कहानी: फ़ासले ऐसे भी होंगे...
‘‘जुबिन, हमारे वहां शिफ़्ट होने का क्या हुआ?’ उसने व्यग्रता से पूछा था.
‘बात चल रही है यार, समय लगता है...तुम तब तक दिल्ली में ही कोई काम क्यों नहीं ढूंढ़ लेतीं? तुम्हारा समय कट जाएगा.’
‘पर हमें वहां आना है जुबिन...बच्चे और मैं तुम्हारा साथ चाहते हैं.’
‘करता हूं जल्दी कुछ...ओके बाय बाय. मेरी कैब आ गई है, अब फ़ोन रखता हूं. अपना और बच्चों का ख़्याल रखना.’ इतना कहकर जल्दबाज़ी में फ़ोन काट दिया गया. वह हाथों में रिसीवर पकड़े ख़ाली आंखों से दीवार को ताकती खड़ी रह गई थी. आसमान में बादल उमड़-घुमड़ रहे थे और ऐसे ही बादल उसके मन में भी घुमड़ रहे थे. आठ साल...एक लंबा अरसा था कम से कम उसके लिए... बीच के एक-दो साल छोड़ दिए जाएं तो आठ साल हो चुके थे जुबिन को अमेरिका जाकर और इन आठ सालों में उसने हर दिन उसे याद किया होगा, मगर क्या जुबिन के लिए भी वह उतनी ही दिल अज़ीज़ थी? क्या उनके रिश्ते में सचमुच अभी भी उतना ही लगाव बाक़ी है, जितना शादी के पहले वे महसूस किया करते थे?
आज जुबिन से करीब डेढ़ हफ़्ते बाद बात हुई थी. वह भी तब, जब उसने वॉट्सऐप पर तीखा-सा संदेश भेजा था. उसकी इच्छा थी कुछ सुख-दुख की बातें करे, बताए उसे कि उसके जाने के बाद वह कितनी अकेली हो गई है. कितनी मुश्क़िल होती है उसे अकेले सब कुछ संभालने में, अब बच्चे भी बड़े होते जा रहे हैं. क्या इस साल वह उसे और बच्चों को अपने साथ ले जाने वाला है? पर सब कुछ मन में ही रह गया. दो मिनट से भी कम की बातचीत में उसने बस ऊपरी तौर पर हालचाल पूछे और ख़्याल रखने की हिदायत के साथ फ़ोन काट दिया. क्या पति-पत्नी के बीच की प्यारभरी बातचीत ऐसी ही होती है? क्या इतना भी नहीं पूछा जा सकता था कि मेरे बिना कैसे रहती हो तुम? क्या यह नहीं कहा जा सकता था कि तुम्हारी बहुत याद आती है...पर...
उसकी आंखें भर आई थीं. यह सब सुने तो उसे अरसा हो गया था. शादी के बाद बमुश्क़िल सालभर साथ रहे होंगे दोनों... उसके बाद तो बस चिर विरह ही आया था उसके हिस्से में. अक्सर सोचती थी कि जुबिन को अपना करियर, अपना काम, अपनी तऱक्क़ी इतनी प्यारी थी तो उसने शादी की ही क्यों उससे? वह तो अच्छी-ख़ासी पढ़-लिख रही थी...उसे याद आया शादी के कुछ दिन बाद उसने जुबिन से लाड़ जताते हुए पूछा था, आख़िर बताओ तो तुमने मुझसे शादी क्यों की? उम्मीद थी कि वह कोई रोमैंटिक-सी बात कहेगा, मगर उसने छूटते ही कहा,‘क्या करता यार, शादी न करता तो तुम जैसी कम्पेटिटर को रास्ते से कैसे हटाता? मुझे हराने की आदत है, हारने की नहीं मगर तुम थी कि कहीं जीतने ही नहीं दे रही थीं.’
‘वॉट नॉनसेंस...’ वह बौखलाई थी...जुबिन ठठाकर हंस पड़ा था,‘अरे, जस्ट किडिंग बाबा..आई लव यू सच्ची.’
मगर अब उसे लगता कि वह जस्ट किडिंग नहीं था. वह तो कड़वा सच था जो जुबिन के मुंह से अचानक बाहर आ गया था. वह सचमुच बहुत ही होशियार छात्रा थी...कम्प्यूटर साइंस में पोस्टग्रैजुएशन करने वाली गिनी-चुनी लड़कियों में से एक. पिताजी के तबादले के कारण जुबिन के शहर में और उसी के कॉलेज में आ धमकी थी. उसके आने से पहले जुबिन कॉलेज का टॉपर था, मगर उसने पहले सेमेस्टर में ही उसके रिकॉर्ड को तोड़ दिया था. 98 प्रतिशत हासिल करके वह सभी की नज़रों में चढ़ गई थी. उसे याद आया, जुबिन पहले साल उससे बहुत ही कटा-कटा रहता था. एमएससी के पहले साल कॉलेज में टॉप करने पर तो उसने उसे बधाई तक नहीं दी थी. उसे भी क्या फ़र्क़ पड़ता था? जुबिन जैसे कई उसके आगे-पीछे थे मगर उसका एक मात्र लक्ष्य था अमेरिका से पीएचडी करने के लिए कॉलेज की छात्रवृत्ति पाना और इसके लिए वह जी-तोड़ मेहनत कर रही थी.
फिर अचानक कॉलेज के एक कार्यक्रम को दोनों को साथ मिलकर आयोजित करने का ज़िम्मा सौंपा गया. इस बार जुबिन का रंग-ढंग पूरी तरह से बदला हुआ था. वह न केवल उससे खुलकर बातचीत करने लगा था, वरन उसके निकट रहने का भी प्रयास करता मालूम होता था. उसने भी इस दोस्ती के हाथ को थाम बढ़ाया...जुबिन भी उसी छात्रवृत्ति के लिए तैयारी कर रहा था अत: कार्यक्रम के बाद भी अक्सर दोनों मिलने लगे. साथ-साथ पढ़ने लगे, नोट्स साझा करने लगे...और ऐसे ही एक दिन उसके नोट्स में जुबिन का पत्र आया. उसके जीवन का पहला प्रेम पत्र, जिसे पढ़कर वह सचमुच अपने आपे में नहीं रही थी. उस दिन उसे लगा कि वह भी जुबिन को पसंद करती थी. इतने दिन तो पढ़ाई की लगन के चलते उसने कितनों के मौखिक प्रणय निवेदन ठुकरा दिए थे मगर इस तरह के इज़हार का यह पहला मौक़ा था. पता नहीं कैसा सम्मोहन था उस पत्र में कि वह बावरी-सी हो गई. सारे लक्ष्य धुंधला गए और याद रहा बस जुबिन और उसका प्रेम-पत्र...उसके अंदर के यौवन ने मानो अंगड़ाई ली थी और उसने प्रणय का उत्तर प्रणय से देना स्वीकार किया था.
कुछ ही दिनों में उसकी दुनिया बदल गई थी. जुबिन के प्रणय निवेदन को स्वीकारने के बाद उसका बहुत सारा व़क्तजुबिन के साथ बीतने लगा था. वह अक्सर कहता,‘अरे क्या करना है तुम्हें आगे पढ़कर, अमेरिका जाकर...मैं हूं न. हम शादी करेंगे और मैं तुम्हारा पूरा ख़्याल रखूंगा. किसी भी बात की कमी न होने दूंगा.’ कभी कहता,‘यार तुम लड़कियों को इतनी बढ़िया मौक़ा मिलता है-शादी करो और ऐश की ज़िंदगी जियो...ज़्यादा ही लगे तो किसी कॉलेज में पढ़ाने लगो... और तुम हो लोग फालतू के पचड़ों में पड़ जाती हो.’
उसकी दादी अक्सर कहा करती थीं,‘जब दिमाग़ पर शनि महाराज चढ़ते हैं तो मति मारी जाती है. सही-ग़लत कुछ समझ में नहीं आता.’ क्या ऐसा ही हुआ था उसके साथ उन दिनों? जैसे ब्रेनवॉश हो गया हो...जैसे किसी ने दिमाग़ में बसे उसके सारे सपनों को मिटाकर नई इबारत लिख डाली हो...कैसे दिनोंदिन जुबिन का नशा सिर चढ़कर बोलने लगा था. अमेरिका जाने के, आगे पढ़ने के उसके सारे ख़्वाब धुंधलाने लगे थे और आंखों में एक ही चमकदार सपना हिलोरें मारने लगा था-जुबिन की जीवनसाथी बनने का.
परीक्षा से पहले जुबिन ने उसे अपने घरवालों से मिलवाया. सुंदर, सुशिक्षित, ख़ानदानी लड़की को अपनाने में उन्हें भला कैसी हिचक होती? इसी तरह जुबिन और उसका परिवार भी उसके मां-पापा को पसंद आ गए थे. जुबिन के परिवार की सुदृढ़ आर्थिक पृष्ठभूमि और जुबिन की क़ाबिलियत को देखते हुए जुबिन के नौकरी में न होने की चिंता करने का कारण न था. उनके लिए एक और राहत की बात यह थी बेटी के दिमाग़ से आगे पढ़ने का भूत उतर गया था. अब वे उसकी शादी करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर सकते थे.
स्नातकोत्तर की परीक्षा के बाद दोनों विवाह बंधन में बंध गए. परीक्षा के नतीजों में इस बार टॉप पर जुबिन था, मगर उसे इसकी क्या परवाह होती...? उसे तो उसके इच्छित साथी यानी जुबिन का साथ मिल गया था. प्यार में पगा एक साल पलक झपकते बीत गया. जुबिन और वह, वह और जुबिन...मानो इसके अलावा आसपास कुछ था ही नहीं. इसी बीच जुबिन को पीएचडी के लिए छात्रवृत्ति मिली और यहां उसे अपनी कोख में पलते अंश के अस्तित्व का अहसास हुआ. जुबिन तो मानो ख़ुशी से पागल ही हो गया था. आख़िर दो-दो ख़ुशख़बरियां एक साथ उसकी झोली में आई थीं. सभी उस नन्हे मेहमान के क़दमों की शुभता का बखान करते न थकते थे.
वह ख़ुश थी, पर आशंकित भी थी. जुबिन को तीन महीने में जाना था और उसके बाद कम से कम छह महीने तो भारत आने की उम्मीद थी ही नहीं. कैसे कटेगा इतना लंबा अरसा? जुबिन के बिना तो एक दिन भी काटना मुश्क़िल था उसके लिए. उस पर नए मेहमान की ज़िम्मेदारी सब कुछ गड्डमड्ड हो गया था उसके जीवन में. कितनी बार सोचती काश जुबिन का मन बदल जाए और वह अमेरिका जाने का इरादा छोड़ दे, जैसे उसने जुबिन के लिए सब छोड़ दिया, भुला दिया... मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. जुबिन चला गया अपनी पढ़ाई पूरी करने और वह उसके अंश को कोख में लिए बिसूरती रही विरहा की रातों में. फिर मां का बुलावा आया कि जुबिन तो है नहीं, प्रसव तक मायके में ही रह लेगी और वह मायके आ गई.
उसके कमरे में सब कुछ वैसा ही था, जैसा वह छोड़ गई थी. अपनी पुस्तकों पर हाथ फेरते उसे बीते दिन बेतरह याद आने लगे...अपने कमरे में उसने दीवार पर मार्कर से लिख रखा था-आई कैन, आई विल.. शादी के समय सारे घर की पुताई हुई थी मगर जाने क्या सोचकर मां ने उसे लिखा रहने दिया था और उसके आसपास ऐसा टेक्सचर करवा दिया था कि वह सुन्दर दिखाई देने लगा था. उस इबारत पर हसरत से हाथ फेरते हुए एकबारगी उसके मन में आया था-क्या कुछ ग़लत हो गया है? दो बूंद आंसू पलकों की कोर पर आकर थम गए थे, पर तभी मां की बात याद आई,‘अब जो कुछ सोचना, अच्छा ही सोचना. मां की सोच बच्चे पर बड़ा असर डालती है.’ उसने मन से सारी शंका-कुशंकाओं को परे धकेल दिया था. सोच लिया था-निर्णय मेरा तो उसके परिणामों की ज़िम्मेदारी भी मेरी ही है.
नौ माह बीते और उसने एक स्वस्थ बच्ची को जन्म दिया. बच्ची के जन्म के बाद उसके जीवन का सूनापन भरने लगा था. उसकी तीमारदारी में दिन कैसे गुज़र जाता, पता ही नहीं चलता. जुबिन की भी ख़ुशी का पारावार न था. अभी कुछ महीने वह बच्ची को देख न सकेगा और तब तक उसे बिटिया की फ़ोटो और वीडियो से ही संतोष करना होगा, इसका उसे मलाल था. बिटिया का नाम जूही रखा गया. जुबिन और माही की बेटी जूही.
उसे याद आया, जूही के जन्म के छह माह बाद जुबिन दो सप्ताह के लिए भारत आया था. सारे दिन बस माही और जूही में व्यस्त रहता. शादी के बाद की शायद यही सुनहरी यादें थीं उसके खाते में जो उसे जुबिन से जोड़े रखे हुए थीं. इसके बाद लंबी दूरी क़ायम हो गई थी. पहले-पहले तो लगातार बातचीत होती थी, स्काइप भी कर लिया करता था जुबिन, पर धीरे-धीरे ‘रिसर्च का काम बढ़ गया है, अक्सर फ़ील्ड में रहता हूं.’ का जुमला लगातार दोहराया जाने लगा...कहीं पढ़ा था उसने कि दूरियों की भी आदत हो जाती है. क्या जुबिन को भी उससे दूर रहने की आदत हो गई थी?
ख़ैर, समय कहां ठहरता है सो यहां भी नहीं ठहरा. जुबिन वापस आया अपने सिर पर कामयाबी का ताज पहने...वहां की पढ़ाई कैसी है, कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं. कितना कुछ था उसके पास कहने के लिए, मगर वह लाड़-दुलार कहीं खो गया था, कुछ तो बदला-बदला सा था दोनों के बीच. माही को लगा शायद इतने दिनों की दूरी के चलते ऐसा महसूस हो रहा है. उसने भरसक कोशिश की उसके क़रीब रहने की, उसे भरपूर प्यार देने की.
रिसर्च के दौरान ही जुबिन को एक बड़ी कंपनी में नौकरी का प्रस्ताव मिला था और वह उसके बारे में गंभीर था, मगर वीज़ा में कुछ मुश्क़िलें थीं अत: जुबिन ने दिल्ली में ही काम करना शुरू कर दिया. माही और जूही भी उसके साथ दिल्ली आ बसे. ज़िंदगी पटरी पर आने लगी थी.
जूही स्कूल जाने लगी थी. माही चाहती थी कि वह भी कुछ काम शुरू करे, मगर जुबिन पहले परिवार पूर्ण करना चाहता था. जूही का एक भाई भी हो, जुबिन की इस इच्छा को भी माही ने स्वीकार किया. सालभर में उनके घर में फिर किलकारी गूंजी...जतिन का जन्म हुआ. जुबिन की कुंडली में शायद बच्चों के क़दमों से ही भाग्योदय लिखा था. जतिन तीन माह का होते-होते उसके पुराने प्रस्ताव को हरी झंडी मिल गई. वीज़ा मिलने के रास्ते खुल गए और जुबिन फिर सात समुंदर दूर उड़ने की तैयारी करने लगा. माही का दिल इस बार बुरी तरह से आशंकित था. दिल्ली जैसा शहर, वह अकेली दो बच्चों के साथ कैसे मैनेज करेगी?
‘अरे यार चिंता किस बात की है? ढेर से रुपए भेजता रहूंगा मैं...जेब में रुपया हो तो सारी दिक़्क़तें भाग जाती हैं और यूं भी घर में सर्वेंट्स है, ड्राइवर है...डोंट वरी.’
‘पर तुम तो नहीं हो जुबिन. तुमसे दूर रह-रहकर थक गई हूं मैं,’ उसकी आवाज़ रुआंसी हो गई थी.
‘अरे यार, बस कुछ माह या हद से हद एक साल. फिर तो मुझे परिवार को साथ रखने की अनुमति मिल जाएगी. बस चली आना उड़कर मेरे पास..’ जुबिन ने उसे अपने आगोश में समेटते हुए कहा था. उसने जुबिन के सीने में मुंह छिपा लिया था.
मगर कुछ माह या एक साल ख़त्म ही नहीं हुआ. माही के पास सुविधाएं थीं, रुपए थे मगर जिस प्यार की ख़ातिर
उसने अपना सब कुछ छोड़ दिया था, वही उसके जीवन से दूर होता जा रहा था.
आज जुबिन के व्यवहार से उसे बड़ा धक्का लगा था. अब कहता है, दिल्ली में नौकरी ढूंढ़ लूं. जब नौकरी करना चाहती थी तब इसे एक और बच्चा चाहिए था...इडियट. यह प्यार नहीं था, उसका इस्तेमाल किया जा रहा था और वह...पढ़ी-लिखी लड़की होने का दंभ भरती मूर्खों की तरह इस्तेमाल होती जा रही थी. जुबिन उसे अपनी इच्छा के मुताबिक़ नचाता जा रहा था और वह कठपुतली बनी नाचती जा रही थी. वह अपने जीवन में सुखी था और यहां वह बेकार ही परेशान हो रही थी उसकी याद में.
कभी-कभी उसके मन में ख़्याल आता,‘कहीं जुबिन के जीवन में उसके अलावा कोई और तो नहीं आ गया है? नहीं तो उसमें ऐसा परिवर्तन आने का कारण क्या है?’ जुबिन द्वारा सोशल मीडिया पर साझा किए जा रहे फ़ोटो, घटनाएं आदि भी उसे विचलित करती थीं मगर दूसरे ही क्षण वह उस ख़्याल को मन से झटक देती. यह सब सोचना भी उसके लिए असहनीय था. कभी-कभी वह अपने बारे में सोचती तो हैरत में पड़ जाती...? इतनी कमज़ोर तो वह कभी भी नहीं थी, क्या प्यार आदमी को इतना कमज़ोर बना देता है? ऐसा क्या हुआ है जो उसकी दुनया केवल जुबिन के इर्दगिर्द ही आकर सिमट गई है? जितना सोचती, उतना ही इस भंवर में उलझती जाती और निकलने कोई रास्ता नहीं दिखाई देता.
इसी उहापोह में एक और साल बीत गया. जुबिन प्रमोशन की कतार में था. व्यस्त से व्यस्ततम होता जा रहा था. ह़फ्ते में बमुश्क़िल दो बार बात होती. माही ने जतिन को स्कूल में दाख़िला दिला दिया था. अब उसके पास काफ़ी समय था...कुछ काम शुरू किया जा सकता है, इस पर सोच-विचार कर ही रही थी कि अवसर घर चला आया. सुहैल जो उसका कॉलेज मेट था, कम्प्यूटर ऐप्लिकेशन का एक स्टार्टअप शुरू करना चाहता था और उसके लिए माही की मदद चाहता था. माही पहले तो हिचकिचाई. उसे पढ़ाई छोड़े आठ साल हो चुके थे...क्या उससे हो पाएगा? मगर सुहैल को पूरा विश्वास था कि माही थोड़ी-सी तैयारी के बाद इस काम को सफलता से कर पाएगी.
ईश्वर का नाम लेकर माही ने वापस पढ़ना-लिखना शुरू किया. उनका लक्ष्य स्मार्ट टच तकनीक पर आधारित ऐसे उत्पाद विकसित करने का था, जिसका उपयोग लोग अपने घरों में सुरक्षा की दृष्टि से कर सकें. माही और सुहैल ने कुछ विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में तकनीक का अध्ययन करना शुरू किया. जैसे-जैसे दृष्टि स्पष्ट होती गई, माही का आत्मविश्वास वापस आने लगा. उसे लग रहा था मानो उसके जीवन में लंबी अंधेरी रात के बाद अब सूर्योदय हुआ है. कुछ ही समय में उसने जुबिन के पीछे पागल होती, भावुक माही को परदे के पीछे ठेल दिया था और अब सामने थी कॉलेज की पुरानी माही, कुछ करने के उत्साह से भरी, जिजीविषा से भरपूर...
उत्साह से भरकर उसने जुबिन को अपने नए काम के बारे में बताया. उसने छूटते ही कहा, ठीक है, करती रहो छोटे-मोटे काम, तुम्हारा मन लगा रहेगा और मैं भी यहां शांति से काम कर सकूंगा...बच्चों का ध्यान रखना मगर.
माही को बुरा लगा उसके इतने ठंडे जवाब पर, मगर उसने अब सब भूलकर आगे बढ़ने की ठान ली थी. अब माही का अधिकाधिक समय काम में ही बीतता था अत: उसने मां-पापा को अपने पास बुला लिया. उनके आने से उसके लिए निश्चिंत होकर अपने काम में ध्यान देना आसान हो गया.
उनकी मेहनत रंग लाई और उन्होंने अपना पहला सुरक्षा उत्पाद बनाया. एक बड़े समारोह में इसका प्रदर्शन रखा गया. इस उत्पाद को लोगों का अच्छा प्रतिसाद मिला. माही और सुहैल आगे कुछ सोचते, उससे पहले ही एक बड़ी कंपनी ने उनकी कंपनी में बड़ा निवेश करने का प्रस्ताव दिया. यह प्रस्ताव इतना बड़ा था कि जल्दी ही समाचारों की सुर्ख़ियों में छा गया और यहां-वहां से बधाई के दौर शुरू हो गए. माही और सुहैल की ख़ुशी की सीमा न थी.
उसी रात जुबिन का फ़ोन घनघनाया. माही को यह अपेक्षित था, मगर उसमें आज न तो वैसी व्यग्रता थी न ही वैसा उल्लास. उसे अंदाज़ा था जुबिन की प्रतिक्रिया का. उसने शांत आवाज़ में कहा,‘‘बोलो जुबिन. कैसे याद किया?’’
‘‘याद किया मतलब? अपनी पत्नी को याद नहीं करूंगा क्या? और हां, आज ख़बर मिली सुहैल की कंपनी की...बढ़िया है.’’
‘‘सुहैल की नहीं, मेरी और सुहैल की कंपनी की जुबिन...’’ उसने सुधार किया.
‘‘अरे, तुम इसमें मत उलझो अब, यूं भी मेरा प्रमोशन हो गया है और एक दो महीने में तुम लोगों के वीज़ा की प्रक्रिया चालू कर
दूंगा मैं...’’
‘‘माना कि तुम्हें हारने की आदत नहीं है, मगर इसके लिए मैं हारने की आदत डाल लूं, ये नहीं होगा. हर बार तुम नहीं जीतोगे जुबिन, इसबार मेरी बारी है,’’ माही का स्वर तीखा हो चला था.
‘‘क्या मतलब?’’ जुबिन अचकचाया था.
‘‘मतलब यह कि जब मुझे तुम्हारी बहुत ज़रूरत थी, तब तुम मेरे साथ नहीं थे जुबिन. मैं वहां आना चाहती थी, तुम्हारे साथ रहना चाहती थी... मगर अब मेरा मन बदल गया है.’’ माही ने स्पष्ट शब्दों में कहा.
‘‘क्या? होश में तो हो तुम?’’ जुबिन के स्वर में उग्रता थी.
‘‘हां जुबिन, होश आ गया है. अब इस शहर में मेरी अपनी पहचान है, अपना काम है, अपना अस्तित्व है...अब मैं अमेरिका नहीं आना चाहती. बार-बार अपनी पहचान खोना मेरे लिए मुमक़िन नहीं है.’’
‘‘और मेरे बारे में सोचा? मैं कैसे रहूंगा तुम्हारे और बच्चों के बिना?’’
‘‘वैसे ही, जैसे अब तक रहते आए हो और वैसे ही जैसे हम लोग इतने साल रहें...और फिर मन न लगे तो वापसी के रास्ते तो खुले ही हैं न जुबिन,’’ माही ने सर्द आवाज़ में कहा और फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया. दोनों बच्चों को कलेजे से सटाते हुए उसे आज बेहद राहत का एहसास हो रहा था.
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