कहानी: रंगत गुलाबी

बात भले ही कितने ही सरल और मज़ाकिया तरीक़े से कही गई हो, सर्र से तीर की तरह जाकर धंस गई थी गरिमा के मन में. घर की व्यवस्थाओं में लगी औरत जाहिल और गंवार, जब उसी औरत को घर के बाहर एक अवॉर्ड भी मिल जाए तो वाहवाही? और घर में उसके समर्पण का क्या? यहां तो चाहे खाल की जूती ही बनाकर सबको क्यों न पहना दे, यही कहा जाएगा कि थोड़ी चुभ रही है जूती...ससुरालवालों या पति की ओर से यश न मिले, समझ में आता है. मगर अब बच्चे भी उसी स्वर में? ये तो अच्छा हुआ कि बहू रसोई में थी, वरना कितना नीचा महसूस करती उसके सामने. और ऐसा पहली बार नहीं, बार-बार होता जा रहा था. कितने उत्साह से खाना बनाने में जुट गई थी वह जब अनुभा का फ़ोन आया था,‘मां ऑफ़िस के काम से पूना आ रही हूं, लंच घर पर ही करूंगी. शाम की फ़्लाइट है वापसी की...’

अनुभा, गरिमा की ब्याहता बेटी, जो एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में उच्चाधिकारी है. उसका एक पैर हमेशा फ़्लाइट में ही रहता. कभी मिलकर बैठने बात करने का समय ही नहीं मिलता अत: अनुभा का फ़ोन आते ही गरिमा उत्साह से भर गई थी. उसने आग्रह करके आदित्य और बहू को भी रोक लिया था. परेश ने ज़रूरी मीटिंग का वास्ता देकर लंच पर रहने में असमर्थता दिखाई थी, मगर वे शाम को एयरपोर्ट जाने वाले थे.  

अनुभा की फ़्लाइट सुबह 9 बजे की थी. दफ़्तर का काम निबटाकर एक बजे आती हूं कहती-कहती अनुभा ढाई बजे पहुंची. उसे देखकर बस एक उलाहना ही तो दिया था गरिमा ने,‘‘अभी भी वैसी की वैसी हो अनु, घर की तो सुध ही नहीं. मां को तो बस इंतज़ार ही करना है. कम से कम आज तो समय से आती, अब दो घंटे में जाने की रट लगाओगी...’’

‘‘मां, आप भी न... बाहर काम करने वालों की जान को लाख मुसीबतें होती हैं. सब इतना आसान नहीं होता है, जैसा आपको लगता है,’’ अनुभा खीझकर बोली.

‘‘छोड़ो न दीदी, मां क्या जानें भला बाहर के संकट? उनकी तो ज़िंदगी घर में कट गई आराम से एक परफ़ेक्ट हाउस वाइफ़ बनकर. उनके लिए तो घर मेरा मंदिर, घर मेरी पूजा...’’ आदित्य ने अनुभा को मज़ाकिया लहजे में समझाते हुए कहा और दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े. उनकी हंसी किसी तीर की तरह धंस गई थी गरिमा के कलेजे में. उसका चेहरा क्षोभ से काला पड़ गया था और आंखें पनीली हो गई थी. मां का चेहरा देखकर बच्चे समझ गए कि इस बार मां ने यह सब सहजता से नहीं लिया है.

‘‘सॉरी मां, हमारा वे मतलब नहीं था...’’ आदित्य ने कहा.

उस समय तो गरिमा ने नॉर्मल होने का दिखावा किया मगर अनुभा के जाते ही अपने कमरे में बंद हो ज़ार-ज़ार रो पड़ी थी वह. हाउस वाइफ़...शब्द हथौड़े की तरह चोट कर रहा था उसके दिमाग़ पर. कौन थी गरिमा? एक जाहिल, गंवार, अशिक्षित स्त्री, जिसे बच्चे जब जी में आए लताड़ सकें. जिसकी हंसी उड़ा सकें? रोते-रोते जब वह थक गई तो धीमे क़दमों से उठकर अलमारी से अपनी फ़ाइल निकाली. फ़ाइल में रखी एमए साहित्य, एमए पत्रकारिता जैसी कई डिग्रियां उसे मुंह चिढ़ा रही थीं. ढेरों इनामी प्रमाणपत्र, छपी हुई रचनाओं की कटिंग्स... देर तक वह हसरत से हाथ फेरती रही उन पर. मानो अपना खोया हुआ आत्मविश्वास, खोई हुई पहचान पुन: पाना चाहती हो.

शादी के बाद नौकरी नहीं छोडूंगी, इसी शर्त पर तो गरिमा ने परेश से शादी के लिए ‘हां’ की थी. अच्छी ख़ासी नौकरी थी उसकी और एक से भले दो कमाऊ हाथ, यही सोचकर परेश ने उसकी शर्त मान ली थी. अनुभा के होने तक सब ठीक चलता रहा, मगर अनुभा के कुछ माह की होते ही परेश की मां चल बसीं. इतनी छोटी बच्ची को कौन संभाले? यह यक्ष प्रश्न सामने खड़ा था. परेश ने गरिमा को सालभर का ब्रेक लेने को कहा. कोई और विकल्प ही नहीं था, न चाहते हुए भी गरिमा को ब्रेक लेना ही पड़ा. अनुभा डेढ़ साल की हुई तो उसके लिए बाई का बंदोबस्त करके अनुभा ने फिर नौकरी जॉइन की...मगर चीज़ें उतनी आसान नहीं रह गई थीं. छह महीने बाद ही गरिमा और परेश की ज़रा-सी असावधानी के परिणामस्वरूप सामने आया तीन महीने का गर्भ... गरिमा हतप्रभ थी, इस अनचाहे मेहमान के लिए न तो शारीरिक तैयारी थी, न ही मानसिक. और फिर एक ब्रेक...

आदित्य का जन्म हुआ. दुबला-पतला बिल्कुल कमज़ोर बच्चा, दिन-रात, रो-रोकर हलकान किए रहता. घर से डॉक्टर के क्लीनिक की दौड़ ही ख़त्म नहीं होती थी गरिमा की. इसी समय परेश का प्रमोशन हुआ, काम बढ़ गया, काम का दायरा और टूर भी बढ़ गए. घर में रहते तो भी घर ऑफ़िस ही बना रहता. दोनों बच्चों की ज़िमेदारी गरिमा के कंधों पर आ टिकी. इस बार शुरू हुआ ब्रेक सालोंसाल खिंच गया. बच्चे बड़े हुए, स्कूल जाने लगे और इस बीच गरिमा अपने काम, द़फ्तर सबको भूल बस घर की व्यस्तताओं में मस्त हो गई. जब कुछ व़क्त मिलता तो थोड़ा लिख लेती, वह कहीं छप जाता और मन को अपने कुछ ख़ास होने का एहसास दे जाता.

अनुभा शायद नवीं कक्षा में थी जब अचानक सावी घर आ धमकी थी. उसकी क्लासमेट रही थी वह... बोल्ड और बिंदास सावी. बिना किसी लाग-लपेट के बोली, ‘‘गरिमा डियर, मैं एक मैगज़ीन लॉन्च कर रही हूं और उसके संपादकीय समूह में मुझे तुम्हारी ज़रूरत है. अगले सोमवार से जाओ.’’

घर में कोई अव्यवस्था न होने पाए, इस शर्त पर परेश की सहमति मिल गई. बच्चे भी समझदार थे, अपना-अपना काम निबटा ही लेते थे. सालों बाद गरिमा का सफ़र फिर शुरू हुआ. साहित्यायन का पहला अंक छपा, उसे अच्छा प्रतिसाद मिला. गरिमा का काम बढ़ा, पूछ-परख बढ़ी. थकी-हारी घर आती तो बच्चे शिकायत करते,‘वो दिन कितने अच्छे थे, जब मां हमेशा सामने रहती थी.’  वह मुस्कुरा देती थी.

एक दिन काम वाली बाई भेद भरे स्वर में बोली,‘‘दीदी, बच्चे बड़े हो रहे हैं, उन्हें मां-बाप की देखरेख की ज़रूरत होती है. आप और साहब बाहर रहते हैं, बच्चे घर में दिन भर अकेले... कहीं कोई ऊंच-नीच हो गई तो...?’’

‘‘अरे, दोनों बहुत समझदार हैं. ऐसा कुछ नहीं होगा,’’ गरिमा ने हंसकर कहा था.

मगर ऊंच-नीच तो हो चुकी थी. एक दिन कुछ काग़ज़ घर पर छूट गए थे, उन्हें लेने दोपहर को अचानक घर पहुंची तो घर के सामने दो गाड़ियां खड़ी दिखीं. घर में घुसी तो दो अजनबी लड़कों को घर में घुसा पाया. एक लड़का आदित्य के साथ सिगरेट का धुआं उड़ा रहा था और दूसरा अनुभा के साथ कमरे में. सारा दृश्य देखते ही उसके तन-बदन में आग लग गई थी. दोनों लड़कों को हाथ पकड़कर बाहर घसीटा. उस दिन पहली बार गरिमा का हाथ उठा और उठता ही चला गया. कड़ा रुख़ अपनाकर मामला रफ़ा-दफ़ा किया गया, मगर इस बार गरिमा के करियर पर ब्रेक नहीं, फ़ुल स्टॉप लग गया था. बच्चों की परवरिश, पढ़ाई और करियर इन्हीं बातों को उसने लक्ष्य बना लिया था.

अचानक एक तेज़ आवाज़ हुई. शायद कोई विमान घर के ऊपर से गुज़रा था. गरिमा की सोच अनवरत थी-एक स्त्री तत्परता से घर-बाहर का मोर्चा संभाल सके इसके लिए उसे भी परिवार के सहयोग और ईमानदार रिश्तों की आवश्यकता होती है. आज मेरी हंसी उड़ा रहे ये बच्चे अपनी ग़लतियां कितनी आसानी से भुला देते हैं...? यह भी भूल जाते हैं कि यदि उनकी मां करियर विमन से होममेकर न बनी होती तो वे करियर की इन ऊंचाइयों को छू भी न पाते, किसी गर्त में डूबे होते.
प्रतिमा ने काग़ज़ संभालते हुए कड़वाहट को झटकने का उपक्रम किया, तभी फ़ाइल में से कार्ड गिरा-सावी मेहरा, साहित्यायन... अचानक गरिमा के मन में एक विचार कौंधा. उसने सावी को फ़ोन लगाया.

‘‘हाय गरिमा, बोल कैसे याद किया?’’ पचास की उम्र में भी सावी उतनी ही ज़िंदादिल थी.

‘‘सावी. मैं वापस आना चाहती हूं. कोई स्कोप है क्या?’’

‘‘गरिमा, इज़ दिस यू? आई डोंट बिलीव...! ग्रेट, सुबह ग्यारह बजे गाड़ी भेजती हूं. तैयार रहना, देख लेंगे बेस्ट क्या हो सकता है.’’  

रात को डाइनिंग टेबल पर गरिमा अपेक्षाकृत शांत थी. डिनर ख़त्म होने के बाद संतुलित शब्दों में उसने अपनी बात शुरू की,‘‘अब घर में बैठे-बैठे मैं उकताने लगी हूं. मैं कल से साहित्यायन वापस जॉइन कर रही हूं.’’

 ‘‘वॉट?’’ आदित्य का मुंह खुला रह गया था.

परेश ने सहमति में सिर हिला दिया था. बहू असमंजस में थी.

आदित्य ने रुष्ट होकर कहा,‘‘मां, ये क्या बचपना है? हमारे ज़रा से मज़ाक का ये नतीजा?’’

‘‘मज़ाक नहीं आदित्य, बड़े दिनों से मन में तो था, मगर डिपार्चर पॉइंट नहीं मिल रहा था. वो आज तुम लोगों ने दे दिया.’’

‘‘मां, आप जानती हैं हम दोनों वर्किंग हैं... ऐंड नाउ वी आर प्लानिंग फ़ॉर अ चाइल्ड... उसकी देखभाल...’’

‘‘घर में फ़ुल टाइम मेड है आदित्य, फिर ज़रूरत पड़ी तो बहू ब्रेक ले सकती है. मैंने भी लिया था, तुम्हारे और अनुभा के लिए. एक बार नहीं दो बार...’’ अंतिम शब्दों को गरिमा ने मानो हौले से चबाते हुए बाहर उछाला था,‘‘जीवन निकल गया इस आपाधापी में...अब थोड़ा-सा मन जैसा मुझे भी जीने दो. अपने आपको पहचानने दो...’’ वह कुर्सी खिसकाकर उठ खड़ी हुई.

‘‘पापा, आप समझाइए न मां को. आख़िर हमारे बारे में भी तो सोचना चाहिए उन्हें... आदित्य ने शिकायती लहजे में कहा.’’

‘‘तुम्हारे-मेरे बारे में सोचकर ही तो वह दो बार आसमान तक पहुंचकर अपने पंख कतर चुकी है आदित्य, अब उसे भी उड़ लेने दो एक ऊंची उड़ान... मनचाही ज़िंदगी जीने का हक़ जैसा हमें है, वैसा उसे भी तो है ना?’’ परेश का गंभीर स्वर सुनकर आदित्य जड़ रह गया था. सीढ़ियां चढ़ती गरिमा के चेहरे पर तसल्ली भरी मुस्कान फैल गई थी.

अगले दिन की तैयारी करके गरिमा बड़ी शांति की नींद सोई. जानती थी कि आने वाली सुबह की रंगत उसके लिए कुछ ख़ास थी-गुलाबी, स्निग्ध और आशाओं भरी.

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