कहानी: शिक्षा

अदिति को काटो तो ख़ून नहीं. डॉक्टर ने साफ़ कह दिया था कि जान का ख़तरा तो है. शुभम के सिर पर पांच टांके लगे थे. तभी प्रधानाचार्या का फ़ोन आ गया कि बच्चे के घर ख़बर कर दी गई है. निर्देश था कि वो ख़ुद उसे छोड़कर आए. प्रधानाचार्या ने तो अपना पल्ला झाड़ ही लिया था-अगर बच्चे के घरवालों ने पुलिस में शिकायत की तो हमसे कोई उम्मीद न रखिएगा. डरे मन से शुभम का सिर अपनी गोद में लिए स्कूल वैन में पीछे बैठी अदिति के मन में भय का चक्रवात चलने लगा. कहीं शुभम को कुछ हो गया तो...? नहीं...!

भय से पीली पड़ी अदिति शुभम को दुलराने-पुचकारने लगी. शुभम की मासूम आंखें और उनमें भरे लाखों प्रश्न धीरे-धीरे भय के इस चक्रवात में आत्ममंथन की आंधी भी जोड़ते गए. क्या सोचकर शिक्षिका का व्यवसाय चुना था और क्या कर रही है? कहां जाने के लिए निकली थी और कहां आ पहुंची है! अपने विद्यार्थी जीवन में कई वर्ष उसने एक संस्था के साथ जुड़कर अशिक्षित परिवारों के ग़रीब बच्चों को पढ़ाया-सिखाया था. उन्हें कुछ अच्छा सिखाकर जो आत्मतोष मिलता था, वो उसकी क़ीमत जानती थी. किसी एनजीओ के साथ जुड़कर कमज़ोर तबके के बच्चों की शिक्षा के लिए कुछ करना उसका सपना था. शायद इसीलिए जब ये स्कूल जॉइन करते समय बताया गया था कि हमारा स्कूल बहुत साधारण है. यहां मिलीजुली खेप है. बहुत से अशिक्षित परिवारों के बच्चे भी आते हैं तो अदिति को अच्छा ही लगा था-चलो थोड़ी समाजसेवा भी हो जाएगी.

लेकिन जब शुरू किया तो पता चला कि यह इतना आसान भी न था जितना वह समझ रही थी. ये कोई चैरिटेबिल ट्रस्ट नहीं, शिक्षा का बाज़ार था और हर व्यापारी की तरह यहां के संस्थापक का मुख्य उद्देश्य भी कम से कम लागत में अधिक से अधिक पैसे कमाना था. अभिभावक उसके ग्राहक थे और हर प्रकार का दिखावा, जो उन्हें प्रभावित कर सके, उनका विज्ञापन. आधा श्रम इस दिखावे में ही ख़र्च हो जाता था और आधा अंग्रेज़ी का एक अक्षर न समझने वाले बच्चों की उत्तर-पुस्तिकाओं में ब्लैक-बोर्ड से अंग्रेज़ी में लिखे उत्तर उतरवाने और पुस्तिकाएं जांचने में. उन्हें कुछ सार्थक सिखा पाने के तोष का तो एक क्षण भी नसीब नहीं हुआ था, उल्टे अपना जीवन शोषित लगने लगा था. कब ये असंतोष और शोषण का एहसास चिड़चिड़ापन बनकर उसके व्यवहार में बस गया, उसे पता ही नहीं चला.

अदिति ने शुरू में बहुत प्रयास किया था कि बच्चों का काम समय पर ख़त्म हो जाए और उन्हें मनपसंद काम करने का भी मौक़ा मिले. कुछ स्वच्छता और सही जीवनशैली के बारे में समझाने का समय मिले. वो सारी उत्तर-पुस्तिकाएं घर लाकर जांचती, बच्चों को सिखाने के नए तरी़के सोचती. पर जैसे-जैसे बच्चे होने के बाद गृहस्थी का काम बढ़ता गया, व्यावहारिकता उस पर हावी होती गई. उस पर प्रशासन की ओर से दिए गए दिखावेवाले काम इतने अधिक थे कि कक्षा में बच्चों को रट्टा लगाने के लिए बिठाकर, अपने काम पूरे करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बच पाता था.

और ये शुभम! अजब बच्चा था ये. उन बच्चों में से एक, जिन्हें कुछ भी सिखा पाना एक चुनौती होती है. गंदा इतना कि देखकर ही वितृष्णा हो आए. शुरू में कितना समझाया, फिर डांटा, फिर स़ख्ती की पर चिकने घड़े पर कोई असर न हुआ. बोर्ड से काम उतरवाना तो दूर, उसे एक जगह टिकाकर रखना तक एक समस्या ही थी. ग़ुस्सैल इतना कि हमेशा अपने साथियों को पीटने को तैयार. अभिभावकों के साथ होने वाली मीटिंग में जब अदिति ने उसके पिता से इस बात का ज़िक्र किया तो उनका उत्तर सुनकर चकित रह गई-‘मैम! आप इतने प्यार से बोलेंगी तो वो सुनने से रहा.’ उसके पिता ने ब्लैक-बोर्ड पर कुछ इंगित करने के लिए रखी छड़ी उठा ली और बोले,‘ये पिटाई का आदी है. पहले इस छड़ी से अच्छे से ठुकाई कर दिया करिए, फिर देखिए इसके दिमाग़ का घोड़ा कैसे दौड़ता है.’

दूसरे दिन ब्लैक-बोर्ड पर उत्तर लिखकर पलटी तो देखा शुभम लिखने के बजाए कुछ बना रहा था. उसके पास पहुंची तो दंग रह गई. वो क्ले के खिलौने बना रहा था. उसके बैग में ढेर सारे खिलौने भरे पड़े थे. ‘‘ये क्या हो रहा है?’’ अदिति कड़क कर बोली.

‘‘क्ले के खिलौने बना रहा हूं मैम! वो ऐसे चहक कर बोला जैसे कोई पुरस्कार पानेवाला काम कर रहा हो.’’

‘‘और जो बोर्ड पर लिखा है उसे कौन उतारेगा? और इतनी सारी क्ले आई कहां से तुम्हारे पास?’’

शुभम कुछ बोले, इससे पहले ही बच्चे बोल पड़े,‘‘मैम, शुभम सब के बस्ते से क्ले चुरा लेता है.’’

‘‘मैम, ये क्राफ़्ट का पीरियड है और आप हमेशा की तरह पढ़ाई करा रही हैं. क्ले के खिलौने तो आपने कभी बनवाए ही नहीं. अगर मैं नहीं लेता तो सबकी क्ले सूखकर ख़राब जाती.’’

अदिति का ग़ुस्सा आपे से बाहर हो गया. छटांक भर का छोकरा और इतनी हिम्मत! इतनी ज़बानदराज़ी अपनी ग़लती मानना तो दूर, ख़ुद को सही साबित करने के लिए उसे ही ग़लत ठहरा रहा था.

उस दिन पहली बार उसकी छड़ी उठी तो उठती ही चली गई. हाथ रुका तो वह उसे देखने लगा. निगाहों में न शर्म, न डर, न दर्द. बस एक भोला प्रश्न-मेरा कसूर क्या है?

अदिति के विचारों ने दिशा बदली. हर हफ़्ते प्रिंसिपल भाषण पिलाती थीं-कार्पोरल पनिश्मेंट इज़ स्ट्रिकली प्रोहिबिटेड. नहीं, ये बात किसी को पता नहीं चलनी चाहिए. वो घबरा गई. उसने पर्स से कुछ टॉफ़ियां निकालकर उसे थमा दीं. वो निर्लिप्त-सा मज़े से टॉफ़ियां खाने लगा. अदिति उसकी ओर देखकर मुस्कुराई तो वो भी मुस्कुरा दिया. अब अदिति का ध्यान खिलौनों की ओर गया. खिलौने बहुत सुंदर थे. बिल्कुल नहीं लगता था कि कक्षा तीन के बच्चे ने बनाए हैं. उसका ध्यान गया कि अगले माह लगने वाली प्रदर्शिनी की ज़िम्मेदारी उसे दी गई है.

‘‘तुम्हें खिलौने बनाने का बहुत शौक़ है?’’ उसने पूछा.

 शुभम ने ‘हां’ में सिर हिला दिया.

‘‘ठीक है, मैं कल तुम्हें ढेर सारी क्ले ला दूंगी.’’ यह कहकर अदिति ने उसके सिर पर हाथ फेर दिया. चोटों से भरा शरीर और इतना उल्लसित चेहरा? मन ग्लानि से भर गया था. खिलौने समेटकर प्रदर्शिनी वाली कबर्ड में रखे तो अपराध-बोध और गहरा हो गया था. ठीक ही तो कह रहा था बेचारा. शुरू-शुरू में अदिति को भी तो यह शिक्षा अर्थहीन और ये ढर्रा ग़लत और अटपटा लगता था.

दूसरे दिन अदिति ने क्ले इशू कराकर शुभम को थमा दी थी. शुभम बैठकर खिलौने बनाता रहता और उसकी कॉपियों में वो ख़ुद थोड़ी राइटिंग बिगाड़कर लिख देती. सबसे अनुभवी शिक्षिका नीना ने परीक्षा में अच्छा प्रतिफल लाने का तरीक़ा बता ही दिया था,‘प्रश्न-पत्र तो हम ही बनाते हैं न? जो आनेवाला है, बस वही सारा कुछ घोटकर पिला दो, आधा तो याद रह ही जाएगा, मूढ़ मगजों को भी.’

प्रदर्शिनी के बाद फिर शुभम से लिखवाने की समस्या मुंह बाए खड़ी हो गई थी. अदिति का हाथ खुल चुका था. शुभम की पिटाई होती तो न सिर्फ़ वो लिखना शुरू करता, बल्कि पूरी कक्षा सहमकर लिखने लगती.

जब आत्मग्लानि जागती तो अदिति प्यारभरे वाक्य भी बोलकर थोड़ी क्ले उसे थमा दिया करती थी.

उस दिन प्रिंसिपल ने निर्देश दिए थे कि फ़ाइनल परीक्षाओं से पहले तीन कक्षा-परीक्षाएं ज़रूरी हैं. कक्षा में आई तो दिमाग़ यों ही भन्ना रहा था-कब पाठ्यक्रम पूरा होगा, कब परीक्षाएं होंगी. पूरा लंच-ब्रेक प्रधानाचार्या के निर्देश खा गए थे. सुबह भी हड़बड़ी में रोज़ की तरह ही मुंह में कुछ डालने का समय नहीं मिला. घर पहुंचने पर बच्चे भी भूखे मिलते हैं तो अपने मुंह में निवाला पौन घंटे बाद ही जा पाता है. कक्षा में पहुंचते-पहुंचते कुछ तो खा लूं ये सोचकर वो एक बड़ा-सा निवाला तोड़कर मुंह में जैसे ही रखने जा रही थी, कि शुभम विद्युत गति से दौड़ते हुए उससे टकराया और एक पल में सब कुछ धराशाई...

तड़ाक! तड़ाक! पलभर में सारी तिलमिलाहट शुभम के गालों पर प्रतिध्वनित होने लगी. लेकिन शुभम भी कम न था. ऐसे कछुए की तरह गोल हो जाता था कि केवल सिर ही दिखाई देता था. ‘आज मैं इसे सबक सिखाकर रहूंगी’ ये सोचकर भूख से अकुलाई अदिति ने छड़ी उठाई और दे मारी. पलभर में ही उसके सिर से रक्त की एक मोटी धार देखकर सारी कक्षा सहम गई...

‘‘गाड़ी आगे नहीं जा पाएगी, मैम!’’ ड्राइवर के वाक्य से अदिति की तंद्रा भंग हुई.  
तंग और गंदी गली में कुछ दूर पर ही उसका घर था. वहां पहुंचते ही शुभम ज़ोर से चिल्लाया,‘‘माई जल्दी आ, तुझे अपनी मैम दिखाऊं. मैम हमारे घर आई हैं. मेरी मैम बहुत अच्छी हैं, वो मुझे बहुत प्यार करती हैं. मेरी अच्छी मैम, मेरी प्यारी मैम,’’ शुभम घर पहुंचते ही उसके क़दमों से लिपट गया था और बांहों का घेरा शिथिल किए बिना सिर ऊपर उठाकर मुस्कुराने लगा. अदिति को अपने आंख-कानों पर यक़ीन नहीं हो रहा था. जिस बच्चे को उसने हमेशा वितृष्णा से देखा, जिसकी पिटाई लगभग रोज़ की, यहां तक कि अक्सर उसे बिना बात पीटकर कक्षा को डराने का साधन बना डाला वो उसकी अच्छी, प्यारी मैम? तभी उसकी मां अचकचाई-सी आई और शुभम को उससे छुड़ाती हुई बोली,‘‘अरे-अरे, छोड़. उन्हें बिठा या योह ही परेसान किए जाएगा? आ... आप बैठो. अरे शुभम दौड़ कर समोसे ले आ. आप इसे छोड़ने आई हैं?’’

‘‘माई पता है, मैम मुझे अपनी गोद में लिटाकर लाई हैं,’’ यह कहते हुए वो एक थाली को ट्रे की तरह इस्तेमाल करके पानी रखकर पास रखी संदूकची से पैसे भी निकाल चुका था. ग़ज़ब की फुर्ती थी इस लड़के में. अदिति कहती ही रह गई,‘‘रोको, उसे. उसे आराम की ज़रूरत है. रुको...’’ पर वो
भाग गया.  

शुभम की मां लाख मना करने के बावजूद सामने रखे स्टोव पर चाय बनाती जा रही थी और अपनी धुन में बोलती जा रही थी,‘‘मुझे पता है कि वो आसानी से काम नहीं करता है, आपको तंग करता है, बताता है मुझे सब. पर मैम वो ऐसा बाप के कारण बन गया है. घरवाला रोज़ पऊआ चढ़ाकर आता था. बच्चों की पढ़ाई के लिए पैसे मांगने पर मुझे पीटता था. मुझे बचाने के लिए शुभम ने बाप से लड़ना शुरू किया तो वो उसे भी पीटने लगा इसीलिए वो पिटते-पिटते ढीठ हो गया. आपकी बहुत तारीफ़ करता है. कहता है कि मैम मुझे बहुत प्यार करती हैं. जब से आपने उसकी खिलौने बनाने के लिए तारीफ़ की है और उसे सुन्दरवाली मिट्टी दी है, तबसे तो आप उसकी प्यारी टीचर हो गई हैं. मैं उसे पढ़ने के लिए बहुत समझाती हूं, समझा-बुझाकर बाप से लड़ने से भी रोकती हूं. कहती हूं कि जब तू बड़ा हो जाएगा और बहुत-से पैसे कमाएगा, तब न मैं बापू से पैसे मांगूंगी और न वो मुझे पीटेगा. मैम, मेरी तो उम्मीद ही उसपर टिकी है. बड़ा है न!’’

चाय बनती रही और वह कहती रही,‘‘बहुत लड़ने पर भी जब घरवाले से फ़ीस नहीं निकलवा पाई तो मैंने भी काम पकड़ लिए. आप तो जानती ही हैं मैम कि स्कूल में केवल फ़ीस देने से काम नहीं चलता. आए दिन के दूसरे ख़र्चे भी तो लगे रहते हैं. बस इसी उम्मीद में हड्डियां गला रही हूं कि मेरे बच्चे पढ़-लिखकर कुछ बन जाएं, ढेर सारे पैसे कमाकर, अच्छी ज़िंदगी बसर करें, इस नरक से निकलें,’’ यह कहते हुए शुभम की मां ने एक संदूक खोल दिया, जिसमें शुभम के बनाए सुंदर खिलौने रखे थे. इतने में शुभम समोसे ले आया. उसने मां को चाय कप में छानने से मना कर दिया और थर्मोकोल का कप सामने रख दिया. उसमें चाय छानकर और समोसे की प्लेट और चाय ट्रे में रखकर अदिति के सामने स्टूल की तरह खड़ा हो गया.

‘‘इसे रख दो और तुम लेटो. तुमसे कहा कि तुम्हें आराम करना है लेकिन बात नहीं सुनते हो?’’ अदिति का भय फिर सिर उठाने लगा तो उसने डांट लगाई.

‘‘मैम मैंने आपका खाना गिरा दिया. फिर भी आप मुझे लेकर अस्पताल चली गईं और वहां से यहां... आपको भूख लगी होगी न? मैम भूख बहुत गंदी होती है. बड़ा सताती है इसीलिए मैं आपके लिए गरम समोसे तलवाकर लाया. दुकानदार से काग़ज़ की प्लेट और कप भी ले आया. मैं जानता हूं कि हमारे यहा के बरतन गंदे होते हैं, उनमें आप नहीं खा पाएंगी.’’

अदिति के स्तब्ध रह जाने का ये दूसरा मौक़ा था. इतना छोटा-सा बच्चा और इतना व्यावहारिक ज्ञान? इतना प्यार? इतनी चिंता? अदिति की आंखों में आंसू आ गए. शुभम ने तुरंत कान पकड़ लिए. तभी उसकी नज़र खुले संदूक पर पड़ी और उसे घबराकर बंद करने लगा. कहने लगा,‘‘मैम आपने मेरे खिलौने देखे? सुंदर हैं न? मैम, इसीलिए मैं पढ़ना नहीं चाहता, क्योंकि इसी पढ़ाई के कारण बापू मुझे खिलौने नहीं बनाने देता. कहता है कि पढ़-लिखकर भी अगर मेरी तरह कुम्हार ही बनना है तो पढ़ाई से क्या फ़ायदा? मुझे खिलौने बनाने का बहुत शौक़ है, मैम. पर बापू कहता है इस काम में न पैसे हैं न इज़्ज़त. मैम, मैं कोशिश तो करता हूं कि जो आप कहती हैं वो अच्छे से याद करूं, पर जो याद करना है वो है क्या ये ही नहीं समझ आता. ये सब याद करने से पैसे और इज़्ज़त कैसे मिलेगी, ये मेरे समझ में ही नहीं आता.’’

शुभम के भोले मन से निकला ये प्रश्न अदिति के मन में तीर की तरह गड़ गया. वैसे भी इतने प्यार और अपनेपन के बाद अपने अपराध-बोध से लड़ना असहनीय होता जा रहा था. वो उठ खड़ी हुई. अदिति के मन में एक झंझावात आंदोलित हो चुका था. वो शिक्षिका होकर आजतक शुभम को कुछ भी ऐसा नहीं सिखा सकी थी, जो उसके जीवन में कोई सकारात्मक परिवर्तन ला सके. पर शुभम जैसे विद्यार्थी और उसकी अनपढ़ मां ने आज उसे जो शिक्षा दी थी, उससे वो अपने पतनोन्मुखी व्यक्तित्व को एक सही दिशा ज़रूर दे सकती थी.      

एक अनपढ़ शोषित स्त्री अपने बच्चों के सुखद भविष्य के लिए हड्डियां गला रही थी और शिक्षित समाज के एक अंश के रूप में वो उसके बच्चों को क्या दे रही थी? सोचा तो कई बार था कि इन अशिक्षित लोगों के अज्ञान का फ़ायदा उठाकर स्कूल उन्हें छल रहा है, और वो इस छलावे में भागीदार बनकर ग़लत कर रही है, पर हर बार स्वार्थ ज़मीर को बहुत से तर्क देकर चुप करा देता था. स्टाफ़ रूम में भी जितनी बार बहस हुई थी अलग शब्द बंधनों में किसी न किसी द्वारा कहे एक ही वाक्य पर ख़त्म होती थी-हम सिस्टम नहीं, सिस्टम का एक पुर्ज़े हैं. हम कर ही क्या सकते हैं? लेकिन आज शुभम के भोले प्रश्न ने सारे स्वार्थी तर्कों को काट दिया था. सच ही तो कह रहा था वो. एक अति साधारण बुद्धि का विद्यार्थी रट-रट कर क्या बन पाएगा और कैसे पैसे कमा पाएगा? 

उल्टे जिस हुनर से वो पैसे कमा सकता है, उससे भी नफ़रत करने लगेगा. हां, उसे सही जीवनशैली का मार्गदर्शन और ऐसी शिक्षा मिले जो उसके अंदर के हुनर को तराशे, उसकी इज़्ज़त करना सिखाए तो ज़रूर वो पैसे और इज़्ज़त कमा सकता है. यही मार्गदर्शन देने की तो पढ़ाई की है उसने इसीलिए शिक्षित कहलाती है. यही मार्गदर्शन देने के पैसे कमाती है इसीलिए आत्मनिर्भर है. यदि किसी को सही मार्गदर्शन नहीं दे सकती तो उसे गुमराह करने का भी क्या हक़ है उसे? नहीं, उसे शुभम को सही शिक्षा देने की राह निकालनी ही होगी. पुर्ज़े सिस्टम से नहीं बनते, सिस्टम पुर्ज़ों से बनता है. वो एक पुर्ज़ा ही सही पर इतिहास गवाह है कि जब-जब कोई पुर्ज़ा ख़ुद को पूरी तरह सुधारकर शिद्दत से उठ खड़ा हुआ है उसने मशीनों को बदल कर रख दिया है...

कोई टिप्पणी नहीं:

'; (function() { var dsq = document.createElement('script'); dsq.type = 'text/javascript'; dsq.async = true; dsq.src = '//' + disqus_shortname + '.disqus.com/embed.js'; (document.getElementsByTagName('head')[0] || document.getElementsByTagName('body')[0]).appendChild(dsq); })();
Blogger द्वारा संचालित.