कहानी: छोटी-सी बात
‘‘रमा ओ रमा, ज़रा मेरे लिए एक कप चाय तो बना ला,’’ गरजते हुए आदेश दिया नलिनी ने.
दौड़ती हुई साड़ी के पल्ले से हाथ पोंछते-पोंछते आ खड़ी हुई उसके सामने रमा.
‘‘क्या कह रही हैं दीदी?’’ भोलेपन से उसने पूछा.
‘‘तुझे तो कुछ सुनाई ही नहीं देता. चाय बना दे मेरे लिए और शक्कर ख़ूब सारी मत डाल देना.’’
‘‘वो बर्तन धो रही थी ना दीदी, इसी से सुनाई नहीं दिया.’’
‘‘बर्तनों की वजह से नहीं ये जो दो दर्जन चूड़ियां पहन रखी हैं, इनकी खनखन से तुझे सुनाई नहीं देता.’’
‘‘शादीशुदा हैं, तब ये तो पहननी ही हुई ना दीदी?’’ उसके चेहरे पर खिलती हुई मुस्कान दौड़ गई.
‘‘पता नहीं मां कैसे झेल लेती हैं तुझे? अब जा ना यहीं खड़ी रहेगी क्या?’’
शादीशुदा तो मैं भी हूं और मेरे सहेलियां भी, पर इतनी चूड़ियां डालकर हम अपने ऑफ़िस में कम्प्यूटर पर काम करने लगें तो खनखनाहट से लोगों का सिर ही दुखने लगे. वो तो अच्छा है कि अजय और उनके घरवाले इस बात को समझते हैं, क्योंकि अजय की मां कामकाजी जो रही हैं. ये क्या अजय के बारे में क्यों सोचने लगी वो? उन्हीं से तो नाराज़ होकर मां के घर चली आई है नलिनी और यही तो वजह है कि अपनी खीझ सब पर उतार रही है. यहां तक कि रमा पर भी. मां के बार-बार कहने पर भी मौसी की बेटी की सगाई में नहीं गई वो, क्योंकि मन अच्छा न हो तो क्या भला कोई उत्सव या समारोह अच्छा लग सकता है? यही कह दिया मां से,‘भले ही कल रविवार है तो क्या? सोमवार को मेरा प्रेज़ेंटेशन है और मुझे उसी की तैयारी करनी है. अब आज का पूरा दिन अकेले बिताना है... ऐसे में मन तो यहां-वहां भटकेगा ही. मां-पापा मेरठ से कल दोपहर तक ही लौटेंगे.
ऑफ़िस का काम तो एक बहाना था, वो तो यहां कुछ दिनों की छुट्टी लेकर आई थी. ये बात सिर्फ़ अजय और वही जानते हैं. न अजय के माता-पिता और ना ही उसके माता-पिता को पता है कि नलिनी अजय से नाराज़ होकर दिल्ली चली आई है. नाराज़ भी क्यों न होती? शादी के पहले ही उन दोनों ने तय किया था कि चूंकि वे दोनों कामकाजी हैं इसलिए घर का ख़र्च अजय चलाएंगे और यदि उन्हें कोई बड़ी चीज़ ख़रीदनी होगी तो नलिनी उनकी मदद करेगी या फिर अपने पैसों को जहां चाहे वहां निवेश करेगी. नलिनी को इस बात से बहुत संबल भी मिला था कि अजय महिला सशक्तीकरण के पक्षधर हैं. वे इस बात से ख़ुश होते हैं कि नलिनी अपने कमाए हुए पैसों को अपने ढंग से ख़र्च या निवेश करे. पर अब उसे यही लग रहा है कि क्या उसकी सोच सही थी?
‘‘लो दीदी, चाय.’’
ये कमबख़्त तो कुछ सोचने भी नहीं देगी, मन में बड़बड़ाते हुए उसने चाय का कप थाम लिया.
‘‘तुम हर समय ऐसे ही मुस्कुराती रहती हो क्या रमा?’’
‘‘दिल ख़ुश हो तो चेहरे पर दिख ही जाता है ना दीदी.’’
कहां इसे छेड़ दिया....अब गए पांच मिनट. चाय भी चैन से पीने नहीं देगी.
‘‘कितना काम बचा है तुम्हारा?’’
‘‘काम तो अगले दो घंटे में ख़तम हो जाएगा, पर मां जी बोल के गई हैं कि आज के दिन यहीं रहूं. आप अकेली हैं ना? मैं तो सामान भी ले आई हूं.’’
मां को भी मेरा चैन गवारा नहीं. इसे रुकने कह दिया.
‘‘क्यों तुम्हारे घर पर कोई काम नहीं है क्या तुम्हें?’’
‘‘हमारे पति अपने घर गए हैं ना दीदी...दो दिन को. तो क्या काम? मां जी बोली हैं यहीं ज़्यादा खाना बना लें और यहीं खा लें.’’
‘‘और कोई नहीं है क्या घर पर?’’
‘‘नहीं दीदी. शादी के बाद 2 साल तो हम अपने सास-ससुर के साथ गांव में ही रहे और पिछले साल ही तो यहां आए हैं...इनके पास.’’
‘‘हम्म्म...’’ जब तक जाने को नहीं कहूंगी, लगता है यह यहीं डटी रहेगी, लंबी सांस भरते हुए नलिनी ने सोचा.
‘‘तो क्या बना लें दीदी?’’ बड़े स्नेह से उसने पूछा.
‘‘तुझे जो अच्छा लगे वो,’’ उसका सौम्य चेहरा देखकर झिड़कने की अपनी इच्छा पर ज़बरन क़ाबू पाते हुए नलिनी ने कहा,‘‘पर अब जा और मुझे चैन से चाय पी लेने दे.’’
छमछम करके जाती हुई रमा को देखकर उसे भला सा लगा...जाने क्यों? कितनी ख़ुश हो जाती है अपने पति का नाम लेते हुए भी. शायद यही वजह हो उसके भले लगने की. और एक वो ख़ुद है...पर अजय ने किया भी तो ऐसा ही. उनकी शादी को दो वर्ष हो चुके हैं और अजय पर विश्वास करने लगी थी वो. इसीलिए तो उनके कहने पर एक जॉइंट अकाउंट खुलवाया उसने और उसमें एक बड़ी राशि जमा भी कराई थी. उस दिन एक नामी ज्वेलरी शॉप में अपनी सहेली शेफाली के साथ उसके लिए कुछ गहने पसंद करवाने गई थी.
यूं तो उसे गहनों का कोई ख़ास शौक़ नहीं है, पर वहां उसे भी एक बहुत ख़ूबसूरत सा ब्रेसलेट पसंद आ गया. ख़रीदने का मन हो गया तो पहले अजय को फ़ोन लगाया, पर जब उन्होंने फ़ोन नहीं उठाया तो ये सोचकर कि अजय क्यों मना करेंगे? दुकानदार के आगे अपना कार्ड बढ़ा दिया. जब कार्ड प्रोसेस नहीं हुआ तो वजह जानने पास के एटीएम पहुंची तो देखा अकाउंट में बहुत कम पैसे बचे हैं. घबराकर ब्रांच में फ़ोन किया तो पता चला कि अजय ने उसमें से एक बड़ी राशि निकाली है और वो भी बिना उसे बताए. यूं तो इतना ही काफ़ी था उसका पारा सातवें आसमान पर पहुंचाने को, पर इस पूरी घटना के दौरान शेफाली उसके साथ ही थी और शेफाली का ये कहना,‘अरे, अजय ने तुझे बताया ही नहीं क्या?’ आग में घी का काम कर गया.
शाम को अजय से इसी बात के बारे में पूछा तो बजाय गिल्ट महसूस करने के कहने लगे,‘तो क्या हुआ? मेरे पास के अतिरिक्त पैसे मैंने इन्वेस्ट कर दिए और ये बात ध्यान से ही उतर गई कि हमारे बीमा का प्रीमियम भी देना है. यदि इन्वेस्ट किए हुए पैसे निकालता तो हमें थोड़ा नुक़सान होता. और वैसे भी ये पैसे तो बैंक में यूं ही रखे हुए थे.’
‘पर वो मेरे पैसे थे. उन्हें निकालने से पहले कम-से-कम मुझे बताना तो चाहिए था. मैं उनसे अपने लिए कुछ ख़रीदना चाहती थी और शेफाली के सामने ही ये सब होना था. मुझे पता होता तो मैं...’
‘अरे, वो ब्रेसलेट कहां भागा जा रहा है. अगले महीने मैं तुम्हारे अकाउंट में पैसे डाल दूंगा, तब ले लेना.’
‘बात पैसों की नहीं है, बात भरोसे की है, बात समय पर सूचना न देने की है.’
‘ओफ्फ़ हो, सोचा था तुम्हें बता दूंगा. दिमाग़ से उतर गया बस.’
‘काम की बातें तुम्हारे दिमाग़ से उतर ही जाती हैं. मुझे यूं लग रहा है, जैसे तुमने मुझे छला हो.’
‘अच्छा बाबा पैसे आते ही वो ब्र्र्रेसलेट दिलवा दूंगा.’
‘नहीं चाहिए मुझे और मैं ऑफ़िस भी नहीं जाना चाहती. शेफाली तो वैसे भी एक की चार लगानेवालों में से है. सबको बता दिया होगा उसने कि मेरे पति मेरे अकाउंट से पैसे निकाल लेते हैं और मुझे पता भी नहीं रहता.’
‘अब कह तो रहा हूं कि दिला दूंगा.’
‘फिर वही. कहा न बात पैसों की नहीं, भरोसे की है. मैंने तुम्हारे साथ ऐसा ही किया होता तो?’
‘तुम खांमखां बात को तूल दे रही हो.’
‘मैं किसी बात को तूल नहीं दे रही हूं. मैं ऑफ़िस भी नहीं जाना चाहती और तुम्हारे पास भी नहीं रहना चाहती, क्योंकि एक तो तुमने ग़लत किया और ऊपर से मान भी नहीं रहे हो.’
‘अरे, और कैसे मानते हैं?’
‘मैं नहीं जानती. मैंने कुछ दिनों की छुट्टी ली है और दिल्ली जा रही हूं. मां-पापा के पास.’
‘पर मैं मम्मी-पापा से क्या कहूंगा?’
‘कह देना ऑफ़िस के काम से गई हूं.’
‘ये क्या बचपना है?’
‘यदि तुमने जो किया वो बड़प्पन है तो ये बचपना ज़रूरी है.’
‘जो मर्ज़ी आए करो.’
...और वो चली आई यहां. क्या बुरा किया? एक तो चोरी और फिर सीना जोरी. ऐसे में क्या भला कोई नाराज़ भी न हो? अच्छा ही तो किया उसने यहां आकर. अपनी ग़लती अजय को समझ में आनी ही चाहिए.
‘‘दीदी खाना बन गया है,’’ रमा ने उसकी तंद्रा भंग की.
‘‘तो?’’
‘‘तो क्या? खाएं तो रोटी सेंक दूं.’’
‘‘अभी से?’’
‘‘अभी से कहां? दो बज गए हैं.’’
नलिनी मेज पर आ बैठी. उसकी थाली में बढ़िया-सी फूली हुई रोटी रखकर रमा रोटियां बेलने किचन में वापस चली गई.
‘‘खाना तो अच्छा बनाया है तुमने.’’
‘‘हमारे पति भी यही कहते हैं कि हम खाना अच्छा बनाते हैं.’’
‘‘क्या हर बात में पति-पति करती रहती हो?’’
‘‘एक बात कहें दीदी?’’ दूसरी रोटी थाली में परसते हुए रमा ने कहा और बिना उसके जवाब का इंतज़ार किए आगे बोली,‘‘आप रसिक नहीं हैं. आज हमें लग रहा है कि यहां मां जी को होना चाहिए था.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘वो होतीं तो अब तक पूछ ही लेतीं कि क्या बात है रमा आज तो बहुत ख़ुश हो.’’
‘‘तो कारण क्या है तुम्हारी ख़ुशी का?’’
‘‘आप हमारी तरफ़ देख के पता लगाइए.’’
‘‘अब ये सब तुम मां से ही करवाया करो, उन्हीं के पास है इतना समय.’’
‘‘तभी तो कह रहे हैं कि आप रस नहीं लेतीं जीवन का. ज़रा हमारे गले में तो देखिए.’’
‘‘ओ... तो तुमने नया मंगलसूत्र पहना है?’’
‘‘हां, जाने से पहले हमारे पति बनवा के पहनवा के गए हैं.’’
‘‘तभी उनके नाम की माला जप रही हो. और क्या-क्या बनवाता रहता है वो तुम्हारे लिए?’’
‘‘बनवाते नहीं रहते हैं. इस बार बनवाया है. इसके पहले तो दो बार हमसे बिना पूछे ही हमारे गहने बेच दिए थे. पहली बार बेचा तो हमारे लड़ने पर कहने लगे कि औजार ख़रीदने के वास्ते बेचे हैं. पैसे आएंगे तो बनवा देंगे, पर पैसे आने से पहले ही सास-ससुर की तबियत ख़राब हुई तो हमारे बचे हुए गहने फिर बिना पूछे बेच दिए. कहने लगे,‘वक़्त-ज़रूरत पे हमारे पैसे तुम्हारे और तुम्हारे पैसे हमारे काम नहीं आएंगे तो कैसे चलेगा?’ तीन साल हो गए इस बात को. अबकि मुनाफ़ा हुआ तो हमारे वास्ते ये मंगलसूत्र और ये कान की बालियां बनवाई हैं,’’ यह बताते हुए कान की बालियां दिखाने के लिए बड़े चाव से रमा उसके क़रीब आ गई.
नलिनी समझ नहीं पा रही थी कि उसकी बालियों पर ज़्यादा ग़ौर करे या उसकी सौ फ़ीसदी खरी बातों पर.
‘‘जब गहने बेचे तो तुम्हें ग़ुस्सा नहीं आया उस पर?’’
‘‘आया क्यों नहीं? हमने तो उनसे बात करनी भी बंद कर दी थी दीदी. पर फिर ख़ुद ही सोचा गहने किसी इंसान से क़ीमती थोड़े ही होते हैं. पति साथ रहेगा तो गहने फिर बनवा लेंगे.’’
भले ही यह ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं, पर बात तो सोलह आने सही कह रही है. महिला सशक्तीकरण का झूठा दंभ परे कर दिया जाए तो लगभग यही वाक़या तो उसके साथ हुआ है. खाना ख़त्म कर अलसायी हुई नलिनी ने बिस्तर पर लेटते हुए सोचा...पर कम-से-कम उसके पति ने उसके लिए गहने बनवाए तो. और एक अजय हैं...कल से आज तक उनका एक फ़ोन भी नहीं आया. मनाना तो उन्हें आता ही नहीं. यदि थोड़ा सा मना लेते तो क्या रुक न जाती वो? पर...छोड़ो.
‘‘रमा, मैं सो रही हूं. बेल बजे तो मुझे जगाना मत और तुम भी आराम कर लो.’’
जब सोच-सोच कर बहुत थक चुके हों तो सो ही जाना चाहिए. अरे मां-पापा पहुंचे कि नहीं ये तो पूछा ही नहीं. यह सोचते ही उसने अपने पर्स से मोबाइल निकाला तो देखा दो मैसेज थे. और ये क्या...ये दोनों ही अजय के.
पहला मैसेज-‘‘सॉरी नलिनी. आई एग्री मुझे तुम्हें बताना चाहिए था.’’
दूसरा मैसेज-‘‘आई एम कमिंग टू मीट योर पैरेंट्स. फिर हम साथ ही लौटेंगे.’’
ओह, मैंने बेकार ही सोचा कि अजय को मेरी फ़िक्र ही नहीं है...क्यों नहीं होगी? आख़िर वे मेरे पति हैं! मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए था.
मन कुछ हल्का हुआ तो उसने मां-पापा को फ़ोन लगाया. वो सकुशल पहुंच गए थे. तभी बेल बजी.
‘‘कौन है रमा?’’
‘‘फूल... फूलवाला दीदी.’’
यह कहते हुए उसने नलिनी के हाथ में एक बुके थमा दिया. लाल गुलाबोंवाला वह बुके भी अजय ने ही भिजवाया था.
उसने तुरंत अजय को फ़ोन लगाया,‘‘अब क्या रुला ही दोगे?’’
‘‘क्यों? क्या मेरा आना इतना बुरा लग रहा है?’’
‘‘अरे, तुम तो कुछ समझते ही नहीं हो?’’
‘‘सब समझता हूं.’’
‘‘कहां हो?’’
‘‘तुम्हारी दिल्ली में पहुंच गया हूं. मेरे लिए पोहे बनाओगी उतनी देर में घर पहुंच जाऊंगा.’’
‘‘ओके.’’
नलिनी पूरे उत्साह के साथ पोहे बनाने किचन में पहुंच गई.
‘‘आप क्या बना रही हैं दीदी?’’
नलिनी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया,‘‘पोहे. हमारे पति को हमारे हाथ के पोहे बहुत पसंद हैं, रमा.’’
और वे दोनों एक-दूसरे को देखकर मुस्कुरा दीं.
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