कहानी: मिस्ड कॉल

ट्रिंग-ट्रिंग, फ़ोन की एक घंटी बजी और बंद हो गई. झट से विदित ने रिसीवर उठाया और आदतन उनकी उंगलियां नंबर डायल करने लगीं.

‘आप जिस नंबर से संपर्क करना चाहते हैं, वह अभी उपलब्ध नहीं है. कृपया नंबर जांचें या दोबारा प्रयास करें.’
यह सुनते ही विदित ने कंपकंपाते हाथों से रिसीवर नीचे रख दिया.                                                                      
दर्द की असंख्य तीव्र लहरें उनके शरीर में दौड़ने लगीं. अंतस की पीड़ा और चुभन और गहरी हो गई. फ़ोन को ही उठाकर पटकने का मन हुआ उनका. फ़ोन की घंटी तो दिन भर बजती ही रहती है, पर एक बार ट्रिंग-ट्रिंग होकर फ़ोन का कट जाना...तरस गए हैं उनके कान उस मिस्ड कॉल को सुनने के लिए. जब भी मिस्ड कॉल आता था, उनके चेहरे पर एक मुस्कान फैल जाती थी, दिल में एहसासात् की असंख्य घंटियां एक साथ बजने लगती थीं. वह उन्हें याद कर रही है, वह उनसे बात करना चाहती है...चटकीले, नरम फूलों की ख़ुशबू उनके आसपास बिखर जाती थी.

चाहे वह व्यस्तता के कारण तुरंत उसे फ़ोन नहीं कर पाते थे, लेकिन तमाम परेशानियों के बीच भी उन्हें याद रहता था कि साधिका उनसे बात करना चाहती है. यह मिस्ड कॉल जाने-अनजाने एक संदेश बन गया था, एक सेतु...पता नहीं यह कैसे शुरू हुआ था, पर बरसों से यही सिलसिला चला आ रहा था. हालांकि उन दोनों को अपनी बात कहने के लिए संवादों की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. कभी-कभी तो वे एक-दूसरे की ख़ामोशी ही सुनते रहते या फिर ‘हां-हूं’ में ही बात हो जाती.

मिस्ड कॉल उनके बीच एक तरह का सिग्नल था. असल में वह उन्हें जब चाहे फ़ोन नहीं कर सकती थी, क्योंकि शोरूम में पता नहीं होता था कि फ़ोन कौन उठा ले इसलिए वह मिस्ड काल देकर छोड़ देती. बाद में मोबाइल आ जाने पर भी यही सिलसिला क़ायम रहा. किसी दिन जब वह यह सोचकर मिस्ड कॉल नहीं देती थी कि जब विदित फ्री होंगे तो ख़ुद ही उसे फ़ोन कर लेंगे तो उन्हें लगता कि कुछ कमी-सी है. शोरूम में फैले शोर के बावजूद उन्हें वह ट्रिंग-ट्रिंग सुनाई दे जाती थी. व्यस्तता के बीच व्याप्त रिक्तता को वह मिस्ड कॉल ही भरता था. यह मिस्ड कॉल उनकी ज़िंदगी का एक अहम् हिस्सा बन चुका था. कोई आपको याद कर रहा है, आपके बारे में सोच रहा है, आपसे बात करने को बैचेन है, यह एहसास ही इतना ख़ूबसूरत होता है कि तमाम उलझनों, व्यस्तताओं और जटिलताओं के बीच भी इंसान को जीने और ख़ुश रहने की प्रेरणा देता है.

ट्रिंग-ट्रिंग, ट्रिंग-ट्रिंग, ट्रिंग-ट्रिंग, फ़ोन की घंटी लगातार बज रही थी. विदित का ध्यान भंग हुआ. मंजूषा का फ़ोन था, क्या कर रहे हो? कितने सेल्समैन आए हैं? कितनी सेल हुई? उसके सवालों का सिलसिला जो शुरू होता है तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता. उसे पल-पल की ख़बर चाहिए होती है. एक स्पाई की तरह वह उस पर नज़र रखती है. उसका बस चले तो उसके शरीर पर ही वह एक सीसीटीवी कैमरा लगा दे. उसकी शक़ करने की आदत से विदित परेशान हो चुके थे. अब तो वह भी नहीं है, जिससे वह अपने दिल की बातें शेयर कर सकें और तनावमुक्त हो जाएं. सही भी है हर किसी को रोने के लिए एक कंधा चाहिए होता है, फिर चाहे वह कोई भी हो. उनकी विडंबना यह है कि मंजूषा आंसू तो देना जानती है पर कंधा नहीं.                                                                                                                            
उसके जाने के बाद उनकी ज़िंदगी में एक ऐसा अधूरापन भर गया है, जिसका भर पाना अब असंभव ही है. अपने हर दुख-सुख, काम की, फिज़ूल की और पूरे दिन में क्या हुआ, हर बात वह उसके साथ बांटा करते थे. तबियत ख़राब है या मन उदास है, उससे बात करते ही विदित खिल उठते थे. उन दोनों की बातें थीं कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं. हंसी, ख़ुशी, आंसू, ग़म...हर तरह का रिश्ता-नाता, वे बस एक-दूसरे के साथ ही शेयर करते थे.

‘आज खाने में क्या खाया, सैर पर क्यों नहीं गए, क्यों इतनी तली-भुनी चीज़ें खाते हो, ड्रिंक करना कम करो, मस्त रहा करो....’ पता नहीं क्या-क्या वह उन्हें समझाती रहती और विदित को भी तो सुनना अच्छा लगता था.

‘कितना प्यार करती हो तुम मुझसे. जानती हो तुम मेरी ताक़त हो. तुम्हारे सिवाय और किसी से मैं अपनी बातें शेयर नहीं करता. मंजूषा तो मुझे कभी समझ ही नहीं पाई, वैसे भी वह अपनी बेटियों में ही व्यस्त रहती है. मैं तो उसके लिए मात्र पैसा कमाने वाली मशीन हूं. मेरी दोस्त, प्रेमिका, प्यार, हमदर्द ...सब कुछ तो तुम ही हो. मुझे तो लगता है हमारे बीच हर वह रिश्ता है जो एक इंसान के जीवन में होता है. यहां तक कि तुम मुझे कितनी बार मां बनकर भी संभालती हो. और मेरी सबसे बड़ी डॉक्टर भी तो तुम ही हो. मेरे हर मज़र् की दवा तुम्हारे पास होती है साधिका. कहते-कहते विदित भावुक हो जाते थे.’

‘सेंटी मत हो विदित. इतना प्यार मत करो मुझसे. मैं नहीं रहूंगी तो क्या करोगे?’

यह सुनते ही विदित फ़ोन पर ही रोने लगते तो वह प्यार से झिड़कती,‘हद करते हो, पचास पार कर चुके हो, अभी भी ज़रा-ज़रा सी बात पर रो पड़ते हो?’

‘तुम जानती ही हो कि मैं अपने बचपन के एक दोस्त को खो चुका हूं, अब मैं तुम्हें नहीं खोना चाहता.’
‘यह बात बार-बार क्यों बोलते हो विदित? कहीं ऐसा सचमुच ही न हो जाए. तुम तो जानते ही हो कि मेरे घर की परिस्थितियां कैसी हैं. दिन-रात के क्लेश ने मेरे मन के साथ मेरे शरीर को भी खोखला कर दिया है. न जाने कब कौन-सी बीमारी मुझे घेर ले. मेरे पति तो कब से मेरी मौत की कामना कर रहे हैं,’ कभी-कभी कह ही जाती थी वह.

‘कुछ नहीं होगा तुम्हें. और तुम नहीं रही तो मैं तो जीते जी मर जाऊंगा. बिल्कुल अकेला हो जाऊंगा. सब कुछ तो तुम ही हो मेरी. मुझे पता है कि हमारे इस रिश्ते को कोई नहीं समझ सकता है, आख़िर स्त्री-पुरुष अगर एक दूसरे को जानते हैं तो उनके बीच कोई ऐसा रिश्ता होना चाहिए, जिस पर समाज की मोहर लगी हो. वरना हर किसी के पास उस पर उंगली उठाने का अधिकार होता है, लेकिन मैं अपने इस रिश्ते को किसी तरह से भी जस्टिफ़ाई नहीं करना चाहता हूं, क्योंकि प्यार के बंधन किसी नाम के मोहताज नहीं होते.’

‘जानते हो विदित मुझे लगता है कि मेरी सोहबत में तुम भी कवि बनते जा रहे हो. कविताएं मैं लिखती हूं और जनाब फ़लसफ़ा सुनाते हैं.’

उनकी बातें कभी ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती थीं. वह तो विदित को ही फ़ोन बीच में काटना पड़ता था, कस्टमर को अटेंड करने के लिए. ज़रा-सी भी फ़ुरसत मिलती तो विदित तुरंत दोबारा उसे फ़ोन करते. हर वक़्त उनके ज़हन में वह छाई रहती थी, इसके बावजूद वे न सिर्फ़ अच्छे पति थे, वरन एक अच्छे पिता भी थे. मंजूषा के दिन-रात के तानों के बावजूद वह उसका पूरा ख़्याल रखते थे. अक्सर साधिका कहती,‘आई एम प्राउड ऑफ़ यू विदित. एक अच्छे इंसान होने के साथ-साथ तुम एक अच्छे पिता व पति भी हो. कई बार मुझे मंजूषा से जलन होती है. काश मैंने समय रहते तुम्हें बता दिया होता कि मैं तुमसे प्यार करती हूं तो आज हम दोनों साथ होते.’

‘जो हुआ उस पर हमारा कोई बस नहीं है पर यह याद रखना तुम कि मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ूंगा. मैं जानता हूं अपने हालात् की वजह से न तो मैं तुम्हारे लिए कुछ कर पाता हूं, न ही मिल पाता हूं, पर तुम्हारी सदा चिंता लगी रहती है.’

‘मैं जानती हूं. इस दुनिया में मैं भी तुम्हारे सिवाय और किसी पर भरोसा भी नहीं कर सकती. मेरे पति तो सिर्फ़ धोखा देना जानते हैं. जब मन करता है भाग खड़े होते हैं, जब मन करता है वापस आ जाते हैं. जिस रिश्ते की नींव पैसा हो, वह कभी स्थाई नहीं रह पाता और प्यार तो उसमें पनप ही नहीं सकता. पूर्ण समर्पण के बावजूद उन्होंने कभी मुझे यह विश्वास नहीं दिया कि वे मेरे साथ हैं. पता नहीं क्यों उनके लिए कभी पति जैसी फ़ीलिंग आई ही नहीं. शायद इसलिए क्योंकि, उन्होंने मुझे कभी पत्नी होने का न तो अधिकार दिया और ना ही सम्मान. और तुम्हारे साथ तो लगता है जैसे कोई पिछले जन्म का संबंध है, तभी तुम हो मेरे जीवन में. वरना इतना लंबा साथ ...25 साल हो गए हैं न? समय के साथ तुम्हारा मेरे प्रति प्यार भी तो कितना गहरा हो गया है.’

‘तुम हो ही इतनी अच्छी कि कोई भी तुमसे प्यार करने लगे.’

‘सिवाय मेरे पति के,’ वह खिलखिला उठती. पर विदित जानते थे कि वह भीतर ही भीतर घुट रही है. उन्हें दुख न हो इसलिए वह कोशिश करती थी कि अपनी समस्याओं से उन्हें दूर ही रखे. धीरे-धीरे अपनी हर बात शेयर करने वाली साधिका उनसे बहुत कुछ छिपाने लगी थी. वह समझ तो रहे थे, उससे शिकायत भी की, पर हर बार वह बात को हंस कर टाल देती या कहती,‘मत करो मुझसे इतना प्यार विदित. आदत डाल लो मेरे बिना जीने की. और ख़ासकर ये मिस्ड कॉल वाली ट्रिंग-ट्रिंग न सुनने की, जिसे सुनने से तुम्हारे दिल में तरंगे उठने लगती हैं.’ फिर ऐसा हुआ कि उससे कई दिनों तक फ़ोन पर बात नहीं हुई. उसका फ़ोन स्विच ऑफ़ आता रहा. उफ़! कितने तकलीफ़देह दिन थे वे. कैसे पता करें वह साधिका के बारे में. उन दोनों का यह रिश्ता तो सारी दुनिया से अनजान था.

पंद्रह दिनों बाद साधिका का ही फ़ोन आया था. कितना लड़े थे विदित. ‘एक बार भी नहीं सोचा कि मुझ पर क्या बीतेगी. तरस गया था तुमसे बात करने को. ऐसा लगा कि मैं पल-पल मर रहा हूं. तुम जानती तो हो कि मैं तुम्हारे बिना कितना अधूरा हूं.’ ‘प्लीज़ विदित और कुछ मत कहो. तुम्हारा प्यार अब मुझे डराने लगा है. भूल जाओ मुझे...’ उसकी आवाज़ में कंपन था.  ‘25 साल के साथ के बाद भूलने की बात कर रही हो...अब यह संभव ही नहीं है. पर तुम मुझसे क्या छुपा रही हो यह बताओ. पंद्रह दिन से बात क्यों नहीं की और तुम्हारी आवाज़ इतनी क्यों टूट रही है?’ 

‘बस ऐसे ही, कुछ ख़ास नहीं,’ यूं लग रहा था वह अब रो पड़ेगी, पर ख़ुद को संभालने की कोशिश कर रही है.
‘देखो तुमने सच नहीं बताया तो मैं कुछ कर बैठूंगा,’ विदित रो पड़े थे.  

‘मैं अस्पताल में हूं. कैंसर है...लास्ट स्टेज,’ उसकी उखड़ती सांसों के साथ विदित की सांसें भी बोझिल होने लगीं.
फफक उठे थे वह,‘कह दो यह झूठ है. कह दो मज़ाक कर रही हो तुम.’                   

‘तुमसे कभी झूठ बोला है? तुम ही तो हो जिसने मुझे जीने के मायने दिए, इतना प्यार और सम्मान दिया. मुझे एहसास कराया कि मेरा भी एक अस्तित्व है और मैं भी अच्छी हूं. वरना मेरे पति ने तो मुझे पांव की जूती से ज़्यादा का दर्जा कभी नहीं दिया. चलो अच्छा ही है उन्हें मुझसे छुटकारा तो मिल जाएगा.’

‘और मेरा क्या होगा, यह नहीं सोचा?’                                                                                       

‘मेरी यादों को उलटते-पलटते रहना. जब भी याद करोगे मुझे महसूस करोगे. हमारा प्यार क्या मेरे जाने के बाद ख़त्म हो जाएगा? कभी नहीं. इसकी सुगंध सदा रहेगी हम दोनों के बीच.’  चली गई साधिका उन्हें छोड़कर...अकेले हो गए वह एकदम. टूट-से गए. आख़िर वही तो उनकी हिम्मत थी. बस, अपनी ज़िम्मेदारियां निभाते रहे. एक ग्लानि कभी उनका पीछा नहीं छोड़ती कि वह उसके अंतिम समय में उससे मिल तक न पाए. जाते हुए उसके माथे को चूम तक न पाए, प्यार से उसके हाथों को सहला भी न पाए. कैसी मजबूरी थी यह...आख़िर किस रिश्ते से उसके पास जाते? क्या जवाब देते दुनिया को जो प्यार के रिश्ते को कभी समझ ही नहीं सकती. जो दो ऐसे लोगों को जो सिर्फ़ एहसासात् के धागों से जुड़े हों, कभी बर्दाश्त नहीं कर सकती. बस, अब तो साधिका के साथ जिए एक-एक पल को उलटते-पलटते रहते हैं.                                                                                                                         
ट्रिंग-ट्रिंग, ट्रिंग-ट्रिंग, ट्रिंग-ट्रिंग... घंटी बजी तो चौंक उठे विदित. सेल्समैन ने फ़ोन उठाया और रिसीवर उन्हें थमाते हुए बोला,‘‘सर, मैडम का फ़ोन है.’’

‘‘खाना भेज दूं.’’                                                                                                                         

अपने को बहुत मुश्क़िल से संभालते हुए विदित ने कहा,‘‘हां.’’ और फ़ोन रख दिया. साधिका की यादों को मन की भीतरी परतों में छिपाते हुए उन्होंने कस्टमर अटेंड करने में स्वयं को व्यस्त कर दिया.

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