई कर देते हैं.’’
‘‘बस यही या कुछ और बोलना है?’’ खीझी हुई मुस्कुराहट के साथ पलक ने जवाब दिया.
‘‘अरे मैंने काग़ज़ात को साक्षी मानकर तुम्हे ख़ुश रखने का वचन दिया था. सो वही निभाने की बात कर रहा हूं. हम लोग कोर्ट के कैम्पस में ही हैं. बार-बार आना नहीं पड़ेगा,’’ प्रतीक के कहते ही सुबह से मुरझाए दोनों के चेहरे चंद पलों के लिए खिल गए. अब एक दूसरे का हाथ थामे दोनों कोर्ट परिसर से बाहर निकल रहे हैं, दूसरी दीवार में सेंध लगाने के लिए बस स्टॉप की ओर क़दम बढ़ा रहे हैं.
अब इस कहानी की पृष्ठभूमि को थोड़ा स्पष्ट कर देना चाहिए. यह कहानी है प्रतीक वर्मा और पलक मेहता की. प्रतीक एक न्यूज़ चैनल में प्रोड्यूसर हैं और पलक कंपनी सेक्रेट्री. संक्षेप में इनका रिश्ता कुछ यूं है कि तथाकथित पहली दीवार को तोड़ने से पहले तक दोनों प्रेमी प्रेमिका थे और अब आधिकारिक रूप से पति पत्नी हैं. सात साल के प्रेमसंबंध के बाद जब इन्होंने एक दूसरे से विवाह करने की इच्छा ज़ाहिर की तो उम्मीद पर सौ फ़ीसदी खरा उतरते हुए परिवार की इज़्ज़त या कहें रुतबे की दुहाई देते हुए इनके अभिभावकों ने ऐसी किसी भी संभावना को सिरे से खारिज कर दिया. उस घटना के बाद से अचानक सयानी बेटी दुनिया की सबसे नासमझ इंसान बन गई और बेटे पर एक ज़िम्मेदार पुत्र और अच्छे इंसान होने का ठप्पा लगा कर एक दूसरे को भूलने की भावनात्मक अपील कम हिदायतें दी गईं.
पर आज की पीढ़ी के इरादों को कौन बदल सकता है? प्रेमी युगल ने परिवार से बग़ावत की और अभी ताज़ा-ताज़ा कोर्ट मैरिज करके अदालत परिसर से बाहर निकल रहे हैं. यहां यह कहना सही होगा कि गुप्ताजी के चंगुल से बाहर निकल रहे हैं. जिन्होंने इनकी कहानी को सुनने के बाद अपनी फ़ीस कम करने की बात करके उसे दोगुने से कुछ ज़्यादा बढ़ा दिया था. इस बात का एहसास इन दोनों को है, पर कोर्ट परिसर में मौजूद काले चोगे वाला कोई भी भलामानुष ऐसा ही करता. ख़ैर अब दोनों नवविवाहित दंपति बस से उतरने के बाद अपने अपने घरों की तरफ़ चल चुके हैं, बिल्कुल पहले की तरह. पहली दीवार यानी इस आत्मग्लानि कि ‘इस तरह विवाह करके हम ग़लत कर रहे हैं’ को पार पाने की जो ख़ुशी इनके चेहरों पर झलक रही थी वह मद्धम पड़ने लगी है.
दूसरी दीवार
(दीवार का पहला हिस्सा)
प्रतीक का मुंह लटका हुआ है. अभिभावकों को मना लेने का दावा करनेवाले प्रतीक को नहीं सूझ रहा है कि बात की शुरुआत कैसे की जाए? पर बताना तो है ही. दिल पर बोझ रखने से क्या फ़ायदा? उसने कुछ सोचा, हिम्मत जुटाई और ड्रॉइंग रूम का रुख़ किया.
वर्मा साहब हीरे के जानेमाने व्यापारी हैं. इनमें हीरे परखने का लाजवाब हुनर है. प्रतीक इनका इकलौता बेटा है. सुबह का समय है. वे ड्राइंग रूम में बैठे हैं. चाय की चुस्कियों के साथ इकोनॉमिक्स टाइम्स पढ़ना इनकी पसंदीदा आदत है. उनकी आंखों की चमक बयां कर रही है कि मार्केट की उठापटक इनके हित में रही है. पर इन्हें क्या पता इनका सबसे बड़ा अहित हो चुका है.
‘‘पापा मुझे आप से एक ज़रूरी बात करनी है,’’ थोड़ा झिझकते हुए प्रतीक ने कहा तो चश्मे के भीतर से वर्मा जी ने उस पर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली.
‘‘पापा मैंने और पलक ने शादी कर ली है...’’
‘‘क्या!’’ भौचक होकर उन्होंने पूछा. प्रतीक ने ऐसी बात कह दी जो वे शायद कभी नहीं सुनना चाहते. एक साथ न जाने कितनी बिजलियां कौंधीं...
उन्हें नहीं सूझ रहा है कि उससे क्या कहें? क्या करें? एक क्षण में ही न जाने कितने सपने टूटकर चकनाचूर हो गए. जिस मामले को रफ़ा दफ़ा समझ चुके थे उसका जिन्न फिर से ज़िंदा हो गया. यह कहना बेहतर होगा कि उनके कई अरमानों पर बिन मौसम बरसात की तरह पानी फिर गया. इकलौते बेटे की शादी बड़ी धूमधाम से कराना चाहते थे. पर अब क्या?
लंबी ख़ामोशी के बाद... ‘‘तुमने बिना हमारी मर्ज़ी के इतना बड़ा फ़ैसला कर लिया?’’ अपनी भावनाओं पर क़ाबू पाते हुए वर्मा जी ने कहा.
‘‘हालात ही कुछ ऐसे बन गए थे,’’ प्रतीक का दो टूक जवाब आया.
‘‘ऐसा करके तुम ख़ुश हो?’’ अगला सवाल.
‘‘आप लोगों के आशीर्वाद के बिना कैसे ख़ुश रह सकता हूं,’’ प्रतीक का जवाब.
‘‘पर हमारी ख़ुशी का क्या?’’
‘‘क्या मेरी ख़ुशी में आपकी ख़ुशी नहीं है?’’ प्रतीक ने जवाब देने की बजाय उनसे ही सवाल पूछा.
‘‘हमें समाज के साथ चलना होता है,’’ वर्मा जी का जवाब.
‘‘तो क्या आपके लिए समाज की अहमियत मुझसे ज़्यादा है?’’
‘‘यही सवाल मैं तुमसे भी पूछ सकता हूं, क्या तुम्हारे लिए उस लड़की का प्यार अपने माता-पिता के प्यार से बढ़कर हो गया है?’’
‘‘मैंने ऐसा तो नहीं कहा. पर हां, मैं अपनी ज़िंदगी को अपने हिसाब से जीना चाहता हूं. मैं किसके साथ अपना जीवन बिताना चाहूंगा यह फ़ैसला करने का हक़ मेरा होना चाहिए,’’ यह कहकर प्रतीक ने दीवार के दूसरे हिस्से की ओर का रुख़ किया.
प्रतीक के जाने के बाद वर्मा जी और श्रीमती वर्मा के बीच बातचीत का लंबा दौर चला. उनके बीच क्या बातचीत हुई यह हमें नहीं पता पर इतना स्पष्ट हो रहा है कि आख़िर में पुरानी समझदार पीढ़ी, युवा लापरवाह पर अपनी धुन की पक्की पीढ़ी के सामने एक बार फिर से हथियार डालने की मुद्रा में दिख रही है. इतिहास साक्षी है कि संतान प्रेम में समाज को अप्रिय लगने वाले ऐसे कई फ़ैसले पहले भी लिए गए हैं.
हमारा ऑब्ज़र्वेशन है कि दूसरी दीवार का पहला हिस्सा थोड़ा कमज़ोर पड़ने लगा है...
(दीवार का दूसरा हिस्सा)
दीवार के इस तरफ़ पहले से ही चिंता का माहौल है. मिस्टर मेहता को इस बात की चिंता है कि पलक की शादी के लिए योग्य वर नहीं मिल रहा है. बेटी की शादी के लिए योग्य वर पिछले एक साल से ढूंढ़ रहे हैं. जिसने जहां बताया उस दरवाज़े तक गए. बड़ी मुश्क़िल से एक योग्य लड़का मिला था पर पलक ने पता नहीं उससे क्या क्या सवाल पूछे थे कि जब जवाब मांगने उनके घर गए तो मेहता जी की बड़ी फजीहत हुई थी. पलक की चिंता यह है कि साढ़े ग्यारह बज गए हैं पर अभी तक प्रतीक का कोई पता नहीं है. जैसे-जैसे घड़ी की सूईयां 12 के पास पहुंच रही हैं, उसकी चिंता बढ़ते ही जा रही है.
दरवाज़े की घंटी बजी. पलक की धड़कनें तेज़ हो गईं. प्रतीक को देखते ही मिस्टर मेहता को चक्कर-सा आ गया.
‘‘नमस्ते अंकल, क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’’ प्रतीक द्वारा पूछने पर वे बिना कुछ कहे थोड़ा पीछे हट गए.
कमरे में प्रतीक, मिस्टर और मिसेज़ मेहता हैं. प्रतीक ने बातचीत की शुरुआत करते हुए कहा,‘‘मैं पलक के बारे में आप लोगों से बात करना चाहता हूं.’’
‘‘क्या बात करनी है?’’ रूखे स्वर में मिस्टर मेहता ने कहा.
‘‘दरअसल मैंने और पलक ने शादी कर ली है, मैं उसे लेने आया हूं.’’
‘‘दिमाग़ तो ठिकाने पर है तुम्हारा. क्या बकवास कर रहे हो पता है?’’ मिस्टर मेहता ने तैश में आते हुए कहा.
‘‘मैं बकवास नहीं कर रहा हूं. सच बोल रहा हूं,’’ प्रतीक ने हाथ में लिया हुआ कागज़ का टुकड़ा मिस्टर मेहता की ओर बढ़ा दिया. ‘‘शादी ब्याह बच्चों का खेल है क्या?’’ कागज़ हवा में लहराते हुए,‘‘ ये क्या बचपना है?’’
‘‘बचपना नहीं मैरेज सर्टीफ़िकेट है,’’ प्रतीक ने तुरंत कहा.
‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, ऐसा करने की?’’ ग़ुस्से से आग बबूला मेहता जी ने कहा.
‘‘जब इंसान के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं होता तो हिम्मत अपने आप आ जाती है.’’
प्रतीक के इस जवाब के बाद बगल में बैठी मिसेज़ मेहता बोल पड़ीं,‘‘बड़ों से बात करने की तमीज़ नहीं है?’’
‘‘आंटी तमीज़ है इसीलिए तो बताने आया हूं. वरना यदि हम भाग जाते तो...’’
थोड़ी देर चुप रहने के बाद मिस्टर मेहता,‘‘अपने घर पर बताया?’’
‘‘हां.’’
‘‘तुम्हारे घरवाले क्या कह रहे हैं?’’
‘‘जो आप कह रहे हैं.’’
‘‘कहेंगे ही ना, हमें समाज को भी जवाब देना होता है,’’ दुखी स्वर में मिस्टर मेहता ने कहा.
‘‘हम भी यही चाहते हैं कि समाज को यह बात आप लोगों के द्वारा ही पता चले. प्लीज़ एक बार हम लोगों के दृष्टिकोण से सोचकर देखिए ना!’’
‘‘ठीक है तुम अभी जाओ. हमारे यहां मेहमान आनेवाले हैं. मैं नहीं चाहता की इस बारे में किसी को पता चले. हम इस बारे में सोचेंगे.’’
प्रतीक के बाहर निकलते ही मिस्टर और मिसेज़ मेहता एक साथ पलक पर टूट पड़े. परिवार, समाज, इज़्ज़त के इर्द गिर्द बुने सवालों की झड़ी लगा दी, पर उसकी दृढ़ता जो कि उनके लिए बदतमीज़ी जैसी थी, के बाद उन्होंने भी हथियार डाल दिए.
फ़िलहाल घर पर सन्नाटे-सी शांति पसरी हुई है. पलक अपने कमरे में और मिस्टर और मिसेज़ मेहता अपने कमरे में बंद हैं.
‘‘अब क्या करें? इसने तो हमें कहीं का भी नहीं छोड़ा,’’ मिस्टर मेहता ने कहा.
‘‘मुझसे क्या पूछते हो? मैं नहीं कहती थी बेटियों को ज़्यादा नहीं पढ़ाना चाहिए,’’ मिसेज़ मेहता ने इस घटना के लिए अप्रत्यक्ष रूप से मिस्टर मेहता को ज़िम्मेदार ठहराते हुए कहा.
‘‘यह वक़्त ताने देने का नहीं है, बल्कि यह सोचने का है कि अब क्या करें?’’ मिस्टर मेहता मिसेज़ मेहता के इस आरोप से आहत हुए. पर अपनी झुंझलाहट को छुपाते हुए इस मामले में पत्नी की राय मांगी.
‘‘यह बात हमें पता है कि इन्होंने शादी कर ली है. अब बेहतर तो यही होगा कि हम अपनी राजी ख़ुशी से इनका विवाह करा दें. कम से कम लोगों को यह बात तो न मालूम पड़े कि मेहताजी की बेटी ने कोर्ट मैरेज की है,’’ इस मुश्क़िल घड़ी में मिस्टर मेहता को संभालते हुए मिसेज़ मेहता ने कहा.
आज पहली बार अपनी पत्नी की बातों में मिस्टर मेहता को समझदारी की झलक दिखी.
इस प्रकार दीवार का दूसरा हिस्सा भी पिघलना शुरू हुआ...
और तीसरी दीवार
दोनों परिवार ने आपस में कई बैठकें की, फिर आपसी सहमति से बच्चों का विवाह (क़ानूनी रूप से पुनर्विवाह) कराने का निश्चय किया गया. पलक और प्रतीक की शादी हो रही है. समारोह सादा है. पहली बेटी की शादी की ज़्यादा ख़ुशी न तो मिस्टर मेहता को है और न ही इकलौते बेटे का विवाह धूमधाम से कराने की वर्मा साहब की मुराद पूरी हुई. कई क़रीबी रिश्तेदार अनमने ढंग से शरीक़ हुए तो दूर के कुछ रिश्तेदार क़रीबी बनने की जुगत में लग गए, ताकि इस अजीबोग़रीब विवाह के राज़ को बेपर्दा किया जा सके. ख़ैर किसी की जुबान पर लगाम तो नहीं लगाई जा सकती. पूरे समारोह के दौरान अफ़वाहों का बाज़ार गर्म रहा.
‘‘जानते हो यह सब दिखावा है. लड़का-लड़की तो पहले ही विवाह कर चुके हैं.’’ सलीकेदार व्यक्तित्व वाले एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने कहा.
‘‘सुना तो हमने भी है. पर किसी के बारे में ऐसे कैसे कह सकते हैं?’’ उनके बगल में बैठे समझदार से दिखनेवाले दूसरे व्यक्ति ने कहा.
‘‘क्यों नहीं कह सकते हैं जी? वर्मा साहब के राजदुलारे ने तीन-तीन लड़कियां देखकर मना किया था. जब अपने समाज में विवाह करना ही नहीं था तो ये नाटक क्यों?’’ पहले व्यक्ति ने कहा.
‘‘अरे छोड़ो इनकी. तुम्हारे अशोक का क्या हुआ? उसने एमबीए पूरा कर लिया है. सुना है लड़की देख रहे हो. दो तीन लड़कियां देखी थीं. पसंद नहीं आईं?’’
दूसरे व्यक्ति की इस बात को सुनकर पहला व्यक्ति थोड़ा झिझका, क्योंकि शायद उसे ऐसे बाउंसर की उम्मीद नहीं थी, पर बात को संभालते हुए तुरंत कहा,‘‘आजकल के बच्चों की पसंद-नापसंद आप हम नहीं समझ सकते हैं. हम लोगों ने तो यह अशोक पर ही छोड़ दिया है.’’ धीरे धीरे अन्य लोगों की बातचीत के बीच उनकी आवाज़ें क्षीण पड़ने लगीं.
इस तरह की सुगबुगाहटों ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि इंसान बदल रहा है, पर अपनी सहूलियत के अनुसार. लेकिन वही इंसान जब समाज का हिस्सा होता है, तब दूसरों की बदलाव की कोशिशों और प्रक्रिया का मज़ाक बनाने में सबसे आगे होता है. पहली दोनों दीवारों के पिघलने के बाद भी समाज रूपी यह तीसरी दीवार ज्यों की त्यों बनी हुई है. इस दीवार को पिघलाने या तोड़ने की क्षमता पलक और प्रतीक में नहीं है. वैसे इसकी कोई ज़रूरत भी नहीं है, क्योंकि एक दिन इस दीवार का अस्तित्व अपने आप ख़त्म होने वाला है.
अब रही बात पलक और प्रतीक की
तो उनकी कहानी एक सुखद मोड़ पर पहुंच चुकी है. साथ रहने का उनका ख़्वाब पूरा हो गया है. इस मोड़ के आगे की कहानी फिर कभी...
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