कहानी: गीला अंधेरा

तीस साल की कुसुमा बाई आख़िर पंचायत की सदस्य बन ही गई. जिस दिन मतगणना का परिणाम सामने आया, वह फूली नहीं समाई.

‘‘कुसुमा बाई के साथ हमारे हाथ!’’

‘‘ कुसुमा बाई ज़िंदाबाद!’’

‘‘हमारी नेता कुसुमा बाई!!’’ आदि-आदि नारे आज भी उसके कानों में रस घोल रहे हैं. उसके ‘मरद’ ने सोचा भी नहीं था कि उसकी ‘कुसुमा’ इतने अधिक मतों से नेताइन बन जाएगी.

शर्मीली कुसुमा हंसती है तो दांतों तले पल्लू दबाकर. उसे ख़ुद भी बेहद ताज्जुब होता है कि वह भाषण कैसे दे पाई? देश के बड़े-बड़े नेताओं का नाम सही न बोल पाने पर चौधरी जी उसे किस बुरी तरह झिड़क दिया करते थे. उसे याद है कि एक दिन चौधरी जी ने उससे पूछ लिया था,‘‘देश के प्रधानमंत्री का नाम बताओ?’’


‘‘परधान मंतरी....’’ वह सकते में आ गई थी.

‘‘तू तो नाक कटवा देगी... काहे बिसाहू, जे ई है तुमाई उम्मीदवार? का जीतहे और का बन्हे ससुरी.’’

गाली सुनकर उसकी आंखों में आंसू छलछला आए थे. हलकू भी उसे मां-बाप की गाली दे डालता है, पर वह अपना मरद है. घर आ कर कुसुमा ने साफ़-साफ़ कह दिया था,‘‘मोसे न हू हे जे सब, तुमई कर लेओ.’’

यह सुन कर ख़ूब हंसा था हलकू. वैसे सच तो यह है कि पंचायत चुनाव में वह स्वयं खड़ा होना चाहता था. चौधरी के पास भी वह इसी उद्देश्य से गया था. चौधरी जी का वरदहस्त जिसके सिर पर पड़ जाए, उसकी नैया किनारे लगे बिना नहीं रहती. हलकू ने भी अपनी मंशा बयान करते हुए कहा था,‘‘हुजूर किरपा हो जाए ई ग़रीब पर!’’
और ‘हुजूर’ ने फिस्स से हंसते हुए कह दिया था,‘‘अब की लुगवा लोगन की जुगाड़ नहीं है भैया.’’


‘‘हुजूर आप चाहें तो का नईं हो सकत है,’’ हलकू गिड़गिड़ा उठा.

‘‘मुश्क़िल होगी. अबकी टिकटें लुगाइयों के लाने हैं,’’ चौधरी ने साफ़-साफ़ पल्ला झाड़ लिया.

हलकू ने बिसाहू की तरफ़ देखा. बिसाहू चौधरी का ख़ासमख़ास जो ठहरा. उसे पटाने के लिए बीती शाम हलकू ने पहली धार की चार बोतलें भेंट चढ़ाई थीं. लिहाज़ा बिसाहू ने हलकू की सिफ़ारिश की,‘‘हूजुर, हलकू को नहीं तो इसकी घरवाली को ही दिला दीजिए. तर जाएगा बेचारा,’’ बिसाहू ने खैनी फांकते हुए इतना और जोड़ दिया,‘‘अपना ही आदमी है, हुजूर. पहले भी काफ़ी काम किया है इसने हुजूर के लिए.’’


‘‘हूं! का नाम है रे तेरी लुगाई का?’’ चौधरी जी लागू होते नज़र आए.

‘‘हुजूर, कुसुमा बाई!’’ हलकू ने हाथ जोड़ते हुए बताया.

‘‘अच्छो नाम है. दिखन में तो ठीक-ठाक है न?’’ चौधरी जी ने पूछा.

हलकू का जी तो चाहा कि इरादा बदल दे, मगर राजनीति की माया के वशीभूत उसने बता ही दिया,‘‘अब हुजूर ने बेलाताल के कमल तो देखई हैं... मालिक, आप खुदई देख लइयो, अब अपने मों से मैं का कहूं?’’

टिकट मिल गई. कुसुमा से ज़्यादा भाग-दौड़ हलकू और बिसाहू ने की. कुसुमा को कठिन लगता था ‘लुगवा लोग की भीड़’ के सामने भाषण देना. शुरू-शुरू में वह अटक जाती थी. भूल जाती थी. फिर घर-घर गई. औरतों से मिली. उनकी तकली़फें सुनीं.


किसी ने कहा,‘‘सरकारी जजकीखाने की दाई बदलवा दो.’’ तो किसी ने अरज की,‘‘कलारी उठवा दइयो इते से.’’

‘‘बस, एक बार मुझे जितवाकर देखो, मैं सब ठीक-ठाक कर दूंगी.’’

‘‘नया जजकीखाना खुलवा दूंगी.’’

‘‘कलारी पर पटरा फिरवा दूंगी.’’

‘‘पिरायमरी को बड़े स्कूल में बदलवा दूंगी,’’ यह सब बड़े दावे से कहती वह. भले ही मन पूछता, क्या सचमुच करवा पाएगी?

यह बात उसके अपने दिमाग़ की उपज थी. वह बड़े गर्व के साथ औरतों को बुलाकर उनसे वोट मांगा करती थी,‘‘अगर रामजी की जगह सीता मैया राजा होतीं तो उन्हें रामजी जंगल ने भेज पाते. सीता अपना फ़ैसला ख़ुद करतीं. उनके खिलाफ़ कोई नहीं बोल पाता,’’ औरतों को उसकी यह बात जंचती.


एक दिन पंडित जी ने उसे रास्ते में रोक कर डांटा,‘‘क्या उल्टा-सीधा बकती रहती हो? राम-सीता को आड़े मत लाओ. चुनाव में खड़ी क्या हो गई, धर्म की टांगें तोड़ने लगी!’’

वह भी बरस पड़ी,‘‘काए पंडित जी, अपनी पंडिताइन को तो सात ताले में घुसा के रखे हो और हम पे रौब गांठत हो. मरद जात जो ठहरे.’’

और पंडित जी मुंह बाए देखते रह गए.

चुनाववाले दिन वह बड़ी उत्तेजित थी. उसने हलकू को अपने आदमियों से बात करते सुन लिया कि उसकी बैरन (चुनावी प्रतिद्वंद्वी) वोट डालने के समय लाठियां चलवाने वाली है. कुसुमा यह सुनकर शेरनी की तरह
गुर्रा उठी. दहाड़ पड़ी,‘‘हरामज़ादी अपने आपको समझती क्या है? चीर के न धर दूं ऊको, बड़ी आई लाठी चलवाने वाली.’’


हलकू ने उसे डांट दिया,‘‘चुप रह बक-बक करती रहती है, जानती न तानती, चली है तलवार भांजने.’’

हलकू का डांटना उसे बुरा लगा था. एक पल को संदेह भी जागा, कहीं बैरन से नज़र तो नहीं लड़ा बैठा हलकू? उसकी शंका निर्मूल थी, निर्मूल निकली. बैरन के आदमियों ने ‘बूथ कैप्चरिंग’ का प्रयास किया. जो हलकू और बिसाहू की नाकेबंदी के कारण सफल नहीं हो सकी. ‘बूथ कैप्चरिंग’ शब्द इससे पहले कुसुमा ने कभी नहीं सुना था. हां, अब उसे यह अच्छा लगने लगा है, क्योंकि उसकी ज़ुबान पर जल्दी चढ़ गया. वरना प्रधानमंत्री का नाम सही-सही उच्चारने में उसे पूरे

तीन दिन लगे थे. यद्यपि ‘कैप्चरिंग’ को ‘कपैचरिंग’ बोलती रही.

कुसुमा जीत गई. पूरे मुहल्ले यहां तक कि चौधराईन ने भी बेसन के लड्डू खिलाकर उसे बधाई दी.

उसकी जेठानी ने कहा,‘‘तू तो इंदिरा गांधी बन गई.’’

जेठानी की बात सुन कर वह फूलकर दूनी हो गई. उसने तुरंत ही दुर्गा मैया से मन ही मन प्रार्थना की थी कि मैया, इंदिरा जी की आत्मा को शांति प्रदान करो और उनके हत्यारों को नरक मिले.

कुसुमा ने इंदिरा गांधी को कभी साक्षात् नहीं देखा था मगर दीवार पर चिपकाए जाने वाले पोस्टरों पर वह उन्हें अपने बचपन से जवानी तक देखती आई है. वह उन्हें औरत जात में दुर्गा मैया मानती है. जेठानी की बात सुनकर उसके मन में यह ललक भी जाग उठी कि उसे भी वैसा ही जम्फर सिलवाना चाहिए, जैसा वे पहनती थीं.


उसने अपनी बेटी का नाम इंदिरा रख रखा है. वह सोचा करती, उसकी बेटी यदि सचमुच की इंदिरा बन जाए तो? पर जब उसे ही लोगों ने ‘इंदिरा जैसी’ कहा तो वह हवा में उड़ने लगी. उस समय उसे क्या पता था कि प्रधानमंत्री या राजनीतिक पार्टी से भी बड़ा साबित होता है पारिवारिक दबाव. परिवार की स्वीकृति या मनाही पलभर में सपने तोड़ सकती है.

चुनाव जीतते ही वह अपने वादे पूरे करने को उत्सुक हो उठी. हलकू ने समझाया अभी तो ज़िला पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव होना बाक़ी है. हफ़्ते-दो हफ़्ते में ज़िला पंचायत का अध्यक्ष भी चुन लिया गया. कुसुमा को ऐन मौक़े पर पता चला कि अध्यक्ष पद के लिए चौधरी जी का साला खड़ा हुआ है. जीता भी वही. कहते हैं, शहर में बड़े-बड़े लोगों पर धाक है उसकी.

‘‘कुसुमा बाई ज़िन्दाबाद, कुसुमा बाई ज़िन्दाबाद!’’ के नारे सुनने के आदी कानों में आवाज़ सुनाई पड़ी,‘‘कुसुमा बाई, कुसुमा बाई, किवरियां खोलियो बाई!’’ ये चिन्ता की बऊ की आवाज़ थी. वह ज़ोर-ज़ोर से सांकल पीट रही थी. यह आज सुबह की बात है. कुसुमा  ने दरवाज़ा खोला. चिन्ता की बऊ धड़धड़ाती हुई अन्दर घुसी और कमरे के बीचो-बीच धम्म से बैठ गई. पसीना-पसीना हुई जा रही थी. कुसुमा कुछ पूछ ही नहीं पाई कि चिन्ता की बऊ आर्तनाद-सा करती हुई बोल पड़ी,‘‘गरहन लग गओ, कुसुमा बाई, गांव खों गरहन लग गओ!’’


‘‘का भओ? काए अम्मा...’’ कुसुमा ने पूछा.

‘‘आए-हाय, जैसे जानत नइयां!’’ बऊ ने हाथ नचाते हुए व्यंग किया.

‘‘रामधई अम्मा, दुर्गा सों! मोहे कछु नई पतो. का भओ?’’ कुसुमा का दिल तेज़ी से धड़कने लगा.

‘‘सच्ची?’’ बऊ को यक़ीन नहीं हो पा रहा था, फिर भी वह बोली,‘‘तुमाई बैरन की ननदी की लाश मिली है. बाड़े के पास. चिन्दी तक नईयां बदन पे. उते बहुतई हल्ला मचो है, इते तुमे खबरई नइयां. जे कैसी नेताईन बनी हो?’’


यह सुन कर सन्न रह गई कुसुमा बाई.

‘‘हे दुर्गा मैया, जो का हो गओ?’’ उसके मुंह से निकला.

‘‘अपने घरवाले से पूछियो, वो सोई उतई खड़ो है.’’ कहती हुई बऊ उठ खड़ी हुई. उसके पास अभी ‘टेम’ नहीं था बैठने का. गांवभर में ख़बरनवीसी का धंधा उसके दम से ही तो गरम रहता है.

बऊ ख़बर सुना कर चली गई. मगर कुसुमा का दिल उसी ऱफ्तार से धक-धक करता रहा. उसे कुछ नहीं सूझा तो वह बगल के घर की ओर दौड़ी. जेठानी के पास.

‘‘बाड़े से आ रईं?’’ जेठानी ने उसे देखते ही पूछा.

हे भगवान! जेठानी को भी पता है. सबको पता है, सिर्फ़ उसे ही पता नहीं है. कुसुमा को अपना आपा बहुत छोटा महसूस होने लगा.


‘‘नहीं!’’ वह अटकते हुए बोली,‘‘उतई जा रई हूं. सोची, तुमसे सोई पूछ लूं. चलने है?’’

‘‘घर उघारो परो है.... फिर मैं काए के लाने जाऊं? तुमे जाओ चाइए,’’ जेठानी ने चाहे जिस मन से कहा हो, पर कुसुमा को लगा कि जेठानी भी उसे बऊ की तरह ताना दे रही है, ‘‘नेताईन काए की हो!’’ यह कहा नहीं गया, फिर भी कुसुमा ने सुन लिया.

कुसुमा के पैर स्वत: ही बाड़े की ओर बढ़ लिए. घर से फर्लांगभर दूर है बाड़ा. रास्ते में एक और औरत उसके साथ हो ली. कुसुमा उसे नहीं पहचानती, पर वह कुसुमा को जानती है. नेता भले ही न पहचाने अपने मतदाताओं को, पर मतदाता अपने नेता को पहचानने से इनकार कैसे कर सकता है?

अच्छी-ख़ासी भीड़ दिखाई पड़ी. थानेदार और चार सिपाही भी खड़े नज़र आए. कुसुमा को देखकर लोग तनिक परे हट गए. उसे रास्ता दिया लाश तक पहुंचने का. कुसुमा ने देखा, लाश को एक साड़ी से ढांक दिया गया था. उसकी बैरन, बैरन का घरवाला और दो-चार अन्य रिश्तेदार रो-पीट रहे थे.


उसने सोचा कि इस दुख की घड़ी में कैसी लड़ाई? वह आगे बढ़ी और बैरन के कंधे पर हाथ रखा. बैरन ने उसे देखा तो बुक्का फाड़कर रोने लगी. बैरन के पति से कुसुमा की नज़र मिली तो वह सहम गई. वह कच्चा खा जाने वाली नज़रों से घूर रहा था.

कुसुमा को किसी ने बांह पकड़ कर खींचा. हलकू था यह. हलकू उसे भीड़ से बाहर निकाल लाया.
‘‘तू क्या करने आई है यहां?’’ ग़ुस्से के मारे हलकू का चेहरा तमतमा उठा.


मुंह से बोल नहीं फूट रहे थे उसके.

‘‘जा, घर जा! मर वहीं! जबलों मैं न आऊं, बाहर न निकलियो... दारी... करमजली... ’’ हलकू ने नीची आवाज़ में उसे धमकाते हुए आदेश दिया.

कुसुमा चकित रह गई. तभी बिसाहू भी आ गया. वह झुंझलाते हुए बोला,‘‘भौजी, घर जाओ. यहां तुम्हारा काम नहीं है.’’

सदमाग्रस्त कुसुमा उपेक्षित-सी लौट पड़ी. मढ़िया के पास चिन्ता की बऊ नज़र आई. कुसुमा उसे देखकर सिहर उठी, कहीं बऊ फिर न कहने लगे,‘‘नेताइन काए की बनी हो?’’

कुसुमा ने नज़र चुराकर निकल जाना चाहा पर, आज तक कभी ऐसा हुआ है कि कोई चिन्ता की बऊ से बच कर जा सका हो?


‘‘हो आईं?’’ बऊ ने दस हाथ दूर से ही हांक लगाई.

‘‘हां, बऊ!’’ कुसुमा ने डर से फौरन जवाब दिया कि कहीं बऊ फिर न चिल्ला पड़े.

‘‘क्या सोचा फेर?’’ बऊ तब तक नज़दीक आ गई.

‘‘काए के बारे में?’’

‘‘ये लो, ऊ माटी मिले हत्यारे के बारे में, और काए के बारे में,’’ बऊ ने मुंह बनाया.


‘‘पुलिस है न वहां,’’ कुसुमा ने अपनी अकल दौड़ाई.

‘‘पुलिस का करहे... नेता लोग जब तक न कहें, पुलिस कछु न करहे.’’

‘‘नई बऊ, ऐसा नई होता है.’’

‘‘हऔ, हमें न जताओ. पिछले साल सुहाने की बिटिया को....’’

‘‘हो बऊ, पता है,’’ कुसुमा ने जल्दी से बात काटी, ‘‘मैं भी कह देहों, काए न पकड़े जैहें नासपिटे हत्यारे.’’

‘‘हो, जे भई न बात!’’ बऊ को अब कहीं जा कर संतोष हुआ.

आश्वासन की पुडि़या असर कर गई. बऊ ने पीछा छोड़ दिया और कुसुमा घर चल दी.


घर पहुंचकर कुसुमा ने तय किया कि हलकू के आते ही वह हलकू के साथ थाने जाएगी और थानेदार से कहेगी कि बैरन की ननदी के हत्यारे को जल्दी से जल्दी पकड़े.

रात देर गए हलकू घर लौटा.

‘‘सुनियो तनक!’’ कुसुमा ने हलकू को अपनी दिली इच्छा से अवगत कराया.

‘‘दिमाग़ फिर गया है क्या?’’ हलकू गरजा,‘‘फालतू के लफड़ों में मत पड़. नेताइन बन गई तो क्या, आगे-आगे दौड़ेगी? जब चौधरी जी कहेंगे तब जाना थानेदार के पास अपनी नेतागिरी दिखाने. चल, सो जा चुपचाप!’’ हलकू ने बत्ती बुझा दी.

हलकू की झिड़की सुन कुसुमा का जी भभक उठा.

‘‘बड़े आए चौधरी जी, ऐसा था तो चौधराइन को चुनाव में क्यों नहीं कर दिया खड़ा?’’ वह बोल पड़ी।


‘‘उनई की किरपा से तो तू नेताइन बन पाई है.’’ कहता हुआ खड़ा हुआ हलकू,‘‘दारी... सोने भी नहीं देती है चैन से! ...और सुन ले, नेताइन तू भले बन गई है मगर जो भी करूंगा, मैं करूंगा, समझीं. तू मत उड़.’’

कुसुमा के जी की भभक शांत नहीं हुई. मैं क्यों नहीं कर सकती कुछ? मैं जाऊंगी कल थानेदार के पास. कुसुमा ने सोचा, यदि वह गई तो हलकू कभी माफ़ नहीं करेगा उसे. क्या पता घर से ही निकाल दे. वह अनिश्चितता से घिर गई. उसे अपनी ही कही बात का दम निकलता नज़र आया. अरे, राम की जगह सीता राजा होतीं तो क्या फरक पड़ता? सीता को कुछ भी चाहने का अधिकार ही कहां, सिवाय धरती में समाने के.

कुसुमा को कमरे का अंधेरा गीला-गीला-सा लगा. गीलापन कमरे में नहीं उसकी आंखों में उतर आया था. उसकी आंखें रोने लगीं, फिर भी जी की भभक शांत नहीं हुई. क्या फ़ायदा ऐसी नेतागिरी से?


कुसुमा ने फिर से सोचा. उसके जी में थोड़ा भरोसा जागा. हां, वह सुबह होते ही हलकू से साफ़-साफ़ कह देगी कि या तो उसे थाने जाने दे, या फिर नेतागिरी छोड़ने दे.

हां, यही ठीक रहेगा. आगे जो होगा देखा जाएगा. औरत ही औरत का साथ नहीं देगी, तो कौन देगा? मुझे अपने दिल से डर निकालना ही होगा, कुसुमा ने सोचा. यह सोचते ही उसके जी की भभक कम हो गई. खूंटी पर टंगी साड़ी को देख कर उसे लाश की याद हो आई. हलकू ने कैसे दुत्कारा था उसे, यह भी उसे याद आया... लेकिन वह जो सोच रही है, कर पाएगी? हां, उसे करना ही पड़ेगा... उसे करना ही चाहिए.


... और गीले अंधेरे में भी उसे रोशनी की चमक दिखाई देने लगी, ज़रा धुंधली ही सही.

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