कहानी: प्रेम और नियति
प्रेम जो न करे सो कम. यह तो हुआ पहला कोटेशन यानी आप्त-कथन और दूसरा कथन है-नियति की जो मरजी हो, करके रहती है. लेकिन जब पता लगे कि प्रेम और नियति कहानी के मुख्य पात्र हैं तो बात बिल्कुल बदल जाती है ना! असल में किसी भी ऐंगल से यह प्रेम-कथा नहीं और नियति कथा तो बिल्कुल नहीं, पर क्या पता दोनों ही है. जो भी हो, मैं तो सपाट विवरण आपके आगे पटक रहा हूं. अस्तु.
इक-दूजे से पांच मकान दूर. एक मकान की चौड़ाई तीस फ़ीट यानी इक-दूजे से डेढ़ सौ फ़ीट दूर. दोनों मकानों की तीसरे मंज़िल की छत. छत पर बस एक-एक कमरा. एक में नियति, एक में बल्कि एक कमरे के साथ काफ़ी सारी छत पर प्रेम. दूध के दुकानदार भैयालाल यादव की बेटी नियति पढ़ाकू. कॉलेज की पढ़ाई. सुबह जल्दी उठना. तैयार होकर कॉलेज जाने के समय तक पढ़ना. शाम को फिर पढ़ना. इच्छा, इस साल टॉप करने की.
इच्छा, मिस्टर यूनिवर्सिटी बनने की. कहा ना, प्रेम जो न करे सो कम, पिता प्रोफ़ेसर दिनकर की इच्छा के विपरीत प्रेम का पूरा ध्यान बॉडी बिल्डिंग पर. प्रेम और नियति को इक-दूजे के नाम तक पता नहीं. प्रेम को बस इतना पता है कि एक लड़की है, जो छत पर घूमती है, किसी कॉपी या किताब का रट्टा मारते हुए. और नियति जानती है कि पांच मकान दूर जो लड़का है, वो छत पर व्यायाम करता रहता है. लड़का ज़्यादातर खुले बदन रहता है इसलिए उसे उस तरफ़ भूलकर भी नहीं देखना है, नहीं तो फोकट में भाव खा जाएगा. ग़लतफ़हमी भी पाल सकता है.
दोनों अपने में मगन. एक तरफ़ टॉप करने, रैंक में आने का जुनून. दूसरी तरफ़ सिक्स-पैक से भी आगे निकलने के अरमान के साथ ब्रह्मचर्य और बजरंगबली जैसे सतत चेतावनी देते आदर्शों की रोक. इसके बावजूद एक छत पर अकेला लड़का और डेढ़ सौ फ़ीट दूर सही पर दूसरी छत पर अकेली लड़की. कुछ तो होना ही था, बल्कि कुछ-कुछ भी हो सकता था. लेकिन हुआ सिर्फ़ इतना कि जो भी छत पर पहुंचता, चेक कर लेता कि दूजा वहां है या नहीं. फिर भी सावधानी रखी जाती कि चेक करने की अदा कहीं पकड़ में ना आ जाए.
लड़की का संकोच तो समझ में आता है. लेकिन प्रेम का जो संकोच है, उसके पीछे ज़रा-सी घटना है, जो जब भी याद आती, प्रेम को आगाह कर जाती कि प्रेम के मामले में प्रेम बिल्कुल ढक्कन है. वो क्या है कि किशोरावस्था से जवानी की ओर बढ़ते हुए हमारे शहर के कई लड़कों की राह में एक सड़क पड़ती है-जेलरोड. शहर का सबसे जगमग इलाक़ा. लड़कियों का प्रिय ख़रीदी-स्थल. सीनियरों के क़िस्से सुन, दोस्तों के उकसावे पर ताज़ा-ताज़ा युवा यहां के चक्कर ज़रूर लगाता है. आते-जाते चेहरों में से एक चेहरा छांटता है और मौक़ा मुनासिब हो तो निकटता का प्रयास करता है.
प्रेम ने भी इस रास्ते से गुज़रते हुए एक चेहरा छांटकर पसंद किया. पर अब आगे क्या किया जाए? उसने दोस्तों से पूछा. उन्होंने सुझाया,‘‘अरे, इसमें क्या है पहलवान? कट मारकर देख लो, अगर हंस दे तो समझ लो मामला फ़िट.’’
पहलवान तो पहलवान थे, साइकल से ऐसा कट मारा कि परी-चेहरा ज़मीन से जा लगा. उस दिन से प्रेम ने प्रेम से तौबा करते हुए मिस्टर यूनिवर्सिटी को अपना लक्ष्य बनाया. आप तो जानते ही होंगे, पहले प्रेम की असफलता का बहुतों को सही रास्ते पर लाने का रिकॉर्ड है. मगर प्रेम और नियति को तो क़रीब आना ही था, कैसे हुआ यह?
परीक्षाएं चल रही थी. उस दिन जब नियति पढ़ने बैठी तो उजाला नहीं हुआ था. उसने लाइट जलाई. कमरे से बाहर जाकर चेक नहीं किया, क्योंकि पता था, लड़का वहां नहीं होगा. अभी दस मिनट भी नहीं हुए होंगे कि स्वर सुनाई दिया, ‘‘हुंअ, हुंअ, हुंअ...’’
लगातार आती आवाज़ ने उत्सुकता जगाई. बाहर जाकर देखा. लड़के के कमरे की लाइट जल रही थी. आवाज़ वहीं से आ रही थी. और ध्यान से देखा. दो पैर दिखाई दिए. दरवाज़े से कुछ ही पीछे पैर हवा में लटक रहे थे. परदे के कारण पूरा दृश्य दिखाई नहीं दे रहा था. आत्महत्या के अलावा दूसरा अनुमान नहीं लगा सकी नियति. एक बार वह वहीं से चीखी, पर इतनी सुबह कौन सुनता? फिर क्षण गंवाए बग़ैर सीढ़ियां पार की. दूसरी मंजिल पर मां जाग चुकी थीं, वह कुछ समझ पातीं उससे पहले नियति नीचे उतर गई. कुछ सेकंड बाद नियति प्रोफ़ेसर दिनकर के मकान का दरवाज़ा पीटने के साथ बेल भी बजा रही थी. दरवाज़ा खुलते ही उसने कहा, ‘‘वो...वो ऊपर लड़का रहता है ना, वो आत्महत्या कर रहा है, बचाइए उसे.’’
‘‘ऊपर तो प्रेम है मेरा बेटा,’’ ऐसा ही कुछ कहते बदहवास प्रोफ़ेसर तेज़ी से सीढ़ियां चढ़े. पीछे छोटा बेटा सर्वेश, फिर प्रेम की मम्मी सुहासिनी देवी. कुछ क्षण बाद, संकोच के साथ नियति भी सीढ़ियां चढ़ी. ख़बर देने के बाद यों ही लौट तो नहीं सकती थी. ऊपर पहुंचकर देखा, हांफते हुए प्रोफ़ेसर तिपाई पर सिर थामे बैठे हैं. सुहासिनी स्तंभित है और प्रेम अभी-भी छत पर लगे रिंग पकड़कर ऊंचा-नीचा हो रहा है. नियति के पहुंचते ही उसे देख, सबसे पहले सर्वेश हंसा, फिर सुहासिनी देवी के चेहरे पर ग़ुस्से के साथ मुस्कान दिखी, फिर प्रोफ़ेसर ने लंबी राहत वाली सांस लेते हुए कहा,‘‘ऐसे मज़ाक
नहीं करते बिटिया, पहली अप्रैल है तो क्या हुआ?’’
नीचे ड्राइंगरूम तक आते-आते भैयालालजी भी आ चुके थे और घबराई-सी मां भी. प्रोफ़ेसर ने ठहाके के साथ स्वागत करते हुए पूरा क़िस्सा सुनाया और चाय के लिए रोक लिया. नियति राहत महसूस कर रही थी कि उसकी मूर्खतापूर्ण चिन्ता अप्रैल फ़ूल में बदल गई. प्रेम से नज़र मिलाने से बचती रही और प्रेम ने जो बस एक नज़र उस पर डाली तो वो यों कि देख लूं कि छत पर घूमनेवाली लड़की क़रीब से दिखती कैसी है. लेकिन आप समझ सकते हैं, इस तरह सबके बीच इक-दूजे को देखने से बचने का गुणी मां-बाप क्या अर्थ लगाते हैं?
वही हुआ. प्रोफ़ेसर के घर से बाहर आते ही मां ने कोहनी से ठेलते हुए पूछा,‘‘ये क्या चक्कर चला रखा है?’’
और मेहमानों के जाते ही शालीन प्रोफ़ेसर ने कहा,‘‘आपके व्यायाम करने पर आस-पड़ोस वालों की बड़ी नज़र रहती है.’’
प्रेम-युद्ध में स्पष्टीकरण दुधारी तलवार का नाम है. जितनी चलाओ, आशंका उतनी बढ़ती है. प्रेम और नियति भी कोशिश करके थक गए. उस दिन के बाद पढ़ाई करती नियति को कई बार लगता, मां झांककर चली गई और प्रेम ने देखा, छोटा भाई सर्वेश ऊपर आने का बहाना तलाशता रहता है. हां, इतना फ़र्क़ ज़रूरत आया कि छत पर एक-दूजे को देख लेते, तो सलाम की मुद्रा में हाथ थोड़ा-सा उठ जाता. अब इतना शिष्टाचार तो इंसान-इंसान में होना ही चाहिए ना!
सीढ़ियों से उतर रहे हों, नीचे के कमरे में बातें चल रही हों, तो बड़ा साफ़ सुनाई देता है. कॉलेज शुरू हो गए. राखी क़रीब थी. मौसी मिलने आई थी. कॉलेज जाने के लिए सीढ़ियां उतरती नियति ने सुना, मां कह रही थीं,‘‘देख, तुझे फिर से कह रही हूं, जल्दी से कोई लड़का बता, नियति के लिए. मुझे तो बहुत डर लग रहा है. कहीं कुछ...’’
‘‘क्यों, ऐसी क्या बात हो गई?’’
‘‘नहीं, वैसा तो कुछ नहीं है, पर...’’ कहते हुए मां संभल गईं, लेकिन फिर बोली,’’ पड़ोस में एक लड़का है. मरी छत पर जाती है तो उसे सलाम करती है.’’
‘‘तुमने पूछा नहीं? छोटी बच्ची थोड़ो ना है. पूछ लेना चाहिए.’’
‘‘पूछो तो गुर्राती है. बोलती है, ऐसा कुछ नहीं है.’’
‘‘तो हो सकता है, कुछ नहीं हो, पर हां आजकल के लड़के-लड़कियों का कुछ कहा भी तो नहीं जा सकता.’’ मौसी और मां की बातें सुन चेहरा लाल हो गया. वापस ऊपर गई. देखा, प्रेम यों ही घूम रहा है और देखते ही उसने सलाम किया. इस बार जवाब में नियति ने थोड़ा सा नहीं पूरा हाथ ऊपर उठाकर विश किया. इच्छा हुई, अभी आवाज़ देकर बुलाए और मां-मौसी के आगे दोनों मिलकर कसम खाएं. फिर इच्छा हुई, राखी पास ही है, मां को साथ लेकर जाऊंगी और सबके बीच बैठकर राखी बांध झगड़ा ख़त्म कर दूंगी.
बता चुका हूं, नियति की जो मरजी होती है, करके रहती है, लेकिन ग़लतफ़हमी में आप इच्छा को मरजी न समझ लें. राखी बंध गई, तो इतनी कथा बांचने का मज़ा किरकिरा. कॉलेज जाने की तैयारी करते, पूरे ग़ुस्से के साथ नियति बस, यों ही विकल्पों पर विचार कर रही थी. इसलिए अब जल्दी से बता दूं, शायद यही वो दिन था, जब दोनों के बीच वह रोमांचक तत्व उत्पन्न हुआ, जिसे संक्षेप में मोहब्बत कहा जाता है. जेलरोड का क़िस्सा नहीं है ये, पर हुआ यों कि कॉलेज जाती नियति को एक शोहदे ने कट मारा इत्तफ़ाक देखिए, पीछे से आ रहे थे अपने प्रेम, जो इस समय पूरी तरह से प्रेम पहलवान की मुद्रा में थे.
एक साथ दो-तीन परिणाम निकले, पहला तो आप समझ ही गए होंगे कि शोहदे की पिटाई. दूसरा यह कि प्रेम पहलवान को पता चल गया कि कट मारने का सही तरीक़ा क्या है, उन्होंने जब जेलरोड पर कट मारा था तो ग़लती क्या थी. लेकिन यह सब जान लेना अब उनके लिए ज़रा भी उपयोगी नहीं रह गया था. क्योंकि कन्या यानी नियति ने ‘धन्यवाद’ देने के साथ ऐसा मुंह खोला, ऐसी बातें शुरू की कि जो कॉलेज पहुंचने तक भी पूरी नहीं हुई. प्रेम को उसे लेकर कैंटीन में बैठना पड़ा.
खुलकर सारी बातें करने में दोनों तरफ़ के दोस्तों का भी साथ हो गया. व्यूहरचना हुई. तय हुआ कि छत-संपर्क बंद. अपनी डिफ़िकल्टी लेकर बार-बार नियति प्रोफ़ेसर दिनकर के पास जाएगी. तय हुआ कि पढ़ाई में ध्यान लगाने के साथ प्रेम जो हैं, सो रोज़ाना दूध पीने भैयालालजी की दुकान पर जाएंगे यानी दोनों एक-दूजे के पिताश्री को इम्प्रेस करेंगे.
अब इसके आगे कहानी में बताने को ज़्यादा कुछ नहीं है, फिर भी इतना जान लीजिए कि दोनों घरों में कुछ दिन तो तनाव रहा और कॉलेज में चर्चा रही कि प्रेम पहलवान भी प्रेम के चक्कर में आ गए. और प्रेम और नियति के बारे में शुरू में जो कहा था, वो कुछ ऐसे सिद्ध हुआ कि उस साल नियति ने मेरिट में दूसरे नंबर पर आने के साथ कॉलेज की वेट-लिफ़्टिंग टीम में भी जगह बनाई, लेकिन प्रोफ़ेसर दिनकर ने भैयालालजी से शादी का प्रस्ताव तब किया, जब प्रेम पहलवान भी प्रथम श्रेणी में पास हो गए. भला किसी पहलवान टाइप लड़के को पढ़ाई में लगा देनेवाली लड़की को बहू बनाने में कौन बाप मना करता?
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