कहानी: वजह मिल गई

छोटे, कितने मैसेज किए व्हाट्सऐप पर...जवाब तक नहीं दिया...’’ भैया का उलाहना भरा स्वर उस ओर से सुनाई दिया. उसे अंदाज़ा था कि भैया का फ़ोन एक-दो दिन में आएगा ही. मैसेज उसने पढ़े थे, पर क्या जवाब देता उनका. न उस समय समझ पाया था, न ही अब जब फ़ोन पर भैया कहे जा रहे थे,‘‘सुन छोटे, बाबूजी अगले महीने पचासी साल के हो जाएंगे. तू तो जानता है छोटे, बाबूजी ने सारी ज़िंदगी हमारे लिए इतना कुछ किया है, अब हमारा भी तो फ़र्ज़ बनता है कि उनके अहसानों का बदला कम से कम इस तरह से तो चुकाएं. तो मैंने, मंझले ने और बड़की ने सोच लिया है कि एक बढ़िया कार्यक्रम करेंगे बाबूजी की सालगिरह पर. सबको बुलाएंगे, बाबूजी के दोस्तों को भी. सारे रिश्तेदारों को. सब कुछ-कुछ कहेंगे बाबूजी की तारीफ़ में...’’ उसके कान जैसे सब कुछ सुनकर भी कुछ न सुन पा रहे थे. फिर भी वह हां-हूं करता रहा.

‘‘तो छोटे...’’ भैया की बात अब अपने अंतिम चरण में आ गई थी. ‘‘...इसके लिए रुपयों की ज़रूरत पड़ेगी. मैं और मंझला तो अब तक तेरी भतीजियों के ब्याह के कर्ज़े में डूबे हुए हैं. थोड़ा-बहुत ही कर पाएंगे. रुपए-पैसे का हाथ तो तू ही लगा सके है लल्ला.’’

‘‘ठीक है भाई साहब, मैं बताता हूं आपको जल्दी ही,’’ उसने अस्फुट-सी आवाज़ में कहा.

‘‘देख छोटे, बात को हलके में न उड़ा देना बचवा... जल्दी ही बताना.’’ भैया ने फ़ोन काट दिया था, पर उसके दिमाग़ में झंझावत डाल गए थे वे. ‘तू तो जानता है छोटे, बाबूजी ने सारी ज़िंदगी हमारे लिए इतना कुछ किया है’ भैया के ये शब्द और अतीत के धुंधलाते, टीस पैदा करते चित्र... कहीं कोई सामंजस्य बैठ नहीं रहा था.

‘कहां था नालायक, अच्छा, तो यहां घुसा कॉमिक्स पढ़ रहा था, ले और पढ़ेगा कॉमिक्स?’ तड़ाक, तड़ाक...

‘छोड़ दो बाबूजी, अब नहीं करूंगा... पक्का, अब कोई किताब नहीं पढ़ूंगा...’

‘अरे कितना मारोगे बच्चे को, क्या जान लोगे इसकी?’

‘आ गई तुम फिर बीच में हम बाप-बेटों के? हजार बार कहा है, लुगाई हो, अपनी औकात में रहा करो...’

‘ले किताबें पढ़नी है न, ले ये पढ़...आज घासलेट डालकर आग ही लगा देता हूं, साले कामचोर. घर के कामों से जी चुराते हैं और लगे किताबें पढ़ने. अफसरी करनी है पढ़कर!’

‘नहीं बाबूजी, वे मेरी किताबें नहीं हैं, चंदू की हैं, वो मारेगा मुझे...’

धू-धू करती लपटें और उनमें राख होती किताबों का वह मंज़र अब भी याद था उसे.

धुंधलाई नज़र दूसरी ओर उठाई तो अगला चित्र सामने था...

‘कहां गया था नालायक? हजार बार मना किया है उन लौंडों-लपाड़ों के साथ बैठने को...साले जाने कहां-कहां से फोकट की बातें ले आते हैं, आए बड़े समाज सुधार करने...’

‘अरे क्या कह रहे हो, लड़का जवान हो गया है, उससे ऐसे बात करोगे क्या?’

‘तुम फिर चली आई बीच में नाक घुसाने, कहे देते हैं एक दिन इससे पहले तुम ही जाओगी जान से...हट यहां से...’ ज़ोर का धक्का और मां का दूर जा गिरना.

“अम्मा,” वह हड़बड़ाकर चीखा...

‘‘क्या हुआ सर?’’ कमरे में सफ़ाई करता नौकर चीख सुनकर भागा-भागा आया.

‘‘कुछ नहीं, बस यूं ही...’’ वह जल्दी से निगाहें बचाता हुआ कमरे से बाहर बगीचे की ओर निकल गया था.

व्हाट्सऐप पर कोई मैसेज घनघनाया था. उसने एक नज़र डाली, चंदू का मैसेज था... चंदू यानी उसका बचपन का दोस्त और गांव के सरपंच का बेटा. उसका मन ही न हुआ मैसेज खोलकर पढ़ने का.

बगीचे में हाल ही में पड़े पानी से मिट्टी महक उठी थी. उसकी आहट सुनते ही आम के पेड़ पर बैठे पंछी फड़फड़ाकर उड़ गए. उसने पैरों की स्लीपर उतार दी और भीगी घास पर पांव रख दिए. एक अजीब-सा सुकून दिल तक राह बनाता चला गया. दिमाग़ में अब भी विचारों का बवंडर छाया हुआ था. उसने अपने आप से पूछा, क्या है जो इतना परेशान कर रहा है? बात रुपयों की ही है न, तीस-चालीस हज़ार कौन-सी बड़ी बात है? पर नहीं, परेशानी रुपए देने की नहीं थी. बात तो वहीं अटकी थी कि ‘तू तो जानता है छोटे, बाबूजी ने सारी ज़िंदगी हमारे लिए इतना कुछ किया है’ और अब वह इसी के आकलन में लगा था कि क्या-क्या किया है बाबूजी ने उसके लिए. यदि एक भी ऐसी बात नज़र आ जाए, जिससे लगे कि बाबूजी को उससे प्यार था, तो वह निश्चित ही चला जाएगा.

पिता के मायने क्या थे उसके लिए, उसे कभी समझ में ही नहीं आया था. उसके लिए तो पिता यानी साक्षात काल पुरुष थे. जिनका घर में रहना यानी उसकी ठुकाई... ग़ुस्सा किसी भी बात पर हो, उतरता उसी पर था. ऐसा क्यों था, उसे कभी समझ में नहीं आया, क्योंकि यूं तो वह भाई-बहनों में सबसे छोटा था और सुना था कि छोटा सबसे लाड़ला होता है... मगर लाड़ किसे कहते हैं, यह जाने बिना ही उसका बचपन बीत गया था. मां का प्यार थोड़ा-बहुत हिस्से में आता कभी तो उस पर भी बाबूजी का खौफ़ दोनों पर हावी रहता. ‘जल्दी से यह कर ले नहीं तो बाबूजी ग़ुस्सा करेंगे. जल्दी से वह कर लो नहीं तो बाबूजी रोटी खाने नहीं देंगे.’ जब आठवीं कक्षा में आया तो इतिहास की किताब में अंग्रेज़ों के अत्याचारों के बारे में पढ़ते हुए कितनी ही बार उसने बाबूजी की तुलना उनसे कर डाली होगी... और शायद इसीलिए अत्याचार क्या होते हैं, उसे समझने में तकलीफ़ न होती थी.

बाबूजी केवल उस पर ग़ुस्सा होते हों ऐसा भी नहीं था, उनके ग़ुस्से के शिकार बड़े भैया और मंझले भैया भी होते थे, पर उन दोनों में और उसमें क़रीब दस साल का अंतर था. जवान बेटों की बजाय छोटे पर हाथ उठाना बाबूजी को ज़्यादा मुफ़ीद लगता होगा शायद. कब और कितने तमाचे, लात-घूंसे, बेंत खाए होंगे उसने, अब तो गिनती भी भूल चुका था वह.

घर से दूर कैसे रहा जाए, इस फ़िराक़ में स्कूल उसकी ढाल बन गया था. स्कूल की चारदीवारी उसके लिए स्वर्ग-सी सुखदायी थी, जहां पढ़ाई के छह घंटों में न बाबूजी थे, न उनके कटाक्ष थे. स्कूल से लगी यह लगन धीरे-धीरे किताबों से लगने लगी. स्कूल में हेडमास्टर साहब ने एक छोटा-सा पुस्तकालय बना रखा था, जिसमें कुछ पुस्तकें लाकर रखते थे वे. हालांकि अब देखा जाए तो उन्हें स्तरीय पुस्तकें नहीं कहा जा सकता था, मगर उस समय तो वे जैसे वरदान थीं उसके लिए... कोर्स की किताबों से बढ़ती दोस्ती कॉमिक्स, उपन्यास तक जा पहुंची, धीरे-धीरे पहुंच रामायण-महाभारत तक भी हुई. उसे याद आए गांव के हनुमान मंदिर के पुजारी बाबा, जब कभी बाबूजी से मार खाता तो मुंह बिसूरता, सिसकता हुआ मंदिर में जा बैठता. पुजारी बाबा उसके रुआंसे चेहरे को देख कहते,‘लगता है बबुआ आज फिर ठोक दियो है लालाजी ने... आ जा बचवा, ले लड्डू खा ले.’ प्रसाद का लड्डू देते हुए बाबा उसके सर को हलके से सहला देते थे. उस स्पर्श जैसा रूहानी एहसास नहीं था कोई उस समय. वहां बैठकर बाबा से रामायण सुनता, कभी वह ख़ुद भी पढ़ता और बाबा बीच-बीच में कुछ जोड़ते जाते.

‘मांग ले बचवा, जो मांगना है हनुमान जी से, आज तक कोई खाली हाथ न लौटा इस मंदिर से.’ पुजारी बाबा के कहने पर वह सिंदूर पुते हनुमान जी को ग़ौर से देखता और लगता मानो वे उसकी सहायता को दौड़े आ रहे हों. डूबते को तिनके का सहारा होता है. ‘हे हनुमान जी महाराज, बस एक बार इस गांव से बाहर निकाल दो, बस उसके बाद और कुछ न मांगूंगा.’ न जाने किस झोंक में हनुमान जी की पेटी में एक चिट्ठी डाल आया था वह.

पर हनुमान जी महाराज के दरबार में उसकी सुनवाई न हो सकी थी. उस वक़्त गांव में कोई कॉलेज न था, गांव के कई बच्चे पड़ोस के शहर के कॉलेज में पढ़ा करते थे और उसे पूरी उम्मीद थी कि इंटर के बाद कम से कम आगे पढ़ने के नाम पर गांव से बाहर निकलने को मिलेगा. पर हाय री क़िस्मत, उसके अगले साल चुनाव होने थे, सो वोट के चक्कर में उसके गांव में कॉलेज खोलने का लंबित पड़ा प्रोजेक्ट गति पकड़ गया. उसके इंटर होते-होते गांव का कॉलेज शुरू हो गया.

हालांकि गांव में कॉलेज खुलना एक तरह से उसके लिए अच्छा ही हुआ, नहीं तो खेती और दूध डेरी के काम में हाथ बंटाने की ज़िद पर अड़े बाबूजी ने उसकी पढ़ाई-लिखाई छुड़वा ही देनी थी. बड़े भैया ने बाबूजी के साथ खेती संभाल ली थी और उसके और मंझले भैया के हाथ में डेरी का काम आया था. वह फिर भी ख़ुश था, कम से कम बाबूजी से रोज़ पाला न पड़ता था. सुबह डेरी का काम निबटाकर वह कॉलेज निकल जाता, वहां लेक्चर और फिर लाइब्रेरी में किताबों से जूझता रहता. शाम ढले डेरी का काम करके देर रात ही घर आता. अम्मा तो अब थकने लगी थीं मगर मंझली भाभी बेहद लाड़ करती थीं. अक्सर कहतीं,‘लल्ला, तुममें तो हमें अपना बीर (भाई) नजर आवे है.’ फिर भी कुल मिलाकर उसका घर से नाता खाने-पीने की जुगत तक का ही रह गया था.

‘लड़का बड़ा हो गया है, डेरी का काम भी संभालने लगा है, उसके हाथ थोड़ा रुपया खर्चे के लिए...’ मंझले भैया के इस तर्क से सहमत हो बाबूजी ने महीने के 200 रुपए मां के हाथ में रखने शुरू किए. यह कहकर,‘दे देना उसे, और कह देना, मेहनत की कमाई है, संभलकर खरचे. कॉलेज की फीस इसी से भर दे.’ उसके लिए बाबूजी का हर तर्क निराधार, निरर्थक था. एक खाई-सी बन चुकी थी मन में, उनकी छाया तक से जितनी दूर रहा जा सके, वह यही कोशिश किया करता था.

एमए का अंतिम वर्ष था. अपनी ज़िंदगी इस घर में तो हरगिज़ जाया नहीं करनी है, इस बारे वह स्थितप्रज्ञ था. सरकारी नौकरी के लिए आवेदन दे दिया, और एक मित्र की शादी के बहाने से शहर जाकर परीक्षा भी दे आया. उम्मीद नहीं थी कि चुन लिया जाएगा.

कॉलेज की छुट्टियां हो चुकी थीं. एक दिन रात गए घर पहुंचा तो देखा बाबूजी दालान में विराजमान थे. इस समय तक अमूनन वे सो चुके होते थे, अतः उन्हें वहां देखकर किसी अनिष्ट की आशंका हो ही गई थी उसे.
क़दम रखते ही एक चिट्ठी उसके ऊपर आ फिंकी...‘क्या है ये?’ गरजे थे वे.

सरकारी चिट्ठी थी और चिट्ठी खुली हुई थी, चूंकि उस समय निजता की अवधारणा होती ही नहीं थी घरों में.

‘जब पढ़ ही ली है तो आप ही बता दो,’ उसने धीमे मगर दृढ़ शब्दों में कहा था.

‘लच्छन दिख ही रहे थे साहबजादे के... शहर जाकर नौकरी करेंगे, अरे पुश्तैनी जमीन-जायदाद है, दूध का कारोबार है, पर इन्हें तो शर्म आवे है खेती-किसानी करने में. खबरदार जो मेरे कहे बगैर एक कदम भी बाहर निकाला घर से. फाड़ के फेंको उस चिट्ठी को... नहीं तो अकल ठिकाने लगा दूंगा सारी’ ज्वालामुखी फट पड़ा था.

‘मैं यह नौकरी करने वाला हूं.’ पता नहीं उसमें मुंहज़ोरी का साहस कहां से आ गया था.

‘हरामखोर, पढ़-लिखकर यही तमीज सीखी है? फाड़ के फेंको इसे, यहीं रहोगे तुम.’

‘मुझे यहां नहीं रहना है.’ उसका स्वर अभी भी दृढ़ता लिए हुए था.
‘नहीं रहना है तो अभी चलते बनो. उठाओ अपना झोला और निकल जाओ घर से बाहर. खबरदार जो फिर यहां का रुख किया...साहब बनने चला है...’

फिर बात न संभल सकी थी. उसने आव देखा न ताव, अपना झोला और किताबें उठाईं. मां रोने लगी, भाभियां मनुहार करती रहीं, भाई समझाने आए, मगर बाबूजी के अड़ियल रवैये और उसकी दृढ़ता के आगे किसी की एक न चली. बाबूजी ने भड़ाक से उसके मुंह पर दरवाज़ा भेड़ दिया.  

रात गए निकल तो आया, पर जाता कहां? शहर के लिए ट्रेन सुबह चलती थी. रोष और तनाव के उस आलम में वह हनुमान जी के मंदिर में आ बैठा. मंदिर में आहट सुनकर पुजारी बाबा बाहर आए. ‘क्या हुआ बचवा, इतनी रात बीते तुम यहां?’

उसकी आंखें नम थीं, इस तरह घर से निकलना होगा, यह तो नहीं सोचा था कभी. उसने हाथ में पकड़ी चिट्ठी पुजारी बाबा को थमा दी. वे मानो सब कुछ समझ गए थे. अपना स्नेहिल हाथ उसके सिर पर फिराते हुए बोले,‘आओ बचवा, रोटी खा लो और सो जाओ कोने में. सुबह निकल जाना शहर की ओर, हनुमान जी सब भला करेंगे.’   

सुबह पुजारी बाबा ने एक गिलास दूध और प्रसाद के लड्डू के साथ सौ का नोट उसके हाथ में रख दिया था. ‘रख लो बचवा, काम आएंगे. खूब तरक्की करना.’ उसने अनायास झुककर उनके पांव छू लिए थे. उनका स्नेह भरा हाथ उसके सिर को सहलाने लगा था. आज सोचता है तो लगता है पुजारी बाबा का सच्चे दिल से दिया गया आशीर्वाद ही फलीभूत हुआ था उसके जीवन में.

शहर जाकर एक धर्मशाला में रहने की जुगत भिड़ाई. पहले भी दोस्तों के साथ वहां आ चुका था, अतः ज़्यादा परेशानी नहीं हुई. हफ़्तेभर बाद नौकरी पर हाज़िर होना था.

घर से दूर आने का, बाबूजी की छाया से दूर रहने का उसका सपना पूरा हो गया था. नौकरी में भी मन लग गया था, काम में मज़ा आने लगा था. पहले-पहल अक्सर सपने में बाबूजी की चिंघाड़ सुनाई देती और वह घबराकर जाग जाता. फिर धीरे-धीरे सब सहज होता गया. अम्मा की याद आती थी, मगर उनका ख़्याल रखने के लिए भाभियां थीं वहां. पुजारी बाबा के घर चिट्ठी भिजा दी थी कि अम्मा को कुशल क्षेम बता दें. अपना पता भी भिजवा दिया था. एक बार घर छूटा तो छूट ही गया. भैया-भाभी महीने-दो महीने में शहर आकर मिल जाते. इस बीच घर में फ़ोन लग गया था सो बाबूजी के घर में न होने पर अम्मा से भी बात हो जाती. उसके जाने का दुख अम्मा ने जी से लगा लिया था, तीसरे ही साल चल बसीं. उनकी क्रिया पर घर गया, मगर न तो बाबूजी ने बातचीत की पहल की, न उसे बातचीत की आवश्यकता महसूस हुई. टूटे धागे टूटे ही रह गए और वह वापस चला आया.

जीवन अपनी अनवरत धार से बहता रहा, भाइयों का परिवार फलता-फूलता गया. जैसे उसने घर को भुला दिया था, बाबूजी ने भी उसे भुला दिया था.

मां थीं तब तक शादी करके घर बसाने पर ज़ोर देती रहती थी, अब यह कहने के लिए कोई न रहा था. उसने अपने दफ़्तर की एक सहकर्मी से कोर्ट में जाकर शादी रचा ली थी और घर पर सूचित कर दिया था. लड़की विजातीय है, यह सुनकर बाबूजी का रहा-सहा स्नेह भी जाता रहा था. उसके लिए घर के द्वार बंद ही से थे. हां, भैया और भाभी ज़रूर संपर्क बनाए हुए थे. पानी में लाठियां मारने से पानी अलग नहीं होता न.

कुछ साल बाद गांव में पशुओं की महामारी फैली और भैंसें एक-एक करके चल बसीं. डेरी का व्यवसाय बंद हो गया, खेती पर पहले ही से मौसम की मार पड़ी हुई थी. अचल संपत्ति बेचने की नौबत आ गई. उसने पहले ही पैतृक संपत्ति पर से अपना हक़ छोड़ दिया था, और इसी से शायद भाइयों से संबंध बने हुए थे. बाबूजी भी शरीर और मन दोनों से ढलने लगे थे. अहंकार को फलने-फूलने के लिए पैसे और शरीर दोनों ही की गर्मी ज़रूरी होती है और दोनों ही उनके हाथ से जाते रहे थे. घर पर भाइयों का एकछत्र साम्राज्य हो गया था. अचानक कार के हॉर्न से उसकी तन्द्रा टूटी...

इस अंतराल में उसने कितनी ही बार पीछे मुड़कर देखा, स्मृतियों के गलियारे का कोना-कोना झांक आया वह कि एक भी स्नेहिल पल मिल जाए बाबूजी के साथ बिताया हुआ, कोई एक वजह मिल जाए तो वह सब कुछ भुलाकर चला जाएगा उनके समारोह में... पर व्यर्थ...

रात इसी ऊहापोह में बीती. झूठ वह बोलना नहीं चाहेगा और सच बोलना उचित नहीं होगा.

सुबह कुछ सोचकर भैया को फ़ोन लगाया,‘‘भैया, अपना खाता क्रमांक और कोड भेज दीजिए. 30 हज़ार काफ़ी होंगे?’’

‘‘हां, हां छोटे इसमें तो सब हो जाएगा. तू आएगा न?’’

‘‘आज रुपए डाल दूंगा... आने का अभी सोचा नहीं कुछ... कोशिश करता हूं पर तय नहीं है...’’ कहकर उसने फ़ोन काट दिया था. राहत भरी सांस लेकर वह सैर पर निकल पड़ा था.  

अचानक व्हाट्सऐप पर आए संदेश से उसकी विचार श्रृंखला टूटी. उसने वह मैसेज देखने के बाद चंदू का भी संदेश देखा. कोई फ़ोटो साझा किया था उसने. उसने फ़ोटो पर क्लिक किया. नीचे लिखा था,‘आज बाबूजी का सामान समेट रहे थे, तो उसमें यह फोटू मिला. बाबूजी ने बताया तुम्हारे बाबूजी का है और गोदी में तुम हो. देखो कैसे मज़ेदार दिख रहे हो...हा...हा...हा...’

उसने फ़ोटो को ज़ूम किया था. काले-सफ़ेद पुराने छायाचित्र में बाबूजी दिखाई दे रहे थे, भरा-पूरा गठन, चेहरे पर दुर्लभ मुस्कान और स्नेह, उनकी गोदी में वह था जिसे बड़े प्यार से वे दुलार रहे थे... उसकी आंखें नम हो गईं.
उसे जाने की वजह मिल गई थी.

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