कहानी: गतांक से आगे
‘‘औरत कहीं की... औरत कहीं की... औरत कहीं की... टीवी के बिल्कुल शुरुआती दौर में देखे गए सास-बहू सीरियल में आए दिन होनेवाले घटनाक्रम की तरह ढें... ढें... तीन बार उस कहानी के शीर्षक ने मेरे दिलो-दिमाग़ पर दस्तक दी. औरत कहीं की... औरत कहीं की... औरत कहीं की...
क्या सचमुच स्थिति ऐसी ही थी? या बदलाव आया है. अपना अस्तित्व बरक़रार रखना या स्त्री होने के गर्व के साथ जीना तो दूर, अपनी पसंद का पहनना, रहना या खाना तक अपनी पसंद का न खा सकना जैसी प्रताड़ना से गुज़रती उस कहानी की नायिका देर तक मेरे दिमाग़ को ठकठका रही थी.
मुझे बचपन में पढ़ी चंदामामा की याद आ गई. उनमें अधिकतर कहानियां (जिनमें भरे-भरे गठीले बदन की ये लंबे घने बालोंवाली नायिकाएं, जिनके चेहरे पर विनम्रता, शालीनता व आत्मविश्वास मुझे तब भी दिखाई देता था) लम्बी होती थीं, जो अगले अंक में पढ़ने को मिलती थीं. बेसब्री से अगले अंक का इंतज़ार रहता था, जिनमें लिखा होता था, गतांक से आगे... मुझे लगता है कि मेरी कहानी भी गतांक के आगे ही शुरू होती है.
मैं यानी एक आम औरत, नए ज़माने की औरत... ऑफ़िस जाने को तैयार होती जा रही थी. बीच-बीच में ग्यारसी आंटी (अपनी मेड को मैं यही कहती थी) को निर्देश देती जा रही थी. यही वो समय होता था, जब वो सुबह-शाम के काम मुझसे पूछती जाती थीं. ‘‘खाने में आज कद्दू बना लेना ग्यारसी आंटी... बहुत दिनों से इच्छा हो रही थी. खट्टा-मीठावाला!’’
‘‘पर दीदी, कद्दू तो साहब नहीं खाएंगे ना...! और ना ही अथर्व बाबा... भिंडी बना लूंगी. साथ में पंचमेली दाल?’’
‘‘भिंडी भी बनाओ ना... किसने मना किया है?’’
‘‘फिर इत्ती सारी सब्ज़ी...?’’ वो बोली
‘‘तो... मैंने आंखें चौड़ी करके उसे बीच में ही टोक दिया... कद्दू तो बनेगा ही,’’ मैंने सख़्ती से कहा,‘‘और साथ में मूंग दाल.’’
‘‘हो...’’ कहती वो पलटीं और बड़बड़ाईं,‘‘हम तो जो आदमी को पसंद होता था, वही खा लेती थीं... ये आजकल की.’’
मैंने उसे इग्नोर करना ही बेहतर समझा. पुरानी मेड थी, मानो गार्जियन की जगह. मेट्रो में ऐसी मेड अब मिलती कहां हैं?
मैं भी कहां ऑफ़िस का सोचते-सोचते कद्दू-भिंडी में उलझ गई. पर ग्यारसी आंटी के आधे-अधूरे लफ़्ज़,‘‘ये आजकल की...’’ ने मेरे ऑफ़िस की यादों का छूटा कोना फिर से पकड़ लिया. महीनेभर से यही चल रहा है ऑफ़िस में. मेरा योग्य व सफल आर्किटेक्ट होना शायद किसी को हज़म नहीं हो रहा. ज़माना बदल गया है... औरतें कहां से कहां पहुंच गई हैं? चांद को छूना, उड़ना, आसमान मुट्ठी में कर लेना जैसी बातें तब बेमानी लगने लगती हैं, जब लड़के और लड़कियों के लिए, लिए गए एजुकेशन लोन की दरें देखती हूं. पर बदलाव यूं ही तो नहीं आने का. पहल किसी को तो करनी होगी. अब मैं ही क्यूं? की जगह मुझसे ही शुरू... ये सोच रखनी होगी.
तो ऑफ़िस में बात चांद पर तो नहीं, पर यूएस जाने की ज़रूर हो रही थी. मेरे अलावा सुधाकर भी बॉस की लिस्ट में थे. और ये तय था कि बॉस के साथ हम दोनों में से एक ही जाएगा. मेरी अधिक योग्यता, काम के प्रति पूरी निष्ठा, सुधाकर से ज़्यादा क्षमता, सर्वश्रेष्ठ प्रेज़ेंटेशन, व़क्त की पाबंदी और भी कई योग्यताओं पर सुधाकर की एक ही योग्यता (?) भारी पड़ती दिखाई दे रही थी. उसका पुरुष होना...!
औरतें पुरुषों की संप्रभुता को इतनी आसानी से कैसे और क्यों पचा लेती हैं, मैं आजतक नहीं जान पाई थी. पर ग्यारसी आंटी जैसी स्त्रियों का उसमें हाथ ज़रूर रहता होगा, ये मैं समझ गई थी. ग्यारसी आंटी के छोड़े गए वाक्य का दुमछल्ला यक़ीनन छोरियां ही थी! अरे भई आजकल की छोरियों का अपनी पसंद का रहना, पहनना-ओढ़ना, खाना क्या बड़ा गुनाह हो गया...?
इन्हीं विचारों में ग्यारसी आंटी के कद्दू-भिंडी को गड्ड-मड्ड करती मैं कब ऑफ़िस पहुंच गई, पता ही नहीं चला.
आज ऑफ़िस में पैर रखते ही दिल जोर से धड़क रहा था. मैं आत्मविश्वासी ज़रूर हूं, पर ये डर का दिल धड़कना नहीं था. एक बेचैनी थी. मुझे एक खटका लग रहा था कि आज के प्रेज़ेंटेशन के बादवाली मीटिंग में क्या होगा? ‘जो होगा अच्छा ही होगा.’ मैंने अपनी हमेशावाली सोच को सारी आशंकाओं व बेचैनी पर भारी होने दिया और अपने केबिन में दाख़िल हो गई. यूएस दौरे वाले प्रेज़ेंटेशन की मेरी पूरी तैयारी थी और मैं जानती थी मेरा प्रेज़ेंटेशन सुधाकर से बेहतर होगा. अपनी योग्यता मैं बॉस के बिना बोले उनकी आंखों में कई बार पढ़ चुकी थी. कई बार वे शब्दों से भी प्रशंसा करते थे. पर इस बार सुधाकर व मेरे बीच के चयन को लेकर एक दुविधा उनके व्यवहार में मैं स्पष्ट महसूस कर रही थी.
कहां चांद पर पहुंचे यार... कहां बदलाव आया है...? न घर में, न ऑफ़िस में... ओफ़्फ़ ओह... तुम ये सब नकारात्मक विचार... भागो यहां से... मुझे अपने काम पर कॉन्संट्रेट करने दो... और मेरे दृढ़ होते ही वे सचमुच भाग गए. एसी की उमस ने मुझे थोड़ा सुकून दिया ही था कि बॉस का बुलावा आ गया. मैं और सुधाकर लगभग साथ ही बॉस के केबिन में पहुंचे. हम दोनों को ही बैठने का इशारा करते हुए बॉस पहले मुझसे ही मुख़ातिब हुए. मुझे लगा भरी अदालत में जाने से पहले ही जज साहब अकेले में फैसला सुनानेवाले हैं.
सो... मिसेस कश्यप... रेडी फ़ॉर प्रेज़ेंटेशन...?
यस सर... मैंने तत्परता से जवाब दिया. लेकिन तुरंत अचकचा गई... हर बार तो सर रोशनी ही कहते हैं-आज अचानक मिसेस कश्यप? ‘‘सर प्लीज़, आप मुझे हमेशा की तरह मेरे नाम से ही पुकारें,’’ मैंने विनम्रता से मुस्करा कर कहा.
ओ.. येस... रोशनी. सो... आज अभी 11 बजे बाद तुम्हारे व सुधाकर के प्रेज़ेंटेशन के बाद ये तय हो जाएगा कि तुम दोनों में से कौन मेरे साथ यूएस जा रहा है. लेकिन रोशनी... आई थिंक तुम्हारा परिवार है... आई मीन-बेटा अभी छोटा है... तो तुम दो महीने के लिए... यू नो, वॉट आई मीन....!
‘मैं अच्छी तरह समझती हूं. आदमी कहीं के...!’ मैंने मन ही मन सोचा. मेरे अवचेतन दिमाग में वो शीर्षक औरत कहीं की... अभी भी घुसा बैठा था.
‘‘यस सर,’’ प्रत्यक्ष रूप से मैंने कहा,‘‘आई अंडरस्टैंड एवरी थिंग. मैं सब विचार कर चुकी हूं सर. यदि मैं जाती हूं तो मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं है. मेरा बेटा इतना छोटा नहीं है और मेरी मेड... शी इज जस्ट लाइक माय मदर-इन-लॉ (वो तो मुझे ट्रीट भी वैसे ही करती है, मैंने मन ही मन सोचा!) वो पूरी केयर करती है. ऐंड माय हज़्बंड... ही विल मैनेज एवरी थिंग, वैसे ही जैसे उनकी ऐब्सेंस में मैं करती हूं.’’
बात करने के साथ-साथ दिमाग में विचार भी तेज़ी से आ रहे थे. पति दो माह को जाए तो पत्नी सब मैनेज कर लेगी, लेकिन पत्नी दो माह को जाए तो पति नहीं कर पाएगा...? क्या शक़ है... या आदमी, आदमी को ही कमज़ोर व औरत को स्ट्रॉन्ग समझ रहा है? अरे हां... यही है... वो वॉव... ग्रेट...! ‘‘सो प्लीज डोंट वरी सर!’’ मैं पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी बात कह चुकी थी. कनखियों से सुधाकर को देखा, पर उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे. शायद पुरुष आसानी से अपने भाव छुपा लेते हैं, औरतें यही नहीं कर पातीं. पता नहीं कैसे. ‘मेन फ्रॉम मार्स, ऐंड वूमन फ्रॉम वीनस’ मेरे दिमा़ग में आ गई. हे भगवान! दिमा़ग में क्या-क्या आ जाता है. और कुछ लोग कहते हैं औरतों का दिमा़ग खाली होता है. बताओ भला...!
‘‘ओके’’ बॉस ने बारी-बारी से हम दोनों से हाथ मिलाया और बोले,‘‘15 मिनट में कॉन्फ़रंस हाल में मिलते हैं. बोर्ड यह तय करेगा कि आप दोनों में से मेरे साथ कौन जाएगा. ऑल द बेस्ट-बोथ ऑफ़ यू.’’
‘‘थैंक्यू सर!’’ सुधाकर व मैं दोनों साथ में बोले और केबिन से निकल गए.
ठीक 11 बजे पूरे बोर्ड के सामने हम दोनों ने अपना-अपना प्रेज़ेंटेशन दिया. दोनों को ही सराहना मिली. लेकिन जैसा कि हर प्रतियोगिता में होता है, प्रथम तो एक ही आता है. चाहे 5-10 नंबरों से हो या एक डेढ़ नंबर. उसी रिज़ल्ट का इंतज़ार था.
आज मुझे फिर वही चंदामामा वाली घरेलू, आत्मविश्वासी औरतों की कहानी याद आ गई. क्या हुआ होगा कॉन्फ़रंस हॉल में...? फिर किसका प्रेज़ेंटेशन बेहतर था... सुधाकर या रोशनी का...? बॉस के साथ कौन यूएस जाएगा...? क्या पुरुषों की संप्रभुता की जीत हुई...? पढ़िए इन सारे सवालों के जवाब अगले अंक में...!
हा... हा... हा... अरे नहीं...! आपको गतांक के आगे नहीं पढ़ना पड़ेगा.
मैं जब ऑफ़िस से बाहर निकली तो मेरी कार की चाबियां मेरी तर्जनी पर गोल-गोल हूला-हूप की तरह नाच रही थीं. गाड़ी में बैठने के लिए जैसे ही गेट खोला, एक हवाई जहाज़ शू... करके तेज़ी से मेरे सिर के ऊपर से गुज़र गया. आसमान बिल्कुल साफ़ था.
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