कहानी: सोने का पिंजरा
रोहित एयरपोर्ट से सीधे गुड़गांव चल दिया. वहां उसे 11 बजे महेश्वरी फ़ार्मास्यूटिकल्स कंपनी प्रा लिमिटेड में वाइस-प्रेसिडेंट के पद का इंटरव्यू देना था. उम्मीद थी कि साढ़े दस बजे तक वहां पहुंच जाएगा, मगर गुड़गांव के ट्रैफ़िक का हाल भुक्तभोगी ही समझ सकता है. गति में पैदल से भी पराजित होती कारों की लंबी कतारों में फंसा आदमी बेबस पंछी की तरह छटपटाकर रह जाता है.
रोहित बार-बार ड्राइवर से जल्दी चलने के लिए कह रहा था, लेकिन ड्राइवर की भी अपनी मजबूरी थी. आप महंगी से महंगी गाड़ी में क्यूं न सवार हों गंतव्य पर समय से पहुंच पाना पूर्णतया आपकी किस्मत पर निर्भर करता है.
रोहित बहुत मुश्क़िल से सवा ग्यारह बजे महेश्वरी प्लाज़ा की शानदार इमारत तक पहुंच पाया. लगभग दौड़ते हुए वह लिफ़्ट पर सवार हो छठी मंज़िल पर स्थित मैनेजिंग डायरेक्टर की सेक्रेटरी के पास पहुंचा और अपनी उखड़ी हुई सांसों को नियंत्रित करते हुए बोला,‘‘मैं रोहित जगभरिया हूं. ग्यारह बजे मेरा एमडी से अपॉइन्टमेन्ट था, मगर ट्रैफ़िक जाम की वजह से मैं लेट हो गया. मेरी उनसे मुलाक़ात करवा दीजिए.’’
‘‘एमडी बहुत व्यस्त हैं. आज उनसे मुलाक़ात नहीं हो सकती, लेकिन मैं आपको बधाई देना चाहती हूं,’’ ख़ूबसूरत सेक्रेटरी ने मुस्कुराते हुए कहा.
‘‘किस बात की?’’
‘‘आपका चयन वाइस-प्रेसिडेंट के पद के लिए हो गया है.’’
‘‘बिना इंटरव्यू के?’’ रोहित का स्वर आश्चर्य से भर उठा.
‘‘एमडी आपकी क्वॉलिफ़िकेशन और आपके एक्सपीरियंस से बहुत प्रभावित हैं इसलिए आपका रेज़्यूमे देखते ही उन्होंने आपका चयन कर लिया. ये रहा आपका अपॉइन्टमेंट लेटर,’’ सेक्रेटरी ने सम्मानजनक स्वर में बताया फिर बोली,‘‘लेकिन उसके लिए दो-तीन शर्तें है...’’
रोहित ने लेटर पढ़ा. उसका वेतन दो लाख रुपए महीने तय किया गया था.
‘‘कैसी शर्तें?’’ रोहित ने अपनी ख़ुशी को छुपाते हुए पूछा. पिछली कंपनी में उसे एक लाख चालीस हज़ार रुपए मिलते थे और यहां बिना मांगे उसे दो लाख रुपए का प्रस्ताव मिल रहा था. अपनी क़ाबिलियत पर रोहित को अनायास ही गर्व हो उठा.
‘‘आपको हमारी कंपनी आज से ही जॉइन करनी होगी. आज ही पुरानी कंपनी से इस्तीफ़ा देना होगा और साथ ही आपको हमारी कंपनी से कम से कम पांच साल का सर्विस का एग्रीमेंट करना होगा. इसके एवज में कंपनी आपको 10 परसेंट का इन्क्रिमेंट हर साल देगी,’’ उसने एक ही सांस में शर्तें गिना दीं.
‘‘पांच साल का एग्रीमेंट?’’ रोहित पलभर के लिए ठिठका.
‘‘सोच लीजए सर, महेश्वरी फ़ार्मास्यूटिकल्स एक बड़ा नाम है. पांच साल बाद अगर आप कंपनी छोड़ना चाहेंगे तो तब तक आपकी मार्केट वैल्यू काफ़ी बढ़ चुकी होगी,’’ सेक्रेटरी ने समझाया.
उसकी बात में दम था. रोहित ने फ़ौरन हामी भर दी. उसने वहीं से अपना इस्तीफ़ा अपनी पुरानी कंपनी को फ़ैक्स कर दिया. सेक्रेटरी ने एग्रीमेंट तैयार करवा दिया. रोहित ने उस पर हस्ताक्षर कर दिए तो वह उस पर एमडी के हस्ताक्षर करवाने उनके चेम्बर में चली गई.
वह थोड़ी ही देर में लौटी और रोहित को नियुक्ति पत्र पकड़ाते हुए बोली,‘‘सर, आइए आपको आपके चेंबर तक पहुंचा दूं.’’
एमडी का चेम्बर महेश्वरी प्लाज़ा की छठवीं मंजिल पर था और वाइस-प्रेसिडेंट का पहली मंज़िल पर. वाइस-प्रेसिडेंट का कक्ष रोहित की सोच से कहीं ज़्यादा आलीशान था. इटैलियन ग्लास की चमचमाती हुई मेज़ के पीछे शानदार एग्ज़ेक्यूटिव चेयर उसका इंतज़ार कर रही थी. अपनी किस्मत पर इतराते हुए रोहित कुर्सी पर बैठ गया. वह पूरा दिन आराम से बीता. न तो कोई फ़ोन कॉल आया और न ही कोई फ़ाइल. ख़ाली समय में रोहित भविष्य की योजनाएं बनाता रहा.
अगले तीन दिनों तक भी जब उसके पास कोई काम नहीं आया तो उसे बहुत आश्चर्य हुआ. उसने छठवीं मंज़िल पर जाकर सेक्रेटरी से जब इस बारे में पूछा तो वह मुस्कुराते हुए बोली,‘‘सर, आप चिन्ता क्यूं करते हैं? आज 30 तारीख़ है, अपना बैंक एकाउंट चेक कीजिए आपकी 4 दिन की सैलरी वहां पहुंच चुकी होगी.’’
‘‘लेकिन मेरे पास अभी तक कोई काम नहीं आया है.’’
‘‘वह आपका नहीं कंपनी का सिर दर्द है,’’ वह मुस्कुराई.
‘‘क्या मैं एमडी से मिल सकता हूं?’’
‘‘सॉरी, आज वे बहुत व्यस्त हैं,’’ उसने साफ़ इनकार कर दिया.
धीरे-धीरे पूरा सप्ताह बीत गया. रोहित के पास न कोई फ़ोन कॉल आया और न कोई काम. अपने चैंबर में बैठे-बैठे वह ऊबने लगा. जब भी एमडी से मिलने का समय मांगता, सेक्रेटरी मना कर देती.
धीरे-धीरे पूरा महीना बीत गया. रोहित को न कोई काम मिला और ना ही एमडी से मिलने का अवसर. ख़ाली समय अब उसे काटने लगा था. उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि आख़िर कंपनी उसे किस बात के पैसे दे रही है? वाइस-प्रेसिडेंट का शानदार एसी कमरा उसे सोने के पिंजरे की तरह लगने लगा था, जिसमें रोज़ सुबह आकर उसे क़ैद हो जाना होता था.
उसने एमडी से मिलने की हर चंद कोशिश की लेकिन क़ामयाब नहीं हुआ. तीन महीने बीतते-बीतते रोहित को लगने लगा कि इस तरह ख़ाली बैठे-बैठे तो वह पागल हो जाएगा.
एक दिन वह सेक्रेटरी के पास पहुंचा और झल्लाते हुए,‘‘मैं इतने दिनों से एमडी से मिलने का टाइम मांग रहा हूं. आख़िर आप मुझे उनसे मिलने क्यों नहीं दे रहीं?’’
‘‘सर, एमडी साहब ने आपको टाइम देने से मना कर रखा है.’’
‘‘लेकिन क्यूं ?’’
‘‘यह तो वही जानें.’’
‘‘अगर आज आप एमडी से मेरी मुलाक़ात नहीं करवाती हैं तो मैं कंपनी से इस्तीफ़ा दे दूंगा,’’ रोहित तैश में आ गया.
‘‘सॉरी सर, आप इस्तीफ़ा नहीं दे सकते, क्योंकि आपने कंपनी के साथ पांच साल का एग्रीमेंट साइन कर रखा है.’’ सेक्रेटरी ने शांत स्वर में समझाया.
‘‘आख़िर आप लोग चाहते क्या हैं? इस तरह ख़ाली बैठे-बैठे तो मैं पागल हो जाऊंगा. मेरी सारी योग्यता और क़ाबिलियत जंग खा जाएगी...’’ उसने लगभग चीखते हुए कहा.
सेक्रेटरी कुछ कह पाती उसके पहले ही इंटरकॉम बजा. उसने हैंडसेट उठाकर कुछ सुना और फिर सर्द स्वर में बोली,‘‘आपकी बुलंद आवाज़ अंदर तक जा रही है. जाइए, अंदर जाइए.’’
रोहित तेज़ क़दमों से एमडी के चेम्बर की ओर बढ़ा. सामने सुनहरे अक्षरों में लिखा हुआ था डीके महेश्वरी. उसने एक उचटती हुई दृष्टि एमडी की नेम-प्लेट पर डाली फिर झटके के साथ दरवाज़ा खोलकर भीतर दाख़िल हुआ. वह आज आर-पार का फ़ैसला कर लेना चाहता था.
एमडी साहिबा अपनी मेज़ के पीछे रखी शेल्फ़ से कोई फ़ाइल निकालकर देख रही थीं. उनकी पीठ इस समय दरवाज़े की ओर थी. उन्होंने पीछे मुड़े बिना ही पूछा,‘‘यस, मिस्टर जगभरिया क्या बात है?’’
‘‘मैडम, आख़िर कंपनी में मुझे कोई काम क्यूं नहीं दिया जा रहा है?’’ रोहित ने अपने ग़ुस्से को क़ाबू में करते हुए पूछा.
‘‘कंपनी हर महीने आपको तन्ख़्वाह तो दे रही है ना?’’ एमडी ने शांत स्वर में कहा.
‘‘लेकिन मैं तो कोई काम ही नहीं कर रहा. एक तरह से मुफ़्त की कमाई खा रहा हूं,’’ रोहित ने मन की बात रखी.
‘‘मु़फ्त की कमाई खाना तो आपकी पुरानी आदत है,’’ एमडी का स्वर अचानक ही कड़ा हो गया.
‘‘जी?’’
‘‘जी हां,’’ एमडी पीछे मुड़ी और अपनी चेयर पर बैठते हुए बोलीं.
‘‘दीपा तुम,’’ रोहित यूं उछला जैसे भूत को देख लिया हो.
‘‘हां, मैं दीपा कुमारी महेश्वरी, महेश्वरी फ़ार्मास्यूटिकल्स प्रा लि की फ़ाउंडर और एमडी. और इसलिए तुम नहीं आप कहिए,’’ दीपा ने हर एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा.
‘‘जी...वो...वो...मैं...मैं...’’ रोहित हड़बड़ा कर रह गया. उसकी समझ में ही नहीं आया कि क्या कहे. उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी दीपा से इस तरह मुलाक़ात होगी. एसी कमरे में भी उसके माथे पर पसीने की बूंदें छलछला रही थीं. उसकी टांगें कांप रही थी, कमरा उसे घूमता हुआ-सा लग रहा था. वह ख़ुद को संभालता हुआ कुर्सी का सहारा लेकर खड़ा हो गया.
दीपा ने उस पर एक कठोर दृष्टि डाली और इंटरकॉम का बटन दबाते हुए कहा,‘‘मिस सोनिया, प्लीज़ कम इन.’’
कुछ पलों में सेक्रेटरी कमरे के भीतर थी.
‘‘मिस्टर जगभरिया की तबियत कुछ ख़राब लग रही है, रेस्टरूम में ले जाइए. ज़रूरत हो तो मेडिकल रूम के डॉक्टर की सलाह लीजिए. बेहतर महसूस करें तो अंदर भेज दीजिएगा.’’
रोहित और सेक्रेटरी के कमरे से बाहर जाते ही दीपा 20 साल पहले अपनी यूनिवर्सिटी के दिनों में पहुंच गई. तब दीपा, उपमा, अजीत और रोहित की चौकड़ी यूनिवर्सिटी भर में प्रसिद्ध थी. चारों जी भरकर हुल्लड़ करते, पर पढ़ाई में भी सभी सबसे आगे रहते. दीपा हर बार प्रथम आती और उपमा, अजीत और रोहित में द्वितीय आने के लिए प्रतियोगिता रहती.
यूं ही हंसते-खेलते दीपा और रोहित कब एक-दूसरे की आंखों में भविष्य के सपने देखने लगे पता ही नहीं चला. एम एससी करने के बाद दोनों ने रिसर्च के लिए रजिस्ट्रेशन करवा लिया था. थीसिस पूरी होने के बाद दोनों का शादी करने का इरादा था.
दीपा ने थीसिस पूरी करने के लिए दिन-रात एक कर दिया था. हमेशा लाइब्रेरी में पुस्तकों के ढेर से घिरी रहती. एक दिन रोहित ने टोका,‘‘तुम्हारे लिए तो थीसिस ही सबकुछ है, मेरे लिए तो समय ही नहीं है.’’
‘‘मैं यह सब तुम्हारे लिए ही तो कर रही हूं,’’ दीपा ने मुस्कुराकर कहा.
‘‘मेरे लिए?’’
‘‘हां, मेरे बुद्धूराजा,’’ दीपा हंस पड़ी,‘‘हमने तय किया है न कि अपनी थीसिस पूरी करने के बाद शादी कर लेंगे और मुझे शादी की बहुत जल्दी है.’’
‘‘ओह, तब तो मुझे भी मेहनत करनी पड़ेगी. अभी तक तो मेरा सिनॉप्सिस भी तैयार नहीं हुआ है,’’ रोहित मुस्कुराया.
इसके क़रीब आठ महीने बाद एक दिन उसने एक फ़ाइल रोहित को देते हुए कहा,‘‘मेरी थीसिस का रफ़ ड्राफ़्ट तैयार हो गया है. तुम एक नज़र इसे देख लो. अगर कोई कमी हो तो बता देना.’’
‘‘ठीक है,’’ रोहित ने सिर हिलाया.
अगले दिन जब रोहित मिला तो बोला,‘‘दीपा, तुम्हारी थीसिस तो कमाल की है. प्रकाशित होते ही तहलका मचा देगी. मगर कहीं-कहीं पर हल्के-फुल्के सुधार की ज़रूरत है. अगर तुम कहो तो मैं उसे ठीक कर दूं. चार-पांच दिन लगेंगे.’’
‘‘इसीलिए तो तुम्हें दी है,’’ अपनी प्रशंसा से अभिभूत दीपा ने अपना सिर रोहित के कंधे पर रख दिया.
उसके बाद अगले चार दिनों तक रोहित नहीं दिखा तो दीपा, उपमा और अजीत उसके कमरे पर गए. मकान मालिक ने बताया कि उसकी मां की तबियत ख़राब हो गयी है इसलिए वह अचानक अपने गांव चला गया है.
धीरे-धीरे एक महीना बीत गया लेकिन रोहित की कोई ख़बर नहीं मिली. परेशान दीपा ने एक दिन मकान-मालिक से उसका पता लेकर अजीत को उसके गांव भेजा. उसने लौटकर बताया कि रोहित के मां-बाप की काफ़ी पहले मृत्यु हो गयी थी. कुछ दिनों पहले वह अपना घर और ज़मीन बेचकर कहीं चला गया है और उसका पता किसी के पास नहीं है.
रोहित ने ऐसा क्यूं किया किसी की समझ में नहीं आ रहा था. पर रहस्य ज़्यादा दिनों तक रहस्य नहीं रहा. एक दिन उपमा ख़ुशी से उछलती हुई आई और एक अमेरिकन साइंस जरनल दीपा की ओर बढ़ाते हुई बोली,‘‘यह देख इसमें तेरे रोहित का रिसर्च पेपर छपा है. उसके नाम की धूम मची हुई है.’’
दीपा ने जरनल को देखा तो उसका कलेजा धक्क रह गया. उसकी थीसिस के सबसे महत्वपूर्ण हिस्से को रोहित ने अपने नाम से छपवा लिया था. दीपा को इतने बड़े धोखे की उम्मीद न थी. उसकी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा और वह वहीं एक कुर्सी पर धम्म से बैठ गई.
‘‘तुझे क्या हुआ?’’ दीपा की हालत देख उपमा घबरा गई.
दीपा चुप थी. उसकी दो वर्षो की मेहनत रोहित ने लूट ली थी. उसका रिसर्च पेपर अब रोहित का हो चुका था. अब कौन करेगा उसकी बातों पर विश्वास? अब कुछ भी कहना बेकार था. उसने रोहित से सच्चा प्यार किया था. अगर वह कहता तो वह अपने साथ-साथ उसकी थीसिस भी तैयार करवा देती. मगर उसने न केवल उसकी मेहनत को लूटा था, बल्कि उसके विश्वास को भी तोड़ा था. वह एक बार उससे मिलकर पूछना चाहती थी कि उसने ऐसा क्यूं किया मगर उस इंसान से दोबारा कभी मुलाक़ात ही नहीं हुई.
समय का पंछी अपनी गति से उड़ता रहा. दीपा ने बहुत जल्दी ही ख़ुद को संभाला. नए सिरे से रिसर्च पेपर तैयार करके पीएचडी पूरी की. उसके बाद तीन सालों तक एक फ़ार्मास्यूटिकल्स कंपनी में काम किया. उसके पापा दामोदर कुमार महेश्वरी का भी फ़ार्मास्यूटिकल्स का छोटा-सा व्यवसाय था. उनकी प्रेरणा से दीपा ने नौकरी छोड़कर महेश्वरी फ़ार्मास्यूटिकल्स की स्थापना की. पिता के अनुभव और बेटी की मेहनत ने देखते ही देखते महेश्वरी फ़ार्मास्यूटिकल्स को बुलंदियों पर पहुंचा दिया और आज उनकी कंपनी देश में एक प्रमुख स्थान रखती थी. अब दीपा के पिता डीके महेश्वरी कंपनी के प्रेसिडेंट थे और दीपा मैनेजिंग डायरेक्टर थी.
पिछले कुछ दिनों से दीपा के पापा बीमार चल रहे थे इसलिए उन्होंने ऑफ़िस आना बंद कर दिया था. इससे दीपा पर काम का बोझ बढ़ गया था तो उसे कंपनी के लिए एक वाइस-प्रेसिडेंट की आवश्यकता महसूस हो रही थी. कई लोगों के आवेदन में से शॉर्टलिस्ट होकर आए आवेदनों में रोहित कुमार जगभरिया का रेज़्यूमे देखकर दीपा का पुराना ज़़ख्म हरा हो गया. जिस व्यक्ति ने उसे ज़िंदगी का सबसे बड़ा धोखा दिया था आज उसी ने उसकी कंपनी में नियुक्ति के लिए आवेदन किया था. ग़ुस्से में दीपा का मन हुआ कि वह रोहित का आवेदन फाड़कर फेंक दे. पर फिर कुछ सोचकर उसने अपनी सेक्रेटरी को बुलवाकर न सिर्फ़ उसका अपॉइंटमेंट लेटर बनवाया, बल्कि पांच वर्ष के एग्रीमेंट पेपर्स भी बनवा लिए.
जैसा दीपा ने सोचा था वैसा ही हुआ और रोहित ने उसकी कंपनी जॉइन कर ली. पिछले तीन महीनों से वह काम और कंपनी की एमडी से मिलने के लिए तरस रहा था. यह सब सोचते-सोचते दीपा की सांस फूलने लगी. उसने पानी पिया और अपनी सांसों को नियंत्रित करते हुए इंटरकॉम पर आदेश दिया,‘‘सोनिया, यदि मिस्टर जगभरिया नॉर्मल हो गए हों तो उन्हें अंदर भेजो.’’
इधर रोहित की हालत अब भी ख़राब थी. वह शॉक की स्थिति में था. सेक्रेटरी के बुलाने पर वह सारी हिम्मत बटोरकर दोबारा एमडी के केबिन में पहुंचा.
सधे हुए स्वर में दीपा ने कहा,‘‘तो आप जानना चाहते थे कि आपको काम क्यूं नहीं दिया जा रहा है?’’ रोहित असमंजस में था, वह मौन ही रहा.
दीपा ही बोली,‘‘आपने मुझसे मेरी दो वर्षों की मेहनत छीनी, अब मैं सूद समेत आपसे आपके पांच वर्ष छीन रही हूं. आराम से बैठिए और मुफ़्त की रोटियां तोड़िए.’’
‘‘लेकिन यह तो मेरा मानसिक शोषण होगा,’’ रोहित ने किसी तरह हिम्मत जुटाते हुए कहा.
‘‘क्या शोषण करना सिर्फ़ पुरुषों का ही एकाधिकार है और नारी केवल शोषित होने के लिए बनी है?’’ दीपा का स्वर कड़ा हो गया और वह रोहित की आंखों में आंखें डालते हुए बोली,‘‘रोहित, आप मेरी मेहनत को चुराकर कायरों की तरह भाग गए थे, लेकिन मैं तो आपको मुफ़्त के पैसे दे रही हूं. बस, भाग नहीं सकेंगे आप.’’
‘‘दीपा, ऐसा न करो,’’ रोहित का स्वर कातर था. उसके अंदर दीपा से आंखें मिलाकर बात करने का साहस नहीं था.
‘‘चलिए रोहित मैं ऐसा नहीं करती, पर इसके लिए आपको मेरी एक बात माननी होगी. यह स्वीकारते हुए प्रेस में विज्ञप्ति दे दो कि बीस साल पहले अमेरिकन जरनल में जो रिसर्च पेपर प्रकाशित हुआ था वो तुम्हारा नहीं मेरा था. तुमने जिस थीसिस पर डॉक्टरेट हासिल की वह तुम्हारी नहीं मेरी थी. यक़ीन मानो इसके बाद मैं वह एग्रीमेंट भी फाड़कर फेंक दूंगी और तुम्हें आज़ाद कर दूंगी.’’
‘‘यह...यह... मैं कैसे कर सकता हूं?’’ रोहित के होंठ बहुत मुश्क़िल से हिले.
‘‘तो फिर मिस्टर वाइस-प्रेसिडेंट अपने चेम्बर में जाइए और अगले पांच साल तक मेरे फेंके हुए टुकड़ों पर पलिए,’’ दीपा की आंखेंलाल अंगार हो उठीं.
अब कहने सुनने को कुछ नहीं बचा था. रोहित चुपचाप उठा और वहां से लौट पड़ा. सोने का पिंजरा उसका इंतज़ार कर रहा था.
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