कहानी: छोड़ा हुआ

‘‘आज अनुज इंजीनियर हो गया है. यूं तो ये बड़ी ख़ुशी का दिन है, पर मेरे लिए ये दिन अपना फ़ैसला सुनाने का भी है. मैं अपना निर्णय लेने के लिए इसी दिन का इंतज़ार कर रही थी. सुदीत के ब्याह के बाद अनुज की फ़िक्र थी कि वो अपने पैरों पर खड़ा हो जाए बस... बाक़ी रही उसकी शादी-ब्याह की बात तो मुझे भरोसा है कि सुदीत और नेहा ये काम निपटा देंगे.

तुम ये सोच रहे हो कि मैं ये क्या और क्यों लिख रही हूं, वो भी बिना संम्बोधन के. दरअसल, ज़िंदगी का पहला पत्र तुम्हें लिखने बैठी हूं तो सबसे पहले तो यही तय नहीं कर पा रही हूं कि तुम्हें क्या कहकर सम्बोधित करूं? क्योंकि मैं तुम्हारी या तुम मेरे तो कभी रहे ही नहीं. तुम्हारे द्वारा दिए गए नाम से तुम्हारे परिवार में तो जीवनभर मुझे ‘छोड़ी हुई’ कहकर ही सम्बोधित किया गया था. हां! छोड़ी हुई. यह हमारे देश, समाज में विडम्बना ही है कि जो महिला अपने अनकिए अपराध के लिए भी क्षमा न मांगे वो हमेशा लोगों की आंखों की किरकिरी ही बनी रहती है. मेरे साथ भी यही हुआ. पूर्व पति और ससुरालवालों के साथ तालमेल न बैठा, क्योंकि वे लोग हद से ज़्यादा बर्बर थे. उनका बेटा डिप्रेशन का शिकार है, ये जानते हुए भी उसकी शादी मुझसे करवाई, वो भी हमें धोखे में रखकर. मैं जीवनभर वो यातनाएं भुगतने को तैयार न थी और उन लोगों से छुटकारा पा लिया. लेकिन ‘छोड़ी हुई’ का तमगा तो मेरे ही सीने पर लगना था.

पर तुम बताओ. तुमने क्यों एक ‘छोड़ी हुई’ महिला से विवाह किया? ताकि ज़िंदगीभर मुझे ज़लील करते रहो? या पापा की सम्पति पर तुम्हारी लार टपक रही थी. लेकिन ये सारी बातें तो बाद में ही समझ में आती हैं ना? उस वक़्त जब पुरोहित अंकल के ज़रिए रिश्ता आया तो तुम और तुम्हारे घरवाले मेरे पापा को साक्षात देवता ही लग रहे थे. इतना बढ़िया लड़का उनकी तलाक़शुदा बेटी को फिर से ब्याहने को तैयार था, वे तो बेचारे तुम्हारे गुणगान करते नहीं थकते थे. कहते फिरते थे ऐसे समाज सुधारक दामाद के तो चरण धोकर पियूं तो भी कम है!’’

कितने ग़लत थे पापा! तुमने उस समय अपना रूप पापा के सामने कैसा प्रस्तुत किया होगा, मुझे आश्चर्य होता है. सिंह या भेड़िया भी कभी अपना मूल स्वभाव नहीं छिपा पाता? पर इंसान, वो तो ये आसानी से कर लेता है. उस वक़्त की तुम्हारी लच्छेदार बातें, तुम्हारा सुदर्शन व्यक्तित्व, तुम्हारी समाज सुधारक की छवि के मोहपाश में बेचारे पापा ऐसे बंधे कि उन्हें तुममें विवेकानन्द की झलक दिखने लगी थी. हे भगवान! पापा कितने भोले थे ना! कुछ शुभचिंतकों ने कहा भी,‘दर साहब, ज़रा पता कर लीजिए, कोई सर्वगुण संपन्न लड़का भला एक तलाक़शुदा से क्यों ब्याह करेगा?’ लेकिन पापा के मानस में तो तुम्हारी देवता-सी छवि अंकित थी. अत: उन्हें अपने शुभचिंतक ही दुश्मन लगने लगे. ‘मेरी बेटी के लिए इतना बढ़िया लड़का मिल गया तो अपनेवाले ही जलते हैं साले,’ पापा की इस प्रतिक्रिया पर बोलनेवाले बेचारे चुप रह गए. 

पापा को लगता था मेरी पहली शादी ने मुझे जो संताप दिया, वो सारा तुम्हारे साथ घर बसते ही छू हो जाएगा. हर पिता यही चाहता है कि उसकी बेटी के जले पर कोई गुलाबजल के फाहेरख दे. पर पापा कहां जानते थे कि शारीरिक कष्ट भुगत चुकी बेटी को वे मानसिक यंत्रणा देनेवाले के हाथ सौंप रहे हैं. जिस दिन तुम्हारे घर में पहला क़दम रखा, पहले वाक्य में मेरे लिए ‘छोड़ी हुई’ संबोधन था. धीरे-धीरे मुझे पता चलने लगा कि, तुम्हारे घर...नहीं मकान...नहीं बंगले में वैसे भी महिलाओं के प्रति सम्मान नाम की कोई चीज़ नहीं थी और महिलाओं के उस हुजूम में मैं सबसे निकृष्ट वस्तु थी-छोड़ी हुई. ‘औरतों को इज़्ज़त नहीं देनी चाहिए वर्ना वो माथे पर बैठती हैं... वो मुंह लगाने की नहीं पैरों में रखने की चीज़ हैं...वगैरह...जैसे तुम्हारे उच्च विचार मुझे धीरे-धीरे पता चलने लगे. इस दुर्भावना के पीछे कोई ऐसा कारण घरवालों से भी नहीं पता चला. बस! सब कहते थे तुम ऐसे ही थे. आज हिम्मत कर रही हूं तो कह सकती हूं कि-ऐबले...!’

तुम बरामदे में बेंत के फ़र्नीचर पर अपना दरबार-सा लगाए रहते और मैं तुम्हारे हुक़्म की तामिल करती, चाय-नाश्ते में जुटी रहती. घर की हर महिला यहां तक कि तुम्हारी मां भी तुमसे ख़ौफ़ खाती थी, पता नहीं क्यों? मां-पापा से एकाध बार कहने की कोशिश भी कि आपके दामाद वैसे नहीं, जैसे आप समझते हैं, पर वो तो तुम्हारे सुनहरे व्यक्तित्व की चमक से अब तक मुक्त नहीं हुए थे. फिर मेरे भीतर बैठी वो परंपरागत रूढ़ियों में जकड़ी हिन्दुस्तानी लड़की भीरू हो गई. ‘एक बार शादी टूट चुकी है, दूसरी बार बढ़िया लड़का मिला, फिर भी पटरी नहीं बैठ रही है तो ज़रूर लड़की में ही कोई खोट होगा.’ लोग तो यही कहेंगे और मेरे मां-पापा बेचारे कैसेजी पाएंगे? इसी आम भारतीय मानस ने मुझे भीरू और दब्बू बना दिया और मैं ख़ुशी-ख़ुशी अपने ही शोषण में सहभागी हो गई.
दो बेटों का पिता बनने का सौभाग्य देकर भी मैं तुम्हारी कृपापात्र नहीं बन सकी. हां, तुम्हें इतनी ख़ुशी थी कि मैंने बेटी नहीं जनी, लेकिन मैं हमेशा एक बेटी के लिए तरसती रही. शायद वो मेरे कलेजे को ठंडक प्रदान करती, पर लगा जैसे तुम्हारे ख़ौफ़ से ही बेटी मेरे गर्भ में नहीं आ सकी.

कभी-कभी उम्मीद करती थी कि बेटे बड़े होकर अपने पिता के उद्वेग को शायद ठंडा कर देंगे और मैं कुछ राहत पा सकूंगी. पर वे भी मेरी ममता की छांह में कम, तुम्हारे ख़ौफ़ व रोब की गर्मी में ज़्यादा रहे और मेरी तमाम उम्मीदें धराशायी हो गई.

बीतते समय के साथ ‘छोड़ी हुई’ सुन-सुनकर मैं तो अपना मूल नाम ही भूलती गई. बेटे बड़े हुए तो दो बातों का डर लगने लगा. कहीं मेरी बहुएं भी मुझे ‘छोड़ी हुई’ नाम से न बुलाने लगें और दूसरे बहुओं के साथ तुम्हारा व्यवहार न जाने कैसा होगा? वे भी तो आख़िर नारी जाति ही रहेंगी ना. लेकिन पत्थर के भगवान ने न जाने तुम्हें भी किस पथरीली मिट्टी से गढ़ा कि नेहा में भी तुम्हें झुकाने का दम नहीं था. तुम्हारे व्यवहार से आहत होकर उसने दबे स्वर में दो-एक बार विरोध भी किया, पर एक तो सुदीत ने उसका साथ नहीं दिया और दूसरे तुम्हारी ओर से दी गई तलाक़ की धमकी से उसके मां-बाप घबरा गए. और मैं देख रही थी कि सुदीत में भी कोई दम-खम नहीं था. मैं सोचती थी कि समाज में बदलाव आ रहा है. पर 30 साल पीछे मुड़कर देखती हूं तो अपने, नहीं-नहीं... तुम्हारे घर में कोई बदलाव नहीं आया है!

पर आज मैं उसी बदलाव की शुरुआत करने जा रही हूं, जो मुझे बरसों पहले कर देना चाहिए था. तुमने मुझे अपनाया, नहीं-नहीं... अपनाया नहीं कह सकती. मेरे साथ शादी की, वो भी ज़िंदगीभर ये एहसास दिला कर कि ये एक पुरुष का एहसान है. अहं ब्रह्मास्मि का तुम्हारा ये दंभ तोड़कर आज मैं तुम्हें छोड़कर जा रही हूं. सिर्फ़ एक कसक के साथ कि बच्चों की याद ज़रूर आएगी... मैं जा तो रही हूं, पर मरूंगी नहीं. अब तक तुम्हारे घर में बहुत अचार-बड़ी बनाई, पापड़ बेले, अब मेरा यही काम मेरी सम्मानित जीविका का ज़रिया और जीने का मक़सद बनेगा. जहां रहूंगी चैन और सुकून से रहूंगी. जैसा मैं चाहती हूं, वैसा रहूंगी. 

उम्र के पचासवें पड़ाव पर घर-परिवार यूं छोड़ना अजीब ज़रूर लग रहा है, पर अब और पीड़ा मैं नहीं सहूंगी! यदि मैं मर जाती तो तुम मुझे सदा सुहागन के श्रृंगार में मुखाग्नि देते और लोग तुम्हें बेचारा विधुर, यही कहते, पर मैं ऐसा नहीं होने दूंगी. अब, जबकि मैं तुम्हें छोड़कर जा रही हूं तो लोग तुमसे मेरे बारे में सवाल करेंगे. वे तुम्हारे सामने भले ही हिम्मत न जुटा पाएं लेकिन पीठ पीछे तो ज़रूर कहेंगे-‘इसके अहं और ख़ड़ूसपने के कारण ही इसकी बीवी इस उम्र में इसका साथ छोड़ गई. बेचारी को ख़ूब बेज़्ज़त किया. इतने सालों तक उसने सहन किया, पर अब शायद उसकी सहनशीलता जवाब दे गई होगी, तभी बेचारी इसे छोड़ गई! हां, मैं तुम्हें छोड़ रही हूं और आज से तुम ‘छोड़े हुए’ हो. और अब ‘छोड़े हुए’ ही रहोगे.’’

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