कहानी: इस कहानी की नायिका

कटनी में ट्रेन रुकी थी. तृष्णा खिड़की से बाहर प्लैटफ़ॉर्म की हलचल देख रही थी. प्लैटफ़ॉर्म पर लगे नलों के चारों ओर अपनी-अपनी बोतल भरने के लिए आपस में धक्का मुक्की कर रही यात्रियों की भीड़ उसे बिल्कुल अजीब नहीं लग रही थी, क्योंकि वो मुंबई में जो रहती है. इस समय उसके दिमाग़ में सिर्फ़ और सिर्फ़ रेणुका घूम रही थी. आख़िर रेणुका को क्या करना चाहिए? रेणुका को प्रकाश और उसकी कलीग प्रेरणा के अंतरंग संबंधों का पता चल चुका है. 


वह इसी क़शमक़श में है कि क्या करे? रेणुका से कहीं अधिक परेशान है तृष्णा. वह चाहती है कि यह कहानी जल्द से जल्द ख़त्म हो, क्योंकि परसों शाम तक कहानी ईमेल करने के लिए वह नेहा से कमिट कर चुकी है. ‘हमारी पत्रिका के लिए कहानी नारी प्रधान होनी चाहिए. और हां, नारी की सशक्त भूमिका अनिवार्य है. हम लोग कहानी की हैप्पी एंडिंग पसंद करते हैं,’ नेहा द्वारा दी गई ब्रीफ़िंग उसे अच्छे से याद है.

तृष्णा के मन में चल रही रेणुका अपना अगला क़दम उठाने ही वाली थी कि तृष्णा को हल्का-सा धक्का लगा और वह दोबारा ट्रेन में आ गई. एक सांवली-सी औरत, अपनी बड़ी-सी गठरी और एक तीन-चार साल के बच्चे के साथ उसके बगल में खड़ी हो मुआयना कर रही थी कि कहीं अपना सामान जमाने और ख़ुद जमने की जगह मिल सके. संकरे से पैसेज में उसके खड़े हो जाने के कारण तृष्णा को धक्का लगा था. उसने उसकी ओर देखा और अपनी सीट पर थोड़ी-सी सरकते हुए फिर प्लैटफ़ॉर्म पर ताकने लगी.


तृष्णा अपने विचारों में खोई रही. उसे याद नहीं कब ट्रेन प्लैटफ़ॉर्म से निकल, सरपट दौड़ते हुए खेतों, मैदानों और पेड़ों को पीछे छोड़ने लगी थी. जब इस बार वह ट्रेन में वापस आई तो उसने देखा कि वह औरत अपनी गठरी को बगल में रखे, नीचे बैठी, सो रही है. उसका बच्चा सीट के सहारे खड़ा है. वह कभी खिड़की के बाहर ताकता और कभी तृष्णा की ओर. चूंकि सामनेवाली सीट ख़ाली थी, इसलिए तृष्णा ने बच्चे की मां को हल्का-सा हिलाते हुए कहा,‘‘यहां ऊपर बैठ जाओ, सीट ख़ाली है.’’

उस औरत ने कुछ सकुचाते हुए उसकी ओर देखा और तृष्णा के सामने बैठ गई. उसका बच्चा खिड़की की छड़ पकड़कर सीट पर बैठ गया और बाहर झांकने लगा. भागते हुए दृश्यों को देख बच्चे के चेहरे पर आते-जाते भावों को देखना न जाने क्यों तृष्णा को भला लग रहा था. बच्चे को देखते हुए वह रेणुका को भूल-सी गई. पर डेडलाइन की बात तृष्णा को वापस रेणुका की ओर लौटा लाई.  

रेणुका उसी की तरह, एक शहरी महिला है. उम्र होगी यही कोई 30 वर्ष. रेणुका का प्रकाश के संग विवाह हुआ था तो वह 23 वर्ष की थी. इन सात वर्षों में कितना कुछ बदल गया है. शादी के शुरुआती तीन-चार वर्ष तक दोनों एक आदर्श जोड़े की तरह जाने जाते थे. पर आजकल दोनों के संबंध औपचारिकता मात्र रह गए हैं. रेणुका के मन में उस दिन से बड़ी हलचल मची है जिस दिन से उसने प्रेरणा और प्रकाश की उन फ़ोटोग्राफ़्स को देखा है. डिटेक्टिव एजेंसी द्वारा भेजी गई उन फ़ोटोग्राफ़्स को देखकर उसका शक यक़ीन में तब्दील हो गया है. पहले में, दोनों एक-दूसरे के हाथ में हाथ डाले मॉल से बाहर निकल रहे हैं, दूसरे में रेस्तरां में आमने-सामने बैठे एक-दूजे की आंखों में खोए हैं और तीसरे में...


रेणुका को अपने नीचे की धरती डोलती हुई महसूस हो रही थी. उसे ऐसा लग रहा था जैसे उसका सबकुछ उससे छूटता जा रहा है और वह असहाय है, कुछ कर नहीं सकती. फिर एक विचार कौंधा,‘कर क्यों नहीं सकती? वह इस बोझिल रिश्ते से छुटकारा पाकर अपनी अलग ज़िंदगी बसर कर सकती है.’ पर दूसरे ही पल अगले विचार ने उसे डरा दिया,‘क्या यह सब इतना सरल है? इतने वर्षों के साथ को क्या एक झटके में तोड़ पाना आसान है? क्यों न प्रकाश से बात करके उसे शादी बचाने का एक मौक़ा दिया जाए? अपने लिए न सही, अपनी बेटी की ख़ातिर प्रकाश को एक मौक़ा दिया ही जा सकता है. बेटी के लिए भले प्रकाश के साथ रह लूं, पर अब सबकुछ तो पहले जैसा नहीं हो सकता.’ रेणुका के मन में चल रही उठा पटक ने तृष्णा के दिमाग़ को इतना थका दिया कि वह न जाने कब सो गई.

ट्रेन के रुकने के साथ तृष्णा की नींद खुली. उसने मोबाइल उठाकर देखा तो उसमें नेटवर्क दिख रहा था. यानी ट्रेन जबलपुर पहुंचनेवाली है. ट्रेन धीरे-धीरे चली और चंद मिनटों में जबलपुर स्टेशन पहुंच गई. ट्रेन रुकने के बाद कुछ नए यात्री चढ़ने लगे. तृष्णा के सामनेवाली सीट को ढूंढ़ती हुई एक युवती आई. उसने अपने टिकट पर लिखे नंबर से सीट के नंबर का मिलान किया और उसपर बैठी सांवली औरत की ओर देखकर कहा,‘‘शायद ये मेरी सीट है!’’


उस औरत ने एक बार उसकी ओर देखा, एक नज़र तृष्णा की ओर फेरी और बिना कुछ कहे अपने बच्चे को लेकर सीट से उठ खड़ी हुई. जब ट्रेन ने प्लैटफ़ॉर्म छोड़ा तो तृष्णा के सामने वह युवती बैठी थी और सांवली औरत अपने बच्चे के साथ नीचे.

तृष्णा के सामने बैठी युवती ने बात शुरू करने के लिए, तृष्णा के बगल में रखी पत्रिका की ओर इशारा करते हुए कहा,‘‘क्या मैं यह पत्रिका देख सकती हूं?’’

अपने चेहरे पर एक हल्की मुस्कान लाते हुए तृष्णा ने कहा,‘‘क्यों नहीं?’’ और पत्रिका उसकी ओर बढ़ा दी.

कुछ समय तक पत्रिका को उलटने-पलटने के बाद उसने सांवली औरत के बच्चे को पुचकारते हुए उसे उठाकर खिड़की के बगल में बिठा दिया. उस औरत ने उसकी ओर देखा और फिर अपनी आंखें बंद करके बैठी-बैठी सो गई.


‘‘तुम्हारा नाम क्या है छोटू?’’ उसने बच्चे से पूछा. बच्चा उसकी ओर देखता रहा, पर कुछ बोला नहीं. ‘‘नहीं बताना है, तो मत बताओ, ऐसे घूर क्यों रहे हो?’’ उसने हंसते हुए कहा. तृष्णा ने उसकी ओर नज़र उठाकर देखा और फिर से अपनी कहानी के ड्राफ़्ट में खो गई. उस युवती ने फिर कहा,‘‘चलो छोटू मत बताओ अपना नाम. मेरा नाम शैली है. अब तो बताओ अपना नाम?’’

बच्चा बस उसकी ओर देखता रहा. उसे इस तरह सहमता देख उसकी मां ने कहा,‘‘बताई दे ना मुन्ना, आपन नाम. काहे सरमा रहा है?’’

मां का प्रोत्साहन पाकर बच्चे ने थोड़ा झिझकते हुए कहा,‘‘गुड्‍डू.’’

‘‘अरे वाह, कितना प्यारा नाम है. गुड्‍डू, तुम्हारी मां का नाम क्या है?’’ शैली ने पूछा.


उसकी मां ने कहा,‘‘हमार नाम बताई दे दीदी के.’’ ‘‘मम्मी क नाम... राधा,’’ मां की ओर देखते हुए गुड्‍डू ने कहा.

‘‘कहां जा रहे हो गुड्‍डू?’’ शैली ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

गुड्‍डू अब तक काफ़ी सहज हो चुका था, ने चहकते हुए कहा,‘‘बंबई... पापा के लगे.’’

‘‘अरे वाह, हम भी तो बंबई चल रहे हैं,’’ शैली ने मुस्कुराते हुए कहा.


उसका चेहरा देख गुड्‍डू की आंखों में चमक आ गई.

बातचीत का यह क्रम थोड़ी और देर चलता, उसके पहले टीसी आ गया. उसने सबका टिकट चेक किया. राधा का टिकट देखकर कहा,‘‘ये रिज़र्व बोगी है, यह टिकट यहां नहीं चलेगा. दंड भरना पड़ेगा.’’

‘‘साहब, हमके पता नहीं रहा. हम गलती से यहिं डब्बा में चढ़ि गये रहे.’’

रसीद बुक निकालते हुए टीसी ने कहा,‘‘हम बहुत अच्छे से जानते हैं तुम लोगों को. चलो भरो पेनाल्टी.’’


‘‘हम सच कहत हैं साहब, हमके पता नहीं रहा. ऊ पहली बार जाइ रहे हैं न अकेले, इसीलिए गलती होइ गई. माफ कइ दें साहब.’’

उसकी बात सुनकर और न जाने क्या सोचकर टीसी यह कहते हुए आगे बढ़ गया,‘‘ठीक है. अगले स्टेशन पर उतरकर चालू डिब्बे में चली जाना. इस डिब्बे के पीछेवाला डिब्बा चालू है.’’



टीसी के जाने के बाद शैली ने राधा को सीट पर बैठने के लिए कहा. अब दो लोगों की साइड सीट पर तृष्णा, शैली और राधा के साथ गुड्‍डू बैठा था. ट्रेन पटरी पर सरपट दौड़ते जा रही थी और उसके साथ ही इन तीनों महिलाओं के दिमाग़ में अपनी-अपनी कहानियां भी. तृष्णा जहां रेणुका की कहानी के अंतिम चरण की ओर बढ़ रही थी, वहीं शैली, समीर और अपने संबंधों के बारे में सोच रही थी,‘वैसे तो समीर बहुत अच्छे और समझदार इंसान हैं, पर कभी-कभी उनपर न जाने क्यों शक़ होने लगता है. इस बात की क्या गैरेंटी कि शादी के बाद उनका नीलिमा की तरह मुझसे भी मोहभंग नहीं होगा. पर उनसे शादी की बात तो बहुत दूर है, अभी तक वे नीलिमा से तलाक़ क्यों नहीं ले रहे हैं? कहीं वे मुझसे प्यार का नाटक तो नहीं कर रहे हैं? वैसे भी मैं कितनी बेवकूफ़ हूं, जो एक विवाहित पुरुष की ओर अपने आकर्षण को रोक नहीं पा रही हूं. नीलिमा और समीर के बीच में आकर शायद मैंने अच्छा नहीं किया.

उसे एक पल लगता कि वह बेवकूफ़ है, समीर और उसके संबंध ग़लत हैं, वहीं दूसरे ही पल उसका दिमाग़ समझाता,‘तुम कहां, ग़लत हो? जब तुम समीर की ज़िंदगी में आई, उसके पहले ही समीर और नीलिमा के रिश्ते बिगड़ चुके थे. कितना परेशान रहते थे समीर पहले. जब से तुम उनकी ज़िंदगी में आई हो उनका जीवन ख़ुशियों से भर गया है. नीलिमा ही समीर जैसे समझदार और केयरिंग इंसान की जीवनसाथी बनने लायक नहीं है.’   


राधा अपने बेटे गुड्‍डू के बारे में सोच-सोचकर परेशान थी. क्या बताएगी वह गुड्‍डू को कि उसके पापा अब उसे और उसकी मां को अपनाना ही नहीं चाहते. ‘एक गुडुआ है कि पूरा टाइम पापा, पापा क रट लगाए रहता है, और दूसरे ऊ हैं कि हमार पतनी, लड़िका कइसे हैं, कहां हैं, कौनो फिकर नहीं है. उनसे मिलकर फैसिला करना ही पड़े. जब निबाहना नहीं रहा तो बियाह काहें किए? अब जब लड़िका खेलने की उमिर का होइ गया तो बाप खेल दिखाइ रहा है. ऊ तो राजबीर भइया क भला होय, ऊ न बताये होते तो हम कइसे जानते कि गुडुआ क बाप बंबई में कौन कमाई कर रहा है? हम त उनको खोजने जौनपुर से कटनी आय रहे. कितने बेदर्दी निकले गुडुआ क पापा. अरे हमरे बारे में न सोचे होते, कम से कम गुडुआ क चेहरा ही याद कर लिये होते. पर हम अब चुप नहीं बैठ सकते.’ मन में चल रहे विचारों के चलते, राधा के सांवले चेहरे पर कभी दुख तो कभी क्रोध की झलक आती जाती रही.  

‘‘हैलो... हां भई, आपकी ही कहानी लिख रही हूं. कल दोपहर तक मुंबई पहुंच जाऊंगी. हां, परसों सुबह ग्यारह बजे तक मेरा ईमेल मिल जाएगा आपको. पक्का... बस क्लाइमेक्स को लेकर थोड़ी उलझी हुई हूं, पर उम्मीद है जल्द ही आपकी पत्रिका के हिसाब से अंत सूझ जाएगा.’’ तृष्णा द्वारा फ़ोन पर की जा रही बात ने शैली और राधा को अपनी-अपनी उलझनों से बाहर खींच लिया. ‘‘ओके, बाय...’’ कहकर तृष्णा ने फ़ोन डिस्कनेक्ट किया तो पाया कि बगल में बैठी दोनों महिलाएं उसकी ओर उत्सुकता से देख रही हैं. उसने उनकी ओर देखकर हल्की-सी मुस्कान बिखेर दी.


‘‘तो आप लेखिका हैं?’’ शैली ने पूछा.

‘‘हां, फ्रीलान्स राइटर हूं. पत्र-पत्रिकाओं में लेख और कहानियां लिखती रहती हूं. वैसे बाइ प्रोफ़ेशन मुंबई के एक जूनियर कॉलेज में फ़िज़िक्स पढ़ाती हूं,’’ तृष्णा ने जवाब दिया.

‘‘बड़ा इंट्रेस्टिंग प्रोफ़ाइल है. फ़िज़िक्स की प्रोफ़ेसर और साहित्य में रुचि! मिलकर ख़ुशी हुई. मैं एक ऐड एजेंसी में अकाउंट मैनेजर हूं. जबलपुर से बिलॉन्ग करती हूं. पिछले चार साल से मुंबई की होकर रह गई हूं. जबलपुर छोटे भाई की शादी में शामिल होने के लिए आई थी.’’ शैली ने एक झटके में इतनी सारी बातें बता दीं. ‘‘और हां, नाम तो बताना भूल ही गई, मेरा नाम शैली वाजपेयी है.’’

शैली द्वारा इस तरह परिचय देना, तृष्णा को अनोखा लगा. उसने सोचा चलो ऐसी ज़िंदादिल सहयात्री रहेगी तो बोर नहीं होना पड़ेगा.


‘‘क्या सोच रही हैं लेखिका जी? अपना अधूरा ही परिचय देकर रह जाएंगी?’’ शैली ने तृष्णा को टोंका.

तृष्णा ने मुस्कुराते हुए कहा,‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. मेरा नाम तृष्णा वर्मा है. काम तो आप जान ही गई हैं. फ़िलहाल एक कहानी का ड्राफ़्ट तैयार कर रही हूं. पर उसके अंत को लेकर थोड़ी दुविधा में हूं.’’

‘‘बुरा न मानें तो मुझे भी ज़रा कहानी के बारे में बताइए, शायद मैं कुछ सुझाव दे सकूं,’’ शैली ने औपचारिकतापूर्वक कहा.

‘‘इसमें बुरा मानने की क्या बात है? एक से भले दो होते हैं. हो सकता है हम दोनों मिलकर सोचें तो कहानी का कोई सार्थक अंत निकल आए,’’ तृष्णा ने कहा. ‘‘तो देर मत कीजिए, शुरू हो जाइए तृष्णा जी.’’

शैली की बात सुनकर राधा भी उत्सुकता से तृष्णा की ओर देखने लगी. अब मोर्चा तृष्णा ने संभाला,‘‘यह एक ऐसे ख़ुशहाल जोड़े की कहानी है जिनकी सात वर्ष के वैवाहिक जीवन में तीसरे की एंट्री हो गई है.’’


‘‘यानी पति-पत्नी और वो वाला मामला है?’’ कहकर शैली ख़ुद ही झेंप-सी गई.

‘‘हां, मामला तो ऐसा ही है. पति का ऑफ़िस में अपनी कलीग से अफ़ेयर चल रहा है. पत्नी को शक़ था. सो उसने डिटेक्टिव एजेंसी की मदद ली. एजेंसी द्वारा भेजी गई तस्वीरों ने उसके शक़ की पुष्टि कर दी है. हमारी नायिका दुविधा में है कि क्या पति को एक आख़िरी मौक़ा देना चाहिए? क्योंकि मामला एक बच्ची के भविष्य से भी जुड़ा है. पर बहुत कोशिश करने के बावजूद नायिका अपने धोखेबाज़ पति को माफ़ नहीं कर पा रही है.’’

कहानी सुनते हुए शैली के चुलबुले चेहरे पर गंभीरता झलकने लगी थी. रेणुका की जगह उसे न जाने क्यों नीलिमा दिखने लगी थी. क्या तृष्णा की कहानी की तरह नीलिमा भी समीर को खोना नहीं चाहती?

शैली ऊपर से भले न दिखा रही हो पर अंदर से परेशान हो उठी थी, क्योंकि कहानी कहीं-न-कहीं उससे जुड़ी हुई थी.


‘‘क्या हुआ शैली? किस सोच में पड़ गई?’’ तृष्णा ने उसकी बांह को छूकर पूछा.

‘‘अरे कुछ नहीं तृष्णा जी, आपकी कहानी है तो बड़ी पेचीदा. इसका कोई सरल हल नहीं निकलता दिख रहा है,’’ शैली अचकचाते हुए कहा. ‘‘तभी तो मैं इतनी देर से उलझन में पड़ी हुई हूं,’’ तृष्णा ने बात को आगे बढ़ाया.

‘‘वैसे आपके हिसाब से क्या अंत होना चाहिए?’’ शैली ने तृष्णा से पूछा.

‘‘अब चूंकि इसमें एक बच्ची की भविष्य का मामला आ रहा है और मुझे कहानी का सुखद अंत करना है तो चाहती हूं कि नायिका के पति को अपनी ग़लती का एहसास हो और वह अपनी पत्नी के पास वापस लौट आए,’’ तृष्णा ने अपनी योजना बताई.


‘‘आपने पति की प्रेमिका के पात्र के बारे में कुछ नहीं बताया?’’ शैली ने पूछा.

‘‘वह एक अच्छी लड़की है. वह कब अपने सहकर्मी यानी हमारी नायिका के पति के क़रीब आ गई उसे पता ही नहीं चला. सहानुभूति के साथ शुरू हुआ यह रिश्ता अब कहीं आगे बढ़ चुका है. शुरू-शुरू में उसके मन में गिल्ट होती थी कि वह एक विवाहित जोड़े की ज़िंदगी में ग़लत तरीक़े से प्रवेश कर रही है, पर अब उसने भी ख़ुद को समझा लिया है. वह अपने जीवन में स्थायित्व चाहती है. उसे उम्मीद है कि उसका प्रेमी एक दिन उसका पति बन जाएगा.’’ तृष्णा द्वारा कहानी का सारांश सुनते समय शैली अपनी असल ज़िंदगी की कहानी के क़िरदारों की पड़ताल करने लगी. ‘इस तरह देखा जाए तो नीलिमा भी ग़लत नहीं लगती. ऐसे में समीर ही मुख्य अपराधी नज़र आ रहे हैं.’ पर दूसरे ही क्षण उसके दिल ने गवाही दी,‘नहीं, नहीं समीर की आंखों के वो आंसू झूठे नहीं हो सकते. वे एक परिपक्व व्यक्ति हैं. ग़लती ज़रूर नीलिमा की ही होगी. पर उनका अलगाव शायद सही न हो.’ शैली के मन में जो सहानुभूति अब तक समीर के लिए थी, अब कुछ-कुछ नीलिमा की ओर भी झुकने लगी. अपनी कहानी के अंत का उसे धुंधला-सा आभास होने लगा.


‘‘क्या हुआ शैली, कोई अंत समझ में आया?’’ तृष्णा की आवाज़ ने उसकी तंद्रा भंग की.

‘‘तृष्णा जी, शायद आपका अंत ही सबसे सुखद हो. यानी पति-पति के दिल दोबारा मिल जाएं. और हां, ध्यान रखिएगा नायिका के पति की प्रेमिका को उसके सपनों का शहज़ादा मिल जाए,’’ शैली ने ज़ोर देकर कहा.

तृष्णा को लगा कि उसे रेणुका की कहानी का अच्छा अंत मिल गया है. यह सार्थक भी है और सुखद भी. उसके दिमाग़ में पूरा खाका तैयार हो गया था.

तभी अब तक चुप बैठी राधा बोली,‘‘दीदी, हम आप दोनों जने की बात सुनत रहे. हमके लागत है कि इ आप क कहानी क बहुत गलत समापन होये.’’

उसकी बात सुनकर दोनों महिलाओं ने चौंकते हुए एक साथ ही पूछा,‘‘क्यों?’’


दर्द भरी मुस्कान के साथ राधा ने कहना शुरू किया,‘‘दीदी, अरे ऊ आदमी त दोनों औरतन के बेवकूफ बनाय गया. अगर इ कहानी हमार होती, तो हम चाहित कि दोनों औरत वहिं धोखेबाज के छोड़ दें. गलती न त पहली वाली औरत क रही और न त दूसरी क. ऊ आदमी बहुत चालबाज है. दोनों के साथ खेला खेलि रहा है. आप क कहानी के समापन में अगर कोई जीते, त ऊ आदमी ही जीते. दोनों औरतन के का मिले?’’ यह कहते-कहते राधा का चेहरा तमतमा उठा. पर दिल का ग़ुबार निकल जाने के बाद वह शांत थी.


तृष्णा और शैली बस हतप्रभ होकर उस देहाती महिला को देख रही थीं. जिस सच्चाई को जानते हुए भी ये दोनों नज़रअंदाज़ कर रही थीं, उसे राधा ने सहजता से बयां कर दिया.

कहानी के इस अंत ने कई शुरुआतों को जन्म दिया था. राधा की बातों ने शैली के मन में समीर के लिए रही सही सहानुभूति को भी धो डाला. वह अच्छा महसूस कर रही थी. तृष्णा अपनी कहानी के ड्राफ़्ट में ज़रूरी बदलाव करने लगी. रेणुका ने प्रकाश को छोड़ने का फ़ैसला किया और प्रेरणा ने वही किया जो इस समय शैली कर रही थी.
इटारसी में ट्रेन रुकी, कहानी की नायिका अपनी गठरी समेटकर उठ खड़ी हुई. तृष्णा और शैली खिड़की के बाहर राधा और गुड्‍डू को चालू डिब्बे की ओर जाते हुए देख रहे थे.

कोई टिप्पणी नहीं:

'; (function() { var dsq = document.createElement('script'); dsq.type = 'text/javascript'; dsq.async = true; dsq.src = '//' + disqus_shortname + '.disqus.com/embed.js'; (document.getElementsByTagName('head')[0] || document.getElementsByTagName('body')[0]).appendChild(dsq); })();
Blogger द्वारा संचालित.