कहानी: अपना-अपना रास्ता
बड़े जतन से संजोए सपनों के टूटने के निशां उसके गालों पर लुढ़के आंसुओं से ज़ाहिर हो रहे थे. जो कुछ देखा उससे दुखी थी, पर संयमित थी. हवा का एक झोंका आया, आंखें बंद हुईं और अतीत के कुछ पन्ने बड़ी तेज़ी से खुलने लगे...
‘‘ये मेरी ज़िंदगी है, मेरा चुनाव है. मैंने अपने लिए यह रास्ता चुना है तो आपको कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. यदि आप लोगों को मेरी वजह से इतनी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है तो मैं आप लोगों की ज़िंदगी से चली जाऊंगी,’’ अदिति अपने उन शब्दों को याद कर रही थी, जिसके बाद उसने अपने घरवालों से इस कदर मुंह मोड़ा कि पिछले तीन सालों से उनके पास नहीं गई. हालांकि मम्मी, पापा और अनुभूति के बारे में जानने की इच्छा हमेशा उसके मन में बनी रहती है. वह कई बार घर का नंबर डायल तो करती पर किसी के फ़ोन उठाने से पहले काट देती या दूसरी ओर की आवाज़ सुनकर फ़ोन रख देती.
‘‘देखो जी, अब अदिति ने एमकॉम भी पूरा कर लिया है, मैं कब से कह रही हूं कि उसके लिए लड़का देखो और तुम हो कि आंख कान मूंदे बैठे हो. उसके साथ की लड़कियों की कब की शादियां हो चुकी हैं.’’ मम्मी के इस घिसे पिटे डायलॉग को वह पिछले दो सालों से सुनते आ रही थी. शुरू शुरू में उसे ऐसी बातें सुनकर बहुत डर लगता था किंतु मम्मी की इन बातों के प्रति पापा की उदासीनता से बहुत सम्बल मिलता था.
शादी करके घर बसाने की बातें सुनकर ही अदिति के मन में सिहरन की एक लहर दौड़ जाती थी. वह शायद इसलिए भी था कि उसे कभी अपनी दूसरी हमउम्र लड़कियों की तरह लड़कों के प्रति आकर्षण का अनुभव ही नहीं होता था. उसे लड़कियों के साथ रहना अच्छा लगता था. जब लड़कियां लड़कों की बातें किया करती थीं तब वो बहुत बोरियत महसूस करती. उसे याद है, वह जब कोई दस बारह साल की थी तब पड़ोस की संगीता आंटी को सजते संवरते हुए देखने में कितना अच्छा लगता था. अपनी धुन में आईने के सामने खोई आंटी को वह अपलक निहारते रहती थी. एक बार उन्होंने पूछ भी लिया था,‘‘ये मुझे घूर घूर के क्या देख रही है?’’ ‘‘आप बहुत सुंदर लग रही हो,’’ कहकर वह वहां से भाग गई थी. उसके बाद भी वह आंटी को अक्सर छुप छुप कर देखा करती थी. आंटी उसे देखकर मुस्कुरा देतीं. कई बार उसका मन किया कि वह आंटी से कह दे कि मैं आपसे बहुत प्यार करती हूं, पर कभी कह नहीं पाई. शायद इस डर से कि संगीता आंटी मम्मी से कह न दें, क्योंकि उन दोनों की ख़ूब जमती थी. आज भी उस दिन को याद करके उदास हो जाती है जब उसे पता चला कि अंकल का ट्रांस्फ़र हो गया है, वे लोग यहां से जाने वाले हैं. उस दिन वह अकेले में जाकर ख़ूब रोई. पता नहीं क्यों उसे आंटी का जाना अच्छा नहीं लगा था.
स्कूल में सोनाली अदिति की बेस्ट फ्रेंड थी. उसका घर भी ऑफ़िसर्स क्वार्टर में था, उसके पापा अभिजीत वर्मा, अदिति के पापा के ही विभाग में थे. अदिति और सोनाली दोनों साथ ही पले बढ़े. अदिति शुरू से ही सोनाली का बहुत ध्यान रखती थी, सोनाली किसी और से बात करती तो उसे बहुत बुरा लगता. हाईस्कूल के बाद दोनों ने एक ही कॉलेज में दाखिला लिया. कॉलेज में सोनाली की ज़िंदगी में आया अमित. अब सोनाली की बातों का केंद्र अमित ही रहने लगा था. अदिति का आकर्षण सोनाली के प्रति और सोनाली का झुकाव अमित के प्रति बढ़ता ही जा रहा था. एक दिन सोनाली ने कहा कि वह अमित को चाहती है. अदिति ने उस समय तो कुछ नहीं कहा पर मन किया कि अमित का मुंह नोंच ले. शायद इसलिए कि वह सोनाली से प्यार करती थी. सोनाली की ज़िंदगी में अमित का आना उसे अपने अधिकार क्षेत्र में दखल सा महसूस हुआ. सोनाली जब भी अमित के बारे में बातें करती तो वह अनमने ढंग से हां, हूं कर देती. इस तरह दो साल बीत गए. इन दो सालों में जहां दो दिल और क़रीब आए, वहीं दो सहेलियां एक दूसरे से दूर होती चली गईं. व़क्त के साथ सोनाली के लिए उसके मन में जो भावनाएं थीं, वो कमज़ोर हो गईं.
उसके बाद पिछली दोनों घटनाओं को भूलाकर अदिति ने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगाया. हां, वह जब कभी इस बारे में सोचती तो भगवान को ज़रूर दोष देती कि उन्होंने उसे औरों जैसी क्यों नहीं बनाया? और इस बात के लिए चिंतित भी रहती कि उसकी ज़िंदगी किस दिशा में जाएगी? क्या उसे कभी प्यार मिल भी सकेगा? पर उसे कभी भी इन सवालों के जवाब नहीं मिले, इसलिए उसने इन सवालों के जवाब नियति पर छोड़ दिया.
एक बार फिर अदिति उस दिन की यादों मैं लौट आई. ‘‘दुनियाभर की ख़बर बांचने से बात नहीं बनने वाली है. मेरी तो कभी सुनते ही नहीं, अख़बार पढ़ लो तो रमेश से बात कर लेना. कल उसका फ़ोन आया था, वह कह रहा था कि उसके साले के भतीजे ने एमबीए किया है, अब एक बड़ी कंपनी में अच्छी पोस्ट पर है.’’ पापा की कोई प्रतिक्रिया न देख मम्मी तिलमिला उठीं,‘‘सुन भी रहे हो या मैं ऐसे ही हवा से बातें कर रही हूं? अनुभूति भी शादी लायक हो गई है और अभी तक अदिति की शादी का ही कोई अतापता नहीं है. अब और कितने दिन घर पर बिठाकर रखोगे? मेरी बहन की बेटी अंजलि को ही देखो, अदिति से तीन महीने छोटी ही है, जल्द ही वह मां बनने वाली है. मैं कुछ कहती हूं तो मुझे गंवार कहते हो.’’ अब तक मम्मी की बातों को अनसुनी करके अख़बार पढ़ने में तल्लीन पापा थोड़े खीझ से गए,‘‘हां, मुझे तो कोई फ़िक्र ही नहीं है अपनी बेटियों की. तुम्हें क्या लगता है, मैं हाथ पर हाथ धरे बैठा हूं. उसके एमकॉम करने के बाद से ही लड़का ढूंढ़ रहा हूं. कल मेरी भी बात रमेश से हुई थी. अगले रविवार देखने जा रहे हैं हम लोग.’’ पापा का जवाब सुनने के बाद मम्मी चुप हो गईं और ड्राइंग रूम से आ रहीं पापा की आवाज़ें धीमी हो गईं.
पापा की बात सुनने के बाद पूरे दिन उसके मन में क़शमक़श चलती रही. वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे? क्योंकि अब तक शादी कि बातें पढ़ाई के नाम पर दबा दी जाती थीं. पर अब तो वह सुरक्षाकवच भी टूट चुका था. पता ही नहीं चला कि कब वह इतनी बड़ी हो गई कि उसे डोली में बिठा कर ससुराल भेजने की बात पापा भी सोचने लगे हैं. उसने चाहा कि वह पापा से कह दे कि मुझे नहीं करनी है शादी. मुझे आगे और पढ़ना है, पर दिल के जज़्बात बयां करने में ज़ुबां ने साथ नहीं दिया. मन की भावनाएं आंखों से उमड़कर बाहर आईं और कपड़े के एक सूखे टुकड़े को भिगोकर शांत हो गईं. उसके बाद कई दिनों तक वह घर में होने वाली मम्मी पापा की बातें सुन कर मन ही मन घुटती रही.
मम्मी पापा के बीच होने वाली बातचीत से उसने यह जाना कि पापा रमेश मामा के बताए हुए लड़के को देख आए हैं. उन्हें सार्थक पसंद भी आया था. पूरी रात करवटें बदलती रही. अपनी बात कहने का कोई तरीक़ा नहीं सूझ रहा था, पर अब हक़ीक़त का सामना करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं रह गया था. यह सोचते सोचते हुए सो गई कि सुबह मम्मी से कह दूंगी कि मुझे शादी नहीं करनी है, पर इन्कार की कोई ऐसी ठोस वजह उसके पास नहीं थी जो मम्मी पापा समझ सकते या समझना चाहते. समझते तो भी शायद ही उसे स्वीकार कर पाते.
‘‘संगीता कहती भी थी कि अदिति थोड़ी अलग है. पर उसका इशारा इस तरफ़ था मैंने सपने में भी नहीं सोचा था,’’ अपने आप को संभालते हुए मम्मी ने कहा. ‘‘अगले हफ़्ते ही लड़के वाले आने वाले हैं. तेरे पापा उनसे क्या कहेंगे?’’ काफ़ी देर तक ज़मीन पर नज़रें गड़ाए सुनते रहने के बाद अदिति ने कहा, ‘‘पर मम्मी मैं क्या करूं? आपका कहना मानकर मैं अपने साथ तो ज़बरदस्ती कर सकती हूं, पर उसका क्या जिससे आप लोग मेरी शादी कराना चाहती हैं?’’ ‘‘तो अब हम क्या करें? तेरे बाद हमें अनुभूति की शादी करनी है, हमारी नहीं तो उसकी सोच. जब लोग पूछेंगे तब हम उनसे क्या कहेंगे कि हमारी बड़ी बेटी की शादी क्यों नहीं हो रही है?’’ फिर एक लंबी चुप्पी. ‘‘है जवाब इन बातों का तेरे पास?’’ गुस्से से तमतमाई मम्मी ने उसके बाद कई बातें कहीं जिनमें से कुछ बातें कमरे की दीवारों को हिला गईं और कुछ सिर्फ़ होंठों को हिलाने में ही समर्थ रहीं.
उस दिन के बाद उसे घर के लोगों का व्यवहार बदला बदला सा लगने लगा. पापा परेशान से रहने लगे. मम्मी के चेहरे पर नाराज़गी के भाव दिखने लगे. अनुभूति नहीं समझ पा रही थी कि मम्मी, पापा और दीदी को क्या हुआ है? घर के बोझिल माहौल में मानो अदिति का दम घुट रहा हो. अब उसका अधिकतर समय नेट स़िर्फंग करते हुए बीतने लगा. इसी दौरान ऑर्कुट पर उसकी मुलाकात स्नेहा से हुई. स्नेहा मैनेजमेंट प्रो़फेशनल थी, मुंबई में सेटल थी. चैटिंग से शुरू हुई उनकी दोस्ती गहरी होती गई. अब वे घंटों चैटिंग करती रहती थीं. धीरे धीरे अदिति ने महसूस किया कि संगीता आंटी और सोनाली के जाने के बाद से उसके दिल के किसी कोने में पैदा हुई खाली जगह स्नेहा की दोस्ती से भरने लगी है.
उस दिन सुबह सुबह मम्मी ने फिर सुनाना शुरू कर दिया,‘‘अब तो लोग दबी ज़ुबान इस सवाल भी पूछ रहे हैं कि जोशी जी की बेटी की शादी क्यों नहीं हो रही है? तुझे क्या पता हमें तेरी वजह से कितनों की बातें सुननी पड़ रही हैं.’’ मम्मी की इन बातों को सुनकर अदिति बिफ़र पड़ी,‘‘ये मेरी ज़िंदगी है, मेरा चुनाव है. मैंने अपने लिए यह रास्ता चुना है तो आपको कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. यदि आप लोगों को मेरी वजह से इतनी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है तो मैं आप लोगों की ज़िंदगी से चली जाऊंगी.’’ ‘‘ऐसा कर भी कर देती तो हम पर बड़ा एहसान होता,’’ मम्मी के ग़ुस्से का पारा सातवें आसमान पर पहुंच चुका था. मम्मी की बातें उसके मन को आघात पहुंचा गईं, पर जवाब देना उसने ठीक नहीं समझा.
दोपहर को अदिति ऑनलाइन आई ही थी, उसकी निगाह चैट लाइन पर पड़ी, स्नेहा भी ऑनलाइन थी. ‘‘हाई स्नेहा!’’, तुरंत ही रिप्लाई आई, ‘‘हाई अदिति! कहां हो पिछले दो दिनों से कोई ख़बर नहीं है?’’ ‘‘बस यहीं हूं, इलाहाबाद में.’’ ‘‘क्या चल रहा है आजकल?’’ ‘‘कुछ ख़ास नहीं, मन नहीं लग रहा है यहां.’’ अदिति ने इस तरह के सधे हुए शब्दों का प्रयोग किया, जिससे स्नेहा यह नहीं भांप पाई कि वह बेहद दुखी है. ‘‘तो मुंबई चली आओ.’’ स्नेहा के इस जवाब ने अदिति उत्साहित हो गई. ‘‘सच! पर मुंबई में करूंगी क्या? रहूंगी कहां?’’ ‘‘तुम इसकी फ़िक्र मुझ पर छोड़ दो.
तुम रहना मेरे साथ और रही बात करने की तो मेरी कंपनी में एकाउंटेंट की जगह खाली है यानी तुम्हारी नौकरी भी पक्की.’’ ‘‘ठीक है, मैं इस बारे में सोचती हूं. चलो बाय.’’ ‘‘बाय अदिति, टेक केयर.’’
स्नेहा से हुई बातचीत ने जैसे अदिति को घर के बोझिल हो चुके माहौल से छुटकारा पाने की नई राह दिखाई हो. अपनी ज़िंदगी अपने तरीक़ा से जीने की बरसों से दबी इच्छाएं बलवती हो गईं. हालांकि अब भी एक मोह घर से निकलने की उसकी इच्छाओं पर लगाम लगा रहा था. पर स्वयं के अस्तित्व को बचाए रखने की इच्छाएं उस मोह पर भारी पड़ने लगीं और अंतत: उसने उसी रात मुंबई रवाना होने का फ़ैसला कर लिया.
मुंबई में स्नेहा ने उसका बड़ी ही गर्मजोशी से स्वागत किया. स्नेहा से मिलकर घर से बिना बताए आने की अदिति की आत्मग्लानि थोड़ी कम हुई. स्नेहा ने उसकी ऐसी ख़ातिरदारी की जैसे वे बरसों की बिछड़ी हुई सहेलियां हों.
इंटरव्यू से पहले स्नेहा ने अदिति को सबकुछ अच्छे से समझा दिया था. वैसे भी अदिति ने एमकॉम प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण किया था, साथ ही अकाउंट्स में उसकी पकड़ अच्छी थी, सो उसे बड़ी आसानी से स्नेहा की कंपनी में एकाउंटेंट के पद पर रख लिया गया. शाम को स्नेहा और अदिति साथ ही ऑफ़िस से निकले. ऑफ़िस नरीमन प्वांइट में था वहां से उन्होंने टैक्सी ली और गेटवे ऑफ़ इंडिया आ गए. गेटवे के पास समुंदर की उन्मुक्त लहरें तटबंधों से टकराकर वापस समुंदर में विलीन हो रही थीं, जिन्हें देखकर उसे अपने घर की बहुत याद आ रही थी. घर की याद पहली नौकरी मिलने की ख़ुशी को फीकी कर गई. उसके बुझे हुए चेहरे को देखकर स्नेहा ने पूछ ही लिया,‘‘क्या हुआ? अब किस बात की चिंता है?’’ अपनी भावनाओं को संभालते हुए अदिति ने कहा,‘‘कुछ नहीं बस यूं ही घर की याद आ गई थी. नौकरी मिलने की ख़ुशी तो है पर अपनों से यह ख़ुशी शेयर न कर पाने का दुख भी है.’’ इसके बाद स्नेहा ने कुछ नहीं कहा बस, बड़े प्यार से अपनी हथेली उसकी हथेली पर रख कर हल्के से दबा दिया. अरब सागर की ओर से हवा का एक अनजान सा ठंडा झोंका आया और अदिति के मन से अपनों से बिछड़ने की स्मृति को उड़ा ले गया.
तीन साल पहले अरब सागर की लहरों के कोलाहल और जगमगाती रौशनी के बीच शुरू हुआ रिश्ता बीतने वाले हर पल के साथ प्रगाढ़ होता चला गया. भगवान से की जाने वाली शिकायतें ख़त्म हो चुकी थीं. अदिति को ज़िंदगी के अनजाने सफ़र की मंज़िल तो नहीं, पर स्नेहा के रूप में क़रीबी साथी ज़रूर मिल गया था. ख़ुद के औरों से अलग होने का दंश अब नहीं सालता था. उसे अब अपनी ज़िंदगी से कोई शिकायत नहीं थी, क्योंकि भले ही समाज से ऐसे रिश्तों को मान्यता न मिले पर बंद चारदीवारियों के बीच दम तोड़ रही उसकी इच्छाओं को अब जैसे खुला आसमान मिल गया था.
आज सुबह अख़बार की हेडिंग देखकर एकबाऱगी उसे यक़ीन नहीं हुआ कि वह जो कुछ पढ़ रही है, वह सच है! पर पूरी ख़बर पढ़ने के बाद उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. वो ख़बर थी दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा समलैंगिता के बारे में सुनाया गया निर्णय. उसका मन किया कि वह तुरंत जाकर स्नेहा को यह ख़ुबर सुनाए, पर दूसरे ही पल उसने सोचा क्यों न उसे सरप्राइज़ दिया जाए? उसने अख़बार को छुपा दिया और जाकर स्नेहा को प्यार से बाहों में भरते हुए कहा,‘‘चल उठ आज ऑफ़िस नहीं चलना है क्या?’’ नींद के खुमार में ही स्नेहा ने कहा,‘‘नहीं यार तू जा मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही है, मैं नहीं आऊंगी’’ ‘‘वैसे बुख़ार तो नहीं लग रहा है, मैं रुक जाऊं क्या?,’’ अदिति ने उसके माथे को छूते हुए पूछा. ‘‘नहीं, नहीं तू जा. मैं मैनेज कर लूंगी.’’
ऑफ़िस में भी सभी लोग उसी ख़बर पर चर्चा कर रहे थे. अधिकतर लोग समलैंगिकों को मिले इस अधिकार को मज़ाक के तौर पर ले रहे थे. आज ऑफ़िस में अदिति का मन नहीं लग रहा था. उसे स्नेहा को सरप्राइज़ जो देना था. इतनी बड़ी बात स्नेहा से शेयर किए बिना उससे नहीं रहा जा रहा था. वह जानती थी कि स्नेहा बहुत आलसी है, अख़बार उसने छुपा रखा है और टीवी पर न्यूज़ देखना उसकी आदत में है ही नहीं. उसे अभी तक इसका पता नहीं चला होगा. चार बजे के बाद ऑफ़िस में समय बिताना मुश्क़िल हो रहा था. उसने बॉस से पूछा और ऑफ़िस से निकल पड़ी. रास्ते में उसने एक बुके और एक ग्रीटिंग कार्ड लिया. बड़े प्यार से अपने जज़्बात को शब्दों के सांचे में ढाला. रास्ते भर यह सोचती रही कि जब वह स्नेहा से कहेगी,‘‘विल यू मैरी मी!’’ तो उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी? ज़रूर वह आश्चर्य चकित रह जाएगी. उस दृश्य की कल्पना करके उसके होंठों पर एक हल्की मुस्कान तैर गई.
आगामी जीवन के ख़्यालों में डूबी वो न जाने कब घर पहुंच गई. स्नेहा आराम कर रही होगी यह सोचकर बेल न बजाते हुए अपनी की से दरवाज़ा खोला. स्नेहा को चौंकाने के इरादे से पैरों की आहट किए बिना बेडरूम की तरफ़ बढ़ी. बेडरूम का दरवाज़ा ढकेलते ही जैसे उसे काठ मार गया. उसके उत्साह पर इस तरह तुषारापात हो जाएगा, ऐसा सपने में भी नहीं सोच सकती थी. जो कुछ देखा उसके बाद आंखों पर भरोसा करना आसान नहीं था, पर जो सामने था आंखों ने तो वही दिखाया. स्नेहा किसी और लड़की के साथ आपत्तिजनक अवस्था में... आंखों ने जो कुछ भी दिखाया उसे समझने की कोशिश किए बिना वह उल्टे पैर घर से बाहर निकल आई.
एक गेंद आकर उससे टकराई और वह यादों के भंवर से वापस गार्डन की भीड़ में आ गई. अपराधी की मुद्रा में पास खड़े बच्चे की तरफ़ गेंद उछालते समय चेहरे पर आई मुस्कान स्थिर हो गई. वह सोच रही थी ये सच है कि अपने लिए यह रास्ता उसने ही चुना और यह भी उतना ही सच है कि उसे इस बात का कोई पछतावा भी नहीं है, लेकिन जो बात मन को साल रही है वो ये है कि भले ही इन रिश्तों को समाज की मान्यता न मिले लेकिन ऐसे रिश्तों को नकारा भी तो नहीं जा सकता. क्या ऐसे रिश्तों को निभाने वालों में भी आम रिश्तों की तरह निष्ठा की भावना पनपेगी? क्या उनके समर्पित प्यार को कोई निष्ठावान साथी मिल सकेगा? कुछ सोचकर वह खड़ी हुई और अपने चुने रास्ते पर एक बार फिर चल पड़ी...
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