कहानी: एक दिन, हज़ार रातें

ट्रेन चलने से काफ़ी पहले आ गई थी वो स्टेशन. हमेशा के लिए मुंबई छोड़ रही थी इसलिए सामान भी ज़्यादा था. तीन बड़े सूटकेस. दो गत्ते के बक्से. बहुत कुछ तो वह मुंबई में ही छोड़ कर जा रही थी. सबसे बड़ी चीज़, अपना सपना… सपना तो वह अब रातों को सोते समय भी नहीं देखती. कई दिनों से आंखों से नींद ग़ायब है.

मुंबई-दिल्ली राजधानी में नीचे की बर्थ थी उसकी. खिड़की के पास वह बैठी रही. साथ के यात्री आ गए. ट्रेन चल पड़ी, पर उसने चेहरा घुमा कर किसी की तरफ़ नहीं देखा. मुंबई सेंट्रल, दादर, कांदिवली, बोरिवली… उसकी आंखें ना चाहते हुए भी भर आईं.

ट्रेन फर्राटे से चलने लगी. अचानक किसी ने उसे टहोका. उसके पास बैठी महिला कुछ जोर से कह रही थी,‘‘बैरा चाय-बिस्किट लाया है.’’

उसने ‘नहीं’ में सिर हिलाया. कुछ देर बाद बड़ी मुश्क़िल से उसने सूप पिया. खाना भी खाया ना गया. उसके सहयात्रियों को लग रहा था, सोने की कोई जल्दी नहीं है. धीरे-धीरे ऊपर की बर्थ वाले अपनी जगह जाने लगे. वह नीचे की बर्थ में चादर बिछाने लगी थी कि सामने बैठे एक व्यक्ति ने आग्रह करते हुए पूछा,‘‘आप अपनी ये नीचे वाली सीट मुझे दे सकती हैं क्या? दरअसल मुझे मिडिल बर्थ मिला है. मेरा पांव… आपने शायद देखा नहीं.’’

उसकी तरफ़ बिना देखे यंत्रवत उसने नीचे बिछाई चादर निकाल ली और अपना हैंडबैग ले कर मिडिल बर्थ में चढ़ गई. यह भी नहीं सुना कि वह व्यक्ति लगातार उसे ‘थैंक्यू-थैंक्यू’ कहे जा रहा है.

धीरे-धीरे रेल गाड़ी के हिचकोलों और इंजन की आवाज़ की जगह सह यात्रियों के खर्राटों ने ले ली.

रात के चार बजे होंगे. हल्की-सी रोशनी, ट्रेन की तेज़ गति और हिचकोलों में क्लोरोफ़ॉर्म-सा नशा है. हर कहीं से बस चलती सांसों की आवाज़ें. तेज़ एसी. अपने पांवों पर से गिर आए चादर को समेटने के लिए जब उसने करवट ली तो उसका पैर टकरा गया. मद्धम रौशनी थी, सीट के एकदम छोर पर उकड़ू-सी बैठी थी वो! हड़बड़ा कर उठ बैठा. लड़की संकोच में आ गई.

‘‘आप सोई नहीं?’’

लड़की ने बहुत मुश्क़िल से अपना मुंह खोलते हुए कहा,‘‘मुझे नींद नहीं आती. बीच वाली बर्थ में बैठना थोड़ा मुश्क़िल था, सॉरी. आप सो जाइए. मैं ऊपर चली जाऊंगी.’’

‘‘अरे नहीं. आपकी सीट है ये तो. आप बैठे रहिए. वैसे भी एकाध घंटे में सुबह हो ही जाएगी. आप बिलकुल नहीं सोईं?’’ लड़की ने ‘ना’ में सिर हिला दिया.

व्यक्ति उठ बैठा. लड़की ने देखा, उसका बायां पांव घुटने के नीचे से नहीं था.

ट्रेन ने लंबी सीटी दी. आसपास रोशनी-सी झिलमिलाने लगी.

व्यक्ति बड़बड़ाया,‘‘अब आ रहा है कोटा जंक्शन. लगता है ट्रेन आधे घंटे लेट चल रही है.’’

देखते-देखते ट्रेन कई पटरियां बदलने लगी. स्टेशन का छोर नज़र आने लगा.

अचानक उस व्यक्ति ने पूछा,‘‘आप कुल्हड़ की चाय पिएंगी? यहां बड़ी अच्छी मिलती है. गाड़ी से उतरना भी नहीं पड़ेगा. बोलिए?’’

लड़की ने उसकी तरफ़ देख कर कहा,‘‘रहने दीजिए अंकल. आपको तकलीफ़ होगी. दरवाज़े तक चल कर...’’
‘अंकल…’ आदमी के चेहरे पर मुस्कराहट आई. अपना चादर फेंक कोने में रखी बैसाखी संभाल वह फौरन खड़ा हो गया. दरवाज़े तक उसके पीछे-पीछे लड़की भी गई. सच कहा था उस आदमी ने. स्टेशन पर कंपार्टमेंट के ठीक सामने ठेले पर कुल्हड़ की गर्मागर्म चाय बिक रही थी. आसपास फैली चाय की सोंधी सुगंध. लपककर उस आदमी ने दो कुल्हड़ चाय खरीद लिए. एक लड़की को पकड़ाया.

एक घूंट लिया ही था कि ट्रेन चल पड़ी. ट्रेन का दरवाज़ा बंद. दोनों वहीं खड़े हो कर चाय की चुस्कियां लेने लगे. लाइट बस वहीं जल रही थी. अंदर कंपार्टमेंट में अंधेरा था.

आदमी ने लड़की को ध्यान से देखा, बुझा चेहरा, आंखों के नीचे काले-गहरे गड्ढे. कंधे तक कटे बाल. जीन्स, नीले फूलों वाली कुर्ती. कंधे पर टंगा स्टोल और हैंडबैग. अपना हैंडबैग हमेशा साथ ले कर चलती है. यानी लोगों पर कम यक़ीं करती है.

अपनी तरफ़ देखता पाकर लड़की हलका-सा मुस्कराई,‘‘थैंक्यू. बहुत अच्छी चाय है.’’

आदमी भी मुस्कराया,‘‘हां. मैं इस रूट पर आता-जाता रहता हूं. पर बहुत कम पी पाता हूं यहां की चाय. अक्सर सो जाता हूं.’’

लड़की के चेहरे पर अजीब से भाव आए.

‘‘तुम कुछ कहना चाह रही हो?’’

‘‘हूं... मैंने दिल्ली से मुंबई आते समय भी यहां चाय पी थी. उस समय मेरे कुछ दोस्त साथ में थे और उन दिनों मुझे नींद भी आया करती थी.’’

‘‘अच्छा. मेरा पूछना अजीब लग सकता है... पर जब तुमने अंकल कह ही दिया है तो बता सकती हो. नींद नहीं आती, कोई
ख़ास बात?’’

लड़की चुप रही. कुल्हड़ से उठता धुआं देखती रही.

‘‘क्या तुमने कभी प्लेन से सफ़र किया है?’’

लड़की ने चौंक कर देखा और ‘हां’ में सिर हिलाया.

‘‘पता है, ट्रेन और प्लेन के मुसाफ़िरों में क्या फ़र्क़ होता है? प्लेन में हम सब बहुत आत्मकेंद्रित होते हैं. पता नहीं ट्रेन में क्या जादू है? हमें लगता है कि साथ चलने वाले मुसाफ़िर हमारी यात्रा का एक हिस्सा हैं.’’

लड़की के मुंह से ‘हूं’ निकला.

‘‘तुम नहीं बताना चाहतीं. कोई बात नहीं. जाओ, नीचे की बर्थ पर आराम कर लो. दिल्ली आने में देर है.’’

‘‘नहीं. आप सो जाइए. मैं यहां ठीक हूं,’’ लड़की ने धीरे से कहा.

कुल्हड़ की चाय ख़त्म हो गई. आख़िरी घूंट पीने के बाद लड़की ने होंठों को चटकाते हुए डस्टबिन में कुल्हड़ डाला. अब थोड़ी संभली हुई लग रही थी.

‘‘आप बताइए, आपका पैर... ऐक्सिडेंट?’’

आदमी ने रुककर कहा,‘‘हां, था तो ऐक्सिडेंट. मेरी ग़लती थी... भुगतना पड़ा दूसरों को.’’’

‘‘ग़लती?’’

‘‘हां. मेरी पत्नी ने कहा था रात को गाड़ी मत चलाओ. इतना तेज़ मत चलाओ. पर मैंने...’’

‘‘ओह. सॉरी. मैंने आपके घाव कुरेद दिए.’’

‘‘नहीं, ऐसा कुछ नहीं है. बोलने या कह देने से सच ख़त्म तो नहीं हो जाता ना? ऐसा भी नहीं है कि मैंने जीना छोड़ दिया. एक ग़लती की. हो जाती है सबसे.’’

‘‘लड़की की आंखों में अचानक चमक-सी आई,‘‘आपके घरवालों ने कुछ कहा नहीं? आप टूटे नहीं? कैसे...’’
आदमी हलका-सा हंसा,‘‘हमारे परिवार वाले हमें हमारी ग़लतियों से नहीं तौलते. मैं ख़ुद इतना शर्मिंदा था, ऐक्सिडेंट में मेरा पांव कट गया, मेरी पत्नी गुज़र गईं, लगा था इसके बाद मैं जी नहीं पाऊंगा. पर जानती हो, जीने की वजह ढूंढ़नी नहीं पड़ती, मिल जाती है. आराम से.’’

‘‘मुझे भी ममा माफ़ कर देंगी ना?’’ लड़की के मुंह से अचानक निकला.

‘‘ऐसा क्या कर दिया तुमने?’’

लड़की जैसे बोलने को आतुर थी,‘‘मुझे और मेरी दोनों बहनों को मम्मा ने ही पाला, बड़ा किया. पापा का बिज़नेस था. दस साल पहले वे गुज़र गए. मैं बीच की बहन हूं. बड़ी बहन टीचर हैं. पापा ने हम तीनों बहनों के नाम एक-एक फ़्लैट लिया था, यह कहते हुए कि इनकी शादी में काम आएगा. ममा ने एक फ़्लैट बेच कर दीदी की शादी की. पर मैं...’’

‘‘रुक क्यों गईं?’’

‘‘मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की. जब हम तीन दोस्त फ़ाइनल ईयर में थे, हमने तय किया कि कैंपस इंटरव्यू में नहीं बैठेंगे. हम कोई अपना काम करेंगे, स्टार्ट अप. ममा चाहती थी मैं नौकरी कर लूं. पर मैंने उन्हें समझाया. यही नहीं, मुझे स्टार्ट अप में अपना शेयर लगाने के लिए पैसे चाहिए थे, मैं कहां से लाती? मेरे नाम एक फ़्लैट था. मैंने मां को मनाया कि मुझे शादी करने के लिए पैसे नहीं चाहिए, मैं धूमधाम वाली शादी में यक़ीन नहीं रखती. मुझे वो अपनी कंपनी में लगाने के लिए पैसे दे दें. सबने मना किया ममा को. ताऊ जी, छोटे चाचू सबने. मैं तो पहले ही सबकी नज़र में अफ़लातून थी. ना लड़कियों की तरह कपड़े पहनती, ना उनकी बात चुपचाप सुन लेती. मैं लड़ी, सबसे. मैंने कहा, मुझे शादी नहीं करनी, अपनी कंपनी खड़ी करनी है. ममा मुझे सपोर्ट करती थीं. उन्होंने मेरी बात मान ली...’’

‘‘फिर?’’

‘‘तीन साल पहले मैं मुंबई आई. इसी तरह ट्रेन में. हम तीनों दोस्त. जोश में भरे हुए. लग रहा था मुंबई जाएंगे, कंपनी शुरू करेंगे, बस रातोंरात हम सफल हो जाएंगे... सपने देखते थे हम सब. मैंने भी ख़ूब देखे. वो दिन अलग ही थे. सोते-जागते एक ख़ुमारी थी. हमें फ़ंड भी मिल गया. मैंने मुंबई में फ़्लैट किराए पर लिया. हम सबने ख़ूब मेहनत की. पर पता नहीं, कहां ग़लत हो गए? पहले ही साल हमें पांच करोड़ का नुक़सान हो गया. हम तीन लोग थे. एक तो बीच में छोड़कर अमेरिका चला गया, आगे पढ़ने. नुक़सान बढ़ता गया. पिछले एक साल से मैं...’’

लड़की आगे बोल नहीं पाई. आवाज़ भर्रा गई, आंखों में आंसू आ गए.

अपने बैग से उसने टिशू निकाला, आंखें पोंछीं. कुछ देर तक दोनों चुप रहे.

लड़की ने बोलना शुरू किया,‘‘मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. मेरा बैंक बैंलेंस तेज़ी से ख़त्म हो रहा था. मैं रोज़ अपने ऑफ़िस इस उम्मीद से जाती कि आज कुछ होगा, कोई अच्छी ख़बर आएगी. हमने अपना स्टाफ़ हटा दिया. बस, हम दोनों रह गए. मां से हर रोज़ बात होती, उनसे कहती, सब ठीक है. अगली होली, दीवाली में घर आऊंगी. बीच-बीच में जाती थी उनसे मिलने. पर उन्हें कुछ बताया नहीं. बाक़ी लोग तो हमेशा इस इंतज़ार में खड़े मिले कि मैं कुछ ग़लती करूं और वे दबोच लें, मेरा जीना मुहाल कर दें. मैं बहुत डरने लगी हूं सबसे. पिछले महीने हमें अपनी कंपनी बंद करनी पड़ी. मेरा दूसरा साथी, उसके घरवाले आकर उसे अपने साथ चेन्नई ले गए. मैं बिलकुल अकेली थी मुंबई में. पैसे ख़त्म, कंपनी बंद. कहीं कोई उम्मीद नहीं. 

मैं रातभर सो नहीं पाती, किसी से मिलने का मन नहीं करता. दिन तो गुज़र जाता, पर रात को... लगता है एक रात हज़ार रातों के बराबर है. ना वॉट्सऐप, ना फ़ेसबुक, किसी पर नहीं जाती. मां को फ़ोन करना भी कम कर दिया. नौ महीने हो गए घर गए. दीदी का बेटा हुआ था, तब गई थी. ममा मुझे देख कर शायद समझ गई थीं कि कुछ ठीक नहीं. छोटे चाचू ने सबके सामने मेरी खिल्ली उड़ाई. ममा से कहा कि अब तो तुम मुंबई जा कर मन्नत में रहोगी. उससे कम की उड़ान तो यह भरती नहीं. मैं पहले चाचू से लड़ लेती थी, उनको सुना देती थी. पर पता नहीं क्यों, उस दिन मैं कुछ भी बोल नहीं पाई. ममा समझ गईं. मुझसे पूछा,‘सब ठीक है?’ मैंने कह दिया ‘हां’. ममा ने थोड़ा मायूस हो कर कहा,‘बेटी, मेरे पास अब तुझे देने के लिए कुछ बचा नहीं है.’ मुझे उनकी बात लग गई... छोटी बहन कॉलेज में है. ममा को मुझसे बहुत उम्मीदें थीं,
पर मैंने...’’

उसकी आवाज़ बैठ गई. बोलते-बोलते शायद वह थक गई थी. आदमी का चेहरा शांत था. बस, बैसाखी का सहारा ले कर वह बोगी की दीवार से टिक गया.

लड़की ने तुरंत कहा,‘‘आप अंदर जा कर आराम कीजिए. मैंने आपको तब से खड़ा कर रखा है.’’

आदमी ने मुस्कराते हुए कहा,‘‘तुम्हारी बात आधे में छोड़ कर कैसे जा सकता हूं? देखो बातों-बातों में छह बजने को आए.’’

लड़की ने भी टेक लगाते हुए कहा,‘‘हां, ज़िंदगी की अच्छी बात तो यही है कि समय नहीं ठहरता.’’

आदमी के चेहरे पर अजीब-से भाव आए.

लड़की ने कंधे उचकाते हुए पूछा,‘‘क्या हुआ? क्या ग़लत कहा मैंने?’’

‘‘नहीं. सोच रहा था कि जब तुम्हें जवाब पता है तो सवालों में क्यों उलझी हो?’’

‘‘मैं समझी नहीं.’’

‘‘तुमने कहा ना कि समय नहीं ठहरता. यही तो उत्तर है सब सवालों का. इसी में तो छिपा है हर समस्या का हल.’’

लड़की चुप हो गई.

बाहर रोशनी होने लगी. इक्का-दुक्का लोग उठने लगे. आदमी ने अचानक कहा,‘‘अंदर चलें?’’

दोनों अपनी जगह आ गए. लड़की खिड़की से टेक लगा कर बैठ गई.

आदमी ने तब तक चादर-तकिया समेट लिया था.

आराम से बैठने के बाद आदमी ने सवाल किया,‘‘तो दिल्ली जा कर क्या करने का इरादा है?’’

लड़की ने सिर हिलाते हुए कहा,‘‘आज से पहले सोचा नहीं. समझ नहीं पा रही थी कि घर लौटने के बाद क्या करूंगी? मैं शायद घर लौटना ही नहीं चाहती थी. कुछ सोचूंगी अब... मेरे कॉलेज की एक लेक्चरार आजकल घर के पास कोचिंग सेंटर चलाती हैं. हमेशा मुझसे आयडिया लेती रहती हैं. मुझसे कहती रहती हैं, मेरे कोचिंग सेंटर को आगे बढ़ाओ.’’

लड़की थोड़ी संभली हुई लग रही थी. सहज भी,‘‘मुझे लगता था कि मैं अपने बारे में किसी को बता नहीं पाऊंगी. सब क्या कहेंगे? लूज़र... पर आपसे बात करने के बाद अब हल्का महसूस कर रही हूं. लूज़र हो या विनर, क्या फ़र्क़ पड़ता है? कल कुछ और था, कल कुछ और होगा.’’

आदमी ने सिर हिलाया,‘‘मैंने कहा था ना हम कई बार अजनबियों से खुलकर बात कर लेते हैं. पता है क्यों? हमें ना कुछ पाने का डर होता है ना खोने का. मैं नहीं जानता तुम कौन हो, तुम नहीं जानती मेरे बारे में. हम एक दूसरे का नाम तक नहीं जानते.’’

लड़की सोचने लगी,‘‘सही बात है.’’

‘‘पर तुम्हारी एक ग़लतफ़हमी दूर करना चाहता हूं.’’

‘‘जी,’’ लड़की चौंकी.

‘‘तुमने मुझे अंकल कहा ना... दरअस्ल, मेरी उम्र ज़्यादा नहीं है. मैं उनतीस साल का हूं. ऐक्सिडेंट और दूसरी वजहों से मेरे बाल जल्दी सफ़ेद हो गए. गिल्टी फ़ील मत करो. इसमें तुम्हारी ग़लती थोड़े ही है. मैं लगता ही ऐसा हूं. और किसी की ग़लतफ़हमी मैं दूर नहीं करता, पर सोचा तुम्हें बता दूं.’’

लड़की के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कुराहट आई,‘‘सॉरी, पर एक बात कहूं? आपको अंकल कहा, इसलिए दिल खोल कर बात कर पाई. आपको बुरा तो नहीं लगा?’’

‘‘नो, बिलकुल नहीं. पर मैं नहीं चाहता कि आनेवाले दिनों में तुम मुझे एक अंकल की तरह याद रखो.’’
दोनों हंसने लगे.

ट्रेन दिल्ली में प्रवेश कर चुकी थी. जाने-पहचाने स्टेशन. लोग अपना सामान सहेजने लगे. लड़की ने सीट के नीचे से अपना सूटकेस निकालना शुरू किया. अंकल कब अपना बैग ले कर आगे बढ़ गए, पता ही नहीं चला.
लड़की पूरी तरह तैयार थी, स्टेशन पर अपनी मां और बहन से मिलने, उनके गले लगने, उनसे हंस कर कहने कि देखो, लौट के बुद्धू घर को आई. घर जाते ही ममा से कहना होगा, अब मैं आ गई हूं, मैं सब संभाल लूंगी. अब तुम्हारी नहीं, मेरे देने की बारी है. बहन के साथ हर शनिवार संगीत सीखना भी शुरू कर देगी. चाचू को पहले की तरह उस्ताद बुलाना शुरू कर देगी. अपने बैग से कंघी निकाल कर उसने बालों पर हलके-से फेरा, चेहरे पर कॉम्पैक्ट लगाया, अपने सूखे होंठों पर हल्की-सी लिपस्टिक लगाई. स्टेशन पर गाड़ी लग गई.

उसने खिड़की से झांक कर देखा, अंकल उतर चुके थे. उसकी तरफ़ देखकर हाथ हिलाया और अपनी बैसाखी ठकठकाते हुए आगे बढ़ गए.

अचानक लड़की को लगने लगा, कोई बेहद अपना उससे दूर जा रहा है, फिर कभी ना मिलने को. वह पलटी ही थी कि उसके साथ के एक यात्री ने सवाल किया,‘‘आप जिनसे बात कर रही थीं, वो शचींद्र हैं ना? फ़ेमस लेखक, जो पिछले दो-तीन साल से ख़ूब लिख रहे है? मैंने उनके कई नॉवेल पढ़े हैं.’’

लड़की की आंखों में पता नहीं क्यों आंसू आ गए. हाथ में एक नाम जो आ गया! ओह, अब इस नाम का क्या करेगी? फ़ेसबुक पर रिक्वेस्ट भेजेगी? या... अजनबी को अजनबी ही रहने देगी. मन में हल्की सी उथल-पुथल मचने लगी. उसकी आंखें स्टेशन पर टिक गईं. मां और बहन उसकी तरफ़ देखकर हाथ हिला रहे थे. होंठों पर मुस्कान लिए वह सामान ले कर आगे बढ़ने लगी. वाक़ई सुबह हो चुकी थी!

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