कहानी: खो जाते हैं घर
बब्बू क्लीनिक से रिलीव हो गया है. मिसेज़ राय उसे अपने साथ ले जा रही हैं.
‘‘ओके डाक्टर, मैं इसे ले जा रही हूं. अगर वह आदमी आए, इस बच्चे के बारे में पूछे तो मुझे तुरंत ख़बर करें.’’
‘‘श्योर, हालांकि इतने दिन बीत जाने के बाद उसके आने की बाद उम्मीद कम ही हैं. मुझे अभी भी यही लग रहा है कि उसने इस बच्चे को बुख़ार में कहीं तड़पते देख लिया होगा और ख़ुद इसका इलाज कराने की हैसियत नहीं रही होगी इसलिए इसे यहां छोड़ गया.’’
‘‘मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है. लेकिन बीच बीच में ये बच्चा दूसरे बच्चों की कहानियां सुनाता रहा है, उससे मामला और उलझ गया है.’’
‘‘मेरे ख़्याल से बच्चे के पूरी तरह से ठीक हो जाने के बाद ही सारी बातों के बारे में बेहतर ढंग से पता चल सकेगा.’’
‘‘हां, इसके लिए कुछ दिन तो इंतजार करना ही पड़ेगा.’’
‘‘ओके बब्बू, बाय. आंटी को परेशान नहीं करना.’’
‘‘नहीं करूंगा.’’
डॉक्टर ने बब्बू के गाल सहला दिए हैं. मिसेज़ राय ने वॉर्ड बॉय को इशारा किया है बच्चे को कार में बिठा देने के लिए.
बब्बू ज़िंदगी में पहली बार किसी कार में बैठा है और हैरान है. वह शीशे से आंखें सटा कर बाहर का नज़ारा देखना चाहता है. यह देखकर मिसेज़ राय उसे खिड़की के नज़दीक सरका देती हैं. बब्बू अचानक कार में से अनुपस्थित हो गया है और बाहर भागती दौड़ती दुनिया में शामिल हो गया है.
वह कुछ देर बाद कार के भीतर की दुनिया में लौटता है और उनसे आंखें मिलाता है. वे मुस्कराती हैं. वह भी उनकी मुस्कुराहट के बदले अपने चेहरे पर क़ीमती मुस्कुराहट लाने की कोशिश करता है.
‘‘बेटे, अब कैसा लग रहा है?’’
‘‘ठीक. आंटी, हम कहां जा रहे हैं?’’
‘‘घर, क्यों?’’
‘‘किसके घर?’’
‘‘अपने घर और किसके घर?’’
‘‘आपका घर कहां है?’’
‘‘लोखंडवाला में.’’
बब्बू चुप हो गया है. कभी किसी से उसने इतनी और इस तरह की बातें की ही नहीं हैं.
‘‘बच्चे, तुम कहां रहते हो?’’
‘‘पुल के नीचे.’’
‘‘जगह याद है?’’
‘‘नहीं.’’
‘‘कोई ख़ास बात याद है उस पुल के बारे में?’’
‘‘उधर मच्छर बहुत थे.’’
‘‘खाना कहां खाते थे?’’
‘‘कहीं भी खा लेते थे.’’
‘‘सारा दिन क्या करते थे?’’
‘‘कुछ भी नहीं?’’
‘‘तुम्हारे वो दोस्त कहां मिल गए थे, जिन्हें तुम रोज़ याद करते थे?’’
‘‘वहीं पुल के नीचे.’’
‘‘क्या करते थे वो लोग?’’
‘‘सब अलग अलग काम करते थे.’’
‘‘तो तुम्हारा ख़्याल कौन रखता था?’’
‘‘सब रखते थे?’’
‘‘तो तुम क्या करते थे?’’
‘‘कुछ नहीं, मैं तो बहुत छोटा हूं ना...’’
‘‘लेकिन हो उस्ताद, छोटू उस्ताद.’’
‘‘मैं उस्ताद थोड़ी हूं.’’
‘‘अच्छा, अपने घर की याद आती है तुम्हें?’’
‘‘नहीं.’’
इतने सारे सवालों से थक गया है. उसने अपनी आंखें मूंद ली हैं. मिसेज़ राय उसे चुप ही रहने देती हैं.
अचानक बब्बू ने अपनी आंखें खोली हैं.
‘‘आंटी, आप क्या करती हैं?’’
‘‘क्यों बेटे?’’
‘‘वैसे ही, आपकी गाड़ी बहुत अच्छी है. ठंडी ठंडी.’’
‘‘तुम्हें अच्छी लगी?’’
‘‘हां, आप भी.’’
‘‘अरे बाप रे, हम भी तुम्हें अच्छे लगे भला क्यों?’’
‘‘आप रोज़ आती थी हमसे मिलने. इत्ती सारी चीज़ें लाती थीं.’’
तभी उन्होंने ड्राइवर से कहा है,‘‘ड्राइवर, जरा सामने स्टोर्स के आगे गाड़ी तो रोकना. अपने राजा बाबू के लिए कुछ कपड़े तो ले लें.’’
‘‘मैं क्या करूंगा कपड़े?,’’ बब्बू ने अपना ज़िक्र सुन कर पूछा है.
‘‘क्यों कपड़ों का क्या करते हैं?’’
‘‘पहनते हैं. मैंने भी तो पहने हुए हैं.’’
‘‘तुम इतने दिन से अस्पताल में थे ना अब घर जा रहे हो इसलिए अच्छे कपड़े चाहिए ही ना. और खिलौने भी. बोलो कौन सा खिलौना पसंद है?’’
‘‘हम खिलौने से थोड़े ही खेलते थे.’’
‘‘तो किस चीज़ से खेलते थे मेरे बच्चे?’’
‘‘वैसे ही खेलते रहते थे.’’
‘‘लेकिन तुम्हें तो खिलौनों से खेलना चाहिए.’’
बब्बू चुप रह गया है.
गाड़ी लोखंडवाला कॉम्पलेक्स में एक बहुत ही बड़ी और भव्य इमारत के आगे रुकी है. बच्चा हैरान है. उसके लिए ये दुनिया बिल्कुल अनजानी और अनदेखी है.
बच्चा लिफ़्ट में पहली बार आ रहा है और हैरानी से पूछता है,‘‘आंटी, ये कमरा क्या है?’’
वे हंस कर बताती हैं,‘‘बच्चे ये कमरा नहीं है. ये लिफ़्ट है. इससे ऊपर जाते हैं.’’
‘‘अच्छा ये लिफ़्ट है!’’
वे अपनी मंज़िल पर पहुंच गए हैं.
दरवाज़ा बाई ने खोला है. वे उसे लेकर भीतर गई हैं.
नौकरानी ने उनके हाथ से सामान ले लिया है और बच्चे को देख कर कहती है,‘‘हाय, किती छान मुलगा आहे! किसका है मेमसाहब?’’
वे गर्व से बताती हैं,‘‘हमारा मेहमान है. अभी हमारे साथ ही रहेगा और सुनो, ये बाबा बीमार है इसके लिए हल्का खाना बनाना. पूरा ख़्याल रखना इसका. ठीक है...’’
अपने कमरे में जाते ही उन्होंने बच्चे को भींच कर अपने सीने से लगा लिया है. वे ज़ोर ज़ोर से रोए जा रही हैं. वे उसे भींचे भींचे मेरे लाल, मेरे लाल कहे जा रही हैं. उन्हें रोते देख बच्चा घबरा गया है और वह भी रोने लगा है.
‘‘आंटी, आप रो क्यों रही हो?’’
‘‘अरे पागल, मैं रो कहां रही हूं, ये तो... ये तो... ख़ुशी के आंसू हैं.’’
‘‘आंटी, ख़ुशी के आंसू कैसे होते हैं?’’
‘‘बहुत सवाल करता है रे, आदमी जब बहुत ख़ुश होता है ना, तब भी बहुत रोता है.’’
‘‘मैं तो जब भी रोता हूं तो ख़ुशी के आंसू थोड़े ही आते हैं. जब गिर जाता हूं या भूख लगती है तो मैं सचमुच रोता हूं. आंटी, आपको चोट लगती है तो आप रोती हैं क्या?’’
‘‘पगले बड़ों को जब चोट लगती है ना... तो वो चोट नज़र नहीं आती. बस, पता चल जाता है कि चोट लग गई है. समझे बुद्धूराम...’’
‘‘नहीं.’’
बच्चा समझ नहीं पाता इतनी सारी बातें और उनके बंधन से अपने आप को मुक्त कर लेता है. अब अलग होने के बाद उसका ध्यान घर पर, वहां रखे इतने सारे सामान पर और शानो शौकत पर गया है. उसने पूरे घर का एक चक्कर लगाया है और लौट कर उनके पास वापिस आया है.
‘‘आंटी, इतने बड़े घर में आप अकेली रहती हैं?’’
सिर हिलाकर बताती है,‘‘हां.’’
‘‘आपको डर नहीं लगता?’’
‘‘लगता है.’’
‘‘किससे?’’
‘‘बेटे, एक डर हो तो बताऊं कभी अपने आपसे डर लगता है तो कभी अपने अकेलेपन से डर लगता है. कभी अपने बुढ़ापे से डर लगता है. बोल तू मेरे साथ यहां रहेगा मेरा डर दूर करने के लिए?’’
‘‘मेरे रहने से आपका डर दूर हो जाएगा आंटी?’’
‘‘तू नहीं जानता मेरे बेटे तू कितना प्यारा है. तेरे यहां रहने से इस घर का सारा अंधेरा दूर हो जाएगा.’’
‘‘आंटी, आप जोक मारती हैं. घर में अंधेरा कहां है. रौशनी है.’’
‘‘हां बेटे, बाहर से ही तो रौशनी नज़र आती है. भीतर का अंधेरा ऐसे ही थोड़ी नज़र आता है. बोल ना रहेगा मेरे पास. मैं तुझे ख़ूब पढ़ाऊंगी. अच्छे स्कूल में तेरा एडमिशन कराऊंगी. तू ख़ूब पढ़ लिख कर फिर मेरी मदद करना. मेरा डर दूर करना. करेगा ना?’’
‘‘लेकिन मेरे दोस्त?’’
‘‘दोस्त तो ठीक हैं बेटे, लेकिन हम उन्हें ढूंढें कहां? तुम्हें सिर्फ़ पुल के अलावा कुछ भी तो याद नहीं? कितना अच्छा होता तुम्हारे मां बाप भी मिल जाते...’’
‘‘लेकिन मैं तो अपने दोस्तों के पास ही रहूंगा.’’
‘‘अच्छा एक काम करते हैं. तुम ज़रा ठीक हो जाओ तो मुंबई में जितने भी पुल हैं हम सब जगह जाएंगे और तुम्हारे दोस्तों का पता लगाएंगे. चलोगे न हमारे साथ?’’
‘‘चलूंगा. आंटी कबीर मेरा बहुत ख़्याल रखता है. मैं आपको अपने सभी दोस्तों से मिलवाऊंगा.’’
‘‘अरे वाह! चल बेटे अब तू आराम कर ले ज़रा. मैं भी कुछ काम धाम निपटा लूं.’’
‘‘अच्छा, आंटी.’’
बब्बू को नींद नहीं आ रही है. यहां का माहौल और तामझाम उसकी कल्पना से परे है. वह उठ बैठा है. वह पूरे घर में घूम घूम कर देख रहा है. स्टीरियो, रंगीन टेलीविज़न, तस्वीरें, मूर्तियां, खिलौने. वह देखता है कि ज़्यादातर खिलौने या तो बैटरीवाले हैं या उन्हें चलाना उसके बस में नहीं. थक हारकर उसने सारी चीज़ें एक तरफ़ सरका दी हैं.
मिसेज़ राय बब्बू को जुहू घुमा कर लाई हैं. उसने अपनी ज़िंदगी में पहली बार समुद्र देखा है. वह समुद्र से मिलकर बहुत ख़ुश हुआ. बेशक़ मिसेज़ राय डर रही थीं कि बच्चा अभी ही तो बीमारी से उठा है, लेकिन बच्चा मस्त होकर पानी से ख़ूब खेलता रहा. मिसेज़ राय ख़ुद भी उसके साथ झूले में बैठीं, घोड़ा गाड़ी की सवारी की और गुब्बारे लेकर उसे साथ साथ गीली रेत पर दौड़ती रहीं. उन्होंने अरसे बाद अपने आप को पूरी तरह से भूलकर, बच्चे के साथ बच्चा बन कर एक नया अनुभव लिया.
घर पहुंच कर बच्चा बिफर गया है. उसे अपने दोस्तों की याद आ गई है. बड़ी मुश्किल से आंटी उसका ध्यान समंदर की तरफ़ लाई हैं.
‘‘आंटी, समंदर सब जगह क्यों नहीं होता?’’
‘‘अगर समंदर सब जगह होगा तो मेरे भोले बेटे हम रहेंगे कहां?’’
‘‘सब जगह पानी रहेगा तो कितना मज़ा आएगा, पानी में खेलते रहेंगे हम.’’
‘‘तो स्कूल कब जाएंगे, काम कब करेंगे और दवा कब खाएंगे नटखट रामजी?’’
‘‘हम दवा नहीं खाएंगे, कड़वी लगती है.’’
‘‘दवा नहीं खाओगे तो ठीक कैसे होगे, बोलो, तब कबीरा के पास कैसे जाओगे?,’’ उन्होंने उसे ब्लैकमेल किया है.
‘‘ठीक है खाऊंगा,’’ वह अपने ही फंदे में फंस गया है.
बब्बू अभी सो रहा है. मिसेज़ राय ऑफ़िस जाने की तैयारी कर रही हैं. उसके पास आकर प्यार से वे उसे चूमती हैं. नौकरानी को आवाज देती हैं,‘‘माया, सुनो, मुझे शाम को वापिस आने में देर हो जाएगी. बच्चे का पूरा ख़्याल रखना.’’
‘‘ठीक है मेम साहब.’’
‘‘जब बच्चा जाग जाए तो उसे गरम पानी से नहला देना. उसे अपने आप खेलने देना. खाना वक़्त पर खिला देना.’’
‘‘अच्छा मेम साहब.’’
‘‘बच्चे को टाइम पर दवा दे देना. मालूम है ना कौन सी गोली देनी है?’’
‘‘मालूम है.’’
मिसेज़ राय एक बार फिर बच्चे के गाल चूम कर जाती हैं.
बच्चे ने जागने के बाद सबसे पहले पूरे घर में आंटी को ढूंढा है. उसे आंटी कहीं नहीं मिलीं तो वह रुंआसा हो गया है. उसे रसोई में माया नज़र आई है. अब वह उसे भी पहचानने लगा है.
‘‘आंटी कहां हैं?’’
‘‘काम पे गई मेम साहब.’’
‘‘कहां?’’
‘‘आपिस’’
‘‘आपिस क्या होता है?’’
‘‘आपिस माने कचेरी.’’
‘‘कचेरी क्या होती है?’’
‘‘वो सब हमको नई मालूम. मेम साहब रोज़ आपिस जाती है. शाम कू आती है. बाबा, तुम दूध पिएगा अब्भी. फिर तुम नहाकर खेलना.’’
‘‘आज कबीरा आएगा?’’
‘‘हां, मेमसाहब बोला कि ड्राइवर जाके कबीरा को खोजेंगा फिर मुन्ना बाबा और कबीरा एक साथ खेलेंगा.’’
बच्चा ख़ुश हो गया है. अब उसे आंटी नहीं चाहिए?
लेकिन माया के आश्वासन के बावजूद कबीरा अभी तक नहीं आया है. वह कई बार बालकनी में, बड़े वाले कमरे में और पूरे घर में टहलते हुए अपने दोस्तों का इंतज़ार कर रहा है. उसने बेशक़ स्नान कर लिया है, दूध पी लिया है, दवा भी खा ली है लेकिन उसका ध्यान लगातार दरवाज़े पर ही लगा रहा है. वह एक पल के लिए भी आराम नहीं कर पाया है. माया के बार बार कहने के बावजूद वह सोने के लिए तैयार नहीं हुआ है. कहीं ऐसा न हो कि कबीरा वगैरह आएं और उसे सोया देखकर लौट जाएं.
वह अकेले बोर हो रहा है. सारे कमरे में खिलौने बिखरे पड़े हैं. वह कभी बालकनी में जा रहा है और कभी भीतर आ रहा है. उसका मूड बुरी तरह से उखड़ा हुआ है. वह इस बीच कई बार रो चुका है. उसे समझ में ही नहीं आ रहा है कि क्या करे?
तभी फ़ोन की घंटी बजी है. लपकी हुई माया आई है और उसने फ़ोन उठाया है. वह फ़ोन सुनते हुए लगातार हां हां कर रही है. उसने बब्बू को बुलाया है.
‘‘बाबा मेम साहब का फ़ोन है.’’
बच्चा फ़ोन लेता है लेकिन उसे समझ में नहीं आता कि क्या करे?
माया उसे बताते हुए कहती है,‘‘हैलो बोलने का.’’
बच्चा कहता है,‘‘हैलो, आंटी आप जल्दी आओ, कबीरा नहीं आया.’’
मिसेज़ राय उसे बताती हैं,‘‘हम जल्दी आएंगे बेटा. तुम आराम करो. ठीक है.’’
‘‘ठीक है.’’ फ़ोन माया को लौटा देता है.
बच्चे का मूड बुरी तरह बिगड़ा हुआ है. वह ज़ोर-ज़ोर से रोए जा रहा है. माया उसे कभी गोद में उठाकर चुप कराने की कोशिश करती है तो तभी खिलौने दे कर बहलाना चाहती है लेकिन बच्चा है कि एकदम बिफर गया है और किसी भी तरह से क़ाबू में नहीं आ रहा है. तभी माया ने उसे पेंसिल और कागज़ लाकर दिया है. बच्चा उस पर आड़ी तिरछी रेखाएं खींचने लगा है. कुछ देर के लिए वह बहल गया है. ये देखकर माया की जान में जान आई है. वह रेखाएं खींच रहा है. कभी गोल, कभी सीधी. उसका मन बहल गया है और वह अब उसी में मस्त है. कागज रंगते रंगते उसे नींद आ गई है और वह वहीं सो गया है.
जागने के बाद वह बालकनी में खड़ा है. नीचे पार्क में बच्चे खेल रहे हैं. वह थोड़ी देर उन्हें खेलते देखता रहता है. फिर माया से पूछता है,‘‘मैं नीचे खेलने जाऊं.’’
‘‘जाओ बाबा, लेकिन जल्दी आ जाना.’’
माया उसके कपड़े बदलती है और जूते पहनाती है और उसके लिए दरवाज़ा खोल देती है.
माया को नहीं मालूम कि यह बच्चा इस दुनिया का नहीं है. वह जहां से आया है, वहां लिफ़्ट, बहुमंज़िला इमारतें, चिल्ड्रन पार्क और ये सारे ताम झाम नहीं होते.
वह थोड़ी देर तक लिफ़्ट के आगे खड़ा रहता है लेकिन उसे समझ में नहीं आता कि इसे कैसे खोले. इधर माया ने भी दरवाज़ा बंद कर दिया है. वह तीन चार बार हौले-हौले से दरवाज़ा थपकाता है लेकिन भीतर काम कर रही माया तक आवाज़ नहीं पहुंचती.
वह धीरे धीरे सीढ़ियां उतरने लगता है. वह बच्चों के पार्क में पहुंच गया है और उन्हें खेलता हुआ टुकुर टुकुर देख रहा है. अचानक एक गेंद लुढ़कती हुई उसके पैरों के पास आती है और वह उसे उठाकर एक लड़के को दे देता है. पता नहीं कैसे होता है कि वह भी उनके खेल में शामिल हो जाता है. उसे अपना लिया गया है और उसे अच्छा लगने लगता है. वह सब कुछ भूलकर ख़ूब मस्ती से खेल रहा है.
काफ़ी देर तक वह उनके साथ खेलता रहता है. इस बीच अंधेरा घिरने लगा है और सारे बच्चे अकेले वापिस जा रहे हैं. वे अपनी आयाओं, बहनों या माताओं के साथ लौट रहे हैं.
वह भी खेलकर थक गया है और वापिस लौटना चाहता है.
वह क़दम आगे बढ़ाता है, लेकिन उसे याद नहीं आता कि वह किस बिल्डिंग में से निकल कर आया था. कभी एक बिल्डिंग की तरफ़ जाता है और कभी दूसरी की तरफ़. वह लड़खड़ा रहा है, और घबरा कर रोने लगा है. वह अपना घर भूल गया है. वह रोते-रोते भटक रहा है और अपनी इमारत से काफ़ी दूर आ गया है.
अंधेरा पूरी तरह घिर चुका है.
सड़क पर रोता हुआ अकेला बच्चा चला जा रहा है.
बच्चा वापिस सड़क पर आ गया है.
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