कहानी: सुरभि

‘‘वीणा के तारों को देखा है न? जब तक सधी हुई अंगुलियां न चलें वो बेजान होते हैं. जीवन का संगीत भी अपने -आप नहीं बजता जब तक अपने हुनर को तराश कर साधा न जाए,’’ गजब का सम्मोहन और आत्मविश्वास था आयशा के शब्दों में. वही आयशा जिसे हालात के थपेड़ों ने कहीं का नहीं छोड़ा था. पति द्वारा बेघर कर दिए जाने और मां की मृत्यु के बाद डिप्रेशन की हालत में उसे उसके मायकेवालों ने सुरभि के अस्पताल में भर्ती करवाया था, जो फिर मेरे संगीत विद्यालय से जुड़ गई. मैंने ही उसे यहां आने के लिए बाध्य किया था, यह बतलाते हुए कि संगीत थेरैपी उसे चंद दिनों में भला -चंगा कर देगी. यह मेरा ख़ुद का अपनाया हुआ सत्य था. 

फिर तो मैंने मानसिक रोगियों के लिए बने बारबरा मनोचिकित्सा रिसर्च सेंटर से अपनी संगीत व नाट्य अकादमी को जोड़ लिया. यहां मैं हर शाम कम से कम दो घंटे अपने मरीज़ों के साथ ही बिताती हूं. ‘‘हर किसी के पास बांटने के लिए कुछ न कुछ होता है. हमारे पास संगीत के धुन में बसी शांति और ख़ुशियां हैं,’’ धीरे-धीरे आयशा की आवाज़ धीमी होती गयी. मुझे अपना अतीत याद आने लगा. वो यादें जिन्हें मैं भूलना चाहती थी, पर जब कभी आयशा जैसी कोई और मिल जाती मुझे उनमे अपना अतीत दिखाई देने लगता था. आज फिर मेरा गुज़रा हुआ कल मेरे ज़हन में उभरने लगा.

मुंबई की छोटी-सी चॉल में कॉलेज और नौकरी के आरंभिक दिनों में मैं और सुरभि साथ-साथ रहते थे. साथ रहने की वजह थी कि हम एक ही शहर और एक ही स्कूल से पढ़े हुए थे. एक-दूसरे को अच्छी तरह से जानते थे. आपस में नोकझोंक होती थी, पर एक-दूसरे के बिना रह भी नहीं पाते थे. मैं शुरुआत से ही बड़ी महत्वाकांक्षी थी. अपने पलंग के पीछे की दीवार पर कई अभिनेता-अभिनेत्रियों की तस्वीरें लगा रखी थीं. मैं  ड्रामा का प्रशिक्षण ले रही थी और फ़िल्म लाइन में जाना चाहती थी.

सुरभि कहती कि मेरे सारे लक्षण हिरोइन बनने के हैं. बड़े लोगों से संपर्क साधना, उनसे मिलनाजुलना और फ़ैशनेबल कपड़े पहनना. मेरी जीवनशैली उसे अच्छी नहीं लगती थी. वह मेरे विपरीत एक पढ़ाकू लड़की थी. फ़ैशनेबल कपड़े और इधर-उधर बेवजह घूमना उसे कभी नहीं भाया. उसके नाम के आगे पढ़ाकू का जो टैग स्कूली दिनों में लगा था, वो अब तक चला आ रहा था. उसे मनोविज्ञान इतना भाता था कि हॉस्टल के दिनों में भी किसी के स्वभाव और आचरण से उसकी परवरिश और परिवेश का प्रभाव बता कर समस्याओं के हल सुझा देती. हम दो विपरीत स्वभाव वाली सहेलियां थीं, लेकिन हमने अपना विचार एक-दूसरे पर कभी नहीं लादा. शायद यही वजह थी कि सुरभि मेरा साथ नहीं छोड़ना चाहती. एक बात और थी-हम दोनों मध्यमवर्गीय परिवार से थे. इसलिए हमारी ज़रूरतें और ख़र्च मेल खाते थे. यह अलग बात थी कि मैं अपने बाद के दिनों में मुंबई की रंगीनियों में खो गई, लेकिन उसपर अपनी परवरिश का असर आज तक है.

मुझे छोटी-मोटी फिल्मों में और मॉडलिंग के क्षेत्र में ऑफ़र मिलने लगे. एक दिन मैं देर रात घर लौटी. उसे पता चल गया था कि मैं शराब पीकर आई हूं. उस दिन तो सुरभि ने कुछ नहीं कहा. पर जब यह मेरी आदत बनने लगा-सुबह देर से उठना, कपड़ों को बेतरतीब छोड़ फटाफट तैयार होना और निकल पड़ना, तब एक दिन उसने मुझे टोका,‘‘देखो लीज़ा, अपने कमरे की साफ़-सफ़ाई हमने मिलजुल कर करनी है. तुम इतनी देर से उठती हो कि झाड़ू-बर्तन करने का तुम्हें वक़्त नहीं मिलता. हमारे बीच तो यही समझौता हुआ था न कि सुबह का काम तुम करोगी और रात का खाना-बर्तन मैं. 

फिर इधर दस-बारह दिन से दोनों समय का काम मुझे करना पड़ रहा है.’’ मैं चुपचाप सुनती रही. उसने फिर कहा,‘‘तुम रोज़ रात नए-नए लोगों के साथ लौटती हो, वह भी नशे में धुत्त. आसपास के लोग तुम्हारे इस बर्ताव पर आपत्ति जता चुके हैं. यदि तुम्हें यहां रहना है तो ख़ुद को बदलना होगा.’’

मेरे चेहरे पर अनेक भाव आ-जा रहे थे. थोड़ी देर चुपचाप सुनने के बाद मैं अचानक एक झटके के साथ तन कर बैठ गई और बोल पड़ी,‘‘तो ठीक है. आज से यह कमरा तुम्हारा. वैसे भी मेरा दोस्त अनिल शर्मा कब से मुझे अपने साथ रहने कह रहा है. वो तो मैं सोचती थी तुम्हे अकेले दिक्कत हो जाएगी इसलिए नहीं जा रही थी. तुम कहती हो तो आज और अभी मैं कमरा ख़ाली कर देती हूं.’’

मेरी इस अप्रत्याशित घोषणा की उसे क़तई उम्मीद नहीं थी. हमारा इतने सालों का साथ अनिल से चंद दिनों की पहचान के सामने कमज़ोर पड़ गया. सुरभि के कॉलेज की कई सहेलियां भी उससे कहतीं थीं कि अपने रहने का ठिकाना बदल लो. कॉलेज के पासवाले इलाक़े में आ जाओ, पर वह मेरा साथ नहीं छोड़ना चाहती थी. उसे लगता था कि नए लोगों के साथ सामंजस्य बिठाना आसान नहीं था. मैं  अपने सामान लेकर चली गई. पर मुझे पता है उस दिन वह कॉलेज नहीं गई. जाते-जाते मैंने कहा,‘‘फ़ोन पर बात करती रहना,’’ पर यह औपचारिकता भर थी. दोस्ती पर पड़ी गांठ बड़ी मज़बूत थी, जो खुलने का नाम नहीं ले रही थी. वैसे भी मेरे काम में सुबह से शाम तक भागदौड़ लगी रहती थी. उसका फ़ोन उठाने का मेरे पास व़क्त नहीं रहता. हालांकि उसके बारे में अन्य दोस्तों से ख़बर मिल जाया करती थी. इस  बीच वह शहर के एक नामी कॉलेज में कुछ दिन काम करने के बाद एक मनोचिकित्सक के यहां काम करने लगी. 

लोग कहते थे कि वरिष्ठ डॉक्टर भट्ट के साथ काम करने का उसका अनुभव बहुत अच्छा रहा. उन्होंने जल्द उसका प्रमोशन कर दिया. फिर सुरभि ने भी अपना घर बदल लिया. इस बीच मैं एक ख्यात मॉडल बन चुकी थी. मेरे फ़ोटोज़ मैगज़ीन्स और अख़बारों में छपते रहते. मुझे बेस्ट मॉडल का ख़िताब मिला तो उसने फ़ोन पर बधाई दी. कुछ साल बाद मेरी क़ामयाबी का ग्राफ़ नीचे गिरने लगा. जिस अनिल शर्मा के लिए मैंने घर छोड़ा था, वो कब का मुझे छोड़ चुका था. अब हम दोनों के अलग-अलग अ़फेयर्स चल रहे थे. ये ख़बरें सुरभि के लिए किसी ख़ास महत्व की नहीं थीं, पर जाने क्यों मेरे हर फ़ैसले और उतार-चढ़ाव में मुझे उसकी याद आ जाती. लगता एक बार उससे बात करूं. पर जिससे नाता तोड़ने का फैसला मेरा अपना था, उससे भला क्या बात करती? मैं जानती थी कि वह अपनी सादगी भरी ज़िंदगी में सुख-चैन से थी.

इसी बीच सुरभि ने विदेश में पीएचडी के दाख़िले की परीक्षा पास कर ली. एक महिला पत्रिका में छपे उसके इंटरव्यू से मैंने जाना किस तरह काम के बाद पढ़ाई करने में उसने दिन-रात एक कर दिया. और ये भी कि उसकी मां उसपर शादी के लिए दबाव डालती रहती हैं, पर वो ख़ुद अपने काम में इतनी व्यस्त रहती है कि अभी शादी के बारे में मन नहीं बना सकी है. और जब से उसकी मां ने उसके साथ रहकर उसकी दिनचर्या देखी है, उन्होंने शादी की बात करना ही बंद कर दिया है. क्योंकि किताबें, डॉक्टर्स और मरीज़ ही उसका जीवन बन चुके हैं. मेरे अनेक मित्रों ने उसके विदेश जाने से पहले दी हुई पार्टी में शिरकत की.

उसके कैलिफ़ोर्निया जाने से एक रात पहले मैंने उसे फ़ोन किया,‘‘हेलो, सुरभि तुमने अपनी मंज़िल पा ली. बधाई.’’

 उसने कहा,‘‘तुम लोग किताबी कीड़ा कहते थे न, सो देखो कीड़े ने सारी किताबों को चाटकर सफलता पा ही ली. पर संघर्ष के दिन अभी और हैं, तब जाकर असली मंज़िल आएगी.’’

‘‘मुझे भूलेगी तो नहीं न?’’ मेरी आवाज़ लगभग भर्रा रही थी.

वह कुछ पल को शांत हो गई, जैसे उसे एक पल को विश्वास नहीं हुआ कि यह मैं  कह रही हूं. फिर बोली,‘‘तेरे साथ अटूट रिश्ता है. मैं कभी नहीं भूलूंगी. तू तो इतनी बड़ी सेलेब्रिटी है. कभी मेरे पास आ जाना. मुझ अदना-सी डॉक्टर की इज़्ज़ भी बढ़ जाएगी.’’ ऐसा कहते हुए वह भी गंभीर हो गई थी, शायद मेरे हृदय की पीड़ा को उसने समझ लिया था.

सुरभि के कैलिफ़ोर्निया जाने के बाद एक तरह से उससे मेरी दोस्ती के तार पूरी तरह टूट गए. मैं मुंबई छोड़ना नहीं चाहती थी, इस उम्मीद में कि शायद फिर ब्रेक मिल जाए. मेरी फ़िल्में लगातार फ़्लॉप हो रहीं थीं. आर्थिक परेशानियों ने एक बार फिर पिताजी के समक्ष हाथ फैलाने पर मजबूर कर दिया. लेकिन मां-पापा ने मेरे इस करियर को कभी नहीं स्वीकारा था. मेरी अर्धनग्न तस्वीरें, अफ़ेयर्स और अतिआधुनिक आदतों के चलते उन्होंने मुझसे कोई रिश्ता नहीं रखने के शर्त को बख़ूबी निभाया. यहां तक कि इस दरम्यान पापा की मौत की ख़बर भी मुझे नहीं दी गई. उनकी संपत्ति से भी बेदख़ल कर दिया गया. कहीं कोई अपना कहनेवाला नहीं था. इसी बीच मेरी ज़िंदगी में तनु आयी. तनु भी मध्यमवर्गीय परिवार से थी और फ़िल्मों में करियर बनाने में लगी थी. पैसे की तंगी के कारण उसने मेरे साथ फ़्लैट शेयर करना चाहा, जो मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया. 

कम से कम उसके दिए हुए किराए के कुछ पैसे मुझे मिल रहे थे. लगातार पिटती फ़िल्मों को देख कर मेरे सभी मित्रों ने मुंह मोड़ लिया. कई चर्चित अभिनेता मेरी ज़िंदगी में आए तो पर कोई टिका नहीं. एक बार जो फ़िल्में फ़्लॉप होने लगीं तो फिर सिलसिला ही चल पड़ा. बुलंदियों पर चढ़कर नीचे गिरना कितना भयानक था, मैं इस बात का अनुभव कर रही थी. मेरी गर्दिशी की तस्वीरें जब छपतीं मैं विक्षिप्त-सी हो जाती. इस ग़म को भुलाने के लिए मैं ड्रग्स और नशे में डूबने लगी. तनु मेरी हालात देख कर दुखी होती और बड़े अपनेपन से समझाती,‘‘दीदी, यह पैसे की दुनिया है. यहां जज़्बात और भावनाओं की कोई क़द्र नहीं. आप छोटा-मोटा व्यवसाय शुरू कर लो, मसलन-ऐक्टिंग सिखाना, रंगमंच पर बोलने का अभ्यास कराना आदि.’’  

पर मेरे लिए यह आत्मसम्मान का विषय था. अंत में एक दिन घोर निराशा में मैंने खुद को मिटा डालने के लिए नींद की गोलियों की ओवरडोज़ ले ली. मुझे पता था कि मेरे मरने की ख़बर सुनकर सुरभि ज़रूर आएगी, सो मैंने उसके नाम एक ख़त लिखा.

प्रिय सुरभि,
मुझे पता है कि मेरी मौत की ख़बर तुझे मेरे पास खींच लाएगी. आख़िर सेलिब्रिटी हूं, भले ही गर्दिश में सितारा हो, पर अख़बार का एक कोना मेरे लिए ज़रूर ख़ाली रहता है. सुरभि, कभी-कभी लगता है कि तुम्हारे कुछ गुणों को मैं क्यों नहीं आत्मसात कर पाई? लोग कहते हैं संगति का असर होता है. हमारे रास्ते अलग-अलग रहे पर दिल में तुम्हारी कसक बनी रही. परिवार का साथ छूट गया, तुम्हारा भी. लेकिन सबसे ज़्यादा तुम्हारी याद आती है. धन-दौलत के नाम पर यही फ़्लैट मेरा है, जिसे मैं तुम्हारे नाम कर रही हूं. वक़ील साहब तुम्हारे पास काग़ज़ात भेज देंगे. उनके पास तुम्हारा पता है. दोस्त, मेरी तमाम ग़लतियों के लिए माफ़ कर देना.
-तुहारी लीज़ा
लेकिन शायद मौक़े पर तनु पहुंच गई. जब मेरी आंखें खुलीं, मैंने ख़ुद को एक अस्पताल में पाया. होश में मैं ज़रूर थी, पर आंखों से धुंधला दिख रहा था. मुझे लगा शायद तनु मेरे पास है, जिसने मेरे हाथों को अपने हाथों में ले रखा था. मैं कुछ समझने-बोलने की स्थिति में नहीं थी. तभी एक मीठी-सी आवाज़ ने मेरी निष्प्राण देह में जान डाल दी,‘‘ये तुमने क्या किया, लीज़ा? अब तक तुमने अपने हिस्से का दर्द अकेले झेला, अब तुम ऐसा नहीं करोगी. कल हम कैलिफ़ोर्निया जा रहे हैं. तुम डॉक्टर के स्टेटमेंट पर बस साइन कर देना.’’

ये तनु नहीं सुरभि थी. मैं बहुत कुछ कहना चाहती थी, उसे बांहों में भर लेना चाहती थी, पर शरीर साथ नहीं दे रहा था. मैंने चुपचाप सिर हिला दिया. आंखों की कोरों से बह रहे पानी को सुरभि अपने हाथों से पोंछती रही. वो ख़ुद को भी न संभाल पाई और मेरे सिर पर टिक कर रो पड़ी. यह तो तनु थी, जिसने हम दोनों को संभाला. शाम को सुरभि ने डॉक्टर से मेडिकल रिपोर्ट पर चर्चा की और उसने उचित देखरेख में मुझे अमेरिका ले जाने की अनुमति ले ली. अगले दिन पेपर्स तैयार हो गए. डिस्चार्ज की सारी प्रक्रिया पूरी कर हम अपने फ़्लैट में आ गए. डॉक्टर के सभी निर्देशों का पालन हो रहा था. तनु ने मेरे सामान की पैकिंग कर दी. हमारी फ़्लाइट अगले दिन सवेरे थी. इस बीच सुरभि ने कुछ दोस्तों और अपने कज़न्स के साथ फ़ोन पर बातचीत की और जल्द ही दोबारा भारत आकर कुछ दिन उनके साथ गुज़ारने का वायदा किया. अगले भारत दौरे तक हमने फ़्लैट की ज़िम्मेदारी तनु को सौंप दी.

हमारी फ़्लाइट दूसरे दिन सुबह की थी. फ़्लाइट में मैंने सुरभि से पूछा कि आख़िर वह मुझ तक कैसे आई? सुरभि ने बताया,‘‘अस्पताल जाने से पहले मैं चाय की चुस्की लेते हुए टीवी पर देश-विदेश की ख़बरों को एक बार सरसरी निगाह से देख लेती हूं. उस दिन भी यही चल रहा था, जब अचानक एक ख़बर ने मुझे हिला दिया-भारत की चर्चित अभिनेत्री व मॉडल लीज़ा शर्मा ने अपनी लगातार तीसरी फ़िल्म के फ़्लॉप होने की हताशा में नींद की गोलियों का ओवरडोज़ ले लिया. नाज़ुक हालात में उन्हें अस्पताल में दाख़िल कराया गया है. एक पल को लगा कि मैंने ग़लत सुना है. लीज़ा ऐसा कभी नहीं कर सकती. वो तो क्रांतिकारी और विद्रोही थी, बेहद जीवट और महत्वाकांक्षी भी. मैंने तुरंत अपने दोस्तों को फ़ोन लगाना शुरू किया, पर किसी का नंबर लगा नहीं तो किसी का व्यस्त था. अनमने मन से मैं सैनेटोरियम को चल पड़ी. अपने चैम्बर में पहुंचकर मैंने अटेंडेंट से कहा,‘मेरी तबियत ठीक नहीं है ,कोई मिलना चाहे तो डॉक्टर डिब्रावर के पास भेज देना.’’’

इस बीच विमान परिचारिका ने कॉफ़ी सर्व की. चुस्कियां लेते हुए सुरभि ने आगे बताया,‘‘जानती है लीज़ा बारबरा मनोचिकित्सा रिसर्च सेंटर में डॉक्टर रिचर्ड बारबरा और डॉक्टर डेनियल हॉफ्मन के साथ मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला. यह अस्पताल कैलिफ़ोर्निया के समुद्री तट पर स्थित है. समुद्री सौंदर्य के साथ-साथ यहां का मौसम भी बहुत अच्छा है. यहां काम करते हुए एक लंबा समय गुज़र गया. कई जगहों से ऑफ़र आए, लेकिन यहां की आत्मीयता ने मुझे बांधे रखा. अस्पताल के डॉक्टर डिसिल्वा ने ही मुझे तुम तक भेजा. वह भारतीय हैं और मेरी उनकी बहुत अच्छी मित्रता है. जब मैंने तुम्हारे बारे में उन्हें बताया तो वो बोले,‘तुम मनोचिकित्सक हो, क्या तुम उसके दिमा़ग में चल रही ऊहापोह को समझ नहीं पा रही हो? तुम्हें तुरंत उसके पास जाना चाहिए. उसे तुम्हारी ज़रूरत है. तुम दोनों ने अच्छे-बुरे दिन साथ बिताए हैं.’ मैं यही सोच रही थी, पर साकार करने में हिचक रही थी, वो हिचक उनकी इस बात ने दूर कर दी. मैंने तुरंत भारत का एयर टिकट बुक करवाया. घर आकर मैंने ज़रूरी सामान लिया और तुम्हारी तबियत के बारे में भी जानकारी ली. पता चला तुम अभी भी आईसीयू में ही हो. बस, पहुंच गई.’’

कैलिफ़ोर्निया में अपने अस्पताल के सबसे अच्छे कमरे में सुरभि ने मुझे रखा. उचित देखभाल, काउंसलिंग और मेरे प्रति सुरभि के प्यार ने मेरे भीतर सकारात्मक परिवर्तन लाना शुरू किया और जल्द ही मैं बदलने लगी. मैं फिर अपने कार्यक्षेत्र की ओर लौटना चाहती थी. एक दिन मैंने उससे कहा,‘‘सुरभि, अपने इस पुनर्जन्म के लिए मैं हमेशा तुम्हारी कृतज्ञ रहूंगी.’’

उसने मुझे गले से लगाते हुए कहा,‘‘पगली, तुम्हारी अपनी हूं, तुम्हारे लिए इतना भी नहीं करूंगी तो इस पढ़ाई का क्या लाभ?’’ इस बीच उसने समुद्र किनारे स्थित अपने आवास का एक कमरा मेरे लिए विशेष तौर पर ठीक कराया. जिस दिन मुझे डिस्चार्ज मिलना था, उस दिन तो अपने घर को उसने दुल्हन की तरह सजाया था. आख़िर अब यह हम दोनों का था. उसने मुझे मेरे कमरे में लाकर खड़ा किया और पीछे की खिड़की खोल दी. पीछे की ओर एक ख़ूबसूरत से मकान पर एक साइनबोर्ड लगा था-हिंदी नाट्य-कला अकादमी और नीचे सुन्दर अक्षरों में लिखा था-द्वारा: लीज़ा शर्मा (सीईओ). साथ में था मेरी सभी उपलब्धियों का संक्षिप्त परिचय. मैंने दोनों हाथ फैलाकर उसे बांहों में भर लिया. ‘‘आज फिर पुरानी दुनिया में खो गईं दीदी?’’ कहते हुए आयशा ने मेरे कंधे को झिंझोड़ा. मैंने मुस्कुराते हुए उसका हाथ थाम लिया. बगल के कमरे से संगीत की सुरीली आवाज़ आ रही थी.

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