कहानी: घी-शक्कर

अनीसा ख़ूबसूरत थी. इतनी ख़ूबसूरत कि अक्सर कॉलेज परिसर में उसके प्रवेश करते ही कोई न कोई कह देता,‘‘लो ब्यूटी क्वीन आ गई.’’

और उस दिशा में बिना देखे ही सब समझ जाते कि अनीसा देवी पधार रही हैं. आप जानो कि भगवान ने एकदम से सांचे में ढाल कर बनाया है इसे, सॉरी अल्लाह ने. इच्छा तो सब रखें पर कालेज के आधे से ज़्यादा लड़कों की हालत ये कि अनीसा अगर आंख भर देख ले तो उनकी नज़र बस इस मारे झुक जाए कि अपन इसके आगे लगते कहां हैं? और इधर सुरजीत को आप यों समझ लो कि अनीसा की जोड़, हेंडसम इतना कि सौ लड़के खड़े हों तो भी बार-बार उसी पर नज़र जाए. समझ गए होंगे आप, अनीसा और सुरजीत यानी इस प्रेमकथा के हीरो और हिरोइन.

दोस्ती ऐसी कि एक-दूजे के बिना एक दिन काम नहीं चले. और क्या बोलूं? हां, पढ़ने में हर रोज़ का कॉम्पिटिशन भी. मतलब क्लास में भी और डिबेट में भी दोनों एक-दूजे से बढ़-चढ़कर बोलने पर आमादा. सब मानते थे कि इन जैसा कॉलेज में दूसरा जोड़ा नहीं. पर इस कहानी की सबसे बड़ी अड़चन वही है, जो आप सोच रहे हैं यानी लड़की मुसलमान और लड़का हिन्दू. घर में बात करो तो मार-कुटाई की नौबत और बाहर ख़बर हो तो दंगा. पर साब, जब बोल दिया कि ये जो कहानी है, ये प्रेमकथा है तो दोनों को मिलवाना तो पड़ेगा, बोले तो, संगम होगा... होगा... और होगा. पर कैसे?

आप अगर समझ रहे हो कि दोनों के बीच प्रेम कॉलेज में पनपा तो ग़लत. बल्कि असल में बहुत ही कम सहपाठी हैं, जिनको इनके इश्क़ में गिऱफ्तार होने की ज़रा भी आशंका हो. जो थोड़े से साथी इस बारे में जानते हैं, उनके बारे में आगे बताऊं तो चलेगा ना? तो यहां से अपन कहानी के फ़्लैश को थोड़ा-सा बैक में लिए चलते हैं यानी अनीसा और सुरजीत जब सातवीं कक्षा में पढ़ रहे थे. तब जो हुआ, वो भी सच बताऊं तो थोड़ा फ़िल्मी ही था.

क्या हुआ कि अनीसा जिस गली का शॉर्टकट पकड़कर स्कूल से घर लौटती, वो कई बार सुनसान रहती थी. जिस शाम दोनों मिले, उस दिन भी ऐसा ही था. सुरजीत काफ़ी पीछे चल रहा था. तभी अनीसा को एकाएक तीन लड़कों ने घेर लिया. अनीसा भी वैसे तो कमज़ोर नहीं थी, अपने बस्ते से मारने, सामना करने लगी, पर थी तो तीन के आगे एक. एक ने बस्ता ही पकड़ लिया. अनीसा को लगा, ये बस्ता ले भागे तो स्कूल ही शायद बन्द कर दिया जाए.

एक हाथ और एक पैर से मुक़ाबला करती भी तो कितना? चिल्लाने-रोने लगी. इस बीच पूरे सीन को किसी सिनेमा की तरह देखते हुए सुरजीत क़रीब आ गया.

अब आप जानिए कि अपने सुरजीत ने नैतिकता का कोई पक्का पाठ-वाठ नहीं पढ़ रखा था. बस, उसे इतना पता था कि ये जो लड़की रोज़ उसके कभी आगे, कभी पीछे स्कूल से लौटती है, ये उसी के स्कूल में पढ़ती है. और हां, यह भी कि मुसलमान है, पर दिखती अच्छी है. तो हुआ ये कि पहले तो उसने समझा कि इन लोगों में कोई झगड़ा-वगड़ा हो गया है.

आपस में मारापीटी चल रही है. मगर जब अनीसा चिल्लाने-रोने लगी तो माजरा उसके पल्ले पड़ा. दौड़ लगा दी उसने. जो बस्ता खींच रहा था, उसे सबसे पहले पटका. फिर तो अनीसा भी भिड़ गई. ऐसा मारा दोनों ने कि भागते ही बना तीनों से.

छिल गए थे दोनों के हाथ-पैर. चोटों को निहारते, गली के कोने तक पहुंचते दोनों को पता चल गया कि कक्षा एक ही है, बस, सेक्शन अलग हैं. सुरजीत अनीसा के घर दरवाज़े तक गया, अन्दर जाने से मना करते हुए बोला,‘‘वो देख, वो पीछेवाली गली में जो इमली दिख रही है ना? वहीं रहता हूं मैं.’’

फिर शायद थोड़ा संकोच हुआ तो घर बताने का औचित्य सिद्ध करते कहा,‘‘कभी कोई डिफ़िकल्टी हो तो आ जाना... किसी को साथ लेकर.’’

सुरजीत की बात सुनकर अनीसा खरोंचों पर हो रही जलन पर फूंक मारते हुए भी मुस्कुरा दी. लेकिन अनीसा को अपना घर बताना, उसी शाम सुरजीत के माथे आ गया. घर पहुंचकर चोटों पर हल्दी-तेल लगवाया ही था कि देखा अनीसा अपनी अम्मी के साथ दरवाज़े पर खड़ी है. वो हुआ यों कि पूरी घटना सुनकर अम्मी को लगा कि उस बच्चे को देखकर आना चाहिए, जिसने बेटी को बचाया. और चन्द मिनिटों में सुरजीत की बेबे कहकर पुकारी जानेवाली मां और अनीसा की अम्मी ऐसी हो गई जैसे जनम की सहेलियां हों. उस दिन के बाद एक-दूसरे के घर आना-जाना यों शुरू हुआ कि वो जिसे कहते हैं घरोपा, वो पनप गया. ऐसे ही एक दिन अनीसा बेबे के साथ गेहूं बीनने बैठ गई थी, तब बेबे को चश्मा लगाए देख, उसने ज्ञान बघारते हुए कहा था,‘‘बेबेजी, एक बात कहूं?’’

‘‘हां बोल री मेरी बेटी,’’ बेबे ने प्यार उड़ेलते हुए कहा और अनीसा बोली,‘‘मेरी मानो, आप रोज़ सुबह उठते ही एक चम्मच घी और एक चम्मच शक्कर चाट लिया करो.’’

‘‘क्या होगा उससे?’’ बेबे ने पूछा तो अनीसा ने समझाया,‘‘आपका ये क़रीब का चश्मा है ना, ये बस महीनेभर में उतर जाएगा. पर घी-शक्कर आपको पूरे तीन महीने तक चाटते रहना है.’’

बेबे ने अनीसा का कहना तो नहीं माना, लेकिन उस दिन से यही उसकी पहचान बन गई. उसे घर में आता देख बेबे कहती,‘‘आ गई मेरी घी-शक्कर.’’

कभी-कभी तो बहुत ज्ञान बघारने पर अम्मी भी अनीसा को प्यार से छेड़ बैठतीं,‘‘अब रहने भी दे तू, ज़्यादा घी-शक्कर मत कर.’’

इसी बीच एक बार शहर में सांप्रदायिक तनाव हो गया. अनीसा कुछ दिन घर से नहीं निकली मतलब सुरजीत के घर नहीं आई. तभी एक रोज़ बेबे ने उसे याद करते हुए कहा था,‘‘कब आएगी रे मेरी घी-शक्कर? सच बोलती है तू, ये लोग घी-शक्कर जैसे आपस में मिलेंगे नहीं, तब तक हमारी नज़रें ठीक नहीं हो सकतीं. पर अब इन दंगाइयों को कौन बताए?’’

कुछ साल गुज़र गए. दोनों कॉलेज में पहुंच गए. तो अब फ़्लैश बैक से थोड़ा वापस लौटते हुए, उस दिन का रहस्य उजागर कर दूं कि जब गलियारे के ऊपर से बड़ी भाभी ने सुरजीत को अनीसा का हाथ पकड़ अपनी ओर खींचते और फिर क़रीब लाकर गले से लगाते देखा. वो कुछ क्षण इंतज़ार करती रही कि अनीसा अब सुरजीत के गाल पर रेपट धरेगी, तब धरेगी, पर अनीसा ने विरोध करना तो दूर, सुरजीत के सीने पर अपना पूरा का पूरा माथा ही धर दिया. उस समय तो बड़ी भाभी कुछ नहीं बोलीं. सांस रोककर देखती रहीं, बातें सुनती रहीं. पर फिर थोड़ी देर बाद बेबे के पास पहुंची और सूचना दी,‘‘सुनो बेबे, वो मरजाणी मुसट्टी अनीसा मेरे वीर सुरजीते से शादी के सपने देख रही है.’’  

‘‘तो भला है ना, होण दे. बरसों से अपनी देखी हुई है. मुसलमान है तो क्या हुआ, सोणी है. निभ जाएगी, दोनों की दोस्ती देखकर मैं तो ख़ूब पहले समझ गई थी.’’

बेबे की सहमति पर भाभी चुप तो हो गई, पर उससे क्या होता? बेबे राजी तो पापाजी ने झापड़ रसीद किया सुरजीत को. बड़े भाई ने चेता दिया,‘‘घर में नहीं घुसने दूंगा. फाके करेगा ये.’’

हिन्दू-मुसलमान लड़के-लड़की की शादी कभी खेल हुई है क्या? इस कहानी में भी अब्बा राजी तो अम्मी ने मरने की धमकी दे दी. बेबे या भाभी साथ देने को राजी हुई तो भाई ऑनर किलिंग के मूड में. मामा और चचा के अलग रोने और ऊपर पूरी चतुराई दिखाते हुए मौसी अपने किसी रिश्तेदार से जबरन फेरे पड़वाने की जुगाड़ में. वो तो गनीमत रही कि सुरजीत और अनीसा की प्रेमकथा में कहीं खाप पंचायत जैसा कुछ नहीं था. कुल जमा ये कि विजातीय शादी के टोटल तनाव को विस्तार से लिखने बैठ जाओ, तो पूरे उपन्यास की कीमियागिरी. पर अपन तो इसे कहानी की तरह आगे बढ़ाएं.

बात के खुलते ही सबसे पहले तो अनीसा का सुरजीत के घर में प्रवेश निषेध हुआ. कभी बेबे मिलने चली भी जाती तो ध्यान रखती कि सुरजीत और उसकी शादी का संकेत देनेवाली कोई बात नहीं करनी है. पूरे दो साल अनीसा के घरवालों को जरा आशंका नहीं हुई.

सुरजीत भी कभी-कभी चला जाता. फिर भी धीरे-धीरे इस ओर सबका ध्यान जाना ही था. कुछ नहीं तो कॉलेज से ही छनकर आ गया, ‘‘आज तो पूरी क्लास बंक करके पिक्चर देखने गई, लेकिन सुरजीत और अनीसा नहीं गए. वहीं पार्क में बैठे रहे.’’

अब बेचारे सुरजीत और अनीसा, लोगों को कैसे बताएं कि उस दिन वे पार्क के कोने में पूरे तीन घंटे तक आंसू बहाते रहे. पर दुनिया तो बेदर्द जाने कब से ऐसे ही चल रही है.

और फिर एक बार तो प्राचार्य ने सुरजीत के पापाजी यानी समरजीत से किसी पार्टी में पूछ लिया, ‘‘कब करवा रहे हो शादी? हमें बुलाना मत भूल जाना.’’

सन्न रह गए पापाजी. तो अब वर्तमान में पूरी तरह लौटते हुए बस इतना और बता दूं कि कॉलेज में फ़ाइनल तक पहुंचते-पहुंचते अपने सुरजीत जो पांच बार पिटे, उसमें से दो बार तो अनीसा के भाइयों और चचा ने खुले हाथों से निपटाया, चेतावनी दी, लेकिन तीन बार की पिटाई उनके अपने रिश्तेदारों ने की, वो इसलिए कि मामा की दोनों लड़कियों के बने बनाए रिश्ते उसके इश्क़ की ख़बर के मारे बिगड़े. यानी अब दोनों तरफ़ सबको पक्के तौर पर ख़बर हो गई. इस तरफ़ बेबे तो उस तरफ़ अब्बा थोड़े से, इनके सिवा कोई पक्ष में नहीं. शुरू हुई पूरे समय की जासूसी. यातना ये कि मिलने की कोशिश भी करने पर जान से मार देने की धमकी. 

वो तो परीक्षा सिर पर थी, इसलिए अनीसा के अब्बा ने कॉलेज जाने की अनुमति दी, लेकिन इस स्पेशल व्यवस्था के साथ कि बॉडीगॉर्ड के रूप में छोटी चाची साथ ही रहेंगी. अब बता दूं कॉलेज के उन दोस्तों के बारे में जिनको इस प्रेम-प्रसंग की जानकारी थी. और थी तो इस कारण थी कि उनके ख़ुद के भी इश्क़ चल रहे थे. पाठक जानते ही हैं, कॉलेज के इश्क़िया जोड़े अक्सर दोस्त होते हैं और साथ ही रहते हैं. एक जोड़ा था अब्बास और रोशन का, दूसरा था हनुमन्ता और लिली का. लिली के पापा बिजली विभाग में अफ़सर थे. एक-दो और थे, जो गहरे दोस्त थे. इन्हीं के कारण कड़ी पहरेदारी के बीच सूचना का आदान-प्रदान होता रहा. और हां, सुरजीत ने तीन बार गर्ल्स कॉमन रूम में घुसकर भी मुलाक़ात कर ली थी.

तभी एक धमाके की तरह सुरजीत का कैम्पस सिलेक्शन हो गया. परीक्षा होते ही जॉइन करना था. कम्पनी ने मान लिया था कि वह पास हो ही जाएगा, लेकिन ख़ुशी की इस घड़ी में सबसे पहले सचेत हुए सुरजीत के चाचा. उन्हें लग गया कि अगर नौकरी लगी तो भतीजा गया हाथ से. कोशिश शुरू की, रिश्ते आने लगे, लगभग तय भी होने लगे. सुरजीत और अनीसा ने भी ख़तरे को भांपा,‘‘मैं कह रही हूं संभल जाओ, किसी भी दिन घेरकर किसी अनचाहे से निकाह पढ़वा दिए जाएंगे.’’

‘‘पर करें क्या? परीक्षाएं हैं, भाग भी तो नहीं सकते,’’ छोटी और अत्यन्त गोपनीय मुलाक़ात में दिखाई दे रही परिस्थितियों का एक ही हल हो सकता था,‘‘तैयार रहना रजिस्ट्रार के यहां चलने के लिए.’’

लेकिन ये भी आसान नहीं था. ख़बर लग गई. गुंडे खड़े कर दिए कलेक्टरेट के बाहर. बचकर निकले तो घर पर कुटाई हो गई. संपर्क असंभव हो गया. और तो और एक अख़बार ने तनाव की आशंका जताकर अपना पवित्र कर्तव्य भी निभा दिया. बस, यहां दोस्तों के समूह ने साथ दिया. सुरजीत की बाइक की डुप्लीकेट चाबी बनाकर ला दी और सुरजीत से लेकर अनीसा को ख़बर पहुंचा दी कि रजिस्ट्रार ने अगली तारीख़ दे दी है. तारीख़ में अभी पांच दिन शेष थे.
पीं... पीं... पीं... पिंपिं, हॉर्न बजाने का यह पुराना तरीक़ा था. इस तरी़के को अपनाकर पहले भी वह अनीसा को संदेश दे चुका था. उस रात क़रीब बारह बजे जब सुरजीत दूसरी चाबी से अपनी बाइक का ताला खोल घर से निकला तो अनीसा के घर के सामने इसी शैली में हॉर्न बजाकर संदेश देता गया.

उसके बाद तो घटनाक्रम ऐसा तेज़ चला कि सब मिक्स हो गया. बताते हैं, सुबह चार बजे के क़रीब बिजली विभाग की गाड़ी आई, दो मिनिट के लिए बिजली बंद की. ठीक करने के लिए लंबी सीढ़ी लगाई और उसी दो मिनिट में, उसी सीढ़ी से अनीसा दूसरी मंज़िल से नीचे उतर गई. सुबह अनीसा के ग़ायब होने का पता लगा तो बस यही अनुमान लगाया कि सुरजीते के साथ गई.

दूसरा मिक्स ये कि जैसे ही पता चला कि सुरजीत भी फरार है तो सुरजीत के बड़े भाई और अनीसा के चचा की मीटिंग हो गई. दोनों पक्ष मिल गए, बताया ना कि बेबे और अब्बा के सिवा किसी की इस हिन्दू-मुसलमान शादी से सहानुभूति नहीं थी. मिलकर खोज शुरू हुई, बेबे ने जब रोते हुए कहा,‘‘देखो, ज़्यादा पीछे मत पड़ो, कहीं दोनों परेशान होकर सुसाइड न कर लें.’’
‘‘मर जाएं तो मर जाएं. ऐसे बच्चों के होने से न होना अच्छा.’’ दोनों पक्षों से एक-सा जवाब मिला. छोटा शहर था, घरों से बाहर और सायकल स्टैंड पर खड़ी एक-एक बाइक देख ली. किसी न किसी बहाने बिजली विभाग के हर अफ़सर के घर और क्वार्टर खंगाल लिए, पर नतीजा सिफ़र. हां, स़ख्त चौकसी से यह भी हुआ, अनीसा और सुरजीत का भी आपस में संपर्क नहीं हो पाया. ग़लती यह हुई थी कि रजिस्ट्रार ऑफ़िस में किस तारीख़ को और कैसे मिलना है, यह तो तय कर लिया. यह तय नहीं किया कि उससे पहले मिलना हो तो किस तरह मिलना है? मतलब पूरे तीन दिन दोनों की मुलाक़ात नहीं हो सकी.

अब अगर आपको बताया जाए कि तीन दिन छुपे रहने के बाद किसी तरह वे कलेक्टरेट पहुंचे और शादी कर ली, तो आप कहेंगे कि फिर इतना सब लिखने की ज़रूरत ही क्या थी? जब कहा कि हिन्दू-मुसलमान लड़के-लड़की की प्रेमकथा है, हम समझ गए थे कि सारी अड़चनों के बाद आप शादी करवा देंगे. आप जो चाहें समझते रहें, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. उस दिन सुबह पांच बजे सुरजीत और छ: बजे अनीसा कलेक्टरेट में प्रवेश कर गए.

ऐसे ही नहीं घुसे, चौकीदार आदि को बहुत पहले पटा लिया गया था. चाय मिल गई, पर यहां भी छोटी-सी चूक हुई. मिलना था उस विशाल भवन के टॉयलेट में तो सुरजीत ने ऑफ़िसर्स टायलेट को चुना और अनीसा ने लेडीज़ टॉयलेट को. अब? सुरजीत सोचे कि अनीसा क्यों नहीं आई? अनीसा की चिन्ता ये कि वापस कैसे जाऊं? इत्तफ़ाक देखो, उस दिन कोई ख़ास मीटिंग या ऐसा ही कुछ था तो लोगों का आना-जाना ज़रा जल्दी शुरू हो गया. तो सुरजीत को बाहर आना पड़ा. अच्छा ही हुआ. बाहर आते ही चौकीदार ने पूछा,‘‘अरे आप कहां छुपे थे साब? मैंने कितना ढूंढ़ा वो मैडम उधर हैं.’’

‘‘अरे क्या, तीन दिन से पता ही नहीं, कहां हो तुम?’’ मिलते ही पहला सवाल. फिर आपबीती और मोबाइल न होने का रोना. मीटिंग ख़त्म हुई. बाहर निकलते ही रजिस्ट्रार ने इशारा किया और कहा,‘‘आ जाइए.’’

समस्या ये कि गवाह के रूप में तो कोई आया ही नहीं था. फिर भी वे अंदर चले गए. रजिस्ट्रार ने रजिस्टर खोलते हुए कहा,‘‘गवाह के बाद में दस्तख़त करवा देना. मैं बाबू को बोल जाता हूं, मुझे जल्दी निकलना है.’’
दोनों ख़ुश सुरजीत ने कहा,‘‘जी सर.’’

‘‘तुम्हारा नाम तो सुरजीत है ना, पिता का नाम?’’ सवाल हुआ. लेकिन सुरजीत ने अपनी जेब से काग़ज़ निकालते हुए जल्दी से कहा,‘‘रुकिए सर, मेरा नाम अब सुरजीत नहीं, अनीस है. अनीस पिता समरजीत, ये रहे धर्मांतरण के काग़ज़.’’

‘‘ये क्या किया तुमने?’’ तभी अनीसा ने दर्दीले स्वर में कहा और अपने पर्स से काग़ज़ निकाल रजिस्ट्रार की ओर बढ़ाते हुए बोली,‘‘सर, मैंने भी दो दिन पहले धर्म बदल लिया है. अब मैं अनीसा नहीं, सुरेखा हूं. सुरेखा पिता शम्सुद्दीन.’’

सच, माजरा समझते ही एक बार तो रजिस्ट्रार ने सिर ठोंका. फिर आश्चर्य से देखने लगे, इस अनूठे प्रेमी जोड़े को, जो अब ख़ुद भी इक-दूजे को ही देखे जा रहे थे. और हां, रजिस्ट्रार भूल चुके थे कि उन्हें जल्दी में कहीं जाना था.

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