कहानी: दूसरा अध्याय

सहारा संस्था के वार्षिक समारोह के आयोजन की तैयारियां हो रही थीं. इस संस्था को जॉइन किये हुए मुझे ढाई साल ही हुए हैं, पर मेरी लगन और मेहनत देखकर मुझे कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया है. और जल्द ही मुझे ये ज़िम्मेदारी बख़ूबी निभाने के लिए पुरस्कृत भी किया जानेवाला है. इस अवसर पर मेरा बेटा मनीष भी आ रहा है. और तो और, समारोह के मुख्य अतिथि शहर के नामी वक़ील आत्मा शुक्ल जी होंगे, जो इस संस्था के ट्रस्ट के प्रेसिडेंट भी हैं. यानी मेरे लिए दोहरी ख़ुशी. मैंने तो हफ़्तेभर पहले से तैयारियां शुरू कर दी थी. 

साड़ी, मैचिंग ज्वेलरी और ब्यूटी ट्रीटमेंट भी. कभी-कभी ख़ुद ही शर्म भी आती कि पचपन साल की उम्र में यह सब क्या कर रही हूं? पर दिल था कि मानता ही नहीं था. लगता, मैंने अभी-अभी तो अपनी ज़िंदगी शुरू की है. इससे पहले तो समय कभी अनुकूल ही नहीं रहा मेरे लिए. तभी संस्था की उपाध्यक्ष नीलम मेरे कमरे में आईं. उन्हें सभी नीलम दी कहते हैं, मैं भी. नीलम दी ने कुछ समय पहले मेरे हॉस्टल में शिफ़्ट किया है. यूं तो हम बहुत अच्छे दोस्त बन गए थे, पर उनके साथ बैठ कर बात करने का कभी अवसर नहीं मिला. कमरे में आते ही उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और बधाइयों के साथ ढेर सारी शुभकामनाएं दीं.

‘‘जानती हो माया, तुम्हें देख कर लगता है हम पिछले जन्म की बहनें हैं. बहुत अपनापन लगता है,’’ नीलम दी ने कहा.

‘‘हां दी, मुझे भी ऐसा ही लगता है.’’

‘‘अच्छा, तुम इस समारोह के निमंत्रण कार्ड पर मुख्य अतिथि का नाम देख कर चौंक क्यों गई थीं, क्या तुम उन्हें जानती हो?’’

‘‘हां दी, उनका नाम देखते ही मुझे आज से तीन साल पहले की घटना याद आ गई, जब मैं उनके कमरे के बाहर एक बेंच पर बैठी अपनी बारी का इंतज़ार कर रही थी. जब मैं अंदर दाख़िल हुई तो उनके सामने अपनी बात रखने से झिझक रही थी, आख़िर इतना बड़ा फ़ैसला जो लेने जा रही थी.’’

नीलम दी जैसे मेरे बारे में और भी जानना चाहती थीं. उन्होंने कहा,‘‘कैसा फ़ैसला? पूरी बात बताओ माया, आख़िर क्या-क्या घटा है तुम्हारे साथ?’’

पुरानी बातें जहां से याद आईं, वहीं से मैं नीलम दीदी को सुनाने लगी,‘‘उन्होंने मुझे समझाया भी था,‘जब जीवन के पच्चीस साल बिता दिए, बच्चे सेटल हो गए तो अब बची हुई ज़िंदगी भी गुज़र जाएगी. सोच लो, बढ़ती उम्र में सहारे की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है. फिर अकेली महिला को ज़माने की दुश्वारियां भी झेलनी होती हैं.’ मैंने उनसे कहा,‘वक़ील साहब, दुश्वारियां तो मैंने परिवार में रहते हुए भी अकेले ही झेली हैं. उनसे क्या डरना?’ तब उन्होंने मुझे अगले दिन आने को कहा. रात में बिस्तर पर पड़े-पड़े कई पुरानी बातें याद आती रहीं. बगल में सोए रोहन को देखा, उम्र की रेखाएं ललाट और गालों पर झुर्रियां बन उमड़ आई थीं. 

सत्तावन से ऊपर होने को आए, पर क्या मजाल कि तेवर में कोई नरमी आई हो. वही शक्की मिजाज़, वही रूखापन. जीवन के पच्चीस साल साथ बिता देने के बाद भी हमारे बीच स्वभाव और अंदाज़ की विभिन्नताएं मिट नहीं पाई थी. सुबह के नौ बजे रोहन काम के सिलसिले में बाहर निकले और उनके निकल जाने के बाद मैं भी वक़ील साहब के द़फ्तर की ओर निकल पड़ी. वह मेरा ही इंतज़ार कर रहे थे. मुझे बैठने का इशारा करते हुए पूछा,‘तो तुम बुलंदशहर से हो, मैंने अपनी प्रैक्टिस की शुरुआत वहीं से की थी.’ मैंने कहा,‘जी, मैंने वहीं से पढ़ाई की और मास्टर्स के बाद मेरी शादी हो गई. विवाह के समय मेरे ससुराल वालों ने पिताजी पर अपनी जो सरल और सौम्य छवि बनाई थी, वह इतनी गहरी थी कि बाद के मेरे दु:ख-दर्द उनपर कोई असर नहीं डाल पाए. 

उन्हें अक्सर लगता कि मैं ज़्यादा पढ़ी-लिखी हूं अत: तर्क करती हूं. मुझमें सहनशक्ति या सामंजस्य बिठाने का सामर्थ्य नहीं है. बाद में मैं अपने मायके से पूरी तरह कट गई. विवाह के बाद हम बिलासपुर आ गए और एक छोटे-से फ़्लैट में रहने लगे. रोहन मुझे कहीं भी अकेले नहीं जाने देते. बहुत दिनों तक इसे मैं उनका पज़ेसिव होना समझती थी. पर नहीं, मैंने बाद में जाना कि मेरी ख़ूबसूरती के प्रति एक कि़स्म का डर था उनमें कि लोग उन्हें कमतर न समझें. एक दिन मैं उनके साथ क्लब गयी. मैंने ख़ूब अच्छा श्रृंगार किया था. मुझे अच्छे-अच्छे कॉमेंट्स मिलने लगे. इनके एक मित्र ने मज़ाक में कह दिया,‘अरे, एक कौवे को हंस का साथ मिल गया. भाभी तो बहुत सुन्दर हैं.’ उस दिन घर आकर इन्होंने मुझे वैसा मेकअप दोबारा करने से मना कर दिया. कई दिनों तक इनका मूड उखड़ा रहा. दो-तीन दिनों बाद छोटी ननद आईं. मैंने उनकी आवभगत में कोई कमी नही रखी. उनकी वापसी पर मेरी मां की दी हुई मेरी पसंदीदा साड़ी, जिसे मैंने उस दिन क्लब जाते समय पहना था, उन्होंने मेरी ननद को दे दी. मैंने इसका विरोध किया पर उनके कान पे जूं तक न रेंगी...’’ ये कहते-कहते मेरी आंखों से आंसू बहने लगे. नीलम दी ने पानी का गिलास मेरी ओर बढ़ाया.

मैं थोड़ी देर रुक गई. पर लगता था अंदर की कोई बड़ी ताक़त मेरा समर्थन कर रही थी. आज मैं भी सब कुछ बता कर अपना दर्द हल्का करना चाह रही थी. मैंने आगे बताना शुरू किया,‘‘जाने वह कौन सा पल था, जब तमाम विभिन्नताओं के बावजूद मैंने रोहन के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था. शारीरिक इच्छाओं का दमन कितना मुश्क़िल होता है, यह मैंने तब जाना जब गर्भवती हुई. बच्चे को पल-पल अपने गर्भ में बड़ा होता महसूस करने में बड़ी संतुष्टि होती. मातृत्व के एहसास ने तो जीवन के सब दु:ख-दर्द भर दिए थे. रोहन भी बच्चे को ख़ूब मानते. बच्चे के प्रति उनका वात्सल्य तो नज़र आता, पर मेरे प्रति वही बेरुख़ी... फिर हमारा तबादला भैरोगढ़ हो गया. वहीं मनीष का दाखिला एक कान्वेंट स्कूल में करवा दिया गया. बड़ा होता बच्चा अक्सर मुझसे पूछता,‘मां, मेरे दोस्तों की मम्मियां बहुत सजधज के आती हैं, तुम क्यों इतना सादा रहती हो?’ मैं उसे समझाती, ‘बेटा, मुझ पर मेकअप नहीं सूट करता.’ फिर भी रोहन से छिपकर कभी-कभी बेटे का दिल रखने के लिए रास्ते में लिपस्टिक वगैरह लगा लेती. मनीष की दिनचर्या के साथ तालमेल मिलाते हुए समय तेज़ी से बीतता गया. 

मैं मनीष को बच्चा समझती, सोचती वह पिता की हरकतों से नावाक़िफ़ है. पर नहीं, एक दिन उसने मुझसे पूछा,‘मां, तुम पापा की बातों का विरोध करती हो, पर मन ही मन. उन्हें जवाब क्यों नहीं देतीं? आख़िर तुम्हारा भी बराबर का अधिकार है घर पर, पापा पर, ख़ुद पर.’ मैं उसे समझाते हुए कहती,‘बेटा, घर की शांति बनाए रखने के लिए किसी एक को तो शांत होना ही होगा.’ बेटा कहता,‘मां, मौन होना एक बात है और जीवन के सभी रंगों का असमय बेरंग हो जाना कुछ और. तुम्हें भी तो लगता है कि पापा को शक करने की बीमारी ने उन्हें मनोरोगी बना दिया है. तुम अंदर ही अंदर खोखली होती जा रही हो और पापा इसे अपनी जीत मानते हैं.’ मेरा बेटा सचमुच अठारह साल का जवान हो गया था, इसे मैंने उस दिन जाना. मैंने उसे गले लगाते हुए कहा,‘तू फ़िक्रन कर मेरे बच्चे. अगले साल तुम आगे की पढ़ाई के लिए विदेश जा रहे हो. जब तक तुम अपने पैरों पर खड़े होगे... शायद तुम्हारी कमी पापा के स्वभाव को बदल कर मेरे क़रीब ला दे.’ इस बीच हमें ननद की बेटी की शादी में जाने का न्यौता मिला. रोहन ने प्रसन्न होकर कहा,‘वहां बन-संवरकर रहना, ऐसा उदासीन चेहरा मत बनाए रखना.’ 

मेरे मुंह से अनायास निकल पड़ा,‘उन्हें भी तो हमारे रिश्ते की असलियत पता चले. आख़िर उदासीन किसने बनाया मुझे? मैं तो अब भी आपके साथ जीवन के एक-एक पल का रस लेना चाहती हूं, पर आप ही जाने किस कॉम्प्लेक्स से घिरे हुए हैं?’ लगभग चिंघाड़ते हुए रोहन बोले,‘मेरे मुंह लगती हो, औकात ही क्या है तुम्हारी? मेरे टुकड़ों पर पलने वाली औरत!’ ‘औकात, टुकड़ों पर पलना. क्या पत्नी की यही हैसियत है? बस एक बार मनीष की नौकरी लग जाए, फिर देखना...’ ये कहकर मैं कमरे से बाहर चली आई. उस दिन से रोहन के प्रति जो वितृष्णा हुई, वह कभी ख़त्म नहीं हुई. ननद के यहां बारात के समय एक अच्छी-सी साड़ी पहन कर मैंने खुले बाल रखे और हल्का-फुल्का श्रृंगार भी किया. कई लोगों ने रोहन के सामने मेरी तारीफ़ की. लड़की की मां ने तो यहां तक कह दिया कि इतने घने लम्बे बाल आजकल कहां देखने को मिलते हैं? काश मेरी बेटी के भी ऐसे ही बाल होते. बड़ी अलग-सी ख़ूबसूरती पाई है तुमने. मैं मुस्कुरा दी. सब कुछ संपन्न होने पर हम लौट आए. शादी की थकान के कारण जल्दी नींद आ गयी.
सुबह मेरी आंखें देर से खुलीं. मेरी आदत है बेड पर से उठने के पहले मैं अपने बालों को बांध लेती हूं. जैसे ही कंधों पर हाथ फेरा पाया कि उनकी लंबाई तो आधी भी नहीं बची है. कमर तक लटकने वाले सुन्दर बाल काट दिए गए थे. मैं फफककर रो पड़ी. रोहन दूसरे कमरे में खिड़की से बाहर देख रहे थे. मैंने उनके पास जा कर उन्हें झंझोड़ते हुए कहा,‘क्यों काटे आपने मेरे बाल? यही एक जमा-पूंजी थी मेरी, वो भी आज स्वाहा हो गई...’  यह कहते-कहते मैं बेहोश हो गई. उस समय मेरा बेटा मेरे पास था. मुझे होश आया, फिर बहुत देर तक हम एक-दूसरे का हाथ थामे रोते रहे. ‘नीलम दी, उस अपमान को भूल पाना मेरे लिए नामुमक़िन है. 

मेरे बेटे के भी सब्र का बांध टूट चुका था. वो इस घटना की पुलिस में रिपोर्ट करना चाहता था, लेकिन मैंने उसे रोकते हुए कहा,‘घर की बातें बाहर क्यों उछालते हो? कम से कम तुम्हारे पिता तुम्हें तो चाहते हैं. एक बार तुम्हारा भविष्य सुरक्षित हो जाए ,फिर हम कुछ करेंगे.’ रोहन और मेरे बीच के हल्के-फुल्के संवाद अब और भी कम हो गए थे. मनीष का उच्च शिक्षा के लिए लंदन जाना तय हो गया था. उसकी मानसिक शांति के लिए मैं चाहती थी कि वह जल्द चला जाए. एक अच्छी बात इन दिनों यह रही कि उसने फ्री-टाइम में मुझे कम्प्यूटर का इस्तेमाल सिखा दिया था.  

‘‘नियत समय पर मनीष लंदन चला गया. घर का ख़ालीपन जैसे काटता रहता था. एक दिन दस बजे के क़रीब जैसे ही रोहन ऑफ़िस को निकले और मैंने दरवाज़ा बंद किया, दस्तक हुई. मुझे लगा उनका कुछ छूट गया होगा जिसे लेने आए होंगे. पर दरवाज़े पे कोई अजनबी खड़ा था. ‘मैं शीतांश शर्मा, आपके बगलवाले फ़्लैट में आया हूं. अभी हफ़्ताभर पहले. मुझे दूध लेने में बड़ी परेशानी होती है. दूधवाला सुबह आठ बजे के बाद आता है, जब मैं दफ़्तर चला जाता हूं. क्या आप यह पतीला रख लेंगी, वह यहीं दे दिया करेगा.’ ‘जी अच्छा,’ कहकर मैंने पतीला ले लिया. वह एक बजे वापस आ जाता. इस बीच मैं दूध गर्म भी कर देती. पतीला लेते-देते समय ही उसने बताया कि वह स्थानीय कॉलेज में व्याख्याता है, अभी शादी नहीं हुई है. 

उसने नियम बना लिया कि जब वह दूध का पतीला लेता, उसी समय दूसरे दिन के लिए दूसरा पतीला थमा देता, ताकि सुबह-सुबह मुझे नहीं उठाना पड़े. मुझे उसके साथ बात करना बड़ा अच्छा लगता. कुछ दिनों बाद तो मुझे एक बजने का जैसे इंतज़ार रहने लगा. फिर एक दिन मुझे घर की साफ़-सफ़ाई में कुछ देर हो गयी. जब मैं नहा कर निकली, कॉलबेल बजी. जल्दी मे मैंने तौलिए से बालों को लपेट लिया और दरवाज़ा खोला. सफ़ेद साड़ी मुझे देखते ही उसके मुंह से निकल पड़ा,‘माशा अल्लाह... क्या ख़ूबसूरती पाई है आपने!’ उस दिन एक अलग-सा भाव उसकी आंखों में दिखा. दूसरे दिन इतवार था. उस दिन शीतांश घर पर था इसलिए उसे दूध का बर्तन देने की ज़रूरत नहीं पड़ी. मेरा वह पूरा दिन बेचैनी में बीता. सोमवार की सुबह रोहन के जाते ही मैंने उसके फ़्लैट का दरवाज़ा खटखटाया. उसके दरवाज़ा खोलते ही मैं बोली,‘पतीला दे दीजिए, फिर मैं काम में लग जाऊंगी.’ उसने कहा,‘आजकल यह पतीला मुझे बहुत प्रिय हो गया है, क्योंकि इसमें आपके हाथों की ख़ुशबू समा जाती है.’ ‘अच्छा!’ मैंने भी शरारत से कहा. 

शीतांश का हंसना-बोलना, मेरी तारीफ़ करना मुझे बहुत अच्छा लगता था. मुझे महसूस होता कि मैं उम्र के पचासवें पड़ाव पर भी सुन्दर लगती हूं, किसी को भाती हूं. उसके ख़्याल मात्र से मैं रोमांचित हो जाती थी. अकेले में मुस्कुराना और खिली हुई सूरत. यह बदलाव रोहन से छिपा नहीं था. उनका आक्रोश जिसे मैं चुपचाप सहती आई थी, अब उसका जवाब देने लगी थी. एक दिन ऑफ़िस के लिए निकलने के बाद रोहन वापस लौट आया, शायद कुछ छूट गया था. यह वही समय था जब शीतांश पतीला पकड़ाकर मुझसे बात कर रहा था. उसकी किसी बात पर हम ज़ोर-से हंस रहे थे. हमें यूं बातें करते देख रोहन सकते में आ गया. मैंने शीतांश का परिचय करवाया. शीतांश ने कहा,‘मैं आपका पड़ोसी हूं. पिछले एक महीने से यहां रह रहा हूं.’ मेरी ओर इशारा करते हुए कहा,‘भाभीजी से पूछ कर अपनी गृहस्थी के लिए ज़रूरी सामान धीरे-धीरे ख़रीद रहा हूं. उन्हें दूध का पतीला देकर कम से कम एक चिंता से तो मैं मुक्त हो गया.’ मैं चाहती थी कि वह एक बार मेरी ओर देखे, ताकि इशारे से उसे चुप रहने को कहूं, पर रोहन के स्वभाव से अपरिचित उसने समय-समय पर मेरे द्वारा दी गई सभी मदद कह सुनाई. रोहन ने चुपचाप हामी भरी और माफ़ी मांगते हुए अंदर आ गए कि ऑफ़िस जाने में देर हो जाएगी. 

उनके पीछे-पीछे मैं भी अंदर आ गई. अंदर आते ही रोहन ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा,‘अच्छा तो यह प्रेम-प्रसंग महीनेभर से चल रहा है. इसलिए चेहरे की चमक बढ़ गयी है आपकी.’ मैंने जवाब दिया,‘पड़ोसी होने के नाते मैंने उसकी मदद की है. कितनी साफ़गोई थी उसके विचारों में, यह नहीं दिखा?’ ‘तो तुमने कभी इस बारे में बताया क्यों नही?’ ‘क्योंकि मैंने इसकी ज़रूरत नहीं समझी.’ इस पलटवार की अपेक्षा उन्हें नहीं थी. फिर तो जो तांडव नृत्य आरम्भ हुआ, पूछो मत, ग़ुस्से में उसने सारा सामान फेंकना शुरू कर दिया. क्या लैम्पशेड, क्या तकिया-कुशन, सभी को पटक डाला. और इससे मन नहीं भरा तो मुझपर थप्पड़ों की बौछार कर दी. मैंने बचाव की कोशिश की, लेकिन उसका रूप इतना उग्र था कि मैं कमज़ोर पड़ती गई. जब मेरी महरी काम पर आई तो उसने मुझे सहारा देकर उठाया. घर सहेजा. तन से बहुत कमज़ोर थी मैं, लेकिन मन अब बहुत कठोर हो गया था. जैसे ही थोड़ा उठने लायक हुई, बेटे को मेल किया. ‘बेटा, इतने दिनों तक स्वाभिमान को एक ताक पर रख कर मैंने पापा काहर ज़ुल्म सहा. पर अब और नहीं. उन्होंने मुझ पर हाथ उठा कर अपने को मेरी नज़र में बिलकुल गिरा दिया. मैंने तलाक़ लेने का फ़ैसला किया है.’

‘‘बेटे का जवाबी मेल आया,‘मां, तुम्हारे फ़ैसले का स्वागत करता हूं. तुम अपनी ज़िंदगी जीने के लिए स्वतंत्र हो. यह क़दम तो तुम्हें बहुत पहले लेना चाहिए था. पर मैं जानता हूं कि तुमने मेरी परवरिश की ख़ातिर इतना सब सहा है. अपना ख़्याल रखना और सारी जानकारी देते रहना.’ मनीष की बातों से बहुत बल मिला. मैंने तत्काल वक़ील साहब के पास जाने का फ़ैसला कर लिया. वक़ील साहब ने मेरी पूरी बात सुनकर कहा,‘तुम्हें जल्द तलाक़ मिल जाएगा, पर यह तो बताओ कि तुम जाओगी कहां? क्या करोगी?’ मैंने कहा,‘फ़िलहाल तो बचाए हुए पैसे से काम चलाऊंगी और कोई नौकरी भी ढूंढ़ लूंगी.’ वक़ील साहब ने कहा,‘मेरी एक संस्था है, जो महिलाओं के लिए काम करती है. मैं उसके ट्रस्ट का प्रेसिडेंट हूं. यह अंतर्राष्ट्रीय संस्था है. 

तुम चाहो तो इसे जॉइन कर सकती हो.’ मुझे तो मुंह मांगी मुराद मिल गई. फिर रोहन का घर छोड़कर मैं यहां आ गई. मैंने यहां काम सीखा और काम के अनुरूप ख़ुद को ढाल लिया. हॉस्टल में आप सबका साथ मिला. इधर मनीष ने भी लंदन में नौकरी जॉइन कर ली. वह अक्सर आता है...’’ मैं चुप हो गई. अब तक सांस रोके मेरी कहानी सुनती आई नीलम दी ने मुझे बांहों में भर लिया. उन्होंने कहा,‘‘मुझे तुम पर वाक़ई गर्व है, पचपन साल की उम्र में तलाक़ का निर्णय लेकर बची हुई ज़िंदगी अपने तरी़के से गुज़ारने का माद्दा भला कितनी कम महिलाओं में होता है? आख़िर देर से ही सही, पर तुम्हारा हुनर आयाम तो पा रहा है.’’

मैं संतुष्ट थी. जीवन का दूसरा अध्याय आनंदपूर्ण जो था.

कोई टिप्पणी नहीं:

'; (function() { var dsq = document.createElement('script'); dsq.type = 'text/javascript'; dsq.async = true; dsq.src = '//' + disqus_shortname + '.disqus.com/embed.js'; (document.getElementsByTagName('head')[0] || document.getElementsByTagName('body')[0]).appendChild(dsq); })();
Blogger द्वारा संचालित.