कहानी: सुदामा के चावल

सुबह से ही घर में पसरा सन्नाटा और घना होकर मन में पसर गया. दीवाली के साथ मेरे जुड़वां बच्चों मीनू और मुन्नु का जन्मदिन और इतना सन्नाटा? वे दीवाली वाले दिन ही हुए थे इसीलिए दीवाली हमेशा उनके जन्मदिन के आसपास ही पड़ती थी. मनपसंद त्यौहार और जन्मदिन! दोहरी ख़ुशी से ओतप्रोत बच्चों का उत्साह देखते ही बनता था. वे यहां थे तो कितनी धूमधाम से मनाती थी मैं. दो महीने पार्टियों की श्रृंखला के इंतज़ार और तैयारियों में निकल जाते थे और एक महीना घर समेटने में. और अब?

मेरे मन का अवसाद अब मन के भीतर रुकने को तैयार नहीं. वो मन से निकल कर पूरे घर में घूमने लगा है. डस्टिंग करती हूं तो मुन्नू की ट्राफ़ी टॉप के कोने से उलझकर गिर पड़ती है, चाय छानती हूं तो आधी से ज़्यादा कप से बाहर गिर जाती है. काम होता कम है, बिगड़ता अधिक है, पर करना तो होता ही है. नहीं, मुझे ख़ुद को सम्हालना होगा नहीं तो फिर शाम होते-होते अवसाद मनोरोग में बदल जाएगा और वही डिप्रेशन की दवाइयां और मनोचिकित्सक के उपदेश. ‘कोई हॉबी डेवलप करिए... हुंह, क्या करूं? समय कहां है? और सहयोग किसका है? महरी हमेशा की तरह दो दिन से बिना किसी पूर्व सूचना के ग़ायब हो गई है. अब घर या रसोई को और अधिक गंदा नहीं छोड़ा जा सकता है. हमेशा ऐसा ही होता है. इन लोगों की आंखों में सील नहीं होती. पहले तो गिड़गिड़ाकर अपनी ग़रीबी का रोना रोएंगी फिर जब इनकी मांगें पूरी कर दो तो दूसरे ही दिन से ग़ायब! नहीं मैं ही बुद्धू थी. कुछ ज़्यादा ही दे डाला था इस बार. इन्हें तो बस दो कम और सुनाओ ज़्यादा, तभी ठीक रहती हैं...

और ये? ये हमेशा की तरह मैच के मज़े लूटने में व्यस्त हैं. इन्हें मैच में प्रफुल्लित मनोरंजन करते देख मेरी कुढ़न सौ गुना बढ़ जाती है. कोई इंसान इतना निर्लिप्त कैसे हो सकता है भला? जो कुछ भी पूछो, उत्तर होता है-जैसा तुम चाहो. ‘खाना क्या बनाऊं?’-‘जो चाहो’; ‘कहीं घूमने चलें?’-‘जैसा चाहो’; ‘कहां?’-‘जहां चाहो’; ‘मेरी तबियत ठीक नहीं लग रही’-‘अच्छा, मुझे क्या करना है?’; ‘मुझे डॉक्टर को दिखाना है’- ‘चलो, किस डॉक्टर को दिखाना है?’. अरे पति न हुए कोई सौम्य, शिष्ट और ज़िम्मेदार पड़ोसी या स्थानीय अभिभावक हो गए, जिसे मुझको अपने संरक्षण में सुरक्षित जीवनयापन कराना है, बस! मेरे हाथ घर का काम निपटा रहे थे और मन अतीत के गलियारे में घर में बिखरे अवसाद को भगाने के उपाय ढूंढ़ रहा था. ये तो हमेशा से ऐसे ही थे, पर मुन्नू और मीनू के जन्म के बाद मुझे अपने जीवन का लक्ष्य मिल गया था. उन्हें पढ़ाना, उनके खाने-पीने की फ़रमाइशें पूरी करना, स्कूल और हॉबी क्लासेस छोड़ने-लेने जाना, उनके झगड़े निपटाना और भी बहुत कुछ... जो मुझे मेरे होने का एहसास कराता और मैं व्यस्त रहती. ऐसे ही दोनों पांचवीं कक्षा में आ गए थे. 

इनके तबादलों का सिलसिला तो रुकना नहीं था, बैंक की नौकरी ही ऐसी थी. बच्चे बीच सत्र में बार-बार स्कूल बदल कर तंग आ गए थे. इन्हें तो बच्चों से भी कभी इतना लगाव ही न हुआ कि उनके बिछड़ने का दुख हो. बच्चों से क्या इन्हें तो किसी से लगाव नहीं होता. तभी तो कैसे आराम से कह दिया था कि दोनों में से एक बात का निर्णय ले लो-या तो बच्चों को हॉस्टल में डाल दो या उनके साथ इलाहाबाद में अम्मा-बाबूजी के साथ सेटल हो जाओ. मैं आता-जाता रहूंगा. हे भगवान! ससुराल में! वो भी स्थाई रूप से! वो भी इनके बिना! मेरी तो रूह कांप गई थी. वो घर है या लोकप्रिय टेलीविज़न धारावाहिकों की निर्माण-स्थली. न जाने कैसे मेरी जिठानियां हर समय साड़ी और गहनों से चाक-चौबंद रह लेती हैं? सिर्फ़ रह ही नहीं लेतीं, दिन-रात बस गहनों कपड़ों या इसकी-उसकी बातें करके ख़ुश भी रह लेती हैं. उफ़! हर समय का वाद-विवाद उनका प्रिय मनोरंजन है और उसके दो-तीन, गिने-चुने विषय-खाना, गहने कपड़े, या किसी रिश्तेदार की उद्देश्यहीन समीक्षा. इतने वर्ष स्वच्छंद पंछी का सा जीवन बिताने के बाद ससुराल की किटकिट में बच्चों की ज़िम्मेदारियों के साथ? या बच्चों के बिना...?
दोनों ही तरफ अस्तित्व विहीन जीवन! बच्चों से पूछा तो दोनों ने बोर्डिंग के पक्ष में मत दिया, वो भी ख़ुशी-ख़ुशी. विस्मित रह गई थी मैं! इतना दुख, नहीं बेचारगी, नहीं-नहीं अस्तित्वहीनता तो उस दिन भी नहीं महसूस की थी, जब पहली बार उन्हें प्ले-स्कूल छोड़ने गई थी और वे बिना रोए, बिना मेरी उंगली न छोड़ने की ज़िद या कसमसाहट के हंसते-मुस्कुराते बाय करके चले गए थे. आख़िर हैं तो इन्हीं का अंश. निर्लिप्त और निर्विकार! ये भी उसी बोर्डिंग में पढ़े थे और इनकी बच्चों को उसकी पढ़ाई के रोमांचक तरीक़ों और गतिविधियों के बारे में सुनाई गई कहानियां जीत गईं और मेरा सारा लाड़-दुलार हार गया. वे मेरे इतने श्रमसाध्य एकनिष्ठ समर्पण को अर्थहीन प्रमाणित करते हुए वैसे ही हंसते मुस्कुराते बाय-बाय करके बोर्डिंग चले गए जैसे प्ले-स्कूल गए थे और मैं इस नीरस और रोमांचविहीन जीवन में अकेली रह गई थी. निरुद्देश्य, निरर्थक, निष्क्रिय.   

तभी मोबाइल की आवाज़ से मेरी तंद्रा भंग हुई. ‘बच्चों का ही होगा’, सोचकर मैंने गीले हाथ जल्दी से पोछे, मगर फ़ोन मां का था.
   
‘‘एक अच्छी बात बताऊं? नीमा लखनऊ में ही रहती है और उसके बेटे का जन्मदिन भी आज ही है.’’ सुनकर मेरे अवसादग्रस्त मन में ख़ुशी का ठिकाना न रहा.

‘‘अरे वाह! पहले क्यों नहीं बताया? हमें यहां आए तीन माह हो गए...’’ मेरे स्वर में उत्साह और शिकायत एक साथ झिलमिला रहे थे.

बरसों बाद नीमा दीदी से मिल सकने के उत्साह में मेरा मन बल्लियों उछलने लगा. कितना ख़ुशनुमा वक़्त एक साथ गुज़ारा था हमने. नीमा दीदी हमारे बगल वाले घर में रहती थीं. दोनों घरों के बीच एक छोटी-सी चारदीवारी थी, जिसे फांदकर मैं जब देखो तब उनके घर में हाज़िर रहती. मम्मी को इस बात का हमेशा अफ़सोस रहा कि वो तरह-तरह के पकवान लेकर मेरे पीछे भागती रहतीं, पर मेरे पेट में अनाज का निवाला नीमा दीदी के घर में ही जाता. उनकी मम्मी जो भी बनातीं, चार बच्चों के साथ पांचवीं मैं हिस्सा लगवाने पहुंच जाती. अनाज से लेकर जाने कितनी महंगी चीज़ें-पनीर, फल, मेवे, आदि जो उन्हें ख़ुद के लिए भी मुश्क़िल से नसीब होते थे, उनमें मेरा हिस्सा लगा देने में न वे तनिक हिचकिचातीं न ही उनके बच्चे. मैंने उनके घर पूरे बचपन जो भी खाया, मम्मी कभी उसका मोल न चुका पाईं. और तो और मुझे पढ़ाना तो बस नीमा दीदी के बस की ही बात रही. नीमा दीदी अपनी पढ़ाई का ख़र्च निकालने के लिए ट्यूशन करती थीं, पर इसके लिए कभी पड़ोसी होने के नाते हमसे ट्यूशन फ़ीस लेना गंवारा न किया उन्होंने.

नीमा दीदी की शादी के बाद ही मैं आगे की पढ़ाई करने हॉस्टल चली गई. उसके बाद नीमा दीदी की बस ख़बरें ही मिलती रहीं, जो ज़्यादातर बुरी थीं. मम्मी नीमा दीदी के जीवन में हुई दुर्घटनाओं को सुनकर अक्सर दुखी और चिंतित रहती थीं. उनके मम्मी-पापा से बहुत बार कुछ मदद करने के लिए पूछ भी चुकीं थीं पर वो हमेशा मुस्कुराकर टाल देते. दुर्घटना के बाद से उनका मायके आना भी नहीं हुआ कि सीधे उनके हाथ में कुछ थमा पातीं. अब मम्मी को मेरे बहाने उन्हें कुछ देने का बहाना मिल गया. वे बोलीं,‘‘तू उसके शहर में है तो आज उसके घर चली जा. उसके बेटे के जन्मदिन के बहाने मेरी ओर से एक चेक दे देना. और अच्छी तरह से देखकर आना कि कौन-सी ज़रूरत की चीज़ की उसके यहां कमी है. अगले हफ़्ते दीवाली है. हो सका तो मैं वहां आ जाऊंगी और दीवाली के बहाने ख़ुद उसे उपहार में दे दूंगी. और हां, उसके यहां केवल लैंडलाइन है, वो भी आजकल डेड है इसीलिए पता नोट करा रही हूं.’’

उनके घर पहुंची तो दीदी की सुखद आश्चर्य से खनकती हंसी के साथ जादू की झप्पी, तपती गर्मी में माथे पर पड़ी बारिश की पहली बूंद-सी दिल में उतरती चली गई. उनके मायके वाले घर की ही तरह बाहर चारदीवारी से सटे हरसिंगार, पलाश, नीम और अमरूद के पेड़ शाखाएं हिलाकर वैसे ही आशीर्वाद देते-से लगे. अंदर मुश्क़िल से दस फ़ीट के चौकोर लॉन में चारदीवारी से सटकर लगे गुलाब, गेंदे, डहेलिया आदि मुस्कुराकर अभिवादन कर रहे थे. दो कमरे के सुव्यवस्थित और सादे घर का कोना-कोना जैसे बांहें फैलाए बरसों बाद मिले आत्मीय स्वजन के स्वागत को उत्सुक था.

बात निकली तो ठहाकों के साथ दूर तलक गई. हंसती-खिलखिलाती, बचपन की याद करके ठहाके लगाती प्रफुल्लचित्त नीमा दीदी को देखकर उनसे उनकी त्रासदियों के बारे में पूछने की हिम्मत ही न पड़ी. पूछती भी तो क्या? सब कुछ तो सामने था. गठिया से लाचार सास, व्हीलचेयर पर पति, घर में फ़र्नीचर के नाम पर केवल एक बेड, एक दीवान और चार कुर्सियों के साथ एक मेज, जिसे डाइनिंग टेबल कहा जा सकता था. मैं उनकी शादी के पंद्रह सालों की पुस्तक उलटने लगी. उनकी सहज और संतुष्ट आवाज़ पति के दुर्घटनाग्रस्त होने, पैर खो देने के कारण व्यापार ठप्प हो जाने, घर चलाने के लिए उनके द्वारा जॉब जॉइन करने की बातें ऐसे बताती रही जैसे कोई अपने परम् आनंदित जीवन की कहानी सुना रहा हो. उनकी दिनचर्या पूछी तो दंग रह गई.

‘‘सुबह पांच बजे उठकर सारा खाना बनाकर और घर के अन्य काम निपटा कर ऑफ़िस के लिए निकलती हूं. बस में लगभग डेढ़ घंटे लगते हैं. शाम का खाना ये और सास मिलकर देख लेते हैं. बस थोड़ा-बहुत खड़े होकर करने वाला काम बचता है, बाक़ी समय मैं अपनी रुचि यानी बागवानी को देती हूं.’’

‘‘आप बस में बैठे-बैठे बोर नहीं हो जातीं?’’ मेरे आश्चर्य करने पर वे बोलीं,‘‘अरे नहीं, तू तो जानती है मुझे पढ़ने का कितना शौक़ है. ख़ासकर वनस्पति विज्ञान, जिसमें एमएससी करने की चाहत रह गई थी. ऐसे तो गृहस्थी के चक्कर में कभी न हो पाता पर बस में रोज़ तीन घंटे मिल जाते हैं मुझे पढ़ने के लिए. पता है, मैंने केवल बस में पढ़कर एमएससी में प्रथम श्रेणी हासिल कर ली. लंच के बाद तुझे अपनी वनस्पति विज्ञान की प्रयोगशाला में ले चलूंगी. वो नर्सरी मेरी हॉबी ही नहीं अतिरिक्त आय का स्रोत भी है, साइड बिज़नेस भी कह सकती हो.’’ उनकी आवाज़ में भोर की चिड़ियों की सी चहचहाहट थी.

प्रयोगशाला के रूप में उनकी छोटी-सी छत देखकर मैं कुछ क्षणों के लिए सम्मोहित-सी खड़ी रह गई. जाने कितनी क़िस्म के रंग-बिरंगे पौधे नन्हे गमलों में मुस्कुरा रहे थे. मेरी नज़र समझ नहीं पा रही थी कि किधर से देखना शुरू करे. मेरे मुंह से अचकचाई-सी आवाज़ निकली,‘‘आप घर के सब कामों के साथ इसके लिए समय और ऊर्जा बचा कैसे पाती हैं? ये सब आपने अकेले कैसे किया?’’

दीदी चहक उठीं,‘‘इंसान अपने पैशन को पहचान ले तो समय तालिका तो ख़ुद-ब-ख़ुद समय दे देती है और अतिरिक्त ऊर्जा की तो ज़रूरत ही नहीं होती. ये तो मेरे लिए रिलैक्सेशन का साधन है और व्यायाम का भी. देख!’’ यह कहकर उन्होंने एक नज़र अपने सपाट पेट की ओर डाली और मुस्कुराकर बोलीं,‘‘और सब कुछ अकेले करने की आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए ही तो इतने वर्ष शिक्षा ग्रहण करते हैं हम. फिर अकेलेपन से घबराएं तो शिक्षा का क्या फ़ायदा?’’
तभी एक बच्चा छत पर आया जो देखने में वंचित घर का लग रहा था, पर था साफ़-सुथरा और सजा-धजा.

‘‘आंटी, पार्टी कब शुरू होगी? हम सब आ गए.’’

‘‘पार्टी? आपका बेटा तो इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ता है न?’’ मैंने आश्चर्य से पूछा.

‘‘हां, इसीलिए तो मैं अपनी ख़ुशी इन बच्चों के साथ बांटती हूं. इनकी खिलखिलाहट मुझे कभी अकेलापन महसूस नहीं होने देती. जो लोग पौधे ख़रीदते हैं, उन्हें पौधे लगवाने और देखभाल के लिए माली चाहिए होते हैं. इसीलिए चार-पांच माली रखे हैं मैंने. ये उन्हीं के बच्चे हैं. मुझसे इतना हिले हैं कि मेरे यहां ही बने रहते हैं. और ये जो छुटकू है न, इसका बस चले तो अपने घर जाए ही नहीं,’’ दीदी एक बच्चे की नाक पकड़ कर बोलीं.

‘‘आपमें कुछ तो सम्मोहन है दीदी, मैं भी तो आपके यहां से जाना नहीं चाहती थी,’’ मेरे मुंह से निकला तो दीदी ठठाकर हंस पड़ीं और बोलीं,‘‘बच्चे केवल प्यार के भूखे होते हैं. और प्यार और ज्ञान वो दौलत है, जिसे जितना लुटाओ, उतनी ही बढ़ती है. देख! तभी तो तू इतने सालों बाद भी मुझे कितना प्यार करती है कि मेरा पता लगते ही मिलने चली आई,’’ यह कहकर वो इनकी ओर मुख़ातिब होकर बोलीं,‘‘अब आपलोग भी पार्टी मनाकर ही जाइएगा.’’

रेडियो फ़ुल वॉल्यूम पर बज रहा था और उस छोटे-से लॉन में करीब दस-पंद्रह बच्चे बर्थडे कैप लगाए डांस कर रहे थे. घंटेभर डांस होता रहा फिर दीदी ने सबकी प्लेट लगाई. सुंदर क्राकरी में स्वादिष्ट पकवान, कोल्ड-ड्रिंक, केक सबकुछ था और सबसे बढ़कर था उनके प्रति दीदी का बिल्कुल वैसा ही व्यवहार, जैसा हम अपने बच्चों के साथियों के साथ करते हैं. बातों-बातों में बच्चों ने बताया कि अगले ह़फ्ते दीवाली पर उन्हें दीदी से सुंदर ड्रेस, खिलौने और बर्तन गिफ़्ट में मिलेंगे, जिसके लिए वो साल भर मन लगाकर पढ़ते हैं. मेरा कैल्कुलेटिव दिमाग़ अंदाज़ लगा रहा था कि कितना ख़र्चा आता होगा इन सबमें और मन में वो दृश्य कौंधते जा रहे थे जब दीवाली पर महरी को त्यौहारी देते समय हमेशा मेरी किटकिट होती थी. हमेशा लगता था कि वो जितनी सफ़ाई कराती है, उससे ज़्यादा ही घसीट लेती है. क्या कमी बताऊं मम्मी को नीमा दीदी के घर में. उन्हें हम जैसे दरिद्र लोग कुछ दे सकते हैं क्या, जो किसी को भी कुछ भी देने से पहले उसके बदले में मिलने वाले सुख के हिसाब में ही ज़िंदगी गुज़ार दिया करते हैं?  

ख़ुशी से छलकते, सुंदर रिटर्न गिफ़्ट लेकर वे बच्चे विदा हुए तो हमारा खाना लगा. डिनर के दौरान मैंने पाया कि उनके पति और सास दीदी के बनाए अति स्वादिष्ट व्यंजनों पर यों टीका-टिप्पणी कर रहे थे जैसे पाक-कला के प्रशिक्षित समीक्षक हों. और दीदी मुस्कुराते हुए बस यही कह देती थीं कि ठीक है अगली बार से ध्यान रखूंगी. इस बीच मेरी नज़रें अपने पति की नज़रों से जा टकराईं. इनकी दबी मुस्कुराहट ने मेरे स्मृति-पटल पर उस दिन के चलचित्र का बटन ऑन कर दिया, जब किसी के सामने इन्होंने मेरे कोफ़्तों को कुछ कह दिया था. मैंने इन्हें ऐसी नज़रों से घूरा था जैसे कोफ़्ते छोड़ इन्हें खा जाऊंगी.

चलते समय उन्होंने रिटर्न गिफ़्ट के तौर पर बहुत-से ख़ूबसूरत पौधे उपहारस्वरूप कार में रख दिए और कहा कि उन्होंने जो माली अन्य घरों में लगवाया है, वो आकर उन्हें गमले में रोप देगा.

लौटकर जैसे ही हमने घर के अंदर प्रवेश किया, ये जल्दी से टेलीविज़न खोलकर बैठ गए और मेरे होंठों पर मन के भीतर कहीं खो चुकी मुस्कान लौटकर होंठों पर सज गई. आज मैं अपने चार कमरों के सरकारी अपार्टमेंट की जगह एक भव्य महल को देख रही थी. सभी आधुनिक सुविधाओं और आराम के साधनों से सुसज्जित. एयरकंडीशनर ऑन किया तो दीदी के कूलरविहीन घर का ख़स का पर्दा अनायास ही स्मृतिपटल पर कौंध गया, जिसे वो हर कुछ देर पर उठकर पानी से भिगो रही थीं. पति पर निगाह डालते ही मुझे एक सुलझा हुआ जीवनसाथी दिखाई दिया, जो भले ही अपनी दिनचर्या में हस्तक्षेप स्वीकार न करता हो पर मेरी दिनचर्या में, मेरे निर्णयों में कभी हस्तक्षेप करता भी नहीं. एक न्यूनतम अपेक्षाएं रखकर बोलकर मांगी गई लगभग सभी अपेक्षाएं पूर्ण कर देनेवाला साथी मुझे जन्मों की तपस्या का फल लगने लगा. और बच्चे? इतने समझदार बच्चों से भौतिक दूरी पर क्या रोना, जिन्होंने पिता के तबादले वाली नौकरी की व्यावहारिक समस्या का समाधान हंसी-ख़ुशी स्वीकार कर लिया था. ख़ुशी बांटने के रास्ते तो और भी हैं.  

नीमा दीदी ने मुझे वो दृष्टि दी थी, जिससे मुझे अपने जीवन के अतुलित वैभव को देखने और जीने की प्रेरणा मिली थी. मम्मी का भेजा हुआ एक छोटा-सा चेक उसके आगे सुदामा के चावल-सा ही तो था... जिसे उन्हें देते समय मैं वैसे ही सकुचा गई थी जैसे कभी सुदामा सकुचाए होंगे.

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